“दो लोगों ने हमारा दरवाज़ा खटखटाया”
“दो लोगों ने हमारा दरवाज़ा खटखटाया”
“हमारी प्यारी बिटिया को गुज़रे दो साल हो गए और तब से हम बेहद दुःखी हैं।” फ्राँस में सॆंट एटयन शहर के ल प्रॉग्र अखबार में छपे एक खत की शुरूआत इन शब्दों से की गयी थी।
“मेलीसा तीन महीने की थी और वह एक भयानक बीमारी, ट्राइसोमी 18 से पीड़ित थी। इस तरह का हादसा सरासर नाइंसाफी लगता है, क्योंकि इसके दुःख से एक इंसान ज़िंदगी भर नहीं उबर पाता। हालाँकि हमें बचपन से कैथोलिक धर्म की शिक्षा दी गयी थी, फिर भी हमें यह सवाल लगातार परेशान कर रहा था कि ‘परमेश्वर अगर तू है, तो ऐसी बातों की इज़ाज़त क्यों देता है?’” इन शब्दों से साफ ज़ाहिर होता है कि जिस माँ ने यह खत लिखा, वह अपने आपमें कितना दुःखी और असहाय महसूस कर रही थी। वह आगे इस तरह लिखती है:
“इन घटनाओं के कुछ समय बाद दो लोगों ने हमारा दरवाज़ा खटखटाया। मैं तुरंत पहचान गयी कि वे यहोवा के साक्षी हैं। मैंने सोचा कि मैं उन्हें अदब से चले जाने को कह दूँगी, मगर फिर मेरा ध्यान उस ब्रोशर पर पड़ा, जो वे मुझे देना चाहते थे। उसका विषय था कि परमेश्वर दुःख को अनुमति क्यों देता है। मैंने उन्हें इस इरादे से अंदर बुलाया कि मैं उन्हें गलत साबित कर दिखाऊँगी। क्योंकि मैं सोच रही थी कि जहाँ तक दुःख सहने की बात है, वह तो हमारे परिवार ने अपनी हिम्मत के बाहर सह लिए हैं और घिसी-पिटी सांत्वनाएँ भी बहुत सुन ली हैं, जैसे ‘परमेश्वर ने ही दिया था और परमेश्वर ने ही उठा लिया।’ साक्षी हमारे घर पर एक घंटे से थोड़ा ज़्यादा रहे। उस दौरान उन्होंने हमदर्दी जताते हुए बड़े ध्यान से मेरी बात सुनी। जब वे जाने को थे उस समय मैं अपने आपमें बड़ा हलका महसूस कर रही थी, इसलिए जब उन्होंने कहा कि वे मुझसे दोबारा मिलना चाहेंगे तो मैं तुरंत राज़ी हो गयी। यह दो साल पहले की बात है। मैं अभी तक यहोवा की साक्षी नहीं बनी हूँ मगर मैंने उनके साथ बाइबल अध्ययन शुरू कर दिया है और जब भी मौका मिलता है उनकी सभाओं में जाती हूँ।”