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परीक्षाओं में धीरज धरने से यहोवा की स्तुति होती है

परीक्षाओं में धीरज धरने से यहोवा की स्तुति होती है

परीक्षाओं में धीरज धरने से यहोवा की स्तुति होती है

“यदि भला काम करके दुख उठाते हो और धीरज धरते हो, तो यह परमेश्‍वर को भाता है।”—1 पतरस 2:20.

1. यह ध्यान में रखते हुए कि सच्चे मसीही, अपने समर्पण के मुताबिक जीना चाहते हैं, हमें किस सवाल पर गौर करना चाहिए?

मसीहियों ने अपनी ज़िंदगी यहोवा को समर्पित कर दी है और वे उसकी मरज़ी पूरी करना चाहते हैं। अपने समर्पण के मुताबिक जीने के लिए, वे अपने आदर्श, यीशु मसीह के नक्शे-कदम पर चलने और सच्चाई की गवाही देने में जी-जान से कोशिश कर रहे हैं। (मत्ती 16:24; यूहन्‍ना 18:37; 1 पतरस 2:21) लेकिन यीशु और दूसरे वफादार लोग अपने विश्‍वास की खातिर शहीद हो गए थे। तो क्या इसका यह मतलब है कि सभी मसीहियों को अपने विश्‍वास की खातिर शहीद होना पड़ेगा?

2. परीक्षाओं और दुःखों के बारे में मसीही, कैसा नज़रिया रखते हैं?

2 हम मसीहियों को उकसाया जाता है कि हम मरते दम तक अपनी वफादारी बनाए रखें। मगर इसका मतलब यह नहीं है कि हममें से हरेक को अपने विश्‍वास की खातिर जान देनी ही पड़ेगी। (2 तीमुथियुस 4:7; प्रकाशितवाक्य 2:10) यह सच है कि हम अपने विश्‍वास की खातिर दुःख झेलने और ज़रूरत पड़े तो जान तक देने के लिए तैयार हैं, मगर हम जानबूझकर ऐसे दुःख झेलना या मरना पसंद नहीं करते। परीक्षाओं की आग से गुज़रने या शर्मनाक हालात का सामना करने में हमें मज़ा नहीं आता। क्योंकि यह बात तय है कि हमें परीक्षाओं और ज़ुल्मों का सामना ज़रूर करना पड़ेगा, इसलिए हमें पहले से अच्छी तरह सोचना लेना चाहिए कि जब ऐसे हालात आएँगे तो हम कैसा रवैया दिखाएँगे।

परीक्षाओं के दौर में वफादार

3. ज़ुल्मों का सामना करने के बारे में आप बाइबल की कौन-सी मिसालें बता सकते हैं? (अगले पेज पर दिया बक्स “उन्होंने ज़ुल्मों का सामना कैसे किया” देखिए।)

3 बाइबल में ऐसे ढेरों किस्से दिए गए हैं, जो दिखाते हैं कि पुराने ज़माने में, विश्‍वास की वजह से जब यहोवा के सेवकों की जान खतरे में पड़ गयी थी तो उन्होंने क्या किया। उन्होंने जो-जो किया उससे मसीही सीख सकते हैं कि अगर उन्हें भी ऐसे हालात का सामना करना पड़ा, तो उन्हें क्या करना चाहिए। “उन्होंने ज़ुल्मों का सामना कैसे किया,” बक्स में दिए वृत्तांतों को पढ़िए और देखिए कि आप उनसे क्या सीख सकते हैं।

4. यीशु और दूसरे वफादार सेवकों ने परीक्षाओं के वक्‍त जो किया, उसके बारे में क्या कहा जा सकता है?

4 हालाँकि यीशु और परमेश्‍वर के दूसरे वफादार सेवकों ने सताए जाने पर, हालात के मुताबिक अलग-अलग कदम उठाए, मगर उन्होंने कभी-भी बेवजह अपनी जान जोखिम में नहीं डाली। जब उनके सामने खतरनाक हालात पैदा हुए, तो उन्होंने हिम्मत दिखाने के साथ-साथ होशियारी से भी काम लिया। (मत्ती 10:16, 23) उनका मकसद था, प्रचार काम को आगे बढ़ाना और यहोवा के लिए अपनी खराई बनाए रखना। उन्होंने अलग-अलग हालात में जो कदम उठाए, वह उन मसीहियों के लिए एक मिसाल है जो परीक्षाओं और ज़ुल्मों का सामना कर रहे हैं।

5. सन्‌ 1960 से आगे के सालों में मलावी में साक्षियों पर कैसे ज़ुल्म ढाए गए, और उन्होंने क्या किया?

5 आज के ज़माने में यहोवा के लोगों को युद्धों, पाबंदियों और सरेआम किए जानेवाले अत्याचार की वजह से कई बार, कड़ी-से-कड़ी परीक्षाओं और घोर तंगी का सामना करना पड़ा है। मसलन, सन्‌ 1960 से आगे के सालों में मलावी के साक्षियों को बड़ी बेरहमी से सताया गया। उनके किंगडम हॉल, घर, उनका राशन-पानी, व्यापार, लगभग उनका सबकुछ तबाह कर दिया गया। उन्हें जानवरों की तरह पीटा गया और उनके साथ बेहद घिनौना सलूक किया गया। ऐसे में भाइयों ने क्या किया? हज़ारों भाई-बहनों को अपने गाँव छोड़कर भागना पड़ा। उनमें से कई लोगों को अपनी जान बचाने के लिए जंगलों में छिपना पड़ा, तो दूसरों को कुछ समय के लिए शरणार्थी बनकर पड़ोसी देश मोज़म्बिक जाना पड़ा। कई वफादार लोगों की जानें गयीं तो कइयों ने खतरे का वह इलाका छोड़कर कहीं और भाग जाना ठीक समझा, क्योंकि ऐसे हालात में उनके लिए यह सही फैसला था। इस तरह वे यीशु और पौलुस के नक्शे-कदम पर चले।

6. मलावी के साक्षियों ने बुरी तरह सताए जाने के बावजूद, क्या करना नहीं छोड़ा?

6 हालाँकि मलावी के भाइयों को अपना देश छोड़कर कहीं और जाना या छिपना पड़ा, मगर फिर भी उन्होंने संगठन की तरफ से मिलनेवाली हिदायतें जानने की कोशिश की और उनके मुताबिक काम किया। और उनसे जितना बन पड़ा, उतना वे लुक-छिपकर मसीही सेवा में लगे रहे। नतीजा क्या था? सन्‌ 1967 में मलावी में साक्षियों के काम पर पाबंदी लगने के कुछ ही समय पहले, 18,519 राज्य प्रचारकों ने रिपोर्ट दी। यह तब तक की सबसे ज़्यादा संख्या थी। और जिस दौरान कई साक्षी मोज़म्बिक जा बसे और मलावी पर पाबंदी लगी हुई थी, तब भी मलावी में काम जारी रहा। इसलिए वहाँ सन्‌ 1972 तक प्रचारकों की गिनती बढ़कर 23,398 हो गयी जो कि एक नया शिखर था। उन्होंने हर महीने, प्रचार में औसतन 16 से ज़्यादा घंटे बिताए। इसमें कोई शक नहीं कि उनकी सेवा से दूर-दूर तक यहोवा की स्तुति गूँज उठी और कठिन परीक्षाओं के उस दौर में यहोवा ने उन वफादार भाइयों की मदद की। *

7, 8. किन कारणों से कुछ भाई, विरोध के बावजूद अपने ही देश में रहने का फैसला करते हैं?

7 दूसरी तरफ, जिन देशों में विरोध की वजह से समस्याएँ खड़ी हो रही हैं, वहाँ के कुछ भाई अपने ही देश में रहने का फैसला करते हैं, जबकि चाहे तो वे दूसरे देश में जा सकते हैं। विदेश में जा बसने से उनकी कुछ समस्याओं का हल ज़रूर होगा, मगर इससे दूसरी चुनौतियाँ खड़ी हो सकती हैं। जैसे, वे सोचते हैं कि दूसरे देश में जा बसने से, क्या वे मसीही भाइयों के साथ संगति कर पाएँगे या कहीं आध्यात्मिक मायने में अकेले तो नहीं पड़ जाएँगे? अगर वे किसी अमीर देश में या जहाँ दौलत कमाने के अच्छे आसार नज़र आते हैं वहाँ बस जाएँ, तो क्या वहाँ अपने पैर जमाने के लिए कड़ा संघर्ष करने के साथ-साथ वे आध्यात्मिक कामों में भी लगातार हिस्सा ले पाएँगे?—1 तीमुथियुस 6:9.

8 दूसरे लोग विदेश जाना इसलिए पसंद नहीं करते क्योंकि उन्हें अपने देश के भाइयों की आध्यात्मिक खैरियत की फिक्र रहती है। उन्हें अपने ही देश में रहकर हालात का सामना करना मंज़ूर है, क्योंकि वे अपने इलाके में प्रचार में लगे रहकर भाई-बहनों की लगातार हिम्मत बढ़ाना चाहते हैं। (फिलिप्पियों 1:14) यह फैसला करने की वजह से कुछ भाइयों ने अपने देश में प्रचार काम की आज़ादी के लिए कानूनी लड़ाइयाँ लड़ी हैं और आखिरकार उन्हें जीत मिली है। *

9. ज़ुल्मों की वजह से विदेश में जा बसना है या नहीं, इसका फैसला करते वक्‍त एक मसीही को किन बातों पर सोचना चाहिए?

9 अपने ही देश में रहने या विदेश में जा बसने का फैसला करना, हरेक का अपना निजी मामला है। लेकिन यह फैसला करने से पहले, प्रार्थना में यहोवा से मार्गदर्शन माँगना ज़रूरी है। हमने चाहे जो भी फैसला किया हो, हमें प्रेरित पौलुस के ये शब्द हमेशा याद रखने चाहिए: “हम में से हर एक परमेश्‍वर को अपना अपना लेखा देगा।” (रोमियों 14:12) जैसे हमने पहले देखा, यहोवा अपने हरेक सेवक से खासकर यही चाहता है कि वह हमेशा उसका वफादार रहे, फिर चाहे उसे कैसे भी हालात का सामना क्यों न करना पड़े। उसके कुछ सेवकों को आज परीक्षाओं और ज़ुल्मों का सामना करना पड़ रहा है; दूसरों को शायद कल इनका सामना करना पड़े। सभी को किसी-न-किसी तरीके से परखा जाएगा, इससे छूट पाने की कोई उम्मीद नहीं कर सकता। (यूहन्‍ना 15:19, 20) हमने अपना जीवन यहोवा को समर्पित किया है, इसलिए हम उसके नाम के पवित्र किए जाने और उसकी हुकूमत बुलंद किए जाने के मसले को किनारा करके आगे नहीं बढ़ सकते।—यहेजकेल 38:23; मत्ती 6:9, 10.

“बुराई के बदले किसी से बुराई न करो”

10. यीशु और प्रेरितों ने विरोध और मुश्‍किलों का सामना करने में हमारे लिए कौन-सी अच्छी मिसाल रखी?

10 यीशु और प्रेरितों ने मुश्‍किलों के वक्‍त जो रवैया दिखाया, उससे हम एक और बढ़िया सबक सीखते हैं कि हमें अपने विरोधियों से कभी-भी बदला नहीं लेना चाहिए। बाइबल में इस बात का इशारा तक नहीं मिलता कि यीशु और उसके चेलों ने गुट बनाकर अपने सतानेवालों के खिलाफ कोई आंदोलन चलाया हो या उनसे लड़ने के लिए हिंसा का रास्ता अपनाया हो। इसके बजाय, प्रेरित पौलुस ने मसीहियों को सलाह दी: “बुराई के बदले किसी से बुराई न करो।” “हे प्रियो अपना पलटा न लेना; परन्तु क्रोध को अवसर दो, क्योंकि लिखा है, पलटा लेना मेरा काम है, प्रभु कहता है मैं ही बदला दूंगा।” उसने यह भी कहा: “बुराई से न हारो परन्तु भलाई से बुराई को जीत लो।”—रोमियों 12:17-21; भजन 37:1-4; नीतिवचन 20:22.

11. एक इतिहासकार के मुताबिक शुरू के मसीहियों ने सरकार की ओर कैसा रुख अपनाया?

11 शुरूआती मसीहियों ने पौलुस की उस सलाह को दिल में बसा लिया। इतिहासकार सीसल जे. कादू ने अपनी किताब शुरू का चर्च और दुनिया (अँग्रेज़ी) में बताया कि सा.यु. 30-70 के दौरान मसीहियों ने सरकार की तरफ कैसा रुख अपनाया। उसने लिखा: “हमारे पास कोई सबूत नहीं कि उस दौरान रहनेवाले मसीहियों ने, ज़ुल्मों का सामना करने के लिए मार-पीट का रास्ता अपनाया था। वे चाहते तो ज़्यादा-से-ज़्यादा इतना ही करते कि अपने शासकों की बुरी तरह निंदा करते या उनको चकमा देकर कहीं भाग जाते। लेकिन, आम तौर पर ज़ुल्मों के वक्‍त मसीही आपे से बाहर नहीं गए, बस उन्होंने सरकार के उन हुक्मों को मानने से साफ इनकार कर दिया जो उनकी नज़र में मसीह की आज्ञाओं के खिलाफ थे।”

12. बदला लेने के बजाय, धीरज धरना क्यों बेहतर है?

12 लेकिन क्या इस तरह चुपचाप ज़ुल्म सहना वाकई अक्लमंदी है? क्या इस तरह दुःख झेलने से, वे लोग हमारा नाजायज़ फायदा नहीं उठाएँगे जो हमारा नामो-निशान मिटाने पर तुले हुए हैं? क्या अपनी हिफाज़त करना समझदारी नहीं होगी? इंसानी नज़रिए से देखें तो ऐसा करना सही लग सकता है। लेकिन, यहोवा के सेवक होने के नाते हमें पक्का विश्‍वास है कि सभी मामलों में यहोवा की हिदायतों पर चलना सबसे बड़ी अक्लमंदी है। हम पतरस के इन शब्दों को हमेशा ध्यान में रखते हैं: “यदि भला काम करके दुख उठाते हो और धीरज धरते हो, तो यह परमेश्‍वर को भाता है।” (1 पतरस 2:20) हमें पूरा भरोसा है कि हमारे साथ जो हो रहा है उससे यहोवा पूरी तरह वाकिफ है और वह ऐसे हालात को हमेशा तक नहीं रहने देगा। हम इतने यकीन के साथ यह कैसे कह सकते हैं? यहोवा ने बाबुल में कैद अपने लोगों से कहा था: “जो तुम को छूता है, वह मेरी आंख की पुतली ही को छूता है।” (जकर्याह 2:8) सोचिए कि अगर किसी की आँख की पुतली को छुआ जाए, तो वह कब तक बरदाश्‍त करता रहेगा? तो ज़ाहिर है कि यहोवा भी हम पर होनेवाले ज़ुल्मो-सितम को यूँ ही बर्दाश्‍त नहीं करता रहेगा बल्कि ठीक समय पर हमें छुटकारा दिलाएगा। इस बात में शक की ज़रा भी गुंजाइश नहीं है।—2 थिस्सलुनीकियों 1:5-8.

13. यीशु ने दुश्‍मनों के हाथों क्यों खुद को गिरफ्तार होने दिया?

13 इस मामले में हम अपने आदर्श यीशु से कुछ सीख सकते हैं। जब उसने गतसमनी बाग में दुश्‍मनों के हाथों खुद को गिरफ्तार होने दिया, तो इसकी वजह यह नहीं थी कि वह अपनी हिफाज़त नहीं कर सकता था। दरअसल उसने अपने चेलों में से एक से कहा था: “क्या तू नहीं समझता, कि मैं अपने पिता से बिनती कर सकता हूं, और वह स्वर्गदूतों की बारह पलटन से अधिक मेरे पास अभी उपस्थित कर देगा? परन्तु पवित्र शास्त्र की वे बातें कि ऐसा ही होना अवश्‍य हैं, क्योंकर पूरी होंगी?” (मत्ती 26:53, 54) यीशु को सबसे ज़्यादा अपने पिता यहोवा की मरज़ी पूरी करने की फिक्र थी, फिर चाहे इसके लिए उसे कितने ही दुःख क्यों न झेलने पड़ते। उसे पूरा भरोसा था कि दाऊद के इस भजन में की गयी भविष्यवाणी ज़रूर पूरी होगी: “तू मेरे प्राण को अधोलोक में न छोड़ेगा, न अपने पवित्र भक्‍त को सड़ने देगा।” (भजन 16:10) बरसों बाद, प्रेरित पौलुस ने यीशु के बारे में कहा: “जिस ने उस आनन्द के लिये जो उसके आगे धरा था, लज्जा की कुछ चिन्ता न करके, क्रूस का दुख सहा; और सिंहासन पर परमेश्‍वर के दहिने जा बैठा।”—इब्रानियों 12:2.

यहोवा के नाम को पवित्र करने की खुशी

14. किस बात की खुशी ने यीशु को अपनी सभी परीक्षाओं से गुज़रने की ताकत दी?

14 किस बात की खुशी ने, यीशु को सबसे भयानक परीक्षा से गुज़रने की ताकत दी? बेशक, यहोवा के सभी सेवकों में से उसका अज़ीज़ बेटा ही, शैतान का सबसे खास निशाना था। इसलिए परीक्षा के दौरान यीशु के खराई बनाए रखने से शैतान के ताने का मुँह-तोड़ जवाब मिलता। (नीतिवचन 27:11) क्या आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि जब यीशु का पुनरुत्थान हुआ, तो उसे कितना गहरा संतोष मिला होगा? इस बात से उसे बेहद खुशी मिली होगी कि सिद्ध इंसान के नाते उसने यहोवा की हुकूमत को बुलंद करने और उसके नाम को पवित्र करने की अपनी ज़िम्मेदारी बखूबी पूरी की है! इसके अलावा, ‘परमेश्‍वर के सिंहासन के दहिने’ बैठना, बेशक यीशु के लिए सबसे बड़े सम्मान और बड़ी खुशी की बात है।—भजन 110:1, 2; 1 तीमुथियुस 6:15, 16.

15, 16. ज़ाकसनहाउसन में साक्षियों ने किन शैतानी हमलों का सामना किया, और इसे सहने की ताकत उन्हें कैसे मिली?

15 मसीहियों को भी इस बात से खुशी मिलती है कि उन्हें यीशु की तरह परीक्षाओं और ज़ुल्मों को सहकर यहोवा के नाम को पवित्र करने का मौका मिला है। इस बारे में एक अच्छी मिसाल उन साक्षियों की है जिन्होंने खतरनाक ज़ाकसनहाउसन यातना शिविर में कई दुःख झेले और जो दूसरे विश्‍वयुद्ध के आखिर में मौत के खौफनाक सफर (डैथ मार्च) से ज़िंदा बचे। मौत के इस सफर में, बीमारी और भुखमरी के शिकार होने और खराब मौसम की वजह से हज़ारों कैदियों ने दम तोड़ दिया और कुछ लोगों को SS गार्ड ने, सड़क के किनारे बेदर्दी से मार डाला। मगर उनमें जो 230 साक्षी थे, वे एक-दूसरे के बहुत करीब रहे और उन्होंने अपनी जान जोखिम में डालकर एक-दूसरे की मदद की।

16 ऐसे शैतानी हमलों के दौरान धीरज धरने के लिए किस बात ने उन साक्षियों को हिम्मत दी? जैसे ही वे एक महफूज़ जगह पहुँचे उन्होंने अपनी खुशी और यहोवा के लिए एहसानमंदी, एक दस्तावेज़ में ज़ाहिर की। उसका शीर्षक था, “छः देशों के रहनेवाले 230 यहोवा के साक्षियों का संकल्प जो मेकलनबर्ग में श्‍वेरिन के पास एक जंगल में जमा हुए थे।” उस दस्तावेज़ में उन्होंने कहा: “परीक्षाओं का एक लंबा दौर अब खत्म हुआ है और इसमें से जितने भी सही सलामत बचे हैं, उन्हें मानो आग की भट्ठी से निकाल लिया गया है और उनसे धुएँ तक की गंध नहीं आती, यानी परीक्षाओं ने उनका बाल तक बाँका नहीं किया। (दानिय्येल 3:27 देखिए।) इसके बजाय, वे यहोवा से सामर्थ पाकर पूरी तरह बलवंत रहे और अब वे इस इंतज़ार में हैं कि परमेश्‍वर के काम को आगे बढ़ाने के लिए उनका राजा उन्हें अगला हुक्म दे।” *

17. आज परमेश्‍वर के लोग किस तरह की परीक्षाओं का सामना कर रहे हैं?

17 हालाँकि अब तक हमारी ‘ऐसी मुठभेड़ नहीं हुई, कि हमारा लोहू बहा हो,’ मगर उन 230 वफादार जनों की तरह, भविष्य में हमारा भी विश्‍वास परखा जा सकता है। (इब्रानियों 12:4) लेकिन गौर करनेवाली बात है कि परीक्षाएँ कई तरीकों से आ सकती हैं। हो सकता है हमारे साथ पढ़नेवाले हमारी खिल्ली उड़ाएँ या हमारे साथी हमें किसी अनैतिक काम में या दूसरी बुराइयों में फँसाने की कोशिश करें। साथ ही, खून न लेने और सिर्फ प्रभु में शादी करने के फैसले की वजह से, हमें बड़ी-बड़ी परीक्षाओं और तकलीफों का सामना करना पड़ सकता है। या जिस परिवार के सभी सदस्य साक्षी नहीं हैं, उसमें बच्चों को सच्चाई सिखाना एक बड़ी चुनौती हो सकता है।—प्रेरितों 15:29; 1 कुरिन्थियों 7:39; इफिसियों 6:4; 1 पतरस 3:1, 2.

18. क्या बात हमें यकीन दिलाती है कि हम सबसे बड़ी परीक्षा को भी सह सकते हैं?

18 लेकिन, हमें चाहे किसी भी परीक्षा से क्यों न गुज़रना पड़े, हम जानते हैं कि हमें इसलिए दुःख उठाना पड़ रहा है क्योंकि हम यहोवा और उसके राज्य को पहला स्थान देते हैं, और इसे हम एक सुनहरा मौका और बड़े आनंद की बात समझते हैं। हम पतरस के इन शब्दों से हिम्मत पाते हैं: “यदि मसीह के नाम के लिये तुम्हारी निन्दा की जाती है, तो धन्य हो; क्योंकि महिमा का आत्मा, जो परमेश्‍वर का आत्मा है, तुम पर छाया करता है।” (1 पतरस 4:14) यहोवा की आत्मा की मदद से, हम कठिन-से-कठिन परीक्षाओं को भी पार कर पाएँगे जिससे उसी की महिमा और स्तुति होगी।—2 कुरिन्थियों 4:7; इफिसियों 3:16; फिलिप्पियों 4:13.

[फुटनोट]

^ पैरा. 6 सन्‌ 1960 के दशक में, मलावी में हुई घटनाएँ तो बस एक शुरूआत थीं। यहाँ के साक्षियों पर ज़ुल्मों का दौर तकरीबन तीस साल तक चला और उस वक्‍त उन्हें वहशियों की तरह सताया गया, कइयों को तो तड़पा-तड़पाकर मार डाला गया। उनके बारे में पूरा ब्यौरा जानने के लिए, 1999 इयरबुक ऑफ जिहोवाज़ विटनेसिस, पेज 171-212 देखिए।

^ पैरा. 8 अप्रैल 1, 2003 की प्रहरीदुर्ग के पेज 11-14 पर दिया लेख, “हाई कोर्ट ने ‘अरारात देश’ में सच्ची उपासना को समर्थन दिया” देखिए।

^ पैरा. 16 इस पूरे दस्तावेज़ के लिए 1974 इयरबुक ऑफ जिहोवाज़ विटनेसिस के पेज 208-9 देखिए। मौत के सफर से ज़िंदा बचे एक मसीही की कहानी, उसी की ज़ुबानी जनवरी 1, 1998 की प्रहरीदुर्ग के पेज 25-9 पर दी गयी है।

क्या आप समझा सकते हैं?

• तकलीफों और ज़ुल्मों को मसीही किस नज़र से देखते हैं?

• यीशु और दूसरे वफादार लोगों ने परीक्षाओं के वक्‍त जो किया, उससे हम क्या सीख सकते हैं?

• जब हम सताए जाते हैं, तो विरोधियों से बदला न लेना क्यों अक्लमंदी है?

• किस बात की खुशी ने यीशु को परीक्षाएँ सहने की ताकत दी, और इससे हम क्या सीख सकते हैं?

[अध्ययन के लिए सवाल]

[पेज 15 पर बक्स/तसवीरें]

उन्होंने ज़ुल्मों का सामना कैसे किया

• इससे पहले कि हेरोदेस के सैनिक, बेतलेहेम आकर दो साल और उससे कम उम्र के सभी लड़के बच्चों को मार डालते, स्वर्गदूत से निर्देशन पाकर यूसुफ और मरियम, नन्हे यीशु को लेकर मिस्र भाग गए।—मत्ती 2:13-16.

• यीशु की सेवा के दौरान, दुश्‍मन कई बार उसकी ज़बरदस्त गवाही से इस कदर भड़क उठे कि उन्होंने उसे मार डालने की कोशिश की। लेकिन हर बार यीशु उनके हाथ से बच निकला।—मत्ती 21:45, 46; लूका 4:28-30; यूहन्‍ना 8:57-59.

• जब सैनिक और अफसर, यीशु को गिरफ्तार करने के लिए गतसमनी के बाग में आए, तो उसने साफ-साफ अपनी पहचान कराते हुए उनसे दो बार कहा: ‘वह मैं ही हूं।’ जब भीड़ उसे ले जाने के लिए आयी, तो उसने चेलों को उनका विरोध करने से रोका।—यूहन्‍ना 18:3-12.

• यरूशलेम में पतरस और दूसरे चेलों को गिरफ्तार किया गया, उन्हें कोड़े लगाए गए और यह हुक्म दिया गया कि वे यीशु के बारे में प्रचार करना बंद कर दें। लेकिन रिहा होने पर, वे ‘वहाँ से चले गए और प्रति दिन मन्दिर में और घर घर में उपदेश करने, और इस बात का सुसमाचार सुनाने से, कि यीशु ही मसीह है न रुके।’—प्रेरितों 5:40-42.

• शाऊल, जो बाद में प्रेरित पौलुस बना, उसके बारे में जब यह पता चला कि दमिश्‍क के यहूदियों ने उसे मार डालने की साज़िश रची है, तो भाइयों ने उसे रात के वक्‍त टोकरी में डालकर, शहरपनाह में एक खुली जगह से लटकाकर उतार दिया। इस तरह वह दुश्‍मनों के हाथों से बच निकला।—प्रेरितों 9:22-25.

• कई सालों बाद, हालाँकि गवर्नर फेस्तुस और राजा अग्रिप्पा, दोनों ने पौलुस के बारे में यह फैसला सुनाया कि वह ‘ऐसा कुछ नहीं करता जो मृत्यु या बन्धन के योग्य हो,’ फिर भी पौलुस ने कैसर को अपील की।—प्रेरितों 25:10-12, 24-27; 26:30-32.

[पेज 16, 17 पर तसवीरें]

मलावी के हज़ारों वफादार साक्षियों को भयानक ज़ुल्मों की वजह से अपना देश छोड़कर भागना पड़ा, फिर भी वे खुशी-खुशी राज्य का काम करते रहे

[पेज 17 पर तसवीरें]

ये वफादार लोग, नात्ज़ी मौत के सफर और यातना शिविरों में ज़ुल्मों को इसलिए सह पाए क्योंकि उन्हें इस बात की खुशी थी कि उन्हें यहोवा का नाम पवित्र करने का सुअवसर मिला है

[चित्र का श्रेय]

मौत का सफर: KZ-Gedenkstätte Dachau, courtesy of the USHMM Photo Archives

[पेज 18 पर तसवीरें]

परीक्षाएँ और मुश्‍किलें कई तरीकों से आ सकती हैं