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जीवते परमेश्‍वर के निर्देशों पर चलो

जीवते परमेश्‍वर के निर्देशों पर चलो

जीवते परमेश्‍वर के निर्देशों पर चलो

“जीवते परमेश्‍वर की ओर फिरो, जिस ने स्वर्ग और पृथ्वी और समुद्र और जो कुछ उन में है बनाया।”—प्रेरितों 14:15.

1, 2. यहोवा को “जीवते परमेश्‍वर” के नाते सम्मान देना क्यों सही है?

 प्रेरित पौलुस और बरनबास ने जब लुस्त्रा में एक आदमी को सबके सामने चंगा किया, तब पौलुस ने देखनेवालों को इस बात का यकीन दिलाया: “हम भी तो तुम्हारे समान दु:ख-सुख भोगी मनुष्य हैं, और तुम्हें सुसमाचार सुनाते हैं, कि तुम इन व्यर्थ वस्तुओं से अलग होकर जीवते परमेश्‍वर की ओर फिरो, जिस ने स्वर्ग और पृथ्वी और समुद्र और जो कुछ उन में है बनाया।”—प्रेरितों 14:15.

2 सचमुच, यहोवा परमेश्‍वर कोई बेजान मूरत नहीं बल्कि ‘जीवता परमेश्‍वर’ है! (यिर्मयाह 10:10; 1 थिस्सलुनीकियों 1:9, 10) वह खुद तो जीवित है ही, साथ ही हमें भी ज़िंदगी देता है। “वह तो आप ही सब को जीवन और स्वास और सब कुछ देता है।” (प्रेरितों 17:25) वह चाहता है कि हमारी आज की ज़िंदगी और आनेवाला कल खुशियों भरा हो। पौलुस ने आगे कहा कि परमेश्‍वर ने “अपने आप को बे-गवाह न छोड़ा; किन्तु वह भलाई करता रहा, और आकाश से वर्षा और फलवन्त ऋतु देकर, तुम्हारे मन को भोजन और आनन्द से भरता रहा।”—प्रेरितों 14:17.

3. परमेश्‍वर के निर्देशन पर हम क्यों भरोसा रख सकते हैं?

3 परमेश्‍वर हमें खुश देखना चाहता है, और यह उसके निर्देशन पर भरोसा करने की एक ठोस वजह है। (भजन 147:8; मत्ती 5:45) कुछ लोगों को अगर बाइबल में लिखी कोई आज्ञा बहुत सख्त लगती है या समझ नहीं आती, तो वे परमेश्‍वर के निर्देशन पर भरोसा नहीं कर पाते। मगर, सबूत दिखाते हैं कि यहोवा पर भरोसा रखना अक्लमंदी है। उदाहरण के लिए: इस्राएलियों को किसी भी लाश को छूने से मना किया गया था। अगर एक इस्राएली को समझ नहीं आता कि यह नियम क्यों दिया गया है, तो भी इसे मानने पर उसे लाभ होता। एक लाभ तो यह था कि जीवते परमेश्‍वर की आज्ञा मानने से वह उसके और करीब आता और दूसरा यह कि वह बहुत-सी बीमारियों से बचा रहता।—लैव्यव्यवस्था 5:2; 11:24.

4, 5. (क) मसीही युग से पहले, यहोवा ने लहू के बारे में क्या निर्देश दिया था? (ख) हम कैसे जानते हैं कि लहू के बारे में परमेश्‍वर की आज्ञाएँ मसीहियों पर भी लागू होती हैं?

4 लहू के बारे में परमेश्‍वर के निर्देशन के साथ भी ऐसा ही है। उसने नूह से कहा कि इंसानों को लहू खाना या पीना नहीं चाहिए। फिर व्यवस्था में, परमेश्‍वर ने ज़ाहिर किया कि लहू को सिर्फ एक तरीके से इस्तेमाल करना सही है और वह है वेदी पर, पापों की माफी माँगने के लिए। ये नियम देकर, परमेश्‍वर लहू के सबसे बेहतरीन इस्तेमाल की तैयारी कर रहा था, यानी यीशु के छुड़ौती बलिदान के ज़रिए बहुत-सी जानें बचाने की। (इब्रानियों 9:14) जी हाँ, परमेश्‍वर ने यह निर्देश दिया था, क्योंकि वह हमारी ज़िंदगी की परवाह करता है और हमें खुशहाल देखना चाहता है। उत्पत्ति 9:4 पर चर्चा करते हुए, 19वीं सदी के बाइबल विद्वान एडम क्लार्क ने लिखा: “[नूह को] दी गयी यह आज्ञा आज भी ऑर्थोडॉक्स चर्च के ईसाई बड़ी सख्ती से मानते हैं . . . व्यवस्था के तहत लहू खाना मना था, क्योंकि यह उस लहू को दर्शाता था जो संसार के पापों के लिए बहाया जाना था; और मसीही विश्‍वास के तहत लहू नहीं खाना था, क्योंकि इसे हमेशा उस लहू की निशानी समझना था जो पापों की माफी के लिए बहाया गया था।”

5 यह विद्वान उस मसीही विश्‍वास या सुसमाचार की बात कर रहा था जिसका आधार यीशु है। इस सुसमाचार में यह भी शामिल है कि परमेश्‍वर ने अपने बेटे को हमारे लिए मरने और अपना लहू बहाने भेजा ताकि हमें हमेशा की ज़िंदगी मिले। (मत्ती 20:28; यूहन्‍ना 3:16; रोमियों 5:8, 9) इस विद्वान ने यह भी बताया कि मसीह के चेलों को भी लहू से परे रहने की आज्ञा दी गयी थी।

6. मसीहियों को लहू के बारे में क्या नियम दिए गए थे और क्यों?

6 जैसा आप जानते हैं कि परमेश्‍वर ने इस्राएलियों को सैकड़ों नियम दिए थे। यीशु की मौत के बाद, चेलों के लिए इन सभी नियमों को मानना ज़रूरी नहीं रहा। (रोमियों 7:4, 6; कुलुस्सियों 2:13, 14, 17; इब्रानियों 8:6, 13) मगर, कुछ समय बाद एक बुनियादी नियम के बारे में सवाल उठाया गया, वह था पुरुषों के खतने के बारे में। क्या गैर-यहूदियों के लिए, जो मसीह के लहू से फायदा पाना चाहते थे, खतना कराने की ज़रूरत थी, जो दिखाता कि वे अब भी व्यवस्था के अधीन थे? सामान्य युग 49 में, मसीही शासी निकाय ने इस मसले को सुलझाया। (प्रेरितों, अध्याय 15) परमेश्‍वर की आत्मा की मदद से, प्रेरित और प्राचीन इस नतीजे पर पहुँचे कि खतना करवाने का नियम व्यवस्था के साथ खत्म हो गया। फिर भी, व्यवस्था में परमेश्‍वर की कुछ ऐसी माँगें थीं जो मसीहियों पर भी लागू होती थीं। कलीसियाओं को एक खत में शासी निकाय ने लिखा: “पवित्र आत्मा को, और हम को ठीक जान पड़ा, कि इन आवश्‍यक बातों को छोड़; तुम पर और बोझ न डालें; कि तुम मूरतों के बलि किए हुओं से, और लोहू से, और गला घोंटे हुओं के मांस से, और व्यभिचार से, परे रहो। इन से परे रहो; तो तुम्हारा भला होगा।”—प्रेरितों 15:28, 29.

7. मसीहियों के लिए ‘लोहू से परे रहना’ कितना ज़रूरी है?

7 इससे साफ ज़ाहिर है कि शासी निकाय की नज़र में ‘लोहू से परे रहना’ उतना ही ज़रूरी था जितना लैंगिक अनैतिकता या मूर्तिपूजा से परे रहना। यह दिखाता है कि लहू पर लगायी पाबंदी कितनी गंभीर बात थी। जो मसीही मूर्तिपूजा या व्यभिचार करते हैं और इन पापों से पश्‍चाताप नहीं करते, वे “परमेश्‍वर के राज्य के वारिस न होंगे”; “[उन]का भाग . . . दूसरी मृत्यु है।” (1 कुरिन्थियों 6:9, 10; प्रकाशितवाक्य 21:8; 22:15) इस फर्क पर गौर कीजिए: लहू की पवित्रता के बारे में परमेश्‍वर का निर्देश न मानने से सदा की मौत हाथ लगती है। जबकि यीशु के बलिदान के लिए आदर दिखाने से हमेशा की ज़िंदगी मिलती है।

8. क्या दिखाता है कि शुरू के मसीहियों ने लहू के बारे में परमेश्‍वर के निर्देश को पूरी गंभीरता से माना?

8 लहू के बारे में परमेश्‍वर के निर्देश को शुरू के मसीहियों ने कैसे समझा और इसका पालन कैसे किया? क्लार्क ने जो कहा उसे याद कीजिए: “मसीही विश्‍वास के तहत लहू नहीं खाना था, क्योंकि इसे हमेशा उस लहू की निशानी समझना था जो पापों की माफी के लिए बहाया गया था।” इतिहास इस बात का गवाह है कि शुरू के मसीही इस निर्देश को बड़ी गंभीरता से मानते थे। टर्टुलियन ने उन विधर्मियों के बारे में लिखा जो लहू खाते-पीते थे: “उन वहशियों की प्यास के बारे में सोचिए, जो अखाड़े में मुकाबले के बाद, दुष्ट अपराधियों का ताज़ा खून लेते हैं . . . और अपने मिर्गी के रोग को दूर करने के लिए इसे पीते हैं।” वहीं दूसरी तरफ टर्टुलियन ने कहा कि मसीही “अपने भोजन में जानवरों तक का खून नहीं मिलाते . . . मसीहियों के मुकद्दमों में आप उन्हें लहू से बनी सॉसेज खाने को देते हैं। जबकि आपको अच्छी तरह मालूम है कि [यह] काम उनके लिए गलत है।” जी हाँ, मौत की धमकियों के बावजूद मसीही लहू नहीं खाते थे। परमेश्‍वर के निर्देश उन्हें अपनी जान से भी ज़्यादा प्यारे थे।

9. लहू से परे रहने की माँग में, सीधे-सीधे लहू न खाने के अलावा और क्या शामिल था?

9 कुछ लोग शायद सोचें कि शासी निकाय ने सिर्फ यह कहा था कि मसीहियों को लहू सीधे-सीधे खाना या पीना नहीं चाहिए, ना ही ऐसा मांस खाना चाहिए जिससे लहू न निकाला गया हो या जिसमें लहू मिलाया गया हो। यह सच है कि परमेश्‍वर ने नूह को जो आज्ञा दी थी उसका सीधा मतलब यही था। और प्रेरितों ने मसीहियों को हुक्म दिया कि वे “गला घोंटे हुओं के मांस से” यानी जिस मांस से खून न निकाला गया हो, दूर रहें। (उत्पत्ति 9:3, 4; प्रेरितों 21:25) मगर शुरू के मसीही जानते थे कि इस आज्ञा में और भी कई बातें शामिल हैं। कभी-कभी इलाज के लिए लहू खाया या पीया जाता था। टर्टुलियन ने कहा कि कुछ विधर्मी, मिर्गी के रोग से राहत पाने के लिए ताज़ा खून पीते थे। और हो सकता है कि रोग को दूर करने या जैसा कहा जाता था सेहत सुधारने के लिए लहू को और भी कई तरीकों से इस्तेमाल किया जाता होगा। मगर जहाँ तक मसीहियों की बात है, वे “इलाज” करवाने के लिए भी लहू का इस्तेमाल नहीं करते थे। वे अपने इस फैसले पर अटल रहे, फिर चाहे उनकी जान को ही खतरा क्यों न हो।

दवा के रूप में लहू

10. कुछ तरीके क्या हैं जिनसे लहू को इलाज में इस्तेमाल किया जा रहा है, और इस वजह से क्या सवाल उठते हैं?

10 आज इलाज में लहू का इस्तेमाल बहुत आम है। पहले, रक्‍तदान करनेवाले के लहू को सँभालकर रखा जाता था और पूरा लहू एक ही मरीज़ को चढ़ाया जाता था, जो शायद युद्ध में घायल हुआ हो। कुछ वक्‍त के बाद, खोजकर्ताओं ने लहू को इसके चार मूल अवयवों में अलग करना सीखा। इन अवयवों को मरीज़ के शरीर में चढ़ाने से, डॉक्टर रक्‍तदान से मिले लहू को कई मरीज़ों में चढ़ा सकते थे। वे प्लाज़मा किसी एक घायल आदमी को और लाल रक्‍त कोशिकाएँ दूसरे मरीज़ को दे सकते थे। जारी खोजबीन ने दिखाया है कि लहू के एक अवयव, जैसे कि प्लाज़मा में से इसके कई अंश अलग-अलग किए जा सकते हैं और इन्हें और ज़्यादा मरीज़ों को दिया जा सकता है। लहू को और छोटे-छोटे अंशों में अलग करने की कोशिश जारी है, और इन अंशों को इस्तेमाल करने के नए-नए तरीकों के बारे में बताया जा रहा है। इन अंशों के इस्तेमाल के बारे में एक मसीही को क्या करना चाहिए? हालाँकि एक मसीही का यह पक्का इरादा है कि वह किसी भी हाल में खून नहीं लेगा, लेकिन अगर उसका डॉक्टर उससे गुज़ारिश करे कि खून का एक मूल अवयव, शायद गाढ़ी लाल रक्‍त कोशिकाएँ चढ़वा ले तब वह क्या करेगा? या फिर जो इलाज वह करवाना चाहता है उसमें, अगर लहू के अवयव का एक छोटा-सा अंश इस्तेमाल किया जाएगा, तब वह क्या करेगा? इन सवालों का सामना करने पर परमेश्‍वर का सेवक क्या फैसला करेगा? खासकर उसे इस बात को याद रखना होगा कि लहू पवित्र है और सिर्फ मसीह का लहू ही सबसे बेहतरीन तरीके से इंसान की जान बचा सकता है।

11. साक्षी लहू के बारे में बहुत समय से क्या फैसला करते आए हैं, और मेडिकल तरीके से यह कैसे सच है?

11 बरसों पहले यहोवा के साक्षियों ने अपना फैसला साफ बता दिया था। मिसाल के लिए, द जर्नल ऑफ द अमेरिकन मेडिकल असोसिएशन में उन्होंने एक लेख दिया (नवंबर 27, 1981; आपके जीवन को लहू कैसे बचा सकता है? ब्रोशर के पेज 27-9 पर इसे दोबारा छापा गया है)। * इस लेख में उत्पत्ति, लैव्यव्यवस्था और प्रेरितों की किताबों में से हवाले दिए गए थे। इसमें यह कहा गया: “इन आयतों को हालाँकि डॉक्टरी भाषा में नहीं लिखा गया, मगर साक्षियों को इन हवालों से यही समझ में आता है कि इनमें पूरा लहू, गाढ़ी लाल रक्‍त कोशिकाएँ, प्लाज़मा, श्‍वेत रक्‍त कोशिकाएँ और प्लेटलेट्‌स चढ़ाने पर पाबंदी लगायी गयी है।” सन्‌ 2001 की किताब इमरजैंसी केयर, “लहू की बनावट” के तहत कहती है: “लहू कई अवयवों से बना है जैसे: प्लाज़मा, लाल और श्‍वेत रक्‍त कोशिकाएँ और प्लेटलेट्‌स।” तो फिर, मेडिकल सच्चाइयों के मुताबिक कहा जाए, तो साक्षी पूरा लहू या इसके चार मूल अवयव चढ़ाने से साफ इनकार करते हैं।

12. (क) लहू के मूल अवयवों में से निकाले गए अंश लेने के बारे में हमारा फैसला क्या है, यह कैसे बताया गया है? (ख) इस बारे में ज़्यादा जानकारी कहाँ पायी जा सकती है?

12 इस लेख में आगे कहा है: “साक्षियों की धार्मिक समझ, लहू के [अंश] लेने पर पूरी तरह पाबंदी नहीं लगाती, जैसे कि एल्ब्यूमिन, इम्यून ग्लोब्यूलिन और खून के बहाव को कम करनेवाले अंश। हर साक्षी को खुद यह तय करना है कि वह ये अंश लेगा या नहीं।” सन्‌ 1981 से, बहुत-से अंश (चार मूल अवयवों में से अलग-अलग छोटे अंश) निकाले गए हैं। इसी विषय पर, जून 15, 2000 की प्रहरीदुर्ग में लेख “पाठकों के प्रश्‍न” में फायदेमंद जानकारी दी गयी थी। हमारे हाल के लाखों पाठकों को भी इस जानकारी से फायदा मिले, इसलिए इस लेख की खास बातें इस पत्रिका के पेज 29-31 पर छापी गयी हैं। इसमें विस्तार से जानकारी और ठोस दलीलें दी गयी हैं, लेकिन आप देख पाएँगे कि इसमें जो कहा गया है वह 1981 में पेश किए गए खास विचारों के मुताबिक ही है।

आपके विवेक का काम

13, 14. (क) विवेक क्या है, और लहू के मामले में यह कैसे राह दिखाता है? (ख) मांस खाने के बारे में परमेश्‍वर ने इस्राएल को क्या निर्देश दिए, मगर कौन-से सवाल शायद उठे होंगे?

13 इस मामले में फैसला करते वक्‍त विवेक को काम में लाना ज़रूरी है। क्यों? मसीही मानते हैं कि परमेश्‍वर के निर्देशों पर चलना ज़रूरी है, मगर कुछ ऐसे मामले हैं जहाँ हरेक को खुद फैसला करना पड़ता है और ऐसे में हमारा विवेक हमें राह दिखाता है। विवेक ऐसी अंदरूनी काबिलीयत है, जिससे हम नैतिक मामलों की जाँच-परख करके, सही-गलत का फैसला करते हैं। (रोमियों 2:14, 15) लेकिन, जैसा आप जानते हैं हर इंसान का विवेक अलग-अलग फैसला करता है। * बाइबल बताती है कि कुछ लोगों का “निर्बल विवेक” होता है जिसका मतलब है कि दूसरों का विवेक सबल या मज़बूत होता है। (1 कुरिन्थियों 8:12) परमेश्‍वर की मरज़ी जानने, उसकी सोच के मुताबिक खुद को ढालने और अपने फैसलों पर परमेश्‍वर की सोच को लागू करने में, हर मसीही ने अलग-अलग हद तक तरक्की की है। इसे हम यहूदियों के मांस खाने का उदाहरण देकर समझा सकते हैं।

14 बाइबल इस बारे में साफ बताती है कि परमेश्‍वर की आज्ञा माननेवाला इंसान ऐसा मांस नहीं खाएगा जिसमें से लहू न बहाया गया हो। इस निर्देश को मानना इतना ज़रूरी था कि जब इस्राएली सिपाहियों की भूख के मारे जान पर बन आयी और उन्होंने लहू निकाले बिना मांस खाया, तो वे घोर पाप करने के अपराधी ठहरे। (व्यवस्थाविवरण 12:15, 16; 1 शमूएल 14:31-35) फिर भी, इस्राएलियों के मन में इस नियम के बारे में सवाल उठे होंगे। जैसे, जब एक इस्राएली किसी भेड़ का वध करता है, तो उसे कितनी जल्दी उसका लहू ज़मीन पर उंडेलना चाहिए? क्या लहू निकालने के लिए उसे जानवर का गला काटना चाहिए? क्या यह ज़रूरी था कि भेड़ की पिछली टांगों से उसे उलटा लटकाया जाए? और कितने समय तक? अगर उसने किसी बड़े जानवर का वध किया है तो उसका खून कैसे निकालेगा? लहू उंडेलने के बाद भी, थोड़ा लहू मांस में रह ही जाता है। क्या वह ऐसा मांस खा सकता था? कौन इसका फैसला करेगा?

15. मांस खाने के बारे में कुछ यहूदियों ने क्या किया, मगर परमेश्‍वर ने क्या निर्देश दिया था?

15 ज़रा सोचिए, परमेश्‍वर की आज्ञा को पूरे उत्साह से माननेवाले किसी यहूदी के मन में अगर ऐसे सवाल उठे होंगे तो उसने क्या किया होगा? उसने शायद यह सोचा हो कि बाज़ार से मांस खरीदने से दूर ही रहना अच्छा है, वैसे ही जैसे एक यहूदी यह सोचकर मांस न खाता कि शायद इस जानवर को किसी मूरत के आगे बलि चढ़ाया गया हो। दूसरे यहूदी, शायद लहू निकालने की सभी रस्मों का पालन करने के बाद ही किसी जानवर का मांस खाते। * (मत्ती 23:23, 24) ऐसे अलग-अलग फैसलों के बारे में आप क्या सोचते हैं? और, अगर परमेश्‍वर ने यह सब करने की माँग नहीं की थी, तो सवाल उठता है कि क्या यहूदियों को अपने ढेरों सवाल, रब्बियों की सभा को भेजने चाहिए थे, जो उन्हें हर हालात के बारे में साफ-साफ बताते कि उन्हें क्या करना चाहिए? हालाँकि आगे चलकर यहूदी धर्म में ऐसा ही किया जाने लगा, मगर हमें इस बात की खुशी है कि यहोवा ने अपने सच्चे उपासकों को लहू के बारे में इस तरह फैसले करने के लिए नहीं कहा था। परमेश्‍वर ने शुद्ध जानवरों को हलाल करने और उनका लहू उंडेलने के बारे में बुनियादी निर्देश दिए, मगर उसने हर छोटी-छोटी जानकारी नहीं दी।—यूहन्‍ना 8:32.

16. लहू के एक अवयव से निकाले गए छोटे-से अंश को इंजेक्शन के रूप में लेने के बारे में, मसीहियों की अलग-अलग राय क्यों हो सकती है?

16 जैसा पैराग्राफ 11 और 12 में बताया गया है, यहोवा के साक्षी पूरे लहू को या इसके चार मूल अवयवों—प्लाज़मा, लाल रक्‍त कोशिकाएँ, श्‍वेत रक्‍त कोशिकाएँ और प्लेटलेट्‌स को अपने शरीर में नहीं चढ़वाते। लहू के किसी मूल अवयव में से निकाले गए अंश के बारे में क्या, जैसे सीरम जिसमें रोग से लड़नेवाले या साँप के ज़हर को काटनेवाले रोगाणु पाए जाते हैं? (पेज 30, पैराग्राफ 4 देखिए।) कुछ लोग इस नतीजे पर पहुँचे हैं कि ऐसे छोटे-छोटे अंश दरअसल अब लहू नहीं रहे और इसलिए इन्हें लेने पर ‘लहू से परे रहने’ की आज्ञा लागू नहीं होती। (प्रेरितों 15:29; 21:25; पेज 31, पैराग्राफ 1) इस फैसले के लिए वे खुद जवाबदेह होंगे। दूसरे मसीहियों का विवेक उन्हें ऐसी हर चीज़ को ठुकराने के लिए उकसाता है जो (इंसान या जानवर के) लहू से निकाली गयी हो, फिर चाहे वह किसी मूल अवयव का एक छोटा-सा अंश ही क्यों न हो। * कुछ ऐसे मसीही भी हैं जो प्लाज़मा प्रोटीन के इंजेक्शन लगवाना स्वीकार करते हैं ताकि उनका शरीर रोगों से या साँप के ज़हर से लड़ सके, मगर वे दूसरे छोटे अंशों को स्वीकार न करें। इसके अलावा, चार मूल अवयवों में से निकाले गए कुछ अंश ऐसा काम करते हैं जो पूरे अवयव के काम करने जैसा ही होता है, और यह अंश जीवन को कायम रखने में ऐसा ज़रूरी काम करता है कि ज़्यादातर मसीही इसे लेने से इनकार करते हैं।

17. (क) लहू के अंशों के बारे में उठनेवाले सवालों का जवाब पाने में हमारा विवेक कैसे हमारी मदद कर सकता है? (ख) इस मामले में फैसले करना इतनी गंभीर बात क्यों है?

17 ऐसे फैसले करते वक्‍त, विवेक के बारे में बाइबल जो बताती है उससे हमें काफी मदद मिलती है। बाइबल के मुताबिक पहला कदम है कि आप परमेश्‍वर के वचन में जो लिखा है वह सीखें और फिर अपने विवेक को उसके मुताबिक ढालने की कोशिश करें। इससे आपको ऐसा फैसला करने में मदद मिलेगी जो परमेश्‍वर के निर्देश के मुताबिक हो, और आप किसी और को अपने लिए फैसला करने के लिए नहीं कहेंगे। (भजन 25:4, 5) लहू के अंश लेने के बारे में, कुछ लोगों ने सोचा है, ‘वैसे भी यह अपने-अपने विवेक की बात है, इसलिए इससे कोई खास फर्क नहीं पड़ता कि मैं इस बारे में क्या फैसला करता हूँ।’ ऐसी सोच गलत है। कुछ फैसले हमारे विवेक पर छोड़ दिए गए हैं, लेकिन इसका मतलब यह हरगिज़ नहीं कि वे कोई मामूली फैसले हैं। हमारे फैसले का अंजाम बहुत गंभीर हो सकता है। एक वजह यह है कि जिन लोगों का विवेक हमसे अलग है, उन पर हमारे फैसले का बुरा असर हो सकता है। यह बात समझने के लिए आइए हम मांस खाने के बारे में पौलुस की सलाह पर फिर से गौर करें। हो सकता है कि वह मांस किसी मूरत के आगे बलि किया गया हो और फिर उसे बाज़ार में बेचने के लिए लाया गया हो। एक मसीही को इस बात की चिंता होनी चाहिए कि वह किसी के “निर्बल विवेक को चोट” न पहुँचाए। अगर वह ठोकर खिलाने का कारण बनता है, तो वह उस ‘निर्बल भाई के नाश’ का कारण होगा ‘जिस के लिये मसीह मरा’ और वह मसीह के खिलाफ पाप कर रहा होगा। इसलिए, लहू के छोटे-छोटे अंश ले या न ले, यह हर मसीही का निजी फैसला है फिर भी इन फैसलों की गंभीरता समझना बहुत ज़रूरी है।—1 कुरिन्थियों 8:8, 11-13; 10:25-31.

18. एक मसीही, लहू के बारे में फैसले करते वक्‍त कैसे अपने विवेक को सुन्‍न पड़ने नहीं देगा?

18 एक और बात पर गौर कीजिए जो यह एहसास दिलाती है कि लहू के बारे में किए जानेवाले फैसले कोई मामूली बात नहीं। इन फैसलों का खुद आप पर कैसा असर हो सकता है। अगर लहू का एक छोटा अंश लेने से, बाइबल से तालीम पाया आपका विवेक आपको परेशान करेगा तो आपको इसे नज़रअंदाज़ नहीं करना चाहिए। अगर आपसे कोई कहे, “इसे लेने में कोई बुराई नहीं; बहुतों ने इसे लिया है,” मगर आपका विवेक इसकी गवाही नहीं देता तो आपको अपने विवेक की आवाज़ को अनसुना नहीं करना चाहिए। मत भूलिए, आज लाखों लोग अपने विवेक की आवाज़ नहीं सुनते और इस वजह से उनका विवेक सुन्‍न पड़ गया है। इसलिए जब वे झूठ बोलते या दूसरे गलत काम करते हैं, तो उनका विवेक उन्हें धिक्कारता नहीं। मसीही हरगिज़ उनके जैसा नहीं बनना चाहेंगे।—2 शमूएल 24:10; 1 तीमुथियुस 4:1, 2.

19. लहू के बारे में इलाज से जुड़े सवालों पर फैसला करते वक्‍त, हमें हर वक्‍त क्या बात याद रखनी चाहिए?

19 इस अंक के पेज 29-31 पर छपे जवाब के आखिर में आते-आते यूँ कहा गया है: “इन अलग-अलग विचारों और फैसलों की वजह से, क्या यह सोच लेना ठीक होगा कि हम चाहे जो भी फैसला करें उससे कोई फर्क नहीं पड़ता? जी नहीं, फर्क पड़ता है। यह एक गंभीर मसला है।” यह खासकर इसलिए गंभीर है, क्योंकि इससे “जीवते परमेश्‍वर” के साथ आपका रिश्‍ता जुड़ा हुआ है। यही एक रिश्‍ता है, जिससे यीशु के बहाए गए लहू के बचाने की शक्‍ति के आधार पर आगे चलकर आपको हमेशा की ज़िंदगी मिल सकती है। परमेश्‍वर, लहू के ज़रिए जो कर रहा है, जी हाँ लोगों की जानें बचा रहा है, उसकी वजह से अपने मन में लहू के लिए गहरा आदर पैदा कीजिए। पौलुस ने ठीक-ठीक लिखा: “तुम लोग . . . आशाहीन और जगत में ईश्‍वररहित थे। पर अब तो मसीह यीशु में तुम जो पहिले दूर थे, मसीह के लोहू के द्वारा निकट हो गए हो।”—तिरछे टाइप हमारे; इफिसियों 2:12, 13.

[फुटनोट]

^ इसे यहोवा के साक्षियों ने प्रकाशित किया है।

^ एक वक्‍त पर पौलुस और चार और मसीही मंदिर गए ताकि खुद को व्यवस्था की माँगों के मुताबिक शुद्ध करें। उस वक्‍त तक, व्यवस्था खत्म हो चुकी थी, फिर भी पौलुस ने यरूशलेम के पुरनियों की सलाह पर ऐसा किया। (प्रेरितों 21:23-25) लेकिन, कुछ मसीहियों को शायद ऐसा लगा होगा कि अगर वे पौलुस की जगह होते तो मंदिर कभी न जाते, न ही ऐसी रस्म को कभी पूरा करते। उस ज़माने में भी हर इंसान का विवेक अलग-अलग फैसला करता था, आज भी ऐसा ही है।

^ इनसाइक्लोपीडिया जुडाइका में मांस को “शुद्ध” करने के बारे में “जटिल और हर छोटी बात के लिए” नियम दिए गए हैं। इसमें बताया है कि मांस को कितने मिनट के लिए पानी में रखना चाहिए, किसी सपाट जगह पर रखकर कैसे इसका सारा पानी और लहू बहने देना चाहिए, उस पर मलने के लिए नमक कैसा होना चाहिए, और फिर इसे ठंडे पानी में कितनी बार धोना चाहिए।

^ आज ज़्यादातर इंजेक्शनों में खास या सक्रिय हिस्सा, ऐसा पदार्थ होता है जो लेबोरेटरी में तैयार किया जाता है और लहू से नहीं निकाला जाता। मगर कुछ मामलों में, लहू का एक अंश जैसे कि एल्ब्यूमिन बहुत छोटी मात्रा में शायद इन इंजेक्शनों में मिलाया जाए।—अक्टूबर 1, 1994 की प्रहरीदुर्ग में “पाठकों के प्रश्‍न” देखिए।

क्या आपको याद है?

• परमेश्‍वर ने लहू के बारे में नूह को, इस्राएलियों को और मसीहियों को क्या निर्देश दिए?

• लहू के मामले में, यहोवा के साक्षी क्या लेने से साफ इनकार कर देते हैं?

• लहू के किसी मूल अवयव में से एक छोटा-सा अंश लेने का फैसला, किस मायने में हमारे विवेक पर निर्भर करता है मगर इसका मतलब क्या नहीं है?

• फैसले करते वक्‍त, हमें क्यों परमेश्‍वर के साथ अपने रिश्‍ते को अपने मन में सबसे आगे रखना चाहिए?

[अध्ययन के लिए सवाल]

[पेज 22 पर चार्ट]

(भाग को असल रूप में देखने के लिए प्रकाशन देखिए)

लहू के मामले में हमारा बुनियादी फैसला

पूरा लहू

स्वीकार नहीं करेंगे

लाल रक्‍त कोशिकाएँ

श्‍वेत रक्‍त कोशिकाएँ

प्लेटलेट्‌स

प्लाज़मा

मसीही को फैसला करना है

लाल रक्‍त कोशिकाओं के अंश

श्‍वेत रक्‍त कोशिकाओं के अंश

प्लेटलेट्‌स के अंश

प्लाज़मा के अंश

[पेज 20 पर तसवीर]

शासी निकाय ने यह फैसला सुनाया कि मसीहियों को हर हाल में ‘लहू से परे’ रहना चाहिए

[पेज 23 पर तसवीर]

जब लहू के अंश लेने का फैसला आपके सामने आए, तो अपने विवेक की आवाज़ को अनसुना मत कीजिए