सुख-दुःख में साथ देनेवाले पड़ोसी कहाँ गए?
सुख-दुःख में साथ देनेवाले पड़ोसी कहाँ गए?
“आज के समाज में कोई किसी का पड़ोसी नहीं रहा।”—बॆनजमिन डिज़रेली, 19वीं सदी के अँग्रेज़ राजनेता।
क्यूबा के बुज़ुर्ग, जनता की भलाई करने के लिए एक अनोखा तरीका अपनाते हैं: पड़ोसियों की मदद के लिए समूह या जैसे उन्हें सर्क्यूलोस डी एब्वेलोस (दादा-दादी/नाना-नानी से बने समूह) नाम से बुलाया जाता है। सन् 1997 की एक रिपोर्ट के मुताबिक क्यूबा के करीब 20 प्रतिशत बुज़ुर्ग इस तरह के समूहों के सदस्य हैं। इन समूहों में वे दोस्त पाते हैं, उन्हें तसल्ली और हौसला-अफज़ाई मिलती है, साथ ही तंदुरुस्त ज़िंदगी जीने के लिए कारगर मदद भी मिलती है। विश्व-स्वास्थ्य (अँग्रेज़ी) पत्रिका बताती है: “आस-पड़ोस में जब भी फैमिली डॉक्टरों को टीके लगाने का अभियान चलाने में मदद की ज़रूरत पड़ती है, तो सर्क्यूलोस डी एब्वेलोस समूह, पूरी तरह उनकी मदद करने के लिए तैयार रहते हैं।”
अफसोस कि आज दुनिया के कई हिस्सों में दूसरों की परवाह करनेवाले पड़ोसियों की बहुत कमी है। मिसाल के लिए, इस दुःख-भरे हादसे पर गौर कीजिए जो वूल्फगैंग डर्क्स नाम के एक आदमी के साथ हुआ। वूल्फगैंग, पश्चिमी यूरोप के एक फ्लैट में रहता था। कुछ साल पहले, द कैनबैरा टाइम्स ने रिपोर्ट किया था कि उसी बिल्डिंग में रहनेवाले 17 परिवारों ने गौर किया कि वूल्फगैंग रोज़ की तरह कहीं नज़र नहीं आ रहा। “मगर किसी ने भी उसके दरवाज़े की घंटी बजाकर जानने की कोशिश नहीं की कि वह किस हाल में है।” आखिरकार, एक दिन जब मकान-मालिक उसके घर आया, तो उसने “देखा कि एक कंकाल टी.वी. के सामने बैठा है।” उस कंकाल की गोद में टी.वी. कार्यक्रम की एक सूची थी जिस पर दिसंबर 5,1993 की तारीख छपी थी। वूल्फगैंग को मरे पाँच साल हो चुके थे। इस हादसे से यह कड़वी सच्चाई सामने आती है कि पड़ोसियों को एक-दूसरे में ना तो कोई दिलचस्पी है और ना ही एक-दूसरे की कोई परवाह। तभी तो एक निबंध-लेखक ने द न्यू यॉर्क टाइम्स मैगज़ीन में कहा कि उसका पड़ोस भी दूसरे समुदायों की तरह, “अजनबियों का समुदाय बन गया था।” क्या यही बात आपके इलाके के बारे में भी कही जा सकती है?
यह सच है कि गाँवों में रहनेवाले कुछ समुदायों में पड़ोसियों के बीच सच्चा प्यार है और शहरों के कुछ समुदाय, अपने पड़ोसियों के लिए परवाह दिखाने की पूरी कोशिश कर रहे हैं। मगर फिर भी शहरों में रहनेवाले कई लोग अपने ही पड़ोस में खुद को अकेला और असुरक्षित महसूस करते हैं। अपने पड़ोसियों से जान-पहचान ना होने की वजह से उन्हें ऐसा लगता है कि वे चार-दीवारी में कैद हैं और गुमनामी की ज़िंदगी जी रहे हैं। मगर कैसे?
चार-दीवारी के पीछे गुमनाम चेहरे
हो सकता है कि हममें से ज़्यादातर लोगों के आस-पास पड़ोसी रहते हों। बगलवाले घर से आती टीवी की झिलमिलाती रोशनी, खिड़कियों पर आने-जानेवालों की परछाइयाँ, बत्तियों का जलना-बुझना, गाड़ियों के आने-जाने की घूँ-घूँ, गलियारे में कदमों की आहट, दरवाज़ा खोलते या बंद करते वक्त चाबियों के खनखनाने की आवाज़ ये सारी बातें यह दिखाती हैं कि हमारे ‘पड़ोस में कोई है।’ लेकिन करीब रहकर भी अगर लोग अपने ही घरों की चार-दीवारी में बंद रहें या ज़िंदगी की भाग-दौड़ की वजह से एक-दूसरे पर ध्यान ना दें, तो पड़ोसियों के बीच सही मायनों में जो प्यार और परवाह होनी चाहिए वह नहीं होगी। लोगों को शायद लगे कि पड़ोसियों के मामलों में दखल देने की ज़रूरत नहीं और उनके लिए हमारा कोई फर्ज़ नहीं बनता है। आस्ट्रेलिया का एक अखबार, हेरल्ड सन कबूल करता है: “ज़्यादा-से-ज़्यादा लोग अपने पड़ोसियों के लिए अजनबी बन चुके हैं, इसलिए वे पड़ोसी होने का फर्ज़ भी महसूस नहीं करते। आज समाज में गैर-मिलनसार लोगों को नज़रअंदाज़ करना या उन्हें अलग करना आसान हो गया है।”
दुनिया की इस हालत से कोई ताज्जुब नहीं होता। इस संसार में लोग “अपस्वार्थी” हैं यानी वे ज़िंदगी में सिर्फ अपने ही बारे में सोचते हैं और इसका बुरा अंजाम उनके आस-पड़ोस पर पड़ रहा है। (2 तीमुथियुस 3:2) इसका नतीजा यह हुआ है कि चारों तरफ लोगों के ऊपर अकेलेपन की भावना हावी होने लगी है और वे दूसरों से कटे-कटे रहने लगे हैं। कटे-कटे रहने का स्वभाव लोगों में शक की भावना पैदा करता है, खासकर जब पड़ोस में हर वक्त हिंसा और अपराध का खतरा मँडराता रहता हो। और शक की भावना बहुत जल्द इंसान को पत्थर-दिल बना देती है।
आपका अड़ोस-पड़ोस चाहे जैसा हो, मगर आप इस बात से सहमत होंगे कि अच्छे पड़ोसी समाज के लिए अनमोल देन हैं। जब लोग मिल-जुलकर एक ही मकसद को हासिल करने के लिए काम करते हैं, तो उन्हें काफी हद तक कामयाबी मिलती है। अच्छे पड़ोसी एक अनमोल देन भी साबित हो सकते हैं, मगर कैसे? इस पर अगले लेख में चर्चा की जाएगी।