यहोवा दीन लोगों को सच्चाई की तरफ खींचता है
जीवन कहानी
यहोवा दीन लोगों को सच्चाई की तरफ खींचता है
आसानो कोशीनो की ज़ुबानी
सन् 1949 में, दूसरा विश्वयुद्ध खत्म होने के सिर्फ कुछ साल बाद दोस्ताना मिज़ाजवाला एक लंबे कद का विदेशी, कोबे शहर में उस परिवार से मिलने आया, जिसके यहाँ मैं काम करती थी। जापान में, यहोवा के साक्षियों की तरफ से वही पहला मिशनरी था। उससे मिलने के बाद मेरे लिए बाइबल से सच्चाई जानने का रास्ता खुल गया। लेकिन आइए, पहले मैं अपने बारे में आपको कुछ जानकारी दूँ।
मैं 1926 में उत्तर ओकयामा ज़िले के एक छोटे-से गाँव में पैदा हुई थी। आठ बच्चों में, मैं पाँचवें नंबर पर थी। पिताजी हमारे गाँव के शिंटो मंदिर के देवता के पक्के भक्त थे। इसलिए पूरे साल के दौरान होनेवाले धार्मिक त्योहारों के लिए जब पूरा परिवार इकट्ठा होता तो हम बच्चों के लिए वह बड़ी खुशी का मौका होता था।
लेकिन जैसे-जैसे मैं बड़ी होने लगी ज़िंदगी को लेकर मेरे मन में कई सवाल उठने लगे और सबसे ज़्यादा मुझे मौत का खौफ सताने लगा। हमारे यहाँ परंपरा थी कि एक व्यक्ति अपने ही घर में दम तोड़े और मरते वक्त उसके बाल-बच्चे उसके आस-पास हों। जिस दिन मेरी दादी की मौत हुई और जब मेरा भाई मरा, जो एक साल का भी नहीं था, तब मैं बहुत दुःखी हुई। और अपने माता-पिता की मौत की कल्पना से ही, मेरे रोंगटे खड़े हो जाते थे। मैं यह जानने के लिए बेताब थी, ‘क्या यही ज़िंदगी सब कुछ है? या इस ज़िंदगी का कुछ और मकसद भी है?’
सन् 1937 में, जब मैं प्राथमिक स्कूल में, छठी कक्षा में पढ़ रही थी तो चीन-जापान युद्ध शुरू हो गया। पुरुषों को सेना में भरती करके चीन में युद्ध के लिए भेजा गया। स्कूल के बच्चों ने अपने पिता और भाइयों को ज़ोरदार आवाज़ में, सम्राट को “बान्ज़ाइ!” कहकर विदा किया जिसका मतलब था, सम्राट को लंबी उम्र मिले। लोगों को पूरा भरोसा था जीत
जापान की ही होगी क्योंकि माना जाता था कि जापान एक ऐसा राष्ट्र है जिस पर ईश्वर का शासन है और खुद सम्राट को जीता-जागता ईश्वर माना जाता था।लेकिन जापानियों को जल्द ही युद्ध के मैदानों से मौत की खबरें मिलने लगीं। जिस किसी परिवार में मौत हुई, वह एकदम टूट गया। उनके दिल में नफरत बढ़ने लगी और जब उन्हें पता चला कि दुश्मन भी भारी तादाद में घायल हो रहे हैं और मारे जा रहे हैं, तब वे बेहद खुश हुए। उस वक्त मैं यह भी सोच रही थी कि ‘जब हमारे दुश्मनों की मौत होती है तो उनके परिवार के लोग भी तो हमारी तरह ही अपने अज़ीज़ों के लिए तड़पते और आँसू बहाते होंगे।’ जब मैंने प्राथमिक स्कूल की शिक्षा खत्म की तब चीन के अंदरूनी इलाकों में भी युद्ध फैलता जा रहा था।
एक विदेशी से अचानक मुलाकात
हम किसान थे इसलिए हमारा परिवार शुरू से ही गरीब था। लेकिन मेरे पिताजी ने फिर भी मुझे तब तक पढ़ाई करने की इजाज़त दी जब तक उसमें कोई खर्च नहीं लगता। इसलिए 1941 में, मैंने घर से करीब 100 किलोमीटर दूर, ओकयामा शहर में लड़कियों के एक स्कूल में दाखिला ले लिया। इस स्कूल का मकसद लड़कियों को ऐसी शिक्षा देना था जिससे वे आगे चलकर अच्छी पत्नियाँ या माँ बन सकें। लड़कियों को प्रशिक्षण के तौर पर अमीर परिवारों में घर के काम-काज के लिए नियुक्त किया जाता था। सुबह के वक्त लड़कियाँ इन घरों में काम करके सीखतीं और दोपहर को स्कूल आ जातीं।
स्कूल में हम बच्चों का प्रवेश समारोह होने के बाद, मेरी टीचर किमोनो पोशाक पहने हुए, मुझे एक बड़े-से घर में ले गयी। लेकिन किसी कारण से उस घर की मालकिन ने मुझे कबूल नहीं किया। तब मेरी टीचर ने मुझसे पूछा: “तो क्या हम श्रीमती कोडा के घर चलें?” और वह मुझे पश्चिमी ढंग से बने एक घर में ले गयी और दरवाज़े की घंटी बजायी। कुछ देर के बाद ऊँचे कद की, सफेद चमकीले बालोंवाली एक महिला बाहर आयी। उसे देखकर मैं दंग रह गयी! क्योंकि वह जापानी नहीं बल्कि एक विदेशी महिला थी, जो मैं अपनी ज़िंदगी में पहली बार देख रही थी। टीचर ने श्रीमती मॉड कोडा से मेरा परिचय कराया और तुरंत चली गयी। इसके बाद मैं अपना बैग घसीटते हुए अंदर ले गयी, उस वक्त मैं बहुत सहमी हुई थी। बाद में मुझे पता चला कि श्रीमती मॉड कोडा अमरीका की रहनेवाली हैं और उन्होंने एक जापानी पुरुष से शादी की जो वहाँ पढ़ाई करने गया था। वे स्कूलों में अँग्रेज़ी पढ़ाती थीं।
अगली सुबह से मेरी व्यस्त ज़िंदगी शुरू हो गयी। श्रीमती कोडा के पति को मिरगी के दौरे पड़ते थे और उनकी देखभाल करने में मैं उनकी मदद करती थी। मुझे अँग्रेज़ी बिलकुल नहीं आती थी इसलिए मैं थोड़ी परेशान थी। लेकिन जब श्रीमती कोडा ने मुझसे जापानी भाषा में बात की तब मुझे बड़ी राहत मिली। वे दोनों आपस में अँग्रेज़ी में बातचीत करते थे इसलिए हर रोज़ उन्हें सुनते-सुनते, धीरे-धीरे मैं भी उनकी भाषा की आदी हो गयी। मुझे उनके घर का बढ़िया माहौल बहुत पसंद था।
अपने बीमार पति के लिए मॉड का प्यार और परवाह देखकर मैं बहुत प्रभावित हुई। उनके पति को बाइबल पढ़ना बहुत अच्छा लगता था। बाद में, मुझे पता चला कि इस जोड़े के पास जापानी भाषा में द डिवाइन प्लैन ऑफ दि एजस किताब है, जो उन्होंने पुरानी किताबों की दुकान से खरीदी थी और कई सालों से अँग्रेज़ी में द वॉचटावर पत्रिका का भी अभिदान कराया था।
एक दिन उन्होंने मुझे तोहफे में एक बाइबल दी। मैं बहुत खुश हुई क्योंकि ज़िंदगी में पहली बार मुझे बाइबल की अपनी एक कॉपी मिली थी। मैं स्कूल आते-जाते उसे रास्ते में पढ़ा
करती थी, हालाँकि समझ में कुछ नहीं आता था। मेरी परवरिश शिंटो धर्म में होने के कारण मुझे कुछ पता नहीं था कि यीशु मसीह कौन है। लेकिन किसे पता था कि ये सब आखिरकार मुझे बाइबल सच्चाई कबूल करने की ओर ले जाएगा, जो मुझे ज़िंदगी और मौत से जुड़े अपने सभी सवालों के जवाब दे देगी।तीन बुरी घटनाएँ
दो साल का प्रशिक्षण जल्दी खत्म हो गया और मुझे उस परिवार को अलविदा कहना पड़ा। अपनी स्कूल की पढ़ाई खत्म करने के बाद मैं लड़कियों के एक स्वयंसेवी दल में भरती हो गयी, जो एक कारखाने में नौसेनावालों के लिए वर्दियाँ बनाता था। अमरीका के B-29 बमवर्षकों से अचानक हवाई हमले होने लगे और अगस्त 6, 1945 को हिरोशिमा पर परमाणु बम गिराया गया। कुछ दिन बाद, मुझे तार मिला कि माँ बहुत बीमार है। मैं पहली ट्रेन पकड़कर घर रवाना हुई। जैसे ही ट्रेन से उतरी, मुझे एक रिश्तेदार मिला और उसने खबर दी कि माँ अब नहीं रही। वह 11 अगस्त को चल बसी। मुझे इतने सालों से जिस बात का डर था वही हुआ! अब मेरी माँ मुझसे कभी बात नहीं कर सकती थी, ना ही मुझे देखकर कभी मुसकरा सकती थी।
अगस्त 15 को जापान की हार घोषित हो गयी। इस तरह मुझे तीन हादसों का सामना करना पड़ा और वह भी सिर्फ 10 दिन के अंदर। पहला परमाणु बम के गिराए जाने का, फिर माँ की मौत, और जापान की हार का जो उसके इतिहास में एक खास घटना बनी। लेकिन यह जानकर तसल्ली मिली कि अब कम-से-कम युद्ध में कोई मारा नहीं जाएगा। दिल पर दुःखों का बोझ लिए मैंने कारखाना छोड़ दिया और अपने गाँव लौट आयी।
सच्चाई की तरफ खिंचना
एक दिन अचानक मुझे ओकयामा से मॉड कोडा का खत मिला। वे एक अँग्रेज़ी स्कूल खोलने जा रही थीं और चाहती थीं कि मैं आकर घर के काम-काज में उनकी मदद करूँ। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मैं क्या करूँ, फिर भी मैंने बुलावा स्वीकार कर लिया। कुछ सालों बाद मैं उनके साथ कोबे रहने चली गयी।
सन् 1949 की गर्मियों की शुरूआत में एक दिन, लंबे कद का एक इंसान कोडा परिवार से मिलने आया। उनका नाम था डॉनल्ड हेसलट, और वे टोक्यो से कोबे, मिशनरियों के लिए घर देखने आए थे। यहोवा के साक्षियों में, वही सबसे पहले मिशनरी थे जो जापान आए थे। घर ढूँढ़ लेने पर नवंबर 1949 में और भी कई मिशनरी कोबे रहने आ गए। एक दिन उनमें से पाँच जन कोडा परिवार से मिलने आए जिनमें से दो थे, लॉइड बैरी और पर्सी इज़लॉब। इन्होंने अँग्रेज़ी में दस-दस मिनट उन सबसे बात की जो कोडा के घर आए थे। मिशनरियों को पता था कि मॉड एक मसीही बहन है और ज़ाहिर है कि इस संगति से उसे काफी हौसला मिला। उसी समय से मुझमें भी अँग्रेज़ी सीखने की ललक जाग उठी।
उन जोशीले मिशनरियों की बदौलत, धीरे-धीरे मैं बाइबल की बुनियादी सच्चाइयाँ समझने लगी। मुझे उन सवालों के जवाब मिल गए जो बचपन से मुझे परेशान कर रहे थे। जी हाँ, बाइबल हमें फिरदौस में हमेशा तक जीने की आशा देती है और “जितने कब्रों में हैं” उनके फिर से जी उठने का वादा करती है। (यूहन्ना 5:28, 29; प्रकाशितवाक्य 21:1, 4) मैं यहोवा की बहुत आभारी हूँ कि अपने बेटे यीशु मसीह के ज़रिए उसने हमारे लिए ऐसी आशा मुमकिन की।
खुशियों भरी परमेश्वर की सेवा
दिसंबर 30, 1949 से लेकर जनवरी 1, 1950 तक जापान में यहोवा के साक्षियों का पहला सम्मेलन, कोबे के मिशनरी घर में आयोजित किया गया। मैं वहाँ मॉड के साथ गयी। वह विशाल घर पहले किसी नात्ज़ी का हुआ करता था, जहाँ से इनलैंड सागर और आवाजी द्वीप का शानदार नज़ारा देखने को मिलता था। मुझे बाइबल के बारे में बहुत कम जानकारी थी, इसलिए सम्मेलन में जो कहा गया वह कुछ खास समझ नहीं आया। लेकिन हाँ, जब मैंने देखा कि कैसे सभी मिशनरी जापानियों के साथ घुल-मिलकर बात कर रहे हैं तो इसका मुझ पर गहरा असर हुआ। इस सम्मेलन में जन भाषण के लिए कुल 101 लोग हाज़िर हुए थे।
इसके बाद मैंने जल्द ही फैसला कर लिया कि मैं प्रचार में हिस्सा लूँगी। शर्मीली होने की वजह से मुझे घर-घर जाकर प्रचार करने के लिए वाकई हिम्मत की ज़रूरत थी। एक सुबह भाई लॉइड बैरी मुझे सेवा में ले जाने के लिए हमारे घर आए। और उन्होंने सीधे बहन कोडा के बगलवाले घर से प्रचार करना शुरू किया। जब वे सुसमाचार सुना रहे थे तब मैं तो लगभग उनके पीछे ही छिपी खड़ी थी। जब मैं दूसरी बार
प्रचार के लिए निकली तब मैंने दो मिशनरी बहनों के साथ काम किया। उस दिन एक बुज़ुर्ग जापानी स्त्री ने हमें अंदर बुलाया और बड़े ध्यान से हमारी बात सुनी, फिर हम सबको एक-एक ग्लास दूध दिया। वह बाइबल अध्ययन के लिए राज़ी हो गयी और आगे चलकर बपतिस्मा प्राप्त मसीही बनी। उसकी तरक्की देखकर वाकई बहुत हौसला मिला।अप्रैल 1951 में, ब्रुकलिन मुख्यालय से भाई नेथन एच. नॉर पहली बार जापान के दौरे पर आए। उन्होंने टोक्यो, कान्डा में क्योरीत्सू हॉल में जन भाषण दिया जिसके लिए करीब 700 लोग जमा हुए थे। इस खास सभा में सभी लोग इस घोषणा से खुश हुए कि अब द वॉचटावर पत्रिका जापानी भाषा में भी मिलेगी। अगले महीने भाई नॉर कोबे आए और वहाँ एक खास सभा के दौरान मैंने यहोवा को अपना समर्पण, बपतिस्मा लेकर ज़ाहिर किया।
करीब एक साल बाद, मुझे पूरे-समय की सेवा करने यानी पायनियर बनने के लिए उकसाया गया। उन दिनों जापान में बहुत कम पायनियर थे और मैं सोच रही थी कि मैं अपनी देखभाल कैसे करूँगी। मुझे अपनी शादी की भी चिंता होने लगी थी। लेकिन फिर मुझे यह एहसास हुआ कि ज़िंदगी में यहोवा की सेवा को ही पहला स्थान देना चाहिए इसलिए मैंने 1952 से पायनियर सेवा शुरू कर दी। खुशी की बात है, मैं बहन कोडा के यहाँ पार्ट-टाइम नौकरी भी कर पायी।
उसी दौरान, मेरा बड़ा भाई जिसके बारे में मैं सोच रही थी कि वह युद्ध में मारा गया है, ताइवान से अपने परिवार के साथ घर लौटा। मेरे परिवार ने मसीही धर्म में कभी दिलचस्पी नहीं दिखायी लेकिन मैं फिर भी बड़े जोश के साथ उन्हें पत्रिकाएँ और पुस्तिकाएँ भेजा करती थी, आखिर पायनियर जो थी। बाद में नौकरी की वजह से मेरे भाई को अपने परिवार के साथ कोबे आकर बसना पड़ा। जब मैंने अपनी भाभी से पूछा: “क्या तुमने पत्रिकाएँ पढ़ीं?” तो उसने कहा: “हाँ, पत्रिकाएँ बहुत दिलचस्प हैं,” यह सुनकर मैं हैरान रह गयी। फिर एक मिशनरी के साथ उसका बाइबल अध्ययन शुरू हुआ और मेरी छोटी बहन जो उनके साथ ही रहती थी, उसने भी अध्ययन शुरू किया। आगे चलकर दोनों ने बपतिस्मा लिया।
दुनिया भर में भाईचारे की गहरी छाप
जल्द ही मुझे एक ऐसा न्यौता मिला जिस पर यकीन ही नहीं हो रहा था, दरअसल मुझे वॉचटावर बाइबल स्कूल ऑफ गिलियड की 22वीं क्लास के लिए बुलाया गया था। भाई सुतोमू फूकासे और मैं जापान से पहले विद्यार्थी थे जो स्कूल में बुलाए गए। सन् 1953 में क्लास शुरू होने से पहले, हम न्यू वर्ल्ड सोसाइटी सम्मेलन में हाज़िर हुए जो न्यू यॉर्क के यांकी स्टेडियम में था। यहोवा के लोगों के दुनिया भर में फैले भाईचारे ने मुझ पर गहरी छाप छोड़ी।
अधिवेशन के पाँचवें दिन जापान से आए प्रतिनिधियों, खासकर मिशनरियों को किमोनो पहनना था। मैंने आने से पहले अपना किमोनो जहाज़ से भिजवाया था, वह अब तक नहीं पहुँचा था इसलिए मुझे बहन नॉर से एक उधार लेना पड़ा। मगर कार्यक्रम के दौरान बारिश होने लगी और मुझे फिक्र होने लगी कि कहीं किमोनो भीग न जाए। लेकिन तभी किसी ने पीछे-से मुझ पर धीरे-से रेनकोट डाल दिया। एक बहन जो मेरे पास खड़ी थी, उसने मुझसे पूछा: “तुम जानती हो वे कौन हैं?” और बाद में मैंने जाना कि वे शासी निकाय के सदस्य, भाई फ्रैड्रिक डब्ल्यू. फ्रांज़ थे। सचमुच, मैंने यहोवा के संगठन के प्यार और स्नेह को करीब से महसूस किया!
गिलियड की 22वीं क्लास वाकई अंतर्राष्ट्रीय थी, क्योंकि इसमें 37 देशों से 120 विद्यार्थी आए थे। हालाँकि भाषा की समस्या थी फिर भी हमने दुनिया के कोने-कोने से आए भाईचारे का पूरा-पूरा आनंद उठाया। फरवरी 1954 को जिस दिन खूब बर्फ पड़ी थी, मैं ग्रेजुएट हुई और मुझे दोबारा जापान में सेवा करने का काम मिला। और स्वीडन की इन्गर ब्रान्ट,
जो मेरी ही क्लास में थी, नगॉया शहर में मिशनरी सेवा में मेरी साथी बनकर काम करनेवाली थी। वहाँ हम मिशनरियों के एक समूह से मिले जो युद्ध की वजह से कोरिया से आए थे। मिशनरी सेवा में मैंने जो चंद साल बिताए हैं, वे मेरे लिए बहुत अनमोल हैं।शादी-शुदा जोड़े के तौर पर खुशियों भरी सेवा
सितंबर 1957 में मुझे टोक्यो में बेथेल सेवा के लिए बुलाया गया। उस समय जापान का ब्राँच ऑफिस, दो मंज़िला लकड़ी का एक घर था। ब्राँच में सिर्फ चार सदस्य थे जिनमें से एक भाई बैरी, ब्राँच ओवरसियर थे। परिवार में बाकी सभी मिशनरी थे। मुझे अनुवाद और प्रूफरीडिंग करने, साथ ही साफ-सफाई, कपड़े धोने, खाना पकाने के अलावा दूसरे काम भी दिए गए थे।
जापान में काम बढ़ता जा रहा था, इसलिए और भी ज़्यादा भाइयों को बेथेल बुलाया गया। उनमें से एक उस कलीसिया का ओवरसियर बना जहाँ मैं जाया करती थी। मैंने उसी भाई, जून्जी कोशीनो से 1966 में शादी कर ली। शादी के बाद हमें सर्किट काम में भेजा गया। अलग-अलग कलीसियाओं का दौरा करने से हमें बहुत-से भाई-बहनों को जानने का मौका मिला, जो बड़ी खुशी की बात थी। मुझे अनुवाद का काम अब भी दिया जाता था इसलिए मैं हफ्ते भर जिस घर में रहती थी वहाँ अनुवाद का काम करती थी। कलीसियाओं का दौरा करते वक्त, हमें भारी-भरकम शब्दकोश के अलावा अपने सूटकेस और दूसरे बैग ढोने पड़ते थे।
हमने चार साल तक सर्किट काम का आनंद लिया और देखा कि किस तरह संगठन दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा है। पहले नूमाज़ू में ब्राँच बनायी गयी फिर सालों बाद एबीना में जहाँ आज यह मौजूद है। जून्जी और मैं कई सालों से बेथेल सेवा का आनंद ले रहे हैं और लगभग 600 सदस्यों के एक परिवार के साथ काम कर रहे हैं। मई 2002 को बेथेल के दोस्तों ने पूरे समय की मेरी सेवा में 50 साल पूरे होने का जश्न बड़े प्यार से मनाया।
बढ़ोतरी देखने की आशीष
जब मैंने 1950 में यहोवा की सेवा शुरू की थी, तब जापान में सिर्फ मुट्ठी भर प्रचारक थे। लेकिन अब 2,10,000 से भी ज़्यादा राज्य प्रचारक हैं। सचमुच हज़ारों भेड़ समान लोग यहोवा के करीब खिंचे चले आए हैं, ठीक जैसे मैं आयी।
सन् 1949 में जो चार मिशनरी भाई और एक बहन, हमसे मिलने बहन कोडा के घर आए थे, वे और बहन मॉड कोडा सभी अपनी मौत तक वफादार रहे। उसी तरह मेरा भाई जो सहायक सेवक था और मेरी भाभी जिसने करीब 15 साल पायनियर सेवा की, दोनों मौत तक वफादार रहे। मेरे माता-पिता का भविष्य क्या होगा, जिनकी मौत का खौफ मुझे बचपन में सताता था? बाइबल में किए पुनरुत्थान के वादे से मुझे आशा और तसल्ली मिलती है।—प्रेरितों 24:15.
जब मैं अपनी बीती ज़िंदगी के बारे में सोचती हूँ, तो मुझे लगता है कि सन् 1941 में मॉड से मेरी मुलाकात ने मेरी पूरी ज़िंदगी बदल दी। अगर उस समय मैं उससे न मिली होती और युद्ध के बाद दोबारा बुलाए जाने पर न जाती, तो मैं अपने गाँव में ही बस जाती, फिर कहाँ उन मिशनरियों से मेरी मुलाकात होती। मैं यहोवा का एहसान मानती हूँ जिसने मुझे मॉड और उन दिनों के मिशनरियों के ज़रिए सच्चाई की तरफ खींच लिया!
[पेज 25 पर तसवीर]
मॉड कोडा और उनके पति के साथ। मैं आगे की तरफ बायीं ओर
[पेज 27 पर तसवीर]
सन् 1953 में यांकी स्टेडियम में जापान के मिशनरियों के साथ। मैं एकदम बायीं तरफ
[पेज 28 पर तसवीरें]
बेथेल में अपने पति जून्जी के साथ