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पहली सदी के मसीही और मूसा की व्यवस्था

पहली सदी के मसीही और मूसा की व्यवस्था

पहली सदी के मसीही और मूसा की व्यवस्था

“मसीह के पास लाने के लिए व्यवस्था हमारी संरक्षक रही।”—गलतियों 3:24, नयी हिन्दी बाइबिल।

1, 2. जो इस्राएली बड़े ध्यान से मूसा की व्यवस्था का पालन करते थे उन्हें इसके क्या-क्या फायदे हुए?

यहोवा ने सा.यु.पू. 1513 में इस्राएलियों को एक नियमावली दी थी। उसने लोगों से कहा कि अगर वे उसकी आज्ञा मानेंगे, तो वह उन्हें आशीष देगा और उनकी ज़िंदगी खुशहाल और संतोष से भरी होगी।—निर्गमन 19:5, 6.

2 वह नियमावली, जिसे मूसा की व्यवस्था या सिर्फ “व्यवस्था” कहा जाता था “पवित्र, खरी और उत्तम” थी। (रोमियों 7:12, NHT) यह व्यवस्था लोगों को दया, ईमानदारी, शुद्ध चालचलन और पड़ोसी के लिए प्यार जैसे अच्छे गुण पैदा करने को उकसाती थी। (निर्गमन 23:4, 5; लैव्यव्यवस्था 19:14; व्यवस्थाविवरण 15:13-15; 22:10, 22) व्यवस्था ने यहूदियों को एक-दूसरे से प्रेम करने के लिए भी उकसाया। (लैव्यव्यवस्था 19:18) साथ ही उन्हें अन्यजाति के लोगों से मेलजोल नहीं रखना था, ना ही उनकी लड़कियों को ब्याह लाना था, क्योंकि वे व्यवस्था के अधीन नहीं थे। (व्यवस्थाविवरण 7:3, 4) मूसा की व्यवस्था, यहूदियों और अन्यजाति के लोगों को अलग करनेवाली एक “दीवार” थी, ताकि परमेश्‍वर के लोग गैर-यहूदियों के सोच-विचार और कामों से भ्रष्ट न हो जाएँ।—इफिसियों 2:14, 15; यूहन्‍ना 18:28.

3. कोई भी व्यवस्था का पालन पूरी तरह नहीं कर सकता था, इसका क्या असर हुआ?

3 परमेश्‍वर की व्यवस्था का पूरी ईमानदारी से पालन करनेवाला यहूदी भी कहीं-न-कहीं ज़रूर चूक जाता था। क्या यहोवा की व्यवस्था इतनी कठिन थी कि उसे पालन करना किसी के बस का न था? जी नहीं। इस्राएल को व्यवस्था कुछ खास वजहों से दी गयी थी, और पहली वजह थी “अपराधों के कारण।” (गलतियों 3:19) व्यवस्था ने सच्चे यहूदियों को एहसास दिलाया कि उन्हें एक उद्धारकर्त्ता की सख्त ज़रूरत है। जब वह उद्धारकर्त्ता आया, तो वफादार यहूदियों ने खुशियाँ मनायीं। पाप और मौत के अभिशाप से उनका छुटकारा जल्द ही होनेवाला था!—यूहन्‍ना 1:29.

4. व्यवस्था किस अर्थ में ‘मसीह के पास लानेवाली संरक्षक’ थी?

4 मूसा की व्यवस्था का इंतज़ाम सिर्फ कुछ समय के लिए था। अपने मसीही भाई-बहनों को लिखते हुए, प्रेरित पौलुस ने इसे “मसीह के पास लाने के लिए . . . हमारी संरक्षक” कहा। (गलतियों 3:24, नयी हिन्दी बाइबिल) प्राचीनकाल में बच्चों को स्कूल ले जाने और लाने का काम संरक्षक का था। आम तौर पर वह शिक्षक नहीं होता था; बल्कि वह बच्चों को शिक्षक के पास ले जाता था। उसी तरह, मूसा की व्यवस्था का मकसद भी यही था कि परमेश्‍वर का भय माननेवाले यहूदियों को मसीह तक पहुँचाए। यीशु ने अपने चेलों से वादा किया था कि “मैं जगत के अन्त तक सदैव तुम्हारे संग हूं।” (मत्ती 28:20) मसीही कलीसिया का जब जन्म हुआ, तब उस “संरक्षक” यानी मूसा की व्यवस्था की ज़रूरत न रही। (रोमियों 10:4; गलतियों 3:25) लेकिन, कुछ यहूदी जो मसीही बने थे इस अहम सच्चाई को फौरन समझ नहीं पाए। इसीलिए, यीशु के पुनरुत्थान के बाद भी वे व्यवस्था के कुछ नियमों का पालन करते रहे। दूसरी तरफ, कुछ मसीहियों ने अपने सोच-विचार फौरन बदले। ऐसा करने में, उन्होंने हमारे लिए एक बढ़िया मिसाल छोड़ी। वह कैसे, आइए देखते हैं।

मसीही शिक्षाओं की नयी समझ

5. दर्शन में पतरस को क्या आज्ञा दी गयी और वह यह देखकर क्यों हैरान रह गया?

5 सामान्य युग 36 में, मसीही प्रेरित पतरस ने बड़ा ही अद्‌भुत दर्शन देखा। उस वक्‍त एक आकाशवाणी हुई और उसे आज्ञा दी गयी कि वह उन पशु-पक्षियों को मारकर खाए जिन्हें व्यवस्था के मुताबिक अशुद्ध माना जाता था। पतरस यह सब देखकर हैरान रह गया! उसने कभी कोई “अपवित्र या अशुद्ध वस्तु नहीं खाई” थी। मगर उससे कहा गया, “जो कुछ परमेश्‍वर ने शुद्ध ठहराया है, उसे तू अशुद्ध मत कह।” (प्रेरितों 10:9-15) व्यवस्था से चिपके रहने और सख्ती से उसका पालन करने के बजाय, पतरस ने अपना नज़रिया बदला। इस घटना की वजह से परमेश्‍वर के उद्देश्‍यों के बारे में एक हैरतअंगेज़ बात सामने आयी थी।

6, 7. पतरस कैसे इस नतीजे पर पहुँच पाया कि वह अब अन्यजाति के लोगों को प्रचार कर सकता है, इसके अलावा वह और किन नतीजों पर पहुँचा?

6 आइए देखें कि उस वक्‍त क्या-क्या हुआ। पतरस जिस घर में ठहरा हुआ था, वहाँ तीन आदमी आए और उसे एक खतनारहित श्रद्धालु इंसान के घर चलने के लिए पूछा। इस श्रद्धालु का नाम कुरनेलियुस था जो यहूदी नहीं बल्कि अन्यजातियों में से था। पतरस ने इन आदमियों को घर के अंदर बुलाया और उनकी खातिर-दावत की। पतरस को उस दर्शन का अर्थ समझ में आ गया, इसलिए दूसरे दिन वह उन आदमियों के साथ कुरनेलियुस के घर की ओर चल पड़ा। वहाँ पतरस ने यीशु मसीह के बारे में बढ़िया गवाही दी। उस मौके पर, पतरस ने कहा: “अब मुझे निश्‍चय हुआ, कि परमेश्‍वर किसी का पक्ष नहीं करता, बरन हर जाति में जो उस से डरता और धर्म के काम करता है, वह उसे भाता है।” सिर्फ कुरनेलियुस ने ही नहीं, बल्कि उसके सगे-संबंधियों और करीबी दोस्तों ने भी यीशु पर विश्‍वास किया और “पवित्र आत्मा वचन के सब सुननेवालों पर उतर आया।” पतरस ने यह जानकर कि इस सब के पीछे यहोवा ही का हाथ है, “उस ने आज्ञा दी कि उन्हें यीशु मसीह के नाम में बपतिस्मा दिया जाए।”—प्रेरितों 10:17-48.

7 पतरस इस नतीजे पर कैसे पहुँच पाया कि अन्यजाति के जिन लोगों ने मूसा की व्यवस्था का पालन नहीं किया था, वे अब यीशु मसीह के चेले बन सकते हैं? आध्यात्मिक बातों की समझ से। परमेश्‍वर ने अन्यजाति के इन खतनारहित लोगों पर अपनी पवित्र आत्मा उंडेलकर दिखाया कि वह उनसे खुश है, इसलिए पतरस समझ पाया कि बपतिस्मे के लिए उन्हें मंज़ूरी दी जा सकती है। साथ ही, पतरस को यह भी समझ आया होगा कि परमेश्‍वर, अन्यजाति के मसीहियों से यह माँग नहीं करता कि बपतिस्मा पाने के लिए वे मूसा की व्यवस्था का पालन करें। अगर आप उस वक्‍त ज़िंदा होते, तो क्या आप भी पतरस की तरह अपनी सोच को बदलने के लिए तैयार होते?

कुछ “संरक्षक” के पीछे चलते रहे

8. यरूशलेम में रहनेवाले कुछ मसीही, खतने के बारे में पतरस की सोच को नज़रअंदाज़ करके, किस बात को बढ़ावा दे रहे थे और क्यों?

8 कुरनेलियुस के घर से निकलकर, पतरस यरूशलेम को गया। वहाँ की कलीसिया तक यह खबर पहुँच चुकी थी कि अन्यजाति के खतनारहित लोगों ने “परमेश्‍वर का वचन मान लिया है,” और पतरस की इजाज़त से उन्हें बपतिस्मा दिया गया है। इस बात को लेकर कुछ यहूदी जो मसीही बने थे परेशान थे। (प्रेरितों 11:1-3) इन यहूदियों ने यह स्वीकार किया कि अन्यजाति के लोग भी यीशु के चेले बन सकते हैं, मगर “खतने के [इन] पक्षधरों” (नयी हिन्दी बाइबिल) ने ज़िद्द की कि गैर-यहूदी जातियों के इन लोगों को उद्धार पाने के लिए व्यवस्था का पालन करना पड़ेगा। दूसरी तरफ, जिन इलाकों में अन्यजातियों के मसीहियों की गिनती ज़्यादा थी और यहूदी मसीहियों की कम, वहाँ खतने के मामले में कोई मुश्‍किल खड़ी नहीं होती थी। ये दो अलग-अलग विचार लगभग 13 साल तक चलते रहे। (1 कुरिन्थियों 1:10) पहली सदी के उन मसीहियों के लिए यह कितनी बड़ी परीक्षा रही होगी, खासकर उन अन्यजाति के मसीहियों के लिए जो यहूदियों के इलाकों में रहते थे!

9. खतने के मसले का हल किया जाना क्यों ज़रूरी था?

9 इस मसले पर फैसले की घड़ी आखिरकार सा.यु. 49 में आयी, जब सीरिया के अन्ताकिया में पौलुस के प्रचार करते वक्‍त वहाँ यरूशलेम से कुछ मसीही आए। वे सिखाने लगे कि अन्यजातियों से आए नए मसीही चेलों को व्यवस्था के मुताबिक खतना कराना ज़रूरी है। वहाँ उनके और पौलुस और बरनबास के बीच ज़बरदस्त वाद-विवाद और झगड़ा हुआ! अगर इस मसले को सुलझाया न जाता तो कुछ मसीही इस कारण ज़रूर ठोकर खाते, फिर चाहे वे पहले यहूदी रहे हों या अन्यजातियों से हों। इसलिए, पौलुस के साथ कुछ और भाइयों को यरूशलेम भेजने का इंतज़ाम किया गया ताकि मसीही शासी निकाय से इस मसले का ऐसा हल निकालने के लिए कहा जाए कि फिर इस पर कोई सवाल न उठे।—प्रेरितों 15:1, 2, 24.

पहले विचारों में फर्क—फिर एकता!

10. अन्यजाति के लोगों के बारे में फैसला करने से पहले, उस वक्‍त के शासी निकाय ने किन-किन बातों पर ध्यान दिया?

10 उस आयोजित सभा में, कुछ लोगों ने खतने के पक्ष में दलीलें दीं, जबकि दूसरों ने उनके विरोध में अपने विचार बताए। मगर वे भावनाओं में बहकर बात नहीं कर रहे थे। देर तक बहस चलने के बाद, प्रेरित पतरस और पौलुस ने बताया कि यहोवा ने खतनारहित मसीहियों के बीच भी कैसे-कैसे अद्‌भुत चिन्ह दिखाए हैं। उन्होंने बताया कि परमेश्‍वर ने खतनारहित अन्यजाति के लोगों पर पवित्र आत्मा उंडेली थी। यह कहकर असल में, वे पूछ रहे थे, ‘क्या मसीही कलीसिया का ऐसे लोगों को ठुकराना मुनासिब है, जिन्हें परमेश्‍वर ने अपना लिया है?’ इसके बाद शिष्य याकूब ने शास्त्र का एक भाग पढ़ा जिससे वहाँ मौजूद सब लोगों को समझ आया कि इस मामले पर यहोवा की मरज़ी क्या है।—प्रेरितों 15:4-17.

11. खतने के मामले पर फैसला करते वक्‍त, क्या बात आड़े नहीं आयी, और कैसे पता चलता है कि इस फैसले पर यहोवा की आशीष थी?

11 अब सबकी नज़रें शासी निकाय पर टिकी थीं। पहले यहूदी होने के कारण, क्या वे पक्षपात करेंगे और खतना करवाने के पक्ष में फैसला सुनाएँगे? नहीं, बिलकुल नहीं। इन वफादार पुरुषों ने ठान लिया था कि वे शास्त्र के मुताबिक काम करेंगे और परमेश्‍वर की पवित्र आत्मा की अगुवाई में चलेंगे। सारे गवाहों की बात सुनने के बाद, शासी निकाय ने एकमत से फैसला किया कि अन्यजाति के मसीहियों को खतना करवाने और मूसा की व्यवस्था का पालन करने की कोई ज़रूरत नहीं है। जब उनका यह फैसला भाइयों को सुनाया गया, वे खुश हुए और कलीसियाएँ “गिनती में प्रति दिन बढ़ती गईं।” जो मसीही परमेश्‍वर से मिले स्पष्ट निर्देशन के मुताबिक चले, उन्हें शास्त्र से सही और ठोस जवाब पाने की आशीष प्राप्त हुई। (प्रेरितों 15:19-23, 28, 29; 16:1-5) फिर भी, एक ज़रूरी सवाल का जवाब दिया जाना अभी-भी बाकी था।

यहूदी मसीहियों के बारे में क्या?

12. किस सवाल का जवाब पाना अभी बाकी था?

12 शासी निकाय ने यह साफ-साफ बता दिया कि अन्यजाति के मसीहियों को खतना करवाने की ज़रूरत नहीं थी। मगर उन यहूदी मसीहियों के बारे में क्या? शासी निकाय के फैसले में, इस पहलू पर साफ-साफ कुछ नहीं कहा गया था।

13. यह ज़िद्द करना क्यों गलत था कि उद्धार पाने के लिए मूसा की व्यवस्था को मानना ज़रूरी है?

13 कुछ यहूदी मसीही जिनमें “व्यवस्था के लिये धुन” थी, वे अब भी अपने बच्चों का खतना करवाते थे और व्यवस्था के कुछ नियम मानते थे। (प्रेरितों 21:20) कुछ और मसीही तो इनसे दो कदम आगे थे। वे इस बात पर अड़ जाते थे कि यहूदी मसीही अगर उद्धार पाना चाहते हैं तो उन्हें हर हाल में व्यवस्था का पालन करना चाहिए। ऐसा करके, वे बहुत बड़ी गलती कर रहे थे। मिसाल के लिए, एक मसीही अपने पापों की माफी के लिए जानवरों की बलि कैसे चढ़ा सकता था? मसीह ने अपने बलिदान से इन सारे बलिदानों को रद्द कर दिया था। मान लीजिए कि अगर यहूदी मसीहियों को व्यवस्था का यह नियम मानना पड़ता कि यहूदियों को अन्यजाति के लोगों के साथ मेलजोल नहीं रखना चाहिए, तब क्या होता? तब तो जोशीले मसीही प्रचारकों के लिए इन पाबंदियों को मानने के साथ-साथ, अन्यजाति के लोगों के पास जाकर यीशु की सब बातें सिखाने की ज़िम्मेदारी को पूरा करना बहुत मुश्‍किल हो जाता। (मत्ती 28:19, 20; प्रेरितों 1:8; 10:28) * इस मामले पर शासी निकाय की किसी सभा में फैसला किया गया हो, ऐसा हमें कोई सबूत नहीं मिलता। फिर भी, कलीसियाओं को अपने हाल पर नहीं छोड़ दिया गया।

14. पौलुस की ईश्‍वर-प्रेरित पत्रियों से व्यवस्था के बारे में क्या मार्गदर्शन मिला?

14 कलीसियाओं को परमेश्‍वर की तरफ से मार्गदर्शन मिला, मगर शासी निकाय की भेजी किसी चिट्ठी के ज़रिए नहीं, बल्कि प्रेरितों के हाथों लिखी कई ईश्‍वर-प्रेरित पत्रियों के ज़रिए। मिसाल के लिए, प्रेरित पौलुस ने रोम में रहनेवाले यहूदियों और अन्यजाति के भाइयों को बड़ा ही ज़बरदस्त संदेश लिखा। अपनी पत्री में उसने उन्हें समझाया कि सच्चा यहूदी वह है, “जो मन में है; और खतना वही है, जो हृदय का और आत्मा में है।” (रोमियों 2:28, 29) उसी पत्री में पौलुस ने यह समझाने के लिए कि मसीही अब व्यवस्था के अधीन नहीं हैं, एक दृष्टांत दिया। उसने दलील दी कि एक स्त्री एक ही वक्‍त पर दो आदमियों की पत्नी नहीं हो सकती। लेकिन, अगर उसके पति की मौत हो जाती है तो वह फिर से शादी कर सकती है। इसके बाद पौलुस ने इस दृष्टांत को लागू करते हुए बताया कि अभिषिक्‍त मसीही एक ही वक्‍त पर मूसा की व्यवस्था के अधीन और मसीह के नहीं हो सकते। अगर वे मसीह के साथ मिलना चाहते थे तो उन्हें “व्यवस्था के लिये मरे हुए” बनना होगा।—रोमियों 7:1-5.

समझने में वक्‍त लगा

15, 16. कुछ यहूदी मसीही, क्यों यह नहीं समझ पाए कि अब वे व्यवस्था के अधीन नहीं हैं, और आध्यात्मिक तरीके से सावधान रहने के बारे में यह क्या दिखाता है?

15 व्यवस्था के बारे में पौलुस की दलीलों को कोई काट नहीं सकता था। तो फिर कुछ यहूदी मसीहियों को यह बात समझ क्यों नहीं आयी कि वे अब व्यवस्था के अधीन नहीं थे? एक वजह तो यह थी कि उनमें आध्यात्मिक बातों की समझ नहीं थी। वे ठोस आध्यात्मिक अन्‍न नहीं खाते थे। (इब्रानियों 5:11-14) मसीही सभाओं में भी वे अकसर नहीं आते थे। (इब्रानियों 10:23-25) कुछ लोगों की समझ में न आने का एक और कारण शायद व्यवस्था का स्वरूप रहा होगा। व्यवस्था का आधार ऐसी चीज़ें थीं जिन्हें देखा, और महसूस किया और छुआ जा सकता था जैसे कि मंदिर और याजकवर्ग। आध्यात्मिक बातों की समझ न रखनेवाले के लिए व्यवस्था को मानना ज़्यादा आसान था। जबकि अनदेखी सच्चाइयों पर आधारित मसीहियत के गहरे उसूलों को अपनाना ऐसे इंसान के लिए मुश्‍किल था।—2 कुरिन्थियों 4:18.

16 पौलुस ने गलतियों को लिखी अपनी पत्री में एक और वजह बतायी कि क्यों मसीही होने का दावा करनेवाले कुछ लोगों में, व्यवस्था को मानने का भी उत्साह था। उसने बताया कि वे उस वक्‍त के बड़े धर्म को मानने का दिखावा करके लोगों की नज़रों में इज़्ज़त पाना चाहते थे। समाज में मसीहियों के नाते अपनी एक अलग पहचान कायम करने के बजाय, वे उस समाज का हिस्सा बनने के लिए किसी भी हद तक समझौता करने को तैयार थे। उन्हें सबसे ज़्यादा इस बात की चिंता थी कि इंसानों को कैसे खुश करें, न कि परमेश्‍वर को कैसे खुश करें।—गलतियों 6:12.

17. व्यवस्था का पालन करने के बारे में सही नज़रिया कब बिलकुल साफ ज़ाहिर हो गया?

17 समझ रखनेवाले मसीही जो पौलुस और दूसरे प्रेरितों के ईश्‍वर-प्रेरित लेखनों का बड़े ध्यान से अध्ययन करते थे, वे व्यवस्था के बारे में सही नतीजे पर पहुँचे। लेकिन सा.यु. 70 में, सारे यहूदी मसीहियों को साफ-साफ समझ आ गया कि मूसा की व्यवस्था के बारे में उनका नज़रिया कैसा होना चाहिए। क्योंकि उस साल परमेश्‍वर ने यरूशलेम और उसके मंदिर का सर्वनाश होने दिया और इसकी याजक-व्यवस्था के बारे में सारी जानकारी भी इनके साथ खत्म हो गयी। यही वजह है कि इसके बाद से किसी के लिए भी व्यवस्था के सभी पहलुओं को मानना नामुमकिन हो गया।

आज इस सबक पर अमल करना

18, 19. (क) आध्यात्मिक रूप से सेहतमंद रहने के लिए हमें कैसा रवैया अपनाना चाहिए और कैसे रवैए से दूर रहना चाहिए? (ख) ज़िम्मेदार भाइयों से मिलनेवाले निर्देशन पर चलने के बारे में पौलुस की मिसाल से हम क्या सीखते हैं? (पेज 24 पर बक्स देखिए।)

18 सदियों पहले की इन घटनाओं पर चर्चा करने के बाद, शायद आप सोच रहे होंगे: ‘अगर मैं उस वक्‍त ज़िंदा होता, तो परमेश्‍वर धीरे-धीरे अपनी मरज़ी के बारे में जो बता रहा था, उस मामले में मैं क्या करता? क्या मैं लकीर के फकीर की तरह व्यवस्था की परंपराओं से चिपका रहता? या क्या मैं धैर्य से तब तक इंतज़ार करता जब तक हमें साफ-साफ सबकुछ समझ में न आ जाता? और जब व्यवस्था के बारे में मुझे सही समझ मिल जाती, तो क्या मैं पूरे मन से इसे स्वीकार करता और अपनी सोच बदलता?’

19 बेशक, हम पक्के तौर पर यह तो नहीं कह सकते कि अगर हम तब ज़िंदा होते तो क्या करते। मगर हम खुद से पूछ सकते हैं: ‘आज जब बाइबल की शिक्षाओं की समझ में कुछ बातें स्पष्ट की जाती हैं, तो हम इस फेर-बदल के बारे में क्या करते हैं? (मत्ती 24:45) जब शास्त्र से निर्देशन दिया जाता है, क्या मैं उस पर अमल करता हूँ और सिर्फ शब्दों पर ज़ोर देने के बजाय उस निर्देशन के पीछे की भावना या असली मतलब को समझकर उस पर अमल करता हूँ? (1 कुरिन्थियों 14:20) जब मेरे कुछ सवालों के जवाब फौरन नहीं मिलते, तो क्या मैं धीरज धरते हुए यहोवा के सही वक्‍त का इंतज़ार करता हूँ?’ यह बेहद ज़रूरी है कि हम मिलनेवाले आध्यात्मिक भोजन का पूरा-पूरा फायदा उठाएँ, ताकि ‘बहकर दूर न चले जाएं।’ (इब्रानियों 2:1) जब यहोवा अपने वचन, अपनी आत्मा और धरती पर अपने संगठन के ज़रिए मार्गदर्शन देता है, तो ध्यान से उसकी बात सुनिए। अगर हम ऐसा करें, तो यहोवा हमें सदा की ज़िंदगी देगा जो खुशहाली और संतोष से भरी होगी।

[फुटनोट]

^ पैरा. 13 जब पतरस सीरिया के अन्ताकिया में गया, तो वहाँ अन्यजाति के भाइयों की संगति और प्यार का उसने आनंद उठाया। लेकिन, जब यरूशलेम से कुछ यहूदी मसीही आए तो पतरस “खतना किए हुए लोगों के डर के मारे उन से हट गया और किनारा करने लगा।” हम कल्पना कर सकते हैं कि अन्यजाति से मसीही बने इन भाइयों को कितना दुःख हुआ होगा, जब एक माननीय प्रेरित ने उनके साथ खाने-पीने से इनकार कर दिया।—गलतियों 2:11-13.

आप क्या जवाब देंगे?

• मूसा की व्यवस्था किस अर्थ में ‘मसीह के पास लानेवाली संरक्षक’ थी?

• सच्चाई की समझ में आनेवाले बदलाव के बारे में पतरस ने जो किया और “खतने के पक्षधरों” ने जो किया, इसके बीच का फर्क आप कैसे समझाएँगे?

• आज यहोवा सच्चाई को जिस तरह ज़ाहिर कर रहा है, उसके बारे में आपने क्या सीखा?

[अध्ययन के लिए सवाल]

[पेज 24 पर बक्स/तसवीर]

पौलुस नम्रता से परीक्षा का सामना करता है

पौलुस ने अपने मिशनरी दौरे में अच्छी कामयाबी पायी थी और इसके बाद वह सा.यु. 56 में यरूशलेम आया। वहाँ उसकी परीक्षा होनेवाली थी। वहाँ की कलीसिया को यह खबर मिल चुकी थी कि पौलुस व्यवस्था के व्यर्थ हो जाने की बातें सिखा रहा था। वहाँ के प्राचीनों को यह डर था कि अभी-अभी मसीही बने यहूदी, व्यवस्था के बारे में पौलुस के बढ़-चढ़कर बोलने से ठोकर न खाएँ और यह न मान बैठें कि मसीही, यहोवा के इंतज़ामों की कोई कदर नहीं करते। मसीही कलीसिया में, ऐसे चार यहूदी मसीही थे, जिन्होंने शायद नाज़ीर की शपथ खायी थी। उस शपथ की माँगों को पूरा करने के लिए उन्हें मंदिर में जाना ही पड़ता।

यरूशलेम कलीसिया के प्राचीनों ने पौलुस से कहा कि वह उन चारों के साथ मंदिर जाए और उनका खर्च उठाए। पौलुस ने कम-से-कम दो ऐसी पत्रियाँ लिखी थीं जिसमें यह दलील दी थी कि उद्धार के लिए व्यवस्था का पालन करना ज़रूरी नहीं है। मगर, वह दूसरों के विवेक का भी लिहाज़ करता था। कुछ समय पहले ही उसने लिखा था: “जो लोग व्यवस्था के आधीन हैं उन के लिये मैं . . . व्यवस्था के आधीन बना, कि उन्हें जो व्यवस्था के आधीन हैं, खींच लाऊं।” (1 कुरिन्थियों 9:20-23) जहाँ शास्त्र के उसूलों की बात होती थी, वहाँ पौलुस कभी-भी समझौता नहीं करता था, मगर जहाँ उसे लगा कि वह प्राचीनों की सलाह को मान सकता है, वहाँ उसने ऐसा करने से इनकार नहीं किया। (प्रेरितों 21:15-26) ऐसा करके उसने कोई गलती नहीं की। शपथ का इंतज़ाम शास्त्र पर आधारित था, और मंदिर को शुद्ध उपासना के लिए, न कि मूर्तिपूजा के लिए इस्तेमाल किया जाता था। इसलिए किसी को ठोकर न खिलाने के इरादे से पौलुस ने प्राचीनों के कहे अनुसार किया। (1 कुरिन्थियों 8:13) बेशक इसके लिए पौलुस को बहुत ज़्यादा नम्र होने की ज़रूरत थी, और इस बात से हमारे दिल में पौलुस के लिए और ज़्यादा इज़्ज़त बढ़ जाती है।

[पेज 22, 23 पर तसवीर]

कुछ सालों तक, मसीहियों में मूसा की व्यवस्था के बारे में अलग-अलग विचार कायम रहे