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यहोवा पर पूरा भरोसा रखिए

यहोवा पर पूरा भरोसा रखिए

यहोवा पर पूरा भरोसा रखिए

‘हे सारे जहान के मालिक यहोवा, तुझ पर ही मेरी आशा है, मैंने जवानी से तुझ पर भरोसा रखा है।’—भजन 71:5, NW.

1. चरवाही का काम करनेवाले लड़के दाऊद के सामने कौन-सी चुनौती खड़ी हुई?

गोलियत, नौ फुट से भी ऊँचे कद का था। इसलिए ताज्जुब नहीं कि सभी इस्राएली सैनिक, युद्ध के मैदान में उसका सामना करने से डरते थे! यह दानव जैसा पलिश्‍ती आदमी, कई हफ्तों से सुबह-शाम इस्राएल की सेना को ताना मार रहा था। वह यह कहकर उनको ललकारता था कि वे उसके पास अपने किसी योद्धा को भेजें जो उसका मुकाबला कर सके। आखिरकार, इस चुनौती को स्वीकार करनेवाला एक जन सामने आया। वह कोई सैनिक नहीं बल्कि भेड़ों को चरानेवाला एक लड़का था। यह लड़का दाऊद, अपने दुश्‍मन गोलियत के सामने और भी छोटा लग रहा था क्योंकि उसका वज़न, गोलियत के कवच और उसके हथियारों के वज़न से भी बहुत कम था! फिर भी, इस लड़के ने दानव जैसे उस आदमी का डटकर सामना किया और हिम्मत की एक बढ़िया मिसाल बना।—1 शमूएल 17:1-51.

2, 3. (क) दाऊद, इतने भरोसे के साथ गोलियत का सामना क्यों कर सका? (ख) हम किन दो कदमों के बारे में चर्चा करेंगे जिनसे हमें यहोवा पर भरोसा रखने में मदद मिलेगी?

2 दाऊद में इतनी हिम्मत कैसे आयी? उसके कुछ शब्दों पर ध्यान दीजिए जो उसने बुढ़ापे में लिखे थे: ‘हे सारे जहान के मालिक यहोवा, तुझ पर ही मेरी आशा है, मैंने जवानी से तुझ पर भरोसा रखा है।’ (भजन 71:5, NW) जी हाँ, दाऊद ने अपने बचपन से ही यहोवा पर पूरा भरोसा रखा था। उसने गोलियत का सामना करते वक्‍त उससे कहा: “तू तो तलवार और भाला और सांग लिए हुए मेरे पास आता है; परन्तु मैं सेनाओं के यहोवा के नाम से तेरे पास आता हूं, जो इस्राएली सेना का परमेश्‍वर है, और उसी को तू ने ललकारा है।” (1 शमूएल 17:45) गोलियत का भरोसा अपने विशाल शरीर की ताकत और हथियारों पर था, जबकि दाऊद का भरोसा यहोवा पर था। जब सारे जहान का मालिक यहोवा, दाऊद के संग था, तो भला वह एक इंसान से क्यों खौफ खाता, फिर चाहे वह दुश्‍मन दिखने में कितना ही भारी भरकम और पूरी तरह हथियारों से लैस क्यों न था?

3 दाऊद के बारे में पढ़ते वक्‍त, क्या आप ऐसा सोचने लगते हैं कि ‘काश, यहोवा पर मेरा विश्‍वास भी उसके जैसा मज़बूत होता?’ ज़रूर हममें से ज़्यादातर लोग यही चाहते हैं। इसलिए आइए गौर करें कि कौन-से दो कदम उठाने से हमें यहोवा पर भरोसा रखने में मदद मिलेगी। पहला कदम, हमें वह आम रुकावट पार करनी होगी जो यहोवा पर भरोसा रखने में आड़े आती है। दूसरा, हमें यहोवा पर भरोसा रखने का असल मतलब जानना होगा।

यहोवा पर भरोसा रखने में आनेवाली एक आम रुकावट को पार करना

4, 5. कई लोग, परमेश्‍वर पर भरोसा रखना क्यों मुश्‍किल पाते हैं?

4 वह क्या बात है जो लोगों को परमेश्‍वर पर भरोसा रखने से रोकती है? कई लोग इसलिए भरोसा नहीं रखते क्योंकि वे नहीं समझ पाते कि दुनिया में इतनी दुःख-तकलीफें क्यों हैं। बहुत-से लोगों को यही सिखाया गया है कि दुःख-तकलीफों का ज़िम्मेदार परमेश्‍वर है। जब किसी हादसे में लोग मर जाते हैं, तो पादरी कहते हैं कि परमेश्‍वर ने उन्हें “उठा लिया” है ताकि वे उसके साथ स्वर्ग में रहें। और कई धर्म-गुरू तो यह भी सिखाते हैं कि दुनिया में कब क्या होना है, यह सब परमेश्‍वर ने बहुत पहले लिख दिया है, यहाँ तक कि उसने हरेक बुरे काम और हरेक हादसे के बारे में पहले से तय कर दिया है। अगर परमेश्‍वर इतना कठोर और पत्थरदिल है, तो उस पर भरोसा रखना वाकई मुश्‍किल होगा। शैतान, जो अविश्‍वासियों के मनों को अंधा कर देता है, इस तरह की सभी “दुष्टात्माओं की शिक्षाओं” को ज़ोर-शोर से बढ़ावा देता है।—1 तीमुथियुस 4:1; 2 कुरिन्थियों 4:4.

5 शैतान यही चाहता है कि यहोवा पर से लोगों का भरोसा उठ जाए। परमेश्‍वर का यह दुश्‍मन नहीं चाहता कि हम इंसान के दुःख-तकलीफों की असली वजहों को जानें। और अगर हमने बाइबल से ये कारण जान लिए हैं, तो शैतान चाहेगा कि हम उन्हें भूल जाएँ। इसलिए अच्छा होगा कि हम समय-समय पर उन तीन बातों पर गौर करें जिनकी वजह से दुनिया में दुःख-तकलीफें हैं। तब हम खुद को यकीन दिला सकेंगे कि हमारे जीवन के दुःखों के लिए यहोवा ज़िम्मेदार नहीं है।—फिलिप्पियों 1:9, 10.

6. पहला पतरस 5:8 में इंसानों के दुःख की कौन-सी एक वजह बतायी गयी है?

6 हमारे जीवन के दुःखों की एक वजह यह है कि शैतान, यहोवा के वफादार लोगों की खराई तोड़ना चाहता है। उसने अय्यूब की खराई तोड़ने की कोशिश की। तब शैतान नाकाम हो गया फिर भी उसने हार नहीं मानी। इस संसार का सरदार होने की वजह से वह यहोवा के वफादार सेवकों को ‘फाड़ खाने’ की फिराक में घूम रहा है। (1 पतरस 5:8) इन वफादार सेवकों में हममें से हरेक शामिल है! शैतान हम पर ऐसे दबाव डालने पर तुला हुआ है जिससे हम यहोवा की सेवा करना छोड़ दें। इसलिए वह अकसर हमें ज़ुल्मों का शिकार बनाता है। हालाँकि ऐसी तकलीफों से गुज़रना बहुत दर्दनाक होता है, मगर हमारे पास धीरज धरने का एक वाजिब कारण भी है। वह यह है कि हम अपने धीरज से शैतान को झूठा साबित करने में हिस्सा लेते हैं और यहोवा को खुश करते हैं। (अय्यूब 2:4; नीतिवचन 27:11) परीक्षाओं के दौरान जब यहोवा हमें धीरज धरने के लिए मज़बूत करता है, तो उस पर हमारा भरोसा बढ़ने लगता है।—भजन 9:9, 10.

7. गलतियों 6:7, हमें दुःख-तकलीफों की कौन-सी वजह जानने में मदद देता है?

7 दुःख-तकलीफों की दूसरी वजह, इस सिद्धांत में बतायी गयी है: “मनुष्य जो कुछ बोता है, वही काटेगा।” (गलतियों 6:7) कभी-कभी लोग गलत फैसले करके बोते हैं और फिर मुसीबतों की कटनी काटते हैं। हो सकता है, वे गाड़ी चलाते वक्‍त लापरवाह हों और इसलिए दुर्घटना के शिकार हो जाएँ। बहुत-से लोग धूम्रपान करने का चुनाव करते हैं जिससे दिल की बीमारी या फेफड़ों का कैंसर होता है। जो लोग बदचलन ज़िंदगी जीना पसंद करते हैं, वे कई तरह की मुसीबतें मोल लेते हैं। उनका परिवार टूट जाता है, वे खुद की नज़रों में गिर जाते हैं, उन्हें लैंगिक संबंधों से फैलनेवाली बीमारियाँ हो जाती हैं और अनचाहे गर्भ का भी दुःख उठाना पड़ता है। इन सारी मुसीबतों के लिए शायद लोग परमेश्‍वर को दोषी ठहराएँ, मगर सच तो यह है कि वे अपने ही गलत फैसलों का अंजाम भुगतते हैं।—नीतिवचन 19:3.

8. सभोपदेशक 9:11 के मुताबिक, लोग क्यों दुःख उठाते हैं?

8 इंसान के दुःखों की तीसरी वजह, सभोपदेशक 9:11 में बतायी गयी है: “मैं ने धरती पर देखा कि न तो दौड़ में वेग दौड़नेवाले और न युद्ध में शूरवीर जीतते; न बुद्धिमान लोग रोटी पाते न समझवाले धन, और न प्रवीणों पर अनुग्रह होता है; वे सब समय और संयोग के वश में है।” कभी-कभी लोगों के दुःखों की वजह बस यह होती है कि वे गलत समय पर, गलत जगह होते हैं। दुःख-तकलीफें और मौत, किसी भी वक्‍त और किसी को भी अपना निशाना बना सकती हैं, फिर चाहे वे कितने ही सेहतमंद हों या फिर कमज़ोर। मसलन, यीशु के दिनों में जब यरूशलेम में अचानक एक गुम्मट गिर गया तो 18 लोग मारे गए। यीशु ने समझाया कि परमेश्‍वर उस हादसे के शिकार लोगों को अपने पापों की सज़ा नहीं दे रहा था। (लूका 13:4) जी हाँ, ऐसे दुःखों के लिए यहोवा को ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता।

9. बहुत-से लोग दुःख-तकलीफों के बारे में क्या नहीं समझ पाते?

9 दुःख-तकलीफों की कुछ वजह जानना तो ज़रूरी है ही, मगर इस विषय का एक और पहलू भी है जिसे हमें समझना होगा। उसे समझना बहुत-से लोगों को मुश्‍किल लगता है। वह है कि आखिर यहोवा, इंसान पर दुःख-तकलीफें क्यों आने देता है?

यहोवा दुःख-तकलीफें क्यों आने देता है?

10, 11. (क) रोमियों 8:19-22 के मुताबिक “सारी सृष्टि” के साथ क्या हुआ? (ख) हम यह कैसे पता कर सकते हैं कि किसने सृष्टि को व्यर्थता के अधीन किया?

10 रोमियों को लिखी प्रेरित पौलुस की पत्री की कुछ आयतें, हमें इस अहम विषय के बारे में कुछ जानकारी देती हैं। पौलुस ने लिखा: “सृष्टि बड़ी आशाभरी दृष्टि से परमेश्‍वर के पुत्रों के प्रगट होने की बाट जोह रही है। क्योंकि सृष्टि अपनी इच्छा से नहीं पर आधीन करनेवाले की ओर से व्यर्थता के आधीन इस आशा से की गई। कि सृष्टि भी आप ही विनाश के दासत्व से छुटकारा पाकर, परमेश्‍वर की सन्तानों की महिमा की स्वतंत्रता प्राप्त करेगी। क्योंकि हम जानते हैं, कि सारी सृष्टि अब तक मिलकर कहरती और पीड़ाओं में पड़ी तड़पती है।”—रोमियों 8:19-22.

11 इन आयतों का असली मुद्दा समझने के लिए, हमें कुछ ज़रूरी सवालों के जवाब जानने होंगे जैसे, वह कौन था जिसने सृष्टि को व्यर्थता के अधीन कर दिया? कुछ लोग कहते हैं शैतान ने ऐसा किया, तो कुछ कहते हैं आदम ने। लेकिन इन दोनों में से कोई भी नहीं हो सकता। क्यों नहीं? क्योंकि आयत कहती है कि जिसने सृष्टि को व्यर्थता के अधीन किया, उसने उसे एक “आशा” भी दी है। जी हाँ, उसने यह आशा दी है कि वफादार लोगों को आखिरकार “विनाश के दासत्व से छुटकारा” दिलाया जाएगा। ऐसी उज्ज्वल आशा न तो आदम, ना ही शैतान दे सकता था। सिर्फ यहोवा दे सकता था। तो इससे साफ है कि यहोवा ने ही सृष्टि को व्यर्थता के अधीन किया है।

12. “सारी सृष्टि” के बारे में लोगों की कौन-सी अलग-अलग राय है, और इसका मतलब कैसे समझाया जा सकता है?

12 मगर उन आयतों में बतायी गयी “सारी सृष्टि” क्या है? कुछ लोग कहते हैं कि “सारी सृष्टि” का मतलब, सारी प्रकृति और उसमें पाए जानेवाले सभी जीव-जंतु और पेड़-पौधे हैं। लेकिन क्या जानवर और पेड़-पौधे “परमेश्‍वर की सन्तानों की महिमा की स्वतंत्रता” पाने की आशा रखते हैं? नहीं। (2 पतरस 2:12) इसलिए “सारी सृष्टि” का मतलब सिर्फ इंसान हो सकता है। यही वह सृष्टि है जिस पर अदन में हुई बगावत की वजह से पाप और मौत का कहर टूट पड़ा है और जिसे आशा की सख्त ज़रूरत है।—रोमियों 5:12.

13. अदन में हुई बगावत का इंसानों पर क्या असर पड़ा?

13 अदन में हुई बगावत का इंसानों पर दरअसल क्या असर हुआ? उस बगावत के अंजामों के बारे में बताने के लिए पौलुस सिर्फ एक शब्द का इस्तेमाल करता है। वह है, व्यर्थता। एक किताब के मुताबिक, इस शब्द का मतलब है “किसी चीज़ की व्यर्थता, जो उस काम को पूरा नहीं करती जिसके लिए उसे रचा गया है।” इंसानों की रचना इस तरह की गयी थी कि वे सदा तक जीएँ, सिद्ध लोगों का एक परिवार बनकर मिल-जुलकर रहें और धरती पर फिरदौस की अच्छी देखभाल करें। लेकिन आज इंसानों की हालत कुछ और है। उनकी ज़िंदगी बस चार दिन की है और वह भी हमेशा चिंताओं से घिरी होती है, उन्हें कदम-कदम पर कितने ही दुःख झेलने पड़ते हैं। अय्यूब के शब्दों में कहें तो, “मनुष्य जो स्त्री से उत्पन्‍न होता है, वह थोड़े दिनों का और दुख से भरा रहता है।” (अय्यूब 14:1) इंसान सचमुच व्यर्थता के अधीन हैं!

14, 15. (क) इंसानों को व्यर्थता के अधीन करके, यहोवा ने इंसाफ कैसे किया? (ख) पौलुस ने ऐसा क्यों कहा कि सृष्टि “अपनी इच्छा” से व्यर्थता के अधीन नहीं हुई?

14 अब हम इस अहम सवाल पर ध्यान देंगे: ‘सारी पृथ्वी के न्यायी’ यहोवा ने आखिर इंसानों को ऐसी दर्दनाक ज़िंदगी जीने के लिए क्यों छोड़ दिया? (उत्पत्ति 18:25) क्या यह इंसाफ था? इसका जवाब पाने के लिए, याद कीजिए कि हमारे पहले माता-पिता ने क्या किया। परमेश्‍वर के खिलाफ बगावत करके, असल में उन्होंने शैतान की तरफ होने का फैसला किया जिसने यहोवा की हुकूमत को बहुत बड़ी चुनौती दी थी। आदम और हव्वा ने अपने कामों से दिखाया कि वे इस दावे का समर्थन करते हैं कि इंसान अगर यहोवा को छोड़ दे, और उस विद्रोही आत्मिक प्राणी शैतान के कहे अनुसार खुद दुनिया को चलाए तो वह ज़्यादा खुशहाल रहेगा। यहोवा ने उन बागियों को सज़ा देकर, असल में उनको वही दिया जिसकी उन्होंने माँग की थी। उसने इंसान को शैतान के इशारे पर दुनिया चलाने की इजाज़त दी। ऊपर बताए हालात में यहोवा की तरफ से सबसे बेहतर इंसाफ यही था कि वह इंसानों को एक आशा देकर व्यर्थता के अधीन कर दे।

15 यह सच है कि सृष्टि “अपनी इच्छा” से व्यर्थता के अधीन नहीं हुई। हम जन्म से ही पाप और विनाश के दास हैं, इसका चुनाव हमने नहीं किया। मगर, यह यहोवा की दया थी कि उसने आदम और हव्वा को कुछ साल जीने और संतान पैदा करने का मौका दिया। हालाँकि उनकी संतान यानी हम, पाप और मौत की व्यर्थता के अधीन किए गए हैं, फिर भी हमारे पास वह काम करने का मौका है जिसे करने में आदम और हव्वा नाकाम हो गए थे। हम यहोवा की बात मान सकते हैं और यह जान सकते हैं कि यहोवा की हुकूमत, धर्मी उसूलों के मुताबिक और बिलकुल सही है, जबकि यहोवा को छोड़कर इंसान हुकूमत करे तो उसका नतीजा सिर्फ दुःख-दर्द, निराशा और व्यर्थता होगी। (यिर्मयाह 10:23; प्रकाशितवाक्य 4:11) और उस पर, अगर शैतान का दबदबा हो तो हालत का बदतर होना तय है। इतिहास इन सच्चाइयों का गवाह है।—सभोपदेशक 8:9.

16. (क) हम क्यों पूरे यकीन के साथ कह सकते हैं कि आज की तकलीफों के लिए यहोवा ज़िम्मेदार नहीं है? (ख) वफादार लोगों के लिए प्यार होने की वजह से यहोवा ने उन्हें क्या आशा दी?

16 यह बात बिलकुल साफ है कि यहोवा ने कुछ वाजिब कारणों से ही इंसान को व्यर्थता के अधीन किया। लेकिन क्या इसका मतलब यह है कि आज हममें से हरेक जन जिस व्यर्थता और दुःख का सामना करता है, उसका ज़िम्मेदार यहोवा ही है? इसे समझने के लिए एक न्यायी के बारे में सोचिए जो एक अपराधी को न्याय के मुताबिक सज़ा सुनाता है। अपराधी को अपनी सज़ा काटते वक्‍त कई तकलीफें झेलनी पड़ सकती हैं, मगर क्या वह अपनी तकलीफों के लिए उस न्यायी को कसूरवार ठहरा सकता है? हरगिज़ नहीं! उसी तरह यहोवा भी हमारी दुःख-तकलीफों के लिए ज़िम्मेदार नहीं है। एक और बात यह है कि यहोवा कभी-भी दुष्ट काम नहीं करता। याकूब 1:13 कहता है: “न तो बुरी बातों से परमेश्‍वर की परीक्षा हो सकती है, और न वह किसी की परीक्षा आप करता है।” हम यह भी याद रखें कि यहोवा ने इंसानों को सज़ा सुनाते वक्‍त उन्हें एक “आशा” दी थी। आदम और हव्वा की वफादार संतान से प्यार होने की वजह से, उसने ऐसे इंतज़ाम किए हैं जिनसे वे व्यर्थता का नामोनिशान मिटते हुए देख सकें और “परमेश्‍वर की सन्तानों की महिमा की स्वतंत्रता” पाएँ। इस आशा के पूरा होने के बाद, अनंतकाल तक वफादार इंसानों को यह चिंता नहीं करनी पड़ेगी कि सारी सृष्टि फिर से कहीं व्यर्थता के दर्दनाक हालात में न पड़ जाए। यहोवा अपनी हुकूमत के बारे में उठे मसले को धार्मिकता के मुताबिक इस तरह निपटा देगा कि हमेशा-हमेशा के लिए उसका हल हो जाएगा।—यशायाह 25:8.

17. दुःख-तकलीफों की वजह के बारे में समय-समय पर मनन करने से हम पर कैसा असर होना चाहिए?

17 इंसान के दुःखों की इन वजहों पर ध्यान देने से, क्या शक की कोई गुंजाइश रह जाती है जिससे हम दुष्टता के लिए यहोवा को दोषी ठहराएँ या उस पर से हमारा भरोसा उठ जाए? नहीं, इसके बजाय इन वजहों की गहरी जाँच करने से हम भी मूसा की तरह महसूस करते हैं जिसने कहा था: “वह चट्टान है, उसका काम खरा है; और उसकी सारी गति न्याय की है। वह सच्चा ईश्‍वर है, उस में कुटिलता नहीं, वह धर्मी और सीधा है।” (व्यवस्थाविवरण 32:4) आइए हम समय-समय पर इन बातों पर मनन करें और खुद को परखें कि हम इस विषय के बारे में कितनी अच्छी समझ रखते हैं। ऐसा करने से हम परीक्षाओं के दौर में, शैतान का विरोध कर पाएँगे जो हमारे मन में शक के बीज बोने की कोशिश करता है। लेकिन शुरू में बताए गए दूसरे कदम के बारे में क्या? यहोवा पर भरोसा रखने का मतलब क्या है?

यहोवा पर भरोसा रखने का मतलब

18, 19. बाइबल हमें किन शब्दों में यहोवा पर भरोसा रखने का बढ़ावा देती है, मगर इस बारे में कुछ लोग कैसी गलत धारणाएँ रखते हैं?

18 परमेश्‍वर का वचन हमें उकसाता है: “तू अपनी समझ का सहारा न लेना, वरन सम्पूर्ण मन से यहोवा पर भरोसा रखना। उसी को स्मरण करके सब काम करना, तब वह तेरे लिये सीधा मार्ग निकालेगा।” (नीतिवचन 3:5, 6) ये क्या ही मनभावने और हिम्मत बढ़ानेवाले शब्द हैं! इसमें कोई शक नहीं कि पूरे विश्‍व में, हमारे प्यारे स्वर्गीय पिता से बढ़कर भरोसेमंद और कोई नहीं है। लेकिन नीतिवचन में कहे उन शब्दों को पढ़ना आसान है, पर उन्हें अमल में लाना शायद मुश्‍किल हो।

19 यहोवा पर भरोसा रखना क्या होता है, इस बारे में कई लोग गलत धारणाएँ रखते हैं। कुछ लोग सोचते हैं कि भरोसा रखने का मतलब एक खुशी की भावना है जो हमारे दिल में अपने आप पैदा होनी चाहिए। दूसरे मानते हैं कि परमेश्‍वर पर भरोसा रखने का मतलब है उससे यह उम्मीद करना कि वह हमें हर तकलीफ से बचाए रखे, हमारी हर समस्या दूर करे और रोज़ाना के मुश्‍किल हालात को बिलकुल उसी तरह हल कर दे जैसे हम चाहते हैं, और वह भी फौरन! लेकिन ऐसी धारणाएँ बेबुनियाद हैं। भरोसे का मतलब सिर्फ एक भावना या कोरी कल्पना नहीं है। जो उम्र में बड़े हैं, उनके लिए भरोसा रखने में काफी सोच-समझकर फैसले करने की बात शामिल है।

20, 21. यहोवा पर भरोसा रखने का मतलब क्या है? उदाहरण देकर समझाइए।

20 फिर से देखिए कि नीतिवचन 3:5 क्या कहता है। यह आयत दिखाती है कि यहोवा पर भरोसा रखने और अपनी समझ का सहारा लेने के बीच फर्क है। यह दिखाता है कि हम दोनों काम एक-साथ नहीं कर सकते। मगर क्या इसका यह मतलब है कि हमें अपनी सोचने-समझने की काबिलीयतों का इस्तेमाल करने की इजाज़त नहीं है? ऐसी बात नहीं है, क्योंकि यहोवा ने ही हमें ये काबिलीयतें दी हैं और वह चाहता है कि हम उसकी सेवा करते वक्‍त उनका इस्तेमाल करें। लेकिन सवाल यह है कि हम ज़िंदगी के फैसले करते वक्‍त किसका सहारा लेते हैं या किस पर निर्भर रहते हैं? अगर हमारे सोच-विचार, यहोवा के सोच-विचार से मेल नहीं खाते, तो क्या हम यहोवा की बुद्धि को कबूल करते हैं, यह जानते हुए कि उसकी बुद्धि हमारी बुद्धि से कहीं ज़्यादा श्रेष्ठ है? (यशायाह 55:8, 9) यहोवा पर भरोसा रखने का मतलब है, अपने विचारों को उसके विचारों के मुताबिक ढालना।

21 इसे समझने के लिए एक उदाहरण लीजिए: कल्पना कीजिए कि एक छोटा बच्चा कार की पिछली सीट पर बैठा है और उसके माता-पिता सामनेवाली सीट पर हैं। पिता कार चला रहा है। अगर वह बच्चा माता-पिता की बात माननेवाला है और उसे उन पर पूरा भरोसा है, तो वह सफर के दौरान आनेवाली मुश्‍किलों के वक्‍त कैसे पेश आएगा? जैसे, अगर यह फैसला करना पड़े कि कौन-सा रास्ता लेना ठीक रहेगा या मौसम के खराब रहने या टूटी-फूटी सड़क की वजह से कुछ समस्याएँ खड़ी हो जाएँ, तो वह क्या करेगा? क्या वह पीछे से चिल्ला-चिल्लाकर अपने पिता को बताएगा कि किस दिशा में जाना है या किस तरह कार चलानी है? क्या वह अपने माता-पिता के फैसलों पर शक करेगा या जब वे उससे कहेंगे कि वह अपनी सीट-बेल्ट पहने चुपचाप बैठा रहे, तो उनका विरोध करेगा? नहीं, बल्कि उसे अपने माता-पिता पर पूरा भरोसा होगा कि वे मुश्‍किलों का सही तरह से सामना कर सकेंगे, इसके बावजूद कि वे असिद्ध हैं। अब अगर हम यहोवा के बारे में सोचें, तो वह एक सिद्ध पिता है। क्या हमें उस पर पूरा भरोसा नहीं रखना चाहिए कि वह ज़रूर हमारी मदद करेगा, खासकर तब जब हमारे सामने मुश्‍किल हालात पैदा होते हैं?—यशायाह 30:21.

22, 23. (क) जब हमारे सामने समस्याएँ आती हैं, तब हमें यहोवा पर भरोसा क्यों रखना चाहिए, और यह हम कैसे कर सकते हैं? (ख) अगले लेख में किस बात पर चर्चा की जाएगी?

22 लेकिन नीतिवचन 3:6 बताता है कि हमें न सिर्फ संकटों के दौर में बल्कि ‘सब काम करते वक्‍त यहोवा को स्मरण करना’ चाहिए। इसका मतलब है कि रोज़मर्रा के जीवन में हम जो भी फैसले करते हैं, उनसे ज़ाहिर होना चाहिए कि हमें यहोवा पर भरोसा है। जब समस्याएँ आती हैं, तब हमें न तो निराश होना चाहिए, ना ही घबराना चाहिए। और समस्याओं को सही तरह से निपटाने के लिए यहोवा जो बेहतरीन सलाह देता है, उसे ठुकराना नहीं चाहिए। परीक्षाओं के बारे में हमें यह सही नज़रिया रखना चाहिए कि उनसे हमें यहोवा की हुकूमत की पैरवी करने, शैतान को झूठा साबित करने, साथ ही आज्ञा मानने का नज़रिया पैदा करने और यहोवा को भानेवाले दूसरे गुण बढ़ाने का मौका मिलता है।—इब्रानियों 5:7, 8.

23 हमारे सामने चाहे किसी भी तरह की रुकावटें आएँ, हम यहोवा पर भरोसा ज़रूर दिखा सकते हैं। हम अपनी प्रार्थनाओं से, साथ ही सलाह के लिए यहोवा के वचन और उसके संगठन की ओर देखने के ज़रिए अपना भरोसा दिखा सकते हैं। लेकिन जब ज़िंदगी में समस्याएँ पैदा होती हैं, तब खासकर हम यहोवा पर भरोसा कैसे दिखा सकते हैं? इस विषय पर हमारे अगले लेख में चर्चा की जाएगी।

आपका जवाब क्या होगा?

• दाऊद ने कैसे दिखाया कि वह यहोवा पर भरोसा रखता है?

• किन तीन वजहों से आज इंसानों को दुःख झेलने पड़ते हैं, और उनके बारे में समय-समय पर मनन करना क्यों अच्छा रहेगा?

• यहोवा ने इंसानों को क्या सज़ा सुनायी, और ऐसा करना क्यों इंसाफ था?

• यहोवा पर भरोसा रखने का मतलब क्या है?

[अध्ययन के लिए सवाल]

[पेज 8 पर तसवीरें]

दाऊद ने यहोवा पर भरोसा रखा

[पेज 10 पर तसवीर]

यीशु ने समझाया कि यरूशलेम में जो गुम्मट गिर गया था, उसके लिए यहोवा ज़िम्मेदार नहीं था