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जहाँ हम मिशनरी बनकर गए वहीं बस गए

जहाँ हम मिशनरी बनकर गए वहीं बस गए

जीवन कहानी

जहाँ हम मिशनरी बनकर गए वहीं बस गए

डिक वॉलड्रन की ज़ुबानी

सन्‌ 1953 में सितंबर महीने के एक रविवार, दोपहर की बात है। हम आस्ट्रेलिया से दक्षिण-पश्‍चिम अफ्रीका (आज का नामीबिया) में नए-नए आए थे। और वहाँ आए हमें एक हफ्ता भी नहीं हुआ था कि हमने वहाँ की राजधानी, विन्टहुक में एक जन सभा चलाने का इंतज़ाम किया। लेकिन हम आस्ट्रेलिया से यहाँ इस अफ्रीकी देश में क्यों आए? दरअसल मैं, मेरी पत्नी और हमारे साथ तीन जवान मसीही बहनें यहाँ मिशनरी बनकर आए ताकि हम परमेश्‍वर के राज्य का सुसमाचार प्रचार कर सकें।—मत्ती 24:14.

 मेरे जीवन की कहानी, पृथ्वी के एक दूर-दराज़ देश, आस्ट्रेलिया में सन्‌ 1914 से शुरू होती है। वह एक ऐतिहासिक साल था। जब महामंदी छायी हुई थी तब मैं एक किशोर ही था। और घर का चूल्हा जलता रहे इसके लिए मुझे भी कुछ करना था। उस वक्‍त नौकरी के लाले पड़े हुए थे लेकिन क्योंकि आस्ट्रेलिया में बहुत-से जंगली खरगोश थे इसलिए मैंने उन्हें मारने का तरीका ढूँढ़ निकाला। इस तरह मैं परिवार के खाने के लिए हमेशा खरगोश के गोश्‍त का इंतज़ाम कर लिया करता था।

सन्‌ 1939 में दूसरे विश्‍वयुद्ध के शुरू होते-होते मैं नौकरी पाने में कामयाब हुआ। मैं मेलबर्न शहर के ट्रामकार और बस कंपनी में काम करने लगा। उस वक्‍त करीब 700 ड्राइवर और कंडक्टर बसों में काम कर रहे थे और हर शिफ्ट पर अलग-अलग ड्राइवर और कंडक्टर होते थे। मैं अकसर उनसे पूछता, “आपका धर्म क्या है?” और फिर उन्हें अपने-अपने धार्मिक विश्‍वासों के बारे में बताने के लिए कहता। मगर मुझे सिर्फ एक ही व्यक्‍ति के जवाब से तसल्ली हुई और वह एक यहोवा का साक्षी था। उसने मुझे बाइबल से बताया कि बहुत जल्द, यह धरती फिरदौस बन जाएगी जहाँ परमेश्‍वर का भय माननेवाले लोग हमेशा जीएँगे।—भजन 37:29.

इस दौरान माँ की मुलाकात भी यहोवा के साक्षियों से हुई। अकसर मैं अपने शिफ्ट से देर रात घर लौटता। इसलिए वे मेरे खाने के साथ-साथ कॉन्सोलेशन (जो अब सजग होइए! कहलाती है) पत्रिका भी रखती थीं। इन पत्रिकाओं से मैंने जो कुछ भी पढ़ा, वह मुझे अच्छा लगा और वक्‍त के गुज़रते मैं इस नतीजे पर पहुँचा कि यही सच्चा धर्म है और मैं साक्षियों की कलीसिया में जोशो-खरोश से हिस्सा लेने लगा। मई 1940 में मैंने बपतिस्मा ले लिया।

मेलबर्न में एक पायनियर होम था जहाँ यहोवा के साक्षियों के करीब 25 पूरे समय के सेवक रहते थे। मैं भी उन लोगों के साथ रहने लगा। हर दिन वे मुझे बताते थे कि प्रचार में उनके साथ क्या-क्या रोमांचक अनुभव हुए और मैं उन्हें सुनता था। धीरे-धीरे मेरे दिल में भी पायनियर बनने की ख्वाहिश पैदा होने लगी। आखिरकार, मैंने पायनियर सेवा के लिए अर्ज़ी दे दी। मेरी अर्ज़ी को मंजूर तो किया गया मगर मुझे पायनियर नहीं बल्कि यहोवा के साक्षियों के आस्ट्रेलिया ब्राँच ऑफिस में काम करने के लिए बुलाया गया। इस तरह मैं बेथेल परिवार का एक सदस्य बन गया।

कैद और पाबंदी

बेथेल में मेरा एक काम था आरा-मशीन चलाना। हम कोयला बनाने के लिए लकड़ियाँ काटते थे और इसी कोयले से इंधन तैयार करते थे। उस वक्‍त युद्ध की वजह से बाज़ार में गैसोलीन मिलना मुश्‍किल था इसीलिए ब्राँच की गाड़ियाँ चलाने के लिए हम इसी इंधन का इस्तेमाल करते थे। आरा-मशीन पर काम करनेवाले हम 12 जन थे और देश के कानून के मुताबिक हम सभी को सेना में भर्ती होना ही था। लेकिन बाइबल में दिए गए कारणों से हमने सेना में भरती होने से इनकार कर दिया इसलिए जल्द ही हमें छः महीने के लिए कैद की सज़ा सुनायी गयी। (यशायाह 2:4) हम लोगों को लेबर कैंप के फार्म में भेजा गया जहाँ पर हमसे कोल्हू के बैल की तरह काम करवाया गया। क्या आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि वहाँ पर हमें क्या काम सौंपा गया? जी हाँ, हमें वहाँ भी लकड़ी काटने का काम सौंपा गया जो हम बेथेल में करते थे!

हमने लकड़ी काटने का काम इतनी अच्छी तरह किया कि जेल के अध्यक्ष ने हमें एक बाइबल और बाइबल समझानेवाले हमारे साहित्य लाकर दिए, जबकि हमें ऐसी चीज़ें देने की सख्त मनाही थी। इसी दौरान मैंने इंसानी रिश्‍तों के बारे में एक बहुत ही अहम सबक सीखा। बेथेल में काम करते समय एक भाई के साथ मेरी बिलकुल नहीं पटती थी। हमारे व्यक्‍तित्व एक-दूसरे से बिलकुल अलग थे। लेकिन जानते हैं कि जेल की कोठरी में मेरे साथ किसे रखा गया? जी हाँ, उसी भाई को। अब हमारे पास एक दूसरे को अच्छी तरह जानने के लिए काफी वक्‍त था और नतीजा यह हुआ कि हमारे बीच एक गहरी और पक्की दोस्ती हो गयी।

कुछ समय बाद आस्ट्रेलिया में यहोवा के साक्षियों के काम पर पाबंदी लगा दी गयी। बेथेल के सारे फंड ज़ब्त कर लिए गए जिसकी वजह से वहाँ भाइयों को पैसे की तंगी हो गयी। एक बार एक भाई ने मेरे पास आकर कहा: “डिक मैं प्रचार काम के लिए शहर जाना चाहता हूँ मगर मेरे पास ढंग के जूते नहीं हैं सिर्फ काम के वक्‍त पहननेवाले जूते हैं।” मैंने खुशी-खुशी उसे अपने जूते दिए और वह उन्हें पहनकर चला गया।

बाद में हमें खबर मिली कि उस भाई को प्रचार करने के लिए गिरफ्तार कर लिया गया और उसे जेल की सज़ा हो गयी। मैं उसे यह छोटा-सा संदेश भेजने से खुद को रोक नहीं सका: “तुम्हारे साथ जो हुआ उसका मुझे दुःख है। पर मैं खुश हूँ कि इस बार सिर्फ मेरे जूते जेल में है, मैं नहीं।” मगर बहुत जल्द मुझे निष्पक्षता की वजह से दूसरी बार गिरफ्तार करके जेल में डाल दिया गया। जेल से रिहा होने के बाद मुझे फार्म की देखभाल का काम सौंपा गया जहाँ से बेथेल परिवार के लिए खाने की चीज़ें आती थीं। उस वक्‍त तक हम अदालत में मुकदमा जीत चुके थे और यहोवा के साक्षियों के काम पर से पाबंदी हटा दी गयी थी।

एक जोशीली प्रचारक से शादी

फार्म में काम करते समय मैंने शादी के बारे में गंभीरता से सोचना शुरू किया। मुझे एक जवान पायनियर बहन, कॉरली क्लोगन पसंद आ गयी। उसके परिवार में सबसे पहले उसकी नानी ने बाइबल के संदेश में दिलचस्पी दिखायी थी। मरने से पहले उन्होंने कॉरली की माँ, विरा से कहा था: “तुम अपने बच्चों में परमेश्‍वर के लिए प्यार और सेवा की भावना पैदा करना और एक दिन हम फिरदौस में ज़रूर मिलेंगे।” उस वक्‍त विरा को उनकी बातें समझ में नहीं आयी थीं। मगर बाद में जब एक पायनियर, विरा के घर आया और उन्हें आज जी रहे लाखों लोग कभी नहीं मरेंगे (अँग्रेज़ी) बुकलेट दिखायी, तो उन्हें अपनी माँ की बातों का मतलब समझ में आने लगा। उस बुकलेट से विरा को यकीन हो गया कि परमेश्‍वर का मकसद है कि इंसान फिरदौस में हमेशा की ज़िंदगी जीए। (प्रकाशितवाक्य 21:4) सन्‌ 1930 के दशक की शुरूआत में उन्होंने बपतिस्मा लिया और जैसा कि उनकी माँ ने उकसाया था, उन्होंने अपनी तीन बेटियों लूसी, जीन और कॉरली के दिलों में भी परमेश्‍वर के लिए प्यार पैदा किया। मगर जैसा यीशु ने आगाह किया था कि परिवार के लोग ही विरोध करेंगे, कॉरली के पिता ने इस धर्म में अपने परिवार की दिलचस्पी का कड़ा विरोध किया।—मत्ती 10:34-36.

क्लोगन परिवार संगीत के क्षेत्र में निपुण था। उस परिवार के हर बच्चे को साज़ बजाना आता था। कॉरली वायलिन बजाती थी और सन्‌ 1939 में जब वह 15 साल की थी तब उसे संगीत में एक डिप्लोमा मिला। दूसरा विश्‍वयुद्ध शुरू होने की वजह से कॉरली अपने भविष्य के बारे में गहराई से सोचने लगी। उसे अभी फैसला करना था कि वह अपनी ज़िंदगी में क्या करेगी। एक तरफ उसके सामने संगीत को अपना पेशा बनाने का सुनहरा मौका था। उसे तो मेलबर्न सिम्फनी ऑरकेस्ट्रा में साज़ बजाने का न्यौता भी मिल चुका था। मगर दूसरी तरफ उसके सामने राज्य का संदेश सुनाने के शानदार काम में हिस्सा लेने का मौका था। बहुत सोचने के बाद कॉरली ने फैसला कर लिया और सन्‌ 1940 में उसने और उसकी दो बहनों ने बपतिस्मा लिया और पूरे समय के लिए प्रचार में हिस्सा लेने की तैयारी करने लगीं।

पूरे समय की सेवा करने का फैसला लेने के कुछ ही समय बाद कॉरली की मुलाकात आस्ट्रेलिया ब्राँच के एक ज़िम्मेदार भाई, लॉयड बैरी से हुई जो आगे चलकर यहोवा के साक्षियों के शासी निकाय के सदस्य बने। मेलबर्न में भाषण देने के तुरंत बाद उन्होंने कॉरली से कहा: “मैं ट्रेन से वापस बेथेल जा रहा हूँ। क्यों न तुम भी मेरे साथ आओ और बेथेल परिवार का हिस्सा बनो?” कॉरली खुशी-खुशी राज़ी हो गयी।

युद्ध के सालों के दौरान जब हमारे काम पर पाबंदी लगी थी, तब आस्ट्रेलिया के भाइयों को बाइबल साहित्य पहुँचाने में कॉरली और बेथेल की बाकी बहनों ने एक अहम भूमिका अदा की। दरअसल भाई मैलकम वेल की निगरानी में ज़्यादातर छपाई का काम इन बहनों ने ही किया। यह पाबंदी दो से भी ज़्यादा सालों तक चली और इस दौरान द न्यू वर्ल्ड और चिल्ड्रन किताबें छापी गयीं और ऐसा कभी नहीं हुआ कि प्रहरीदुर्ग का एक भी अंक छूटा हो।

पुलिस से बचने के लिए छपाई-खाने की जगह को करीब 15 बार बदलना पड़ा। एक बार बाइबल साहित्य को एक इमारत के तहखाने में छापा जा रहा था मगर ऊपर के हिस्से में सिर्फ दिखाने के लिए दूसरी किताबें छापी जाती थीं। जब कोई खतरा नज़र आता तो रिसेप्शन पर बैठी बहन एक बटन दबा देती जिससे कि तहखाने में घंटी बजने लगती। इससे हमारी बहनों को तलाशी शुरू होने से पहले साहित्य छिपाने का मौका मिल जाता था।

एक बार इसी तरह की एक तलाशी में कुछ बहनों की जान सूख गयी जब उन्होंने देखा कि प्रहरीदुर्ग की एक कॉपी बिलकुल सामने टेबल पर पड़ी है। मगर जब पुलिसवाला अंदर आया तो उसने अपनी अटैची ठीक उसी प्रहरीदुर्ग के ऊपर रख दी और तलाशी लेने लगा। जब उसे वहाँ कुछ नहीं मिला तो उसने अपनी अटैची उठायी और चलता बना!

जब पाबंदी हटा दी गयी और हमारे भाइयों को ब्राँच वापस सौंप दिया गया तो कई भाई-बहनों के सामने यह प्रस्ताव रखा गया कि वे स्पेशल पायनियर बनकर क्षेत्र में काम करें। तब कॉरली ग्लेनिनिस शहर जाने के लिए आगे आयी। जनवरी 1,1948 को हमने शादी कर ली और तब से हम साथ मिलकर ग्लेनिनिस में पायनियरिंग करने लगे। और हमारे उस शहर को छोड़ने से पहले वहाँ एक फलती-फूलती कलीसिया बन गयी।

इसके बाद हमें रॉकहेम्पटन भेजा गया, मगर रहने के लिए हमें वहाँ कोई जगह नहीं मिली। इसलिए हम दिलचस्पी दिखानेवाले एक व्यक्‍ति के फार्म पर तंबू बनाकर रहने लगे। अगले नौ महीने तक हम इसी तंबू में रहे। हम शायद वहाँ और भी रहते, मगर बरसात का मौसम आ गया। और एक दिन इतना ज़बरदस्त तूफान आया कि हमारे तंबू के चिथड़े-चिथड़े हो गए और मूसलाधार बारिश उसे बहाकर ले गयी। *

विदेश में सेवा करना

जब हम रॉकहेम्पटन में थे तो हमें मिशनरी बनने की ट्रेनिंग के लिए वॉचटावर बाइबल स्कूल ऑफ गिलियड की 19वीं क्लास में आने का न्यौता मिला। सन्‌ 1952 में ट्रेनिंग खत्म होने के बाद हमें उस देश में भेजा गया जिसे उन दिनों दक्षिण-पश्‍चिम अफ्रीका कहा जाता था।

ईसाईजगत के पादरियों ने बहुत जल्द दिखा दिया कि वे हमारे मिशनरी काम को पसंद नहीं करते हैं। लगातार छः हफ्ते तक हर रविवार को वे मंच से अपनी-अपनी कलीसियाओं को आगाह करते थे कि हमसे सावधान रहें। उन्होंने लोगों से कहा कि तुम साक्षियों के लिए ना तो अपने घर के दरवाज़े खोलना और न ही उन्हें बाइबल से कुछ पढ़ने देना वरना वे तुम्हें उलटी-सीधी पट्टी पढ़ा देंगे। एक इलाके में हमने कई साहित्य बाँटे मगर चर्च का पादरी हमारे पीछे-पीछे आया और उसने सारे साहित्य लोगों से छीनकर इकट्ठा कर लिए। एक दिन उसी पादरी के साथ, उसके पढ़नेवाले कमरे में हमारी चर्चा हुई। तब हमने देखा कि उसके पास हमारी किताबों का अच्छा-खासा स्टॉक है।

जल्द ही हमारे कामों से सरकारी अधिकारियों को खतरा महसूस होने लगा। बेशक पादरियों ने ही हमारे खिलाफ उनके कान भरे थे और इसी वजह से वे हम पर शक करने लगे कि हम शायद साम्यवादी संगठन से जुड़े हैं। इसलिए हम सबकी उँगलियों के निशान लिए गए और हमने जिन्हें प्रचार किया उनमें से कुछ को बुलाकर पूछ-ताछ की गयी। इतने विरोध के बावजूद हमारी सभाओं में आनेवाले लोगों की गिनती लगातार बढ़ती रही।

शुरू से ही हमारी यह दिली-ख्वाहिश थी कि हम वहाँ के ओवामबो, हेरेरो और नामा नाम के आदिवासियों को बाइबल का संदेश सुनाएँ। मगर यह उतना आसान नहीं था। उन दिनों दक्षिण-पश्‍चिम अफ्रीका, दक्षिण अफ्रीका की रंगभेद सरकार के इलाके में पड़ती थी। श्‍वेत होने की वजह से हमें सरकारी परमिट के बगैर अश्‍वेत लोगों के कसबों में प्रचार करना मना था। हमने कई बार इजाज़त के लिए अर्ज़ी दी मगर हर बार अधिकारियों ने उसे नामंजूर कर दी।

विदेश में दो साल सेवा करने के बाद हमें यह जानकर ताज्जुब और खुशी भी हुई कि हमारे घर एक नन्हा मेहमान आनेवाला था। अक्टूबर सन्‌ 1955 को हमारी बेटी शार्लेट पैदा हुई। हालाँकि इसके बाद हम मिशनरी के तौर पर अपनी सेवा जारी नहीं रख सके मगर मुझे पार्ट-टाइम नौकरी मिल गयी और कुछ समय तक मैं पायनियरिंग करता रहा।

हमारी प्रार्थनाओं का जवाब

सन्‌ 1960 में हमने एक और चुनौती का सामना किया। कॉरली को एक खत मिला कि उसकी माँ बहुत बीमार है और अगर वह घर नहीं आयी तो शायद वह अपनी माँ को फिर कभी नहीं देख पाएगी। इसलिए हमने दक्षिण-पश्‍चिम अफ्रीका छोड़कर वापस आस्ट्रेलिया जाने का फैसला किया। लेकिन जिस हफ्ते हम वहाँ से जानेवाले थे, उसी हफ्ते मुझे स्थानीय अधिकारियों से अश्‍वेत लोगों के काटूटूरा कसबे में प्रचार करने का परमिट मिल गया। अब हम क्या करते? क्या हम परमिट वापस कर देते जिसे पाने के लिए हम सात साल से कोशिश कर रहे थे? हम चाहते तो बड़ी आसानी से खुद को समझा-बुझा सकते थे कि हमने जो काम शुरू किया है उसे दूसरे जारी रख सकते हैं। मगर दूसरी तरफ हमने यह भी सोचा कि कहीं यह यहोवा से मिली आशीष, हमारी प्रार्थनाओं का जवाब तो नहीं है?

मुझे फैसला करने में देर नहीं लगी। मैंने सोच लिया कि मैं देश छोड़कर वापस नहीं जाऊँगा क्योंकि मुझे डर था कि अगर हम सब-के-सब आस्ट्रेलिया चले जाएँगे तो हमेशा के लिए अफ्रीका में रहने की हमारी कोशिशों पर पानी फिर जाएगा। इसलिए बोट से जाने के लिए मैंने जो बुकिंग करवायी थी अगले दिन उससे अपना नाम कटवा दिया और सिर्फ कॉरली और शार्लेट को एक लंबी छुट्टी पर आस्ट्रेलिया भेज दिया।

वे जब आस्ट्रेलिया में थे तो मैंने अश्‍वेत लोगों के कसबे में प्रचार शुरू किया। वहाँ लोगों ने बहुत ही अच्छी दिलचस्पी दिखायी। जब कॉरली और शार्लेट वापस आए, तब तक अश्‍वेतों के कसबे से कई लोग सभाओं में हाज़िर होने लगे थे।

इस समय तक मेरे पास एक पुरानी कार हो गयी थी और इसी कार में मैं दिलचस्पी दिखानेवालों को सभाओं में लाता था। हर सभा के लिए मुझे कम-से-कम चार-पाँच चक्कर काटने पड़ते थे। और हर बार सात, आठ या नौ लोगों को कार में लाता था। जब आखिरी आदमी उतरता तो कॉरली मज़ाक करते हुए पूछती: “कहीं तुम्हारे सीट के नीचे और लोग तो नहीं हैं?”

प्रचार में और भी अच्छे नतीजे हासिल करने के लिए हमें आदिवासियों की भाषाओं में साहित्य की ज़रूरत थी। इसलिए मुझे एक बहुत ही खास अवसर मिला। मैंने चार स्थानीय भाषाओं, हेरेरो, नामा, डोंगा और क्वांयामा में एक नए संसार में जीवन ट्रैक्ट अनुवाद करने का इंतज़ाम किया। अनुवाद करनेवाले पढ़े-लिखे लोग थे जो हमारे साथ बाइबल का अध्ययन कर रहे थे। मगर मुझे उनके साथ बैठना पड़ता था ताकि मैं यह निगरानी रख सकूँ कि हर वाक्य को सही से अनुवाद किया जा रहा है या नहीं। नामा ऐसी भाषा है जिसमें बहुत कम शब्द हैं। मिसाल के लिए, मैं यह समझाने की कोशिश कर रहा था कि “शुरू में आदम एक सिद्ध इंसान था।” अनुवादक ने सिर खुजलाकर कहा कि उसे “सिद्ध” के लिए नामा में शब्द याद नहीं आ रहा है। बहुत सोचने के बाद आखिर में उसने कहा: “हाँ, याद आ गया। शुरू में आदम एक पके आड़ू जैसा था।”

जिस देश में भेजा गया, वहीं पर खुश रहे

आज जिसे हम नामीबिया कहते हैं उस देश में आए हमें करीब 49 साल हो गए हैं। अब यहाँ अश्‍वेत लोगों की बिरादरी में जाने के लिए किसी परमिट की ज़रूरत नहीं है क्योंकि नामीबिया पर अब एक नयी सरकार की हुकूमत है जिसके संविधान में जातीय भेद-भाव की कोई जगह नहीं है। आज विन्टहुक में चार बड़ी-बड़ी कलीसियाएँ हैं और वे अपनी सभाओं के लिए अच्छे-खासे राज्यगृह में मिलते हैं।

हम अकसर गिलियड में बताए गए इन शब्दों को याद करते हैं: “विदेश में जहाँ कहीं आपको भेजा जाएगा उसे अपना घर बनाइए।” जिस तरह से यहोवा ने हरेक मामले को सँभाला है, उससे हमें यकीन हो गया है कि यह उसकी इच्छा थी कि हम विदेश को ही अपना घर बना लें। अलग-अलग और दिलचस्प संस्कृतियों से होने के बावजूद हमें उन भाई-बहनों से प्यार हो गया है। हम सुख-दुःख में उनके साथ रहे। जिन नए लोगों को हम सभाओं में लाने के लिए अपनी कार में भर-भर कर लाते थे उनमें से कुछ आज अपनी-अपनी कलीसियाओं को सँभाल रहे हैं। जब हम सन्‌ 1953 में इस विशाल देश में आए तो यहाँ सुसमाचार सुनानेवाले दस प्रचारक भी नहीं थे। मगर आज हमारी संख्या 1,200 से भी ऊपर हो गयी। हमने और दूसरों ने जहाँ-जहाँ ‘लगाया और सींचा’ वहाँ यहोवा ने अपने वादे के मुताबिक बढ़ोतरी दी है।—1 कुरिन्थियों 3:6.

आस्ट्रेलिया और अब नामीबिया में जब मैं और कॉरली अपने इतने सालों की सेवा को याद करते हैं, तो वाकई हमें बेहद खुशी होती है। हम यही उम्मीद और प्रार्थना करते हैं कि यहोवा उसकी इच्छा पूरी करने के लिए हमें, अभी और आगे भी अपनी ताकत देता रहे।

[फुटनोट]

^ वॉलड्रन जोड़े ने मुश्‍किलों के बावजूद इस जगह पर सेवा कैसे की उनकी रोमांचक कहानी दिसंबर 1, 1952 के प्रहरीदुर्ग (अँग्रेज़ी), पेज 707-8 में दी गयी है। उस लेख में उनका नाम नहीं बताया गया है।

[पेज 26 पर तसवीर]

आस्ट्रेलिया के रॉकहेम्पटन में सेवा करने के लिए रवाना होना

[पेज 27 पर तसवीर]

गिलियड स्कूल जाने के लिए बंदरगाह पर

[पेज 28 पर तसवीर]

नामीबिया में प्रचार करने से हमें बेहद खुशी महसूस होती है