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ईश्‍वरीय संतोष मुझे संभाले रहा

ईश्‍वरीय संतोष मुझे संभाले रहा

जीवन कहानी

ईश्‍वरीय संतोष मुझे संभाले रहा

बेंजमिन ईकेचूक्वू ओसूएके की ज़ुबानी

पूरे समय की मसीही सेवा शुरू करने के थोड़े ही समय बाद, मैं अपने माँ-बाप के यहाँ गया। मुझे देखते ही पिताजी ने कसकर मेरी कमीज़ पकड़ ली और चिल्लाने लगे, “चोर, चोर!” उन्होंने अपना गँडासा लिया और उसकी चपटी तरफ से मुझे मारने लगे। इतना शोर सुनकर गाँव के दूसरे लोग भी हमारे घर के सामने जमा हो गए। आखिर मैंने क्या चुराया था? आइए मैं आपको बताऊँ।

मेरा जन्म सन्‌ 1930 में, दक्षिणपूर्व नाइजीरिया के उमुरीअम गाँव में हुआ था। मैं अपने सात भाई-बहनों में सबसे बड़ा था। मेरी बहनों में से सबसे बड़ी 13 साल की उम्र में ही मर गयी थी। मेरे माता-पिता ऐंग्लिकन चर्च के सदस्य थे। पिताजी किसान थे और माँ छोटा-मोटा काम करती थी। वह ताड़ के तेल का एक कनस्तर खरीदने के लिए गाँव से 30 किलोमीटर दूर पैदल जाती और शाम तक लौटती थी। फिर अगले दिन सुबह-सुबह पैदल चलकर करीब 40 किलोमीटर दूर एक रेलवे स्टेशन जाती और वहाँ उसे बेचती। अगर उसे मुनाफा होता, जो आम तौर पर 15 सेंट्‌स से ज़्यादा नहीं होता था, तो उससे परिवार के लिए राशन लेती हुई उसी दिन लौट आती। वह पंद्रह साल यानी सन्‌ 1950 में अपनी मौत तक ऐसा ही करती रही।

मैं गाँव में ऐंग्लिकन चर्च के एक स्कूल में पढ़ता था, लेकिन प्राथमिक शिक्षा पूरी करने के लिए मुझे घर से करीब 35 किलोमीटर दूर बोर्डिंग में रहना पड़ा। मेरे माँ-बाप की इतनी हैसियत नहीं थी कि वे मुझे इससे ज़्यादा पढ़ा सकें, इसलिए मैं नौकरी की तलाश करने लगा। सबसे पहले, मैंने पश्‍चिमी नाइजीरिया के लागोस में एक रेलवे गार्ड के यहाँ नौकर का काम किया। उसके बाद मैं उत्तरी नाइजीरिया के काडूना शहर में एक सिविल सर्वेंट के घर पर नौकर रहा। मध्यपूर्वी नाइजीरिया के बेनिन शहर में, मैंने एक वकील के यहाँ क्लर्क का काम किया और बाद में एक आरा-कारखाने में मज़दूरी की। वहाँ से मैं सन्‌ 1953 में कैमरून गया जहाँ मेरे एक दूर के मामा ने मुझे रबर के बागान में काम दिलवाया। मेरा मासिक वेतन करीब 420 रुपए था। मैं छोटे-मोटे काम करता था, फिर भी मुझे इसकी कोई परवाह नहीं थी, पेट-भर खाना मिल जाए, मेरे लिए बस यही काफी था।

एक कंगाल से मिली दौलत

मेरे साथ काम करनेवाला एक आदमी, सिलवेनस ओकेमिरि यहोवा का साक्षी था। वह मुझे बाइबल के बारे में बताने का कोई भी मौका नहीं गँवाता था, फिर चाहे हम घास काट रहे हों या रबर के पौधों के आस-पास घासपात डाल रहे हों। मैं उसकी बातें सुनता तो था लेकिन उन पर अमल नहीं करता था। फिर भी जब मेरे दूर के भाई को पता चला कि मैं साक्षियों से मिलता हूँ, तो उसने मुझे उनके साथ मेल-जोल बंद करने के लिए बहुत कुछ कहा। उसने यह कहकर मुझे खबरदार किया: “बेंजी, मिस्टर ओकेमीरी के पास मत जाया करो। वह यहोवा वाला है और कंगाल है। जो कोई उसके साथ संगति करेगा, उसका भी वही हाल होगा।”

सन्‌ 1954 की शुरूआत में, मैं घर लौट आया क्योंकि कंपनी के बुरे हालात में काम करना मुझसे और बर्दाश्‍त नहीं हो रहा था। उन दिनों ऐंगलिकन चर्च में नैतिकता के बारे में कड़े नियम थे। इसलिए मैं बचपन से ही अनैतिकता से सख्त नफरत करता था। लेकिन कुछ समय बाद, चर्च जानेवालों का कपट देखकर मुझे उनसे घिन आने लगी। वे बाइबल के स्तरों को मानने का दावा तो करते थे लेकिन उनके काम बिलकुल उलटे थे। (मत्ती 15:8) कई बार पिताजी और मेरे बीच बहस हो जाती थी और इसलिए हमारे रिश्‍ते में दरार आ गयी। फिर एक रात मैंने घर ही छोड़ दिया।

मैं ओमोबा में जाकर बस गया, जो एक छोटी-सी रेलवे बस्ती है। यहाँ एक बार फिर मेरी मुलाकात यहोवा के साक्षियों से हुई। प्रिसिल्ला ईसीओचा, जिसे मैं अपने गाँव से जानता था, उसने मुझे “राज्य का यह सुसमाचार” और अरमगिदोन के बाद—परमेश्‍वर की नयी दुनिया (अँग्रेज़ी) ये दोनों बुकलैट दीं। * मेरे लिए वो बुकलैट ऐसी थीं मानो कई दिनों के भूखे को खाना मिल गया हो। उनके मिलते ही मैंने उन्हें पढ़ डाला और मुझे यकीन हो गया कि यही सच्चाई है। हमारे चर्च में कभी बाइबल का अध्ययन नहीं होता था, हम बस मनुष्यों के रीति-रिवाज़ों को मानते थे। लेकिन साक्षियों की इन किताबों में बाइबल से ढेरों हवाले दिए गए थे।

एक महीना भी नहीं बीता कि मैंने भाई ईसीओचा और उनकी पत्नी से पूछा कि वे किस दिन अपने चर्च जाते हैं। जब मैं पहली बार यहोवा के साक्षियों की सभा में हाज़िर हुआ, तब मुझे वहाँ एक भी बात समझ नहीं आयी। जिस प्रहरीदुर्ग लेख का अध्ययन हो रहा था, वह ‘मागोग देश के गोग’ के हमले के बारे में था, जिसका ज़िक्र यहेजकेल की भविष्यवाणी में किया गया है। (यहेजकेल 38:1, 2) बहुत-से शब्द मेरे लिए बिलकुल नए थे, लेकिन वहाँ लोग मेरे साथ इतने प्यार से पेश आए कि मैंने अगले रविवार भी वहाँ जाने का फैसला किया। दूसरी सभा में मैंने प्रचार के बारे में सुना। इसलिए मैंने प्रिसिल्ला से पूछा कि वे किस दिन प्रचार के लिए जाते हैं। तीसरे रविवार को मैं भी एक छोटी-सी बाइबल लेकर उनके साथ प्रचार के लिए निकल पड़ा। मेरे पास न प्रचार का बैग था, ना ही कोई बाइबल साहित्य। फिर भी, मैं एक राज्य प्रचारक बन गया और मैंने उस महीने के आखिर में प्रचार की रिपोर्ट भी डाली!

मेरे साथ किसी ने भी बाइबल अध्ययन नहीं किया, लेकिन मैं जब भी भाई-बहन ईसीओचा के यहाँ जाता तो मुझे उनसे बाइबल से विश्‍वास और हिम्मत बढ़ानेवाली कुछ बातें ज़रूर सीखने को मिलतीं। और वहीं से मुझे कुछ बाइबल साहित्य भी मिलते थे। दिसंबर 11, 1954 को मैंने आबा के एक ज़िला अधिवेशन में, पानी में बपतिस्मा लेकर यहोवा को किया अपना समर्पण ज़ाहिर किया। मैं अपने जिस दूर के रिश्‍तेदार के साथ रहता और काम सीखता था, उसने मुझे खाना देना बंद कर दिया और काम सिखाना छोड़ दिया। और-तो-और, मैंने उसका जो भी काम किया था उसकी मज़दूरी में फूटी कौड़ी तक उसने मुझे नहीं दी। फिर भी मुझे उससे कोई गिला-शिकवा नहीं था; मैं बस यह सोचकर एहसानमंद था कि परमेश्‍वर के साथ तो मेरा रिश्‍ता है। इससे मुझे दिलासा और मन की शांति मिली। ऐसे हालात में, वहाँ की कलीसिया के भाई-बहनों ने मेरी मदद की। भाई-बहन ईसीओचा ने मुझे खाने को दिया और दूसरों ने पैसा उधार दिया ताकि मैं कोई छोटा-मोटा काम शुरू कर सकूँ। सन्‌ 1955 के बीच मैंने एक पुरानी साइकिल खरीदी और सन्‌ 1956 के मार्च में रेग्युलर पायनियर सेवा शुरू कर दी। उसके थोड़े समय बाद मैंने अपना कर्ज़ा चुका दिया। हालाँकि मुझे काम से बहुत कम मुनाफा होता था, लेकिन मैं अब खुद का खर्च उठा सकता था। यहोवा मुझे जो भी दे रहा था, वह मेरे लिए काफी था।

अपने भाई-बहनों को “चुराना”

जैसे ही मैं अपने पैरों पर खड़ा हुआ, मैंने सबसे पहले अपने भाई-बहनों को सच्चाई सिखाना ज़रूरी समझा। पिताजी साक्षियों के बारे में गलत धारणा रखते थे और उन्हें शक की निगाह से देखते थे। इसलिए मेरे साक्षी बनने की वजह से उन्होंने मेरा विरोध किया। तो मैं बाइबल सच्चाई सीखने में कैसे अपने भाई-बहनों की मदद कर सकता था? मैंने पिताजी से कहा कि मैं छोटे भाई अर्नेस्ट का खर्चा उठाने के लिए तैयार हूँ, तब उन्होंने उसे मेरे साथ रहने की इजाज़त दे दी। अर्नेस्ट ने बहुत जल्द सच्चाई अपना ली और सन्‌ 1956 में बपतिस्मा ले लिया। उसके बदल जाने से पिताजी और भी विरोध करने लगे। फिर भी, मेरी एक शादी-शुदा बहन और उसका पति सच्चाई में आ गए। जब मैंने पिताजी से कहा कि वे दूसरी बहन फेलिशिया को मेरे यहाँ स्कूल की छुट्टियाँ बिताने के लिए भेजें, तो उन्होंने बेमन से हाँ कह दी। जल्द ही फेलिशिया भी बपतिस्मा लेकर यहोवा की साक्षी बन गयी।

सन्‌ 1959 में, मैं अपने घर गया ताकि अपनी तीसरी बहन बर्नीस को अर्नेस्ट के यहाँ रहने के लिए ले आऊँ। तभी की बात है कि पिताजी ने मुझ पर हमला किया और इलज़ाम लगाया कि मैं उनके बच्चों को चुरा रहा हूँ। वे यह नहीं समझ पाए कि मेरे भाई-बहनों ने खुद, अपनी मरज़ी से यहोवा की सेवा करने का फैसला किया था। पिताजी ने कसम खा ली कि वे बर्निस को मेरे साथ हरगिज़ नहीं भेजेंगे। लेकिन यहोवा का हाथ छोटा नहीं है, उसके ठीक अगले साल बर्निस स्कूल की छुट्टियाँ बिताने अर्नेस्ट के यहाँ रहने आयी। बिलकुल अपनी बहनों की तरह उसने भी सच्चाई को अपनाकर बपतिस्मा ले लिया।

‘रहस्य जानना’

सन्‌ 1957 के सितंबर में, मैं स्पेशल पायनियर बन गया और हर महीने प्रचार में करीब 150 घंटे बिताने लगा। मैं और मेरा साथी संडे ईरोबेलाकी साथ मिलकर आकपुनेओबुओ, ऐचे के एक बड़े इलाके में प्रचार करते थे। वहाँ हम जिस पहले सर्किट सम्मेलन में हाज़िर हुए उसमें हमारे समूह के 13 लोगों ने बपतिस्मा लिया। आज उस इलाके में 20 कलीसियाएँ देखकर हमें क्या ही खुशी होती है!

सन्‌ 1958 में, मेरी मुलाकात क्रिस्टियाना आज़ुइके से हुई जो आबा ईस्ट कलीसिया में रेग्युलर पायनियर थी। सेवा में उसका जोश देखकर मैं कायल हो गया और उसी साल, दिसंबर में हम दोनों ने शादी कर ली। सन्‌ 1959 की शुरूआत में मुझे सफरी ओवरसियर बनाया गया और हम दोनों कलीसियाओं में जाकर अपने आध्यात्मिक भाई-बहनों को मज़बूत करने लगे। तब से लेकर सन्‌ 1972 तक मैंने और मेरी पत्नी ने पूर्वी और मध्यपूर्वी नाइजीरिया की तकरीबन हर कलीसिया का दौरा किया।

कलीसियाएँ बहुत दूर-दूर थीं और हम ज़्यादातर साइकिल से सफर करते थे। जब हम बड़े-बड़े नगरों में सेवा कर रहे होते, तो भाई किराए पर टैक्सी लेकर हमें अगली कलीसिया तक भेजने का इंतज़ाम करते थे। हम जिन कमरों में ठहरते थे, उनमें से कुछ के फर्श कच्ची मिट्टी से बने होते थे और छतें तो थीं ही नहीं। हम ताड़पत्र के रेशों से बने बिस्तरों पर सोते थे। कुछ बिस्तरों पर घास से बने गद्दे होते थे जिनके ऊपर चटाई रहती थी। और कई घरों में तो गद्दे ही नहीं थे। हमें खाने से कोई शिकायत नहीं थी, चाहे वह किसी भी तरह का हो और कम हो या ज़्यादा। अपनी बीती ज़िंदगी से हमने सीख लिया था कि हमारे पास जो है, उसी में संतोष करें। इसलिए हमारे सामने जो कुछ परोसा जाता हम खुशी-खुशी खाते थे और हमारे मेज़बानों को यह देखकर अच्छा लगता था। उन दिनों कुछ शहरों में बिजली नहीं थी, इसलिए हम हमेशा अपने साथ लालटेन ले जाते थे। ऐसे मुश्‍किल हालात के बावजूद हमने कलीसियाओं के साथ बहुत बढ़िया वक्‍त गुज़ारा।

उन सालों में हमने पौलुस के कहे इन शब्दों की अहमियत बहुत अच्छी तरह जानी: “यदि हमारे पास खाने और पहिनने को हो, तो इन्हीं पर सन्तोष करना चाहिए।” (1 तीमुथियुस 6:8) मुसीबतों ने पौलुस को संतुष्ट रहने का एक राज़ सिखाया था। वह क्या था? वह खुद बताता है: “मैं जानता हूं कि दीन होना क्या है, और मैं यह भी जानता हूं कि सम्पन्‍न होना क्या है। प्रत्येक दशा और सब परिस्थितियों में, तृप्त होने का और भूखा रहने का, सम्पन्‍न रहने का और अभाव सहने का रहस्य मैंने जान लिया है।” (नयी हिन्दी बाइबिल) हमने भी वह रहस्य जान लिया था। पौलुस ने यह भी कहा: “[परमेश्‍वर] जो मुझे सामर्थ देता है उस में मैं सब कुछ कर सकता हूं।” (फिलिप्पियों 4:12, 13) हमारे मामले में यह बात कितनी सच निकली! हमें ज़िंदगी से संतुष्टि मिली, हम हौसला देनेवाले मसीही कामों में पूरा-पूरा हिस्सा ले पाए और हमें मन की शांति भी मिली।

परिवार के साथ कलीसियाओं की सेवा

सन्‌ 1959 के आखिर में हमारा पहला बेटा जोएल पैदा हुआ, उसके बाद सन्‌ 1962 में सैमुएल। फिर भी हमने सफरी काम जारी रखा और कलीसियाओं का दौरा करते वक्‍त हम लड़कों को भी साथ ले जाते थे। सन्‌ 1967 में नाइजीरिया में अचानक गृह-युद्ध छिड़ गया। लगातार हवाई हमले होने की वजह से स्कूल बंद कर दिए गए। मेरी पत्नी, सफरी काम में मेरे साथ आने से पहले स्कूल में पढ़ाया करती थी, इसलिए युद्ध के दौरान उसी ने दोनों बच्चों को घर पर पढ़ाया। छः साल की उम्र तक सैमुएल ने पढ़ना-लिखना सीख लिया था। युद्ध खत्म होने के बाद जब उसे स्कूल में दाखिल किया, तो उसे अपनी उम्र के बच्चों से दो क्लास आगे डाला गया।

जब हम सफरी काम में थे, तब हमें पूरी तरह एहसास नहीं हुआ कि बच्चों की परवरिश में क्या-क्या मुश्‍किलें आती हैं। लेकिन सन्‌ 1972 में जब हमें स्पेशल पायनियर बनाया गया तो हमें चुनौतियों का एहसास हुआ। अब हम एक ही जगह रहकर अपने परिवार की आध्यात्मिकता पर पूरा-पूरा ध्यान दे सकते थे। हमने बच्चों को छोटी उम्र से ही सिखाया कि परमेश्‍वर ने हमें जो कुछ दिया है, उससे हमें संतुष्ट रहना चाहिए। सन्‌ 1973 में सैमुएल ने बपतिस्मा लिया और उसी साल जोएल ने रेग्युलर पायनियर सेवा शुरू की। हमारे दोनों बेटों ने बढ़िया मिसाल रखनेवाली मसीही लड़कियों से शादी की और आज वे भी सच्चाई में अपने-अपने परिवार की परवरिश कर रहे हैं।

गृह-युद्ध की आफतें

जिस वक्‍त नाइजीरिया में गृह-युद्ध छिड़ा था, तब मैं अपने परिवार के साथ सर्किट ओवरसियर के नाते ओनीचा शहर की कलीसिया के दौरे पर था। इस युद्ध से हमारे दिमाग में यह बात और भी अच्छी तरह बैठ गयी कि धन-संपत्ति इकट्ठा करना या उन पर भरोसा रखना बिलकुल बेकार है। मैंने खुद अपनी आँखों से देखा था कि लोग अपनी कीमती चीज़ें सड़कों पर छोड़कर अपनी जान बचाने के लिए भाग रहे थे।

जैसे-जैसे युद्ध ज़ोर पकड़ता गया, सभी हट्टे-कट्टे आदमियों को फौज में भर्ती किया जाने लगा। बहुत-से भाइयों ने जब भर्ती होने से मना कर दिया, तो उन्हें बुरी तरह सताया गया। हम खुलेआम कहीं आ-जा नहीं सकते थे। खाने की कमी से देश पर कहर टूट पड़ा। आधा किलो कैसावा 3 रुपए से बढ़कर 660 रुपए हो गया और एक कप नमक की कीमत 380 रुपए से बढ़कर 2,000 रुपए हो गयी। दूध, मक्खन और चीनी तो गायब ही हो गए थे। ज़िंदा रहने के लिए हम कच्चे पपीते को पीसकर उसमें थोड़ा-सा कैसावा का आटा मिलाकर खाते थे। हमने टिड्डे, कैसावा के छिलके, गुड़हल की पत्तियाँ, लंबी घास और जो भी पत्तियाँ मिलतीं, सबकुछ खाया। गोश्‍त तो रईसों के ठाट-बाट थे, इसलिए मैंने अपने बच्चों के खाने के लिए छिपकलियाँ पकड़ीं। मगर हालात चाहे कितने भी बदतर क्यों न हुए हों, यहोवा ने कभी-भी हमें भूखे पेट नहीं रहने दिया।

लेकिन इस युद्ध की वजह से जो आध्यात्मिक अकाल पड़ा वह इससे भी खतरनाक था। ज़्यादातर भाई युद्ध का इलाका छोड़कर जंगलों या दूसरे गाँवों में भाग गए और इस दौरान वे अपना ज़्यादातर बाइबल साहित्य खो बैठे। इसके अलावा, सरकारी सैनिकों की नाकाबंदी की वजह से बायफ्रान इलाके में नया बाइबल साहित्य लाना नामुमकिन हो गया था। हालाँकि ज़्यादातर कलीसियाओं ने सभाएँ रखने की कोशिश की, लेकिन शाखा दफ्तर से नाता टूट जाने की वजह से भाई-बहन आध्यात्मिक बातों में कमज़ोर पड़ गए।

आध्यात्मिक अकाल का सामना

सफरी ओवरसियरों ने हरेक कलीसिया का दौरा करते रहने के लिए अपना भरसक किया। ज़्यादातर भाई नगर छोड़कर भाग गए थे, इसलिए मैंने हर जगह उनकी तलाश की। एक बार तो मैं अपनी पत्नी और बच्चों को एक महफूज़ जगह छोड़कर अकेले छः हफ्तों तक सफर करता रहा, मैं गाँव-गाँव भटकता रहा और जंगल के अलग-अलग हिस्सों में भाई-बहनों को ढूँढ़ने लगा।

ओबूंका की एक कलीसिया में सेवा करते वक्‍त मैंने सुना कि ईसूओची इलाके में साक्षियों का एक बड़ा समूह है। ईसूओची, ओकिग्वा ज़िले में आता है। फिर मैंने वहाँ के भाइयों को यह संदेशा भेजा कि वे उमुआकु इलाके में काजू के बागीचे के पास इकट्ठे हो जाएँ। मैं और एक बुज़ुर्ग भाई 15 किलोमीटर साइकिल चलाकर उस बागीचे में गए तो देखा कि वहाँ करीब 200 साक्षी जमा थे। उनमें बहनें और बच्चे भी थे। एक पायनियर बहन की मदद से मैं करीब 100 साक्षियों के एक और समूह को ढूँढ़ पाया जिन्होंने लोमारा जंगल में पनाह ली थी।

ओवेरी शहर में, जिसे युद्ध ने तहस-नहस कर दिया था, बहुत-से दिलेर भाई थे। उनमें से एक था, लॉरेन्स ऊगवूएगबू। उसने मुझे खबर दी कि ओहेजी इलाके में कई साक्षी हैं। वे खुलेआम कहीं आ-जा नहीं सकते थे, क्योंकि उस इलाके पर सैनिकों ने कब्ज़ा कर रखा था। हम दोनों रात के अँधेरे में, साइकिल से वहाँ पहुँचे और करीब 120 साक्षियों से मिले जो एक भाई के अहाते में जमा हुए थे। इसी मौके का फायदा उठाकर हमने कुछ और साक्षियों से भी मुलाकात की जो अलग-अलग जगहों में छिपे थे।

भाई आइसैक वागवू ने अपनी जान खतरे में डालकर तित्तर-बित्तर हुए भाइयों को ढूँढ़ने में मेरी मदद की। वह मुझे एक छोटी-सी नाव से ओटामिरि नदी के पार ले गया और वहाँ मैं 150 से ज़्यादा साक्षियों से मिल सका जो एगबू-एचे इलाके में जमा हुए थे। वहाँ का एक भाई यह कहने से खुद को रोक न सका: “यह मेरी ज़िंदगी का सबसे खुशी का दिन है! मैंने कभी नहीं सोचा था कि मैं एक सर्किट ओवरसियर को देखने के लिए ज़िंदा बचूँगा। अब मैं अगर इस घमासान युद्ध में मारा जाऊँ तो भी मुझे कोई गम नहीं।”

सेना में भर्ती किए जाने का खतरा मेरे सिर पर मंडराता रहा, लेकिन मैंने हमेशा यहोवा की हिफाज़त महसूस की। एक बार दोपहर के वक्‍त मैं करीब 250 भाइयों से मिलकर अपने ठहरने की जगह लौट रहा था कि मिलट्री कमान्डोज़ के एक दल ने मुझे एक नाके पर रोक लिया। उन्होंने मुझसे पूछा: “तुम फौज में क्यों नहीं भर्ती हुए?” मैंने उन्हें समझाया कि मैं एक मिशनरी हूँ और परमेश्‍वर के राज्य का प्रचार करता हूँ। मैंने जान लिया कि वे मुझे गिरफ्तार करके ही रहेंगे। मैंने मन-ही-मन एक छोटी-सी प्रार्थना की और फिर उनके कप्तान से कहा, “प्लीज़, मुझे छोड़ दीजिए।” ताज्जुब की बात है, उसने मुझसे पूछा, “तुम चाहते हो कि हम तुम्हें जाने दें?” मैंने कहा: “जी हाँ, मुझे जाने दीजिए।” उसने कहा: “ठीक है, तुम जा सकते हो।” सैनिकों के मुँह पर ताला लग गया।—भजन 65:1, 2.

संतोष की वजह से और भी आशीषें मिलीं

सन्‌ 1970 में युद्ध खत्म होने के बाद भी मैं सर्किट ओवरसियर का काम करता रहा। कलीसियाओं को दोबारा संगठित करने में मदद देना मेरे लिए बड़े सम्मान की बात थी। इसके बाद, सन्‌ 1976 तक मैंने और क्रिस्टियाना ने स्पेशल पायनियर सेवा की। और उस साल एक बार फिर मुझे सर्किट ओवरसियर बनाया गया। फिर उस साल के बीच में मुझे डिस्ट्रिक्ट ओवरसियर का काम सौंपा गया। इसके सात साल बाद मुझे और मेरी पत्नी को नाइजीरिया में यहोवा के साक्षियों के शाखा दफ्तर में सेवा करने के लिए बुलाया गया। अब यही हमारा घर है। यहाँ ब्राँच में कभी-कभी उन भाई-बहनों से मिलकर हमें बड़ी खुशी होती है जिनसे हम गृह-युद्ध के दौरान या दूसरे मौकों पर मिले थे और आज भी वे यहोवा की सेवा वफादारी से कर रहे हैं।

गुज़रे सालों में क्रिस्टियाना ने मेरा अच्छा साथ निभाया और वह मेरी वफादार हमदम साबित हुई। सन्‌ 1978 से उसकी सेहत बिगड़ने की वजह से उसे काफी तकलीफ सहनी पड़ी है, फिर भी उसने हमेशा अपनी खुशी बरकरार रखी और उसका इरादा आज भी बुलंद है, इसलिए मैं अपनी ज़िम्मेदारियों को निभा सकता हूँ। हमने अपनी ज़िंदगी में भजनहार के इन शब्दों को सच होते देखा है: “जब वह व्याधि के मारे सेज पर पड़ा हो, तब यहोवा उसे सम्भालेगा।”—भजन 41:3.

परमेश्‍वर की सेवा में बिताए सालों को याद करने से मैं यहोवा का धन्यवाद किए बिना नहीं रह सकता क्योंकि उसने मुझे शानदार आशीषें दी हैं। जो कुछ उसने दिया उससे मैं हमेशा संतुष्ट रहा हूँ, इसलिए मैं सच्चे दिल से कह सकता हूँ कि मैंने खुशियों का खज़ाना पा लिया है। आज यह देखकर मेरा मन फूला नहीं समाता कि मेरे सगे भाई-बहन, मेरे बच्चे, उनके परिवार, सब मेरे और मेरी पत्नी के साथ मिलकर यहोवा की सेवा कर रहे हैं। यहोवा ने मुझे एक भरपूर और मकसद भरी ज़िंदगी देकर संतुष्ट किया है। उसने मेरे सारे अरमान पूरे किए।

[फुटनोट]

^ इन्हें यहोवा के साक्षियों ने छापा है। अब नहीं छापी जातीं।

[पेज 27 पर बक्स]

ऐन वक्‍त पर किए गए इंतज़ाम ने भाई-बहनों को हिम्मत दी

सन्‌ 1965 के आस-पास, जातियों की आपसी दुश्‍मनी की वजह से उत्तरी और पूर्वी नाइजीरिया में अशांति, विद्रोह, कानून की नाफरमानी करना और खून-खराबा शुरू हो गया। ऐसे हालात में यहोवा के साक्षियों पर भारी दबाव आया क्योंकि उन्होंने इन झगड़ों में पूरी तरह निष्पक्ष रहने की ठान ली थी। करीब 20 साक्षियों का कत्ल कर दिया गया। ज़्यादातर साक्षियों का घर-बार सबकुछ लुट गया।

मई 30, सन्‌ 1967 में नाइजीरिया के पूर्वी राज्यों ने फेडरेशन से अलग होकर बायफ्रा गणराज्य बना लिया था। फेडरेशन की फौज ने हरकत में आते हुए पूर्व की तरफ से पूरी तरह नाकाबंदी कर ली। उसके बाद तो ऐसा गृह-युद्ध शुरू हुआ कि खून की नदियाँ बह गयीं।

बायफ्रा इलाके में रहनेवाले यहोवा के साक्षी अपनी निष्पक्षता की वजह से हमलों का निशाना बन गए। अखबारों ने उनके बारे में अँगारे उगलकर जनता को उनके खिलाफ कर दिया। लेकिन यहोवा ने हमेशा इस बात का ध्यान रखा कि उसके सेवकों को आध्यात्मिक भोजन मिलता रहे। कैसे?

सन्‌ 1968 की शुरूआत में एक प्रशासनिक अधिकारी को यूरोप में एक पदवी दी गयी और दूसरे अधिकारी को बायफ्रा हवाई-पट्टी पर। वे दोनों यहोवा के साक्षी थे। अपनी पदवी की वजह से वे बायफ्रा और बाहर की दुनिया के दोनों सिरों पर थे। इन दोनों साक्षियों ने बायफ्रा तक आध्यात्मिक भोजन पहुँचाने का जोखिम उठाया। उन्होंने मुसीबत में पड़े हमारे भाइयों तक राहत-सामग्री पहुँचाने में भी मदद की। पूरे युद्ध के दौरान यानी सन्‌ 1970 तक इन दोनों भाइयों ने इस इंतज़ाम को जारी रखा। उनमें से एक ने बाद में कहा कि “यह इंतज़ाम ऐसा था जिसकी कोई भी इंसान कल्पना तक नहीं कर सकता था।”

[पेज 23 पर तसवीर]

सन्‌ 1956 में

[पेज 25 पर तसवीर]

सन्‌ 1965 में अपने बेटों, जोएल और सैमुएल के साथ

[पेज 26 पर तसवीर]

पूरे परिवार के साथ यहोवा की सेवा करना कितनी बड़ी आशीष है!

[पेज 27 पर तसवीर]

आज मैं और क्रिस्टियाना नाइजीरिया के शाखा दफ्तर में सेवा कर रहे हैं