दीर्घायु और अपनी ज़िंदगी से संतुष्ट
जीवन कहानी
दीर्घायु और अपनी ज़िंदगी से संतुष्ट
म्युरीअल स्मिथ की ज़ुबानी
एक दिन पूरी सुबह प्रचार करने के बाद मैं दोपहर के खाने के लिए घर लौटी। हमेशा की तरह चाय बनाने के लिए मैं पानी गरम कर रही थी और आधे घंटे के लिए आराम करने की सोच ही रही थी कि अचानक सामने के दरवाज़े पर धड़-धड़ होने लगी। और खटखटानेवाला रुकने का नाम ही नहीं ले रहा था। दरवाज़े की तरफ बढ़ते हुए मैं सोचने लगी कि आखिर इस वक्त कौन हो सकता है। जैसे ही मैंने दरवाज़ा खोला मेरे सामने दो आदमी खड़े थे और उन्होंने बताया कि वे पुलिस अफसर हैं। उन्होंने कहा कि वे मेरे घर में यहोवा के साक्षियों के साहित्य की तलाश में आए हैं। उस वक्त, यहोवा के साक्षियों के संगठन पर पाबंदी लगी हुई थी।
मगर आस्ट्रेलिया में यहोवा के साक्षियों के संगठन पर पाबंदी क्यों लगायी गयी थी और मैं साक्षी कैसे बनी? यह दास्तान एक तोहफे से शुरू होती है जिसे मेरी माँ ने मुझे सन् 1910 में दिया था। उस वक्त मैं सिर्फ दस साल की थी।
मेरा परिवार उत्तर सिडनी के पास, क्रोज़्स नेस्ट उपनगर में लकड़ी के बने घर में रहता था। एक दिन जब मैं स्कूल से लौटी तो मैंने देखा कि मेरी माँ घर के दरवाज़े पर एक अजनबी से बात कर रही है। मैं जानना चाहती थी कि आखिर सूट पहना और किताबों से भरा बैग लिया यह आदमी कौन है। मगर मैंने झेंपते हुए इजाज़त माँगी और घर के अंदर चली गयी। लेकिन, कुछ मिनटों बाद मेरी माँ ने मुझे आवाज़ दी। वह बोली: “इस आदमी के पास बाइबल के बारे में कुछ दिलचस्प किताबें
हैं। अब क्योंकि तुम्हारा जन्मदिन बहुत पास है, तो मैं तुम्हे तोहफे में या तो एक नयी ड्रेस देना चाहूँगी या फिर ये किताबें। बोलो, तुम्हें क्या चाहिए?”मैं बोली: “माँ, मैं ये किताबें लेना पसंद करूँगी। शुक्रिया!”
इस तरह मुझे दस साल की उम्र में चार्ल्स टेज़ रसल की लिखी स्टडीज़ इन द स्क्रिपचर्स् के पहले तीन भाग मिल गए। मेरे घर आए उस आदमी ने माँ से कहा कि आपकी बेटी के लिए इन किताबों में लिखी बातों को समझना मुश्किल हो सकता है। इसलिए आपको उसे समझाना पड़ेगा। माँ ने कहा, ठीक है मैं उसे ज़रूर समझाऊँगी। लेकिन बड़े दुःख की बात है कि इस घटना के कुछ ही समय बाद मेरी माँ चल बसी। पिताजी ने मेरी, मेरे भाई और बहन की बहुत अच्छी देखभाल की। मगर मुझे कुछ ज़्यादा ज़िम्मेदारियाँ निभानी पड़ती थीं और शायद इनकी वजह से मैं मायूस हो जाती थी। मगर बहुत जल्द हम पर एक और कहर टूटनेवाला था।
सन 1914 को पहला विश्वयुद्ध शुरू हुआ और उसके एक साल बाद हमारे प्यारे पिता की मौत हो गयी। अब मैं और मेरे भाई-बहन यतीम हो गए थे। मेरे भाई और बहन को हमारे रिश्तेदारों के यहाँ रहने के लिए भेज दिया गया और मुझे एक कैथोलिक बोर्डिंग स्कूल में भर्ती कर दिया गया। कभी-कभी मुझे अकेलापन काटने को दौड़ता था। फिर भी, मैं शुक्रगुज़ार हूँ कि मुझे संगीत सीखने का, खासकर पियानो सीखने का शौक पूरा करने का मौका दिया गया था। साल गुज़रते गए और मैंने बोर्डिंग स्कूल से अपनी पढ़ाई खत्म की। सन् 1919 में मैंने रॉय स्मिथ से शादी की जो संगीत के साज़-सामान बेचते थे। सन् 1920 में हमें एक बच्चा हुआ और उसके बाद फिर से मैं रोज़मर्रा के कामों में पूरी तरह डूब गयी। मगर उन किताबों का क्या हुआ?
एक पड़ोसिन ने आध्यात्मिक सच्चाई सुनायी
इतने सालों तक ये “बाइबल किताबें” मेरे साथ ही रहीं। सच पूछिए तो मैंने उन किताबों को कभी पढ़ा ही नहीं था, फिर भी मेरा दिल कहता था कि उन किताबों में ज़रूर कोई खास संदेश है। फिर 1920 के दशक के आखिरी सालों में एक दिन हमारी एक पड़ोसिन, लिल बिमसन हमारे घर आयी। हम दोनों लिविंग रूम में बैठे चाय पी रहे थे।
लिल अचानक बोली, “ओह, तुम्हारे पास तो वो किताबें हैं!”
मुझे कुछ समझ में नहीं आया और मैंने पूछा: “कौन-सी किताबें?”
उसने बुककेस में रखी स्टडीज़ इन द स्क्रिपचर्स् किताबों की तरफ इशारा किया। लिल तो खुशी से झूम उठी, वह उसी दिन उन किताबों को अपने साथ ले गयी और उनको बड़ी दिलचस्पी के साथ पढ़ डाला। उसने जो कुछ पढ़ा उससे वह कितनी खुश थी, यह बात जल्द ही ज़ाहिर होने लगी। लिल ने यहोवा के साक्षियों से, जो कि उन दिनों बाइबल विद्यार्थियों के नाम से जाने जाते थे, कुछ और साहित्य हासिल किए। इतना ही नहीं, वह जो कुछ भी सीख रही थी उसके बारे में हमें बताने से खुद को रोक नहीं पायी। उसने जिन किताबों को हासिल किया उनमें द हार्प ऑफ गॉड भी थी और जल्द ही यह किताब मेरे घर पहुँच गयी। जब मैंने आखिरकार बाइबल समझानेवाली इस किताब को पढ़ने के लिए वक्त निकाला, तब से मैंने यहोवा की सेवा करना शुरू किया। और आखिर में मुझे उन बुनियादी सवालों के जवाब मिले जिनका जवाब मेरा चर्च मुझे नहीं दे पाया था।
मुझे इस बात की खुशी है कि रॉय भी बाइबल के संदेश में गहरी दिलचस्पी लेने लगा और हम दोनों बाइबल विद्यार्थी बनने के लिए उत्सुक थे। इससे पहले रॉय, फ्रिमेसन नाम के संगठन का एक सदस्य था। मगर अब हमारा परिवार एक-साथ मिलकर सच्ची उपासना करने लगा। हफ्ते में दो बार, कोई-न-कोई भाई आकर हमारे पूरे परिवार के साथ बाइबल अध्ययन करता था। जब हम बाइबल विद्यार्थियों की सभाओं में गए तो हमारा उत्साह और भी बढ़ा। ये सभाएँ, सिडनी में न्यूटाउन उपनगर के एक छोटे से किराए पर लिए हॉल में होती थीं। उस वक्त पूरे देश में 400 से भी कम साक्षी थे, इसलिए हमारे
ज़्यादातर भाइयों को सभाओं के लिए काफी दूर सफर करना पड़ता था।जहाँ तक हमारे परिवार की बात थी, हमें सभाओं में हाज़िर होने के लिए हर बार सिडनी बंदरगाह पार करके जाना पड़ता था। सिडनी बंदरगाह का पुल सन् 1932 में बनाया गया था, मगर उससे पहले तो इसे बोट में पार करना पड़ता था। यह सफर तय करने में बहुत वक्त और पैसा खर्च होता था, फिर भी हमारी पूरी कोशिश रहती थी कि यहोवा जो आध्यात्मिक भोजन दे रहा है, उसे लेने से हम कभी न चूकें। सच्चाई में खुद को मज़बूत करने के लिए हमने जो कोशिश की वह काफी मददगार साबित हुई, क्योंकि तब दूसरे विश्वयुद्ध की आग सुलग रही थी और निष्पक्षता के मसले का हमारे परिवार पर भी सीधा-सीधा असर पड़नेवाला था।
परीक्षाओं और आशीषों का दौर
मेरे और मेरे परिवार के लिए 1930 के दशक का शुरूआती समय खुशियों-भरा था। सन् 1930 में मैंने बपतिस्मा लिया और मैं सन् 1931 के उस यादगार अधिवेशन में मौजूद थी जिसमें हम सबने खड़े होकर शानदार नाम, यहोवा के साक्षी कबूल किया था। रॉय और मैंने उस नाम के मुताबिक काम करने की पूरी कोशिश की। इसलिए हम प्रचार करने के हर उस तरीके और अभियान में शरीक हुए जो उस समय संस्था ने इस्तेमाल करने का बढ़ावा दिया। मिसाल के लिए, सन् 1932 में हमने एक खास बुकलेट बाँटने के अभियान में भाग लिया। इसे हमें उन तमाम लोगों को बाँटना था जो सिडनी बंदरगाह पुल के उद्घाटन समारोह में शामिल होने आए थे। गाड़ियों पर लाउडस्पीकर लगाकर प्रचार करना हमारे लिए खास बात थी। हमें खुद अपनी कार पर लाउडस्पीकर लगाने का मौका मिला। इस उपकरण की मदद से भाई रदरफर्ड के दिए गए बाइबल पर आधारित भाषण, सिडनी की गली-गली में गूँजने लगे।
मगर वक्त ने फिर करवट बदली और हालात बद से बदतर होते चले गए। सन् 1932 के आते-आते, आस्ट्रेलिया पर महामंदी के काले बादल मँडराने लगे, इसलिए मैंने और रॉय ने अपने जीवन में सादगी लाने का फैसला किया। इसके लिए एक कदम जो हमने उठाया वो यह था कि हमने कलीसिया के पास घर लिया जिससे आने-जाने का खर्च काफी हद तक कम हो गया। मगर जब दूसरे विश्वयुद्ध के खौफ पूरी दुनिया को अपनी गिरफ्त में ले लिया, तब उसके सामने आर्थिक समस्याएँ तो कुछ नहीं थीं।
यीशु की आज्ञा के मुताबिक यहोवा के साक्षी संसार का भाग नहीं थे, इसलिए पूरी दुनिया में उन पर ज़ुल्म ढाए जाने लगे और आस्ट्रेलिया में भी साक्षियों का यही हाल था। युद्ध के समय जो गुस्से की आग भड़की हुई थी उसकी वजह से कई लोगों ने हमें कम्युनिस्ट करार दिया। इन विरोधियों ने यहोवा के साक्षियों पर यह झूठा इलज़ाम लगाया कि वे आस्ट्रेलिया में अपने चार रेडियो स्टेशन से जापानी सेना को संदेश भेजते हैं।
जिन जवान भाइयों को सेना में भर्ती होने का बुलावा दिया गया उन पर समझौता करने के लिए बहुत दबाव डाला गया। मुझे खुशी है कि मेरे तीनों बेटों ने अपने विश्वास से समझौता नहीं किया और वे निष्पक्ष बने रहे। हमारे सबसे बड़े बेटे, रिचर्ड को 18 महीने की जेल की सज़ा सुनायी गयी। हमारा दूसरा बेटा, केविन अपना नाम उन लोगों में लिखवाने में कामयाब हो सका जो धार्मिक कारणों से युद्ध में हिस्सा नहीं लेते इसलिए उसे जेल नहीं जाना पड़ा। मगर दुःख की बात है कि जब हमारा सबसे छोटा बेटा स्टूअर्ट, निष्पक्षता के मामले को निपटाने के लिए अदालत में अपनी सफाई देने जा रहा था तब उसकी मोटर-साइकिल दुर्घटना में मौत हो गयी। इस हादसे से हम टूटकर रह गए। फिर भी राज्य पर और यहोवा के पुनरुत्थान के वादे पर ध्यान लगाने से हमें धीरज धरने में मदद मिली।
सबसे कीमती चीज़ उनके हाथ नहीं लगी
जनवरी 1914 में, आस्ट्रेलिया में यहोवा के साक्षियों पर पाबंदी लगा दी गयी। मगर यीशु के प्रेरितों की तरह, मैंने और रॉय ने इंसान के हुक्म से बढ़कर परमेश्वर का हुक्म माना। हम करीब ढाई साल तक गुप्त रूप से परमेश्वर का काम करते रहे। इसी दौरान सादे कपड़ों में वे दो पुलिसवाले मेरे घर आए जिनके बारे में मैंने शुरू में ज़िक्र किया था। लेकिन उसके बाद क्या हुआ?
मैंने उन्हें अंदर बुलाया। अंदर आने पर मैंने उनसे इजाज़त माँगी, “अगर तलाशी से पहले मैं अपनी चाय खत्म कर लूँ तो आप लोगों को एतराज़ तो नहीं होगा?” हैरत की बात थी कि वे मान गए। मैं रसोई में गयी और यहोवा से प्रार्थना करने लगी और ठंडे दिमाग से सोचने लगी कि मुझे क्या करना चाहिए। जब मैं वापस आयी तो एक पुलिसवाला हमारे अध्ययन करनेवाले कमरे में घुसा। उसने जिस-जिस चीज़ पर भी प्रहरीदुर्ग का चिन्ह देखा वह सब ले लिया। यहाँ तक कि उसने मेरे प्रचारवाले बैग से सारी किताबें और मेरी बाइबल भी ज़ब्त कर ली।
उसने पूछा: “आपके पास बस इतना ही साहित्य है या और भी कहीं छिपा रखा है? हमें खबर मिली है कि आप हर हफ्ते इस
सड़क की छोर पर एक हॉल में सभाओं के लिए जाती हो और अपने साथ बहुत सारे साहित्य भी वहाँ ले जाती हो।”मैंने जवाब दिया, “आपने बिलकुल सही कहा, मगर फिलहाल वहाँ साहित्य नहीं हैं।”
उसने कहा, “हमें पता है मिसिज स्मिथ। हम यह भी जानते हैं कि पूरे ज़िले में आपके लोग अपने-अपने घरों में साहित्य छिपाकर रखते हैं।”
हमारे बेटे के सोने के कमरे में उन्हें फ्रीडम ऑर रोमनिज़म नाम की बुकलेट से भरे पाँच डिब्बे मिले।
उसने पूछा “गराज में तो कुछ नहीं छिपाया ना?”
मैंने कहा, “नहीं, वहाँ कुछ नहीं है।”
उसके बाद उसने हमारे खाने के कमरे में रखी अलमारी खोली। वहाँ उसे कुछ खाली फॉर्म मिले जो कलीसिया की रिपोर्ट भरने के लिए इस्तेमाल किए जाते थे। उसने उनको लिया और उसके बाद वह गराज की तलाशी लेने की ज़बरदस्ती करने लगा।
मैंने कहा, “ठीक है, इधर से आइए।”
और वे दोनों सिपाही मेरे पीछे-पीछे गराज तक आए और उसकी तलाशी ली। उसके बाद वे चले गए।
पुलिसवालों ने उन पाँच डिब्बों को ज़ब्त करके सोचा होगा कि उनके हाथ सबसे कीमती चीज़ लगी है! मगर वे सबसे कीमती चीज़ तो पीछे ही छोड़ गए। दरअसल मैं उन दिनों कलीसिया में सेक्रेटरी की हैसियत से काम करती थी और मेरे घर में कलीसिया के प्रचारकों के नामों की सूचियाँ थीं और दूसरी ज़रूरी जानकारी भी थी। शुक्र है कि भाइयों ने हमें पहले ही आगाह कर दिया था कि किसी भी वक्त हमारी घर की तलाशी ली जा सकती है, इसलिए हरदम तैयार रहें। इसलिए मैंने इन कागज़ातों को बड़ी एहतियात से छिपा दिया था। मैंने उनको लिफाफों में बंद करके चाय, चीनी और आटे के डिब्बों के नीचे रख दिया था। मैंने कुछ कागज़ात, गराज के पास चिड़ियों के एक पिंजरे में भी छिपा दिए थे। इसलिए पुलिसवाले को जिस जानकारी की तलाश थी, वे उसी के सामने से गुज़रे मगर उन्हें पता ही नहीं चला।
पूरे समय की सेवा शुरू करना
सन् 1947 तक हमारे बच्चों ने अपना-अपना घर बसा लिया था। तब मैंने और रॉय ने सोचा कि अब हम पूरे समय की सेवा शुरू कर सकते हैं। उस वक्त दक्षिण आस्ट्रेलिया के क्षेत्र में प्रचारकों की ज़रूरत थी, इसलिए हमने अपना घर बेच दिया और एक ट्रेलर खरीदा। उसका नाम हमने मिज़पा रखा जिसका मतलब है “प्रहरीदुर्ग।” इस तरह की खानाबदोश ज़िंदगी जीने से हम दूर-दराज़ के इलाकों में भी जाकर प्रचार कर सके। अकसर हम ऐसे देहाती इलाकों में प्रचार करते, जिन्हें किसी कलीसिया को नहीं सौंपा गया था। उस वक्त की मेरे पास कई मीठी यादें हैं। मेरी एक बाइबल विद्यार्थी, एक जवान स्त्री थी जिसका नाम बेवर्ली था। बपतिस्मा का कदम उठाने से पहले वह उस इलाके को छोड़ कहीं और चली गयी। ज़रा अंदाज़ा लगाइए कि मुझे कितनी खुशी हुई होगी जब कई साल बाद एक अधिवेशन में एक बहन मेरे पास आकर बताती है कि वह बेवर्ली है! इतने सालों बाद उससे मिलकर और यह देखकर कि वह अपने पति और बच्चों के साथ यहोवा की सेवा कर रही है, मेरा दिल खुशी से उमड़ पड़ा।
मुझे सन् 1979 में पायनियर सेवा स्कूल में हाज़िर होने का सुनहरा मौका मिला। उस स्कूल में ज़ोर दी गयी एक बात यह थी कि पायनियर सेवा में लगे रहने के लिए निजी अध्ययन की एक अच्छी समय-सारणी होना ज़रूरी है। मैंने पाया कि यह बात सोलह आने सच है। अध्ययन, सभाएँ और प्रचार का काम, यही मेरी पूरी ज़िंदगी रही है। मैं खुद को धन्य मानती हूँ कि मैं 50 से भी ज़्यादा साल रेग्युलर पायनियर के तौर पर परमेश्वर की सेवा कर पायी।
बिगड़ती सेहत का सामना करना
पिछले कुछ दशकों में मुझे कुछ खास चुनौतियों का सामना करना पड़ा है। सन् 1962 में पता चला कि मुझे ग्लाकोमा है। उस वक्त इस बीमारी का अच्छा इलाज मौजूद नहीं था और मेरी
नज़र तेज़ी से कमज़ोर होती गयी। रॉय की सेहत भी बिगड़ने लगी और सन् 1983 में उसे ज़बरदस्त मस्तिष्क आघात पहुँचा जिस वजह से उसके आधे शरीर को लकवा मार गया और वह अपनी बोलने की शक्ति खो बैठा। सन् 1986 में उसकी मौत हो गयी। उसने पूरे समय की सेवा के दौरान मेरी बहुत मदद की थी और मैं वाकई उसकी बहुत कमी महसूस करती हूँ।इतनी अड़चनों के बावजूद भी मैंने आध्यात्मिकता का एक अच्छा कार्यक्रम बनाए रखने की कोशिश की। मैंने एक मज़बूत कार खरीदी जो थोड़े देहाती इलाकों में सेवा करने के लिए ठीक हो और मैंने अपनी बेटी, जोइस की मदद से पायनियरिंग जारी रखी। मेरी नज़र धीरे-धीरे कमज़ोर होती गयी, और एक वक्त ऐसा आया जब मेरी एक आँख की रोशनी चली गयी। डॉक्टरों ने उसकी जगह एक काँच की आँख लगायी। फिर भी मैं एक मैग्निफाइंग ग्लास, बड़े-बड़े अक्षरों में छापे साहित्य और अपनी दूसरी आँख में जो थोड़ी-बहुत रोशनी बची है उनकी मदद से दिन में तीन से पाँच घंटे अध्ययन कर पाती थी।
अध्ययन करने का समय मेरे लिए हमेशा अनमोल रहा है। इसलिए आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि मुझे कितना धक्का लगा होगा जब एक दोपहर, अध्ययन करते वक्त अचानक मेरी आँखों के सामने घुप्प अंधेरा छा गया और मुझे कुछ भी नहीं दिख रहा था। ऐसा लगा मानो किसी ने बत्ती बंद कर दी हो। मेरी आँखों की रोशनी पूरी तरह चली गयी थी। मगर मैं अपना अध्ययन कैसे जारी रख पायी हूँ? हालाँकि मुझे अब कुछ कम सुनायी देता है, फिर भी मैं आध्यात्मिक रूप से मज़बूत बने रहने के लिए ऑडियो कैसेट और अपने परिवार की प्यार-भरी मदद पर निर्भर रहती हूँ।
अंत तक धीरज धरना
अब मेरी उम्र सौ पार कर गयी है और मेरी सेहत और भी खराब हो गयी है। इस वजह से मैं पहले जितनी सेवा नहीं कर पा रही हूँ। कभी-कभी मैं बिलकुल खोयी-खोयी महसूस करती हूँ। और क्योंकि अब मुझे कुछ भी दिखायी नहीं देता इसलिए कभी-कभी मैं सचमुच अपना रास्ता भटक जाती हूँ! मुझे दोबारा कुछ लोगों के साथ बाइबल अध्ययन शुरू करने में बड़ी खुशी होगी, मगर अभी जो मेरी सेहत है उसकी वजह से मैं अध्ययन करने की इच्छा रखनेवालों को ढूँढ़ने के लिए बाहर नहीं जा सकती। शुरू-शुरू में, मैं इस बात से बहुत मायूस हो गयी थी। मगर मैंने अपनी कमज़ोरियों को कबूल करना सीखा और मुझसे जो बन पड़ता था उसी में संतुष्ट रहना सीखा। ऐसा करना आसान नहीं था। फिर भी मैं कितनी खुश हूँ कि मैं हर महीने, हमारे महान परमेश्वर यहोवा के बारे में बात करने में कुछ वक्त बिता पाती हूँ, और उसकी रिपोर्ट डाल पाती हूँ। जब मुझे नर्सें, घर-घर सामान बेचनेवाले और मुझसे मिलने आए लोगों के साथ बाइबल के बारे में बात करने का मौका मिलता है, तो मैं समझदारी से उन्हें गवाही देने से नहीं चूकती।
अपने परिवार की चार पुश्तों को वफादारी से यहोवा की सेवा करते देखना मेरे लिए सबसे बड़ी आशीष है। इनमें से कुछ सदस्य ऐसे इलाकों में पायनियरिंग करने के लिए आगे बढ़े हैं जहाँ प्रचारकों की ज़्यादा ज़रूरत है। कुछ प्राचीन या सहायक सेवकों की हैसियत से और कुछ बेथेल में सेवा कर रहे हैं। यह सच है कि अपनी पीढ़ी के कई लोगों की तरह मैंने भी यह उम्मीद की थी कि इस संसार का अंत बहुत पहले आ जाएगा। मगर मैंने जो सत्तर साल यहोवा की सेवा की है, इस दौरान क्या ही ज़बरदस्त बढ़ोतरी हुई है! यह देखकर मुझे बहुत संतुष्टि मिलती है कि मैं दुनिया के सबसे महान काम में हिस्सा ले पायी।
मुझे देखने आनेवाली नर्सों का कहना है कि मैं अपने विश्वास की वजह से ही अब तक ज़िंदा हूँ। मैं भी यही मानती हूँ। यहोवा की सेवा में सरगर्म रहने से ही ज़िंदगी सबसे बढ़िया गुज़रती है। राजा दाऊद की तरह मैं भी कह सकती हूँ कि मैं दीर्घायु होकर अपनी ज़िंदगी से संतुष्ट हूँ।—1 इतिहास 29:28.
(जब यह लेख बनकर तैयार हो रहा था तब, अप्रैल 1,2002 को बहन म्युरीअल स्मिथ चल बसीं। उनकी उम्र 102 साल से एक महीने कम थी। वह वफादारी और धीरज दिखाने में वाकई एक बढ़िया मिसाल थीं।)
[पेज 24 पर तसवीरें]
जब मेरी उम्र करीब पाँच साल थी और 19 साल की उम्र में जब मेरी मुलाकात रॉय से हुई
[पेज 26 पर तसवीर]
हमारी कार और ट्रेलर जिसका नाम हमने मिज़पा रखा
[पेज 27 पर तसवीर]
सन् 1971 में अपने पति, रॉय के साथ