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हमने यहोवा की ताकत पर भरोसा रखा

हमने यहोवा की ताकत पर भरोसा रखा

जीवन कहानी

हमने यहोवा की ताकत पर भरोसा रखा

एर्शेबेट हाफनर की ज़ुबानी

“नहीं, मैं तुम्हें नहीं जाने दूँगा, वे तुम्हें देश से नहीं निकाल सकते।” जब टीबॉर हाफनर को पता चला कि मुझे चेकोस्लोवाकिया छोड़ने का हुक्म मिला है, तो उन्होंने मुझसे यह बात कही थी। फिर उन्होंने कहा: “अगर तुम राज़ी हो तो मैं तुमसे शादी करना चाहता हूँ, फिर तुम्हें कहीं नहीं जाना पड़ेगा, तुम मेरे साथ ही रहोगी, हमेशा-हमेशा के लिए।”

मैंने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि टीबॉर मुझसे ऐसा कहेंगे। इसके कुछ ही हफ्तों बाद, जनवरी 29, 1938 को मैंने टीबॉर से शादी कर ली। इसी भाई ने मेरे परिवार को सबसे पहले गवाही दी थी। शादी का फैसला करना मेरे लिए इतना आसान नहीं था। उस वक्‍त मैं बस 18 की हुई थी और यहोवा की एक साक्षी के नाते पूरे समय की सेवा कर रही थी। मैं चाहती थी कि मैं अपनी जवानी के साल पूरी तरह यहोवा की सेवा में बिताऊँ। शादी की बात को लेकर मैं रो पड़ी। फिर मैंने यहोवा से प्रार्थना की। थोड़ी शांत होने पर मुझे एहसास हुआ कि टीबॉर ने शादी का प्रस्ताव रखकर मुझ पर कोई एहसान नहीं किया है बल्कि वे मुझसे सचमुच प्यार करते हैं। फिर मैं भी उनको चाहने लगी और उनको अपना जीवन-साथी बनाने को राज़ी हो गयी।

मैं जिस देश में रहती थी, उसे अपनी लोकतंत्र सरकार और धार्मिक आज़ादी पर बहुत गर्व था। फिर मुझे देश-निकाला क्यों दिया गया? जवाब के लिए शायद मुझे अपने बचपन और अपनी परवरिश के बारे में आपको कुछ बताना ठीक रहेगा।

मेरा जन्म दिसंबर 26, 1919 को हंगरी के शायॉसेंटपीटर नाम के गाँव में हुआ था, जो बुडापेस्ट शहर से करीब 160 किलोमीटर पूरब की ओर है। मेरे माता-पिता ग्रीक कैथोलिक चर्च के सदस्य थे। दुःख की बात है कि मैं कभी अपने पिता को नहीं देख पायी क्योंकि मेरे पैदा होने से पहले ही वे चल बसे। कुछ समय बाद माँ ने एक विधुर से शादी कर ली जिसके चार बच्चे थे। वे दोनों हम बच्चों को लेकर लुचेनयेट्‌ज़ में जा बसे। यह प्यारा-सा शहर उस देश में था जो उस वक्‍त चेकोस्लोवाकिया कहलाता था। उन दिनों सौतेले परिवार में जीना इतना आसान नहीं था। मैं पाँच बच्चों में सबसे छोटी थी और मुझे हमेशा लगता था कि मैं परिवार पर एक बोझ हूँ। हमारी माली हालत ठीक नहीं थी, और मैं न सिर्फ खाने-कपड़े की मोहताज थी बल्कि माँ-बाप के प्यार की भी भूखी थी।

कोई है जवाब देनेवाला?

जब मैं 16 बरस की थी, तब मेरे मन में कुछ ऐसे सवाल उठने लगे जिन्हें लेकर मैं बहुत परेशान हो गयी। पहले विश्‍वयुद्ध का इतिहास मैंने बड़ी दिलचस्पी के साथ पढ़ा था और यह जानकर मुझे बहुत हैरानी हुई कि खुद को ईसाई कहनेवाले और सभ्य राष्ट्रों ने कैसे एक-दूसरे का खून बहाया! मैंने यह भी देखा कि कई देश अपनी फौज को मज़बूत करने और ज़्यादा-से-ज़्यादा हथियार इकट्ठा करने में लगे हुए हैं। चर्च में तो पड़ोसी से प्यार करना सिखाया जाता था मगर हकीकत में सब कुछ उसके उलटा ही हो रहा था।

इसलिए मैंने एक रोमन कैथोलिक पादरी से पूछा: “हम ईसाइयों को कौन-सी आज्ञा माननी चाहिए—युद्ध में जाकर अपने पड़ोसियों को मार डालने की या उन्हें प्यार करने की?” पादरी मेरे सवाल से चिढ़कर बोला, मैं तो बस वही सिखाता हूँ जो चर्च के बड़े अधिकारी मुझसे कहते हैं। जब मैंने एक कैल्विनिस्ट प्रचारक और फिर एक यहूदी रब्बी से यह सवाल पूछा तो वे मेरे सवाल पर ताज्जुब करने लगे मगर किसी ने भी जवाब नहीं दिया। आखिर में, मैं एक लूथरन प्रचारक के पास गयी। वह भी खीज उठा, मगर मेरे जाने से पहले उसने कहा: “अगर तुम सचमुच जानना चाहती हो, तो जाओ यहोवा के साक्षियों से पूछो।”

मैंने साक्षियों को ढूँढ़ने की बहुत कोशिश की मगर नाकाम रही। कुछ समय बाद, एक दिन जब मैं काम से घर लौट रही थी, तो मैंने देखा कि हमारे घर का दरवाज़ा आधा खुला है और एक खूबसूरत नौजवान वहाँ खड़ा होकर मेरी माँ को बाइबल से कुछ पढ़कर सुना रहा है। उसे देखते ही मैंने सोचा, ‘हो-न-हो, वह यहोवा का एक साक्षी है।’ उस नौजवान का नाम था, टीबॉर हाफनर। हमने उसको अंदर बुलाया और फिर मैंने वही सवाल उससे पूछे। जवाब में उसने अपनी कोई राय नहीं बतायी, बल्कि मुझे बाइबल से दिखाया कि सच्चे मसीहियों की क्या पहचान है और यह भी समझाया कि हम कैसे समय में जी रहे हैं।—यूहन्‍ना 13:34, 35; 2 तीमुथियुस 3:1-5.

इस वाकये के कुछ ही महीनों के अंदर मैंने बपतिस्मा ले लिया। तब मैं 17 साल की भी नहीं थी। मुझे लगता था कि हरेक को ये अनमोल सच्चाइयाँ मिलनी चाहिए, जिन्हें मैंने इतनी मुश्‍किल से पाया है। मैं पूरे समय प्रचार करने लगी, इसके बावजूद कि चेकोस्लोवाकिया में 1935 के बाद के उन सालों में यह काम चुनौती भरा था। वैसे तो हमारे काम को कानूनी मान्यता मिल चुकी थी, फिर भी पादरियों के भड़काने पर हमारा जमकर विरोध किया जाता था।

ज़ुल्म सहने का पहला अनुभव

सन्‌ 1937 के आखिर में, एक दिन मैं और एक दूसरी मसीही बहन, लुचेनयेट्‌ज़ के पासवाले गाँव में प्रचार कर रही थीं। अचानक हमें गिरफ्तार करके जेल में डाल दिया गया। वहाँ के गार्ड ने धड़ाक से कोठरी का दरवाज़ा बंद करते हुए कहा: “अब यहीं से तुम्हारी लाशें उठेंगी!”

शाम होते-होते चार और स्त्रियों को हमारी कोठरी में डाला गया। वे बहुत दुःखी और परेशान थीं इसलिए हमने उनको तसल्ली दी और सच्चाई की गवाही दी। इससे उनका मन थोड़ा हलका हुआ और फिर हम पूरी रात उन्हें बाइबल की सच्चाइयाँ बताती रहीं।

अगले दिन सुबह छः बजे, एक गार्ड ने मुझे कोठरी से बाहर बुलाया। जाने से पहले मैंने अपनी साथवाली बहन से कहा: “हम परमेश्‍वर के राज्य में फिर मिलेंगे।” मैंने यह भी कहा कि अगर वह ज़िंदा बची तो मेरे परिवार को बताए कि मेरे साथ क्या हुआ। मैंने मन-ही-मन प्रार्थना की और उस गार्ड के साथ चल पड़ी। वह मुझे जेल के इलाके में अपने घर ले गया और उसने कहा: “ए छोकरी, मुझे तुझसे कुछ सवाल पूछने हैं। कल रात तू बता रही थी न कि परमेश्‍वर का नाम यहोवा है? तू मुझे दिखा सकती है कि ऐसा बाइबल में कहाँ लिखा है?” यह सुनकर तो मैं एकदम हैरान रह गयी और मेरी जान-में-जान आयी! वह अपनी बाइबल लेकर आया और मैंने उसे और उसकी पत्नी को यहोवा का नाम दिखाया। पिछली रात मैंने और दूसरी बहन ने उन चार स्त्रियों से जिन विषयों पर चर्चा की थी, उनके बारे में गार्ड ने मुझसे और भी कई सवाल किए। जवाबों से वह इतना खुश हुआ कि उसने अपनी पत्नी से कहा कि वह मेरे और मेरी साथवाली बहन के लिए नाश्‍ता तैयार करे।

फिर दो-चार दिन बाद हमें रिहा कर दिया गया। मगर एक जज ने फैसला सुनाया कि मुझे चेकोस्लोवाकिया छोड़कर जाना होगा क्योंकि मैं हंगरी की नागरिक हूँ। यही वह समय था जब टीबॉर हाफनर ने मेरे सामने शादी का प्रस्ताव रखा। हम दोनों ने शादी कर ली और मैं टीबॉर के साथ अपने ससुराल चली गयी।

ज़ुल्म का दौर बढ़ा

हालाँकि टीबॉर को संगठन से जुड़ी बहुत-सी ज़िम्मेदारियाँ सँभालनी पड़ती थीं, फिर भी हम साथ-साथ प्रचार का काम ज़रूर करते थे। हमारा एक बेटा पैदा हुआ जिसका नाम हमने टीबॉर जूनियर रखा। उसके पैदा होने के कुछ ही दिन बाद नवंबर 1938 में हंगरी के सैनिक हमारे शहर में घुस आए। पूरे यूरोप पर दूसरे विश्‍वयुद्ध के काले बादल मँडरा रहे थे। हंगरी ने चेकोस्लोवाकिया के कई इलाकों पर कब्ज़ा कर लिया था। इस वजह से उन जगहों में रहनेवाले साक्षियों पर ज़ुल्म बढ़ गए।

अक्टूबर 10, 1942 को टीबॉर हमेशा की तरह कुछ भाइयों से मिलने डेब्रसेन गए। लेकिन इस बार वे लौटकर नहीं आए। बाद में उन्होंने मुझे बताया कि उनके साथ क्या हुआ था। दरअसल भाइयों ने एक पुल पर मिलने का इंतज़ाम किया था। टीबॉर जब वहाँ पहुँचे तो उन्हें भाइयों के बदले कुछ पुलिसवाले मिले जो मज़दूरों के कपड़े पहने हुए थे। वे मेरे पति और पेल नाजपेल नाम के भाई का इंतज़ार कर रहे थे। ये दोनों वहाँ पहुँचनेवाले भाइयों में से सबसे आखिरी थे। पुलिसवाले उन दोनों को थाने ले गए और उनके नंगे पावों पर तब तक लाठियाँ मारते रहे जब तक कि वे दर्द के मारे बेहोश न हो गए।

फिर उन्हें हुक्म दिया गया कि वे अपने जूते पहनकर खड़े हो जाएँ। दर्द से उनका बुरा हाल था फिर भी उन्हें ज़बरदस्ती रेलवे स्टेशन ले जाया गया। पुलिस एक और आदमी को वहाँ लायी जिसके सिर पर इतनी सारी पट्टियाँ बँधी थीं कि वह ठीक से देख भी नहीं पा रहा था। वह था, भाई आन्ड्राश पिलिंक। वह भी भाइयों से मिलने पुल के पास आया था। मेरे पति को ट्रेन से आलाग नाम के गाँव में ले जाया गया, जो बुडापेस्ट के पास ही है। वहाँ एक गार्ड ने टीबॉर के ज़ख्मी पाँवों को देखकर खिल्ली उड़ाते हुए कहा: “यकीन नहीं होता कि कुछ लोग इतने बेरहम भी हो सकते हैं! कोई बात नहीं, हम तुम्हारी मरहम-पट्टी करेंगे।” इसके बाद दो गार्डों ने टीबॉर के पाँवों पर इतनी बेंतें मारीं कि चारों तरफ खून के छींटे उड़ गए। और चंद मिनटों में ही वे बेहोश हो गए।

अगले महीने टीबॉर के साथ 60 से भी ज़्यादा भाई-बहनों पर मुकद्दमा चलाया गया। भाई आन्ड्राश बॉर्टा, डेनश फॉलुवेगी और यानॉश कॉनराड को फाँसी की सज़ा सुनायी गयी। भाई आन्ड्राश पिलिंक को उम्र कैद और मेरे पति को 12 साल कैद की सज़ा मिली। किस अपराध के लिए? सरकारी वकील ने यह इलज़ाम लगाया कि वे देशद्रोही और जासूस हैं, उन्होंने फौज में भरती होने से इनकार किया है और सबसे पवित्र चर्च की निंदा की है। जिन भाइयों को फाँसी की सज़ा सुनायी गयी थी, बाद में उनकी सज़ा को आजीवन कारावास में बदल दिया गया।

मेरे साथ भी वही हुआ

जिस दिन टीबॉर, भाइयों से मिलने डेब्रसेन गए थे, उसके दो दिन बाद यह घटना घटी। मैं सवेरे छः बजे से पहले उठ गयी थी और कपड़े इस्त्री कर रही थी। अचानक कोई ज़ोर-ज़ोर से दरवाज़ा खटखटाने लगा। मैंने सोचा: ‘आ गए वो लोग।’ छः पुलिसवाले धड़ाधड़ घर के अंदर घुस आए और उन्होंने कहा कि उन्हें मेरे घर की तलाशी लेने का ऑर्डर मिला है। फिर वे घर के सभी लोगों को, यहाँ तक कि मेरे तीन साल के बच्चे को भी गिरफ्तार करके थाने ले गए। फिर उसी दिन हमें हंगरी के पीटरवेशेरा की एक जेल में भेज दिया गया।

वहाँ पहुँचने पर मुझे बुखार हो गया, इसलिए मुझे दूसरे कैदियों से अलग रखा गया। जब मैं ठीक हो गयी तो दो फौजी मेरी कोठरी में आए और इस बात पर आपस में झगड़ने लगे कि मेरे साथ क्या किया जाना चाहिए। एक ने कहा, “इसे गोली से उड़ा देना चाहिए! मैं अभी करता हूँ इसका काम तमाम!” लेकिन दूसरा फौजी पहले देखना चाहता था कि मेरी तबीयत कैसी है। तभी मैंने उनसे अपनी जान की भीख माँगी। आखिरकार वे दोनों मेरी कोठरी से चले गए और मैंने यहोवा का धन्यवाद किया कि उसने मेरी जान बचायी।

वहाँ के गार्ड कैदियों से पूछताछ करने का एक अलग ही तरीका अपनाते थे। पहले उन्होंने मुझे मुँह के बल लेटने का हुक्म दिया, फिर मुँह में मोजे ठूँस दिए और हाथ-पैर बाँधकर मुझ पर इतने कोड़े बरसाए कि मेरे बदन से खून निकलने लगा। उन्होंने कोड़े मारना तभी बंद किया जब एक फौजी ने कहा कि वह पस्त हो चुका है। इसके बाद उन्होंने मुझसे पूछा कि जिस दिन मेरे पति को गिरफ्तार किया गया था, उस दिन वे किससे मिलने गए थे। मैंने उन्हें नहीं बताया इसलिए वे मुझे लगातार तीन दिन तक पीटते रहे। चौथे दिन मुझे अपने मुन्‍ने को उसकी नानी के पास ले जाने की इजाज़त मिली। कड़ाके की ठंड थी, फिर भी मैंने उसे अपनी ज़ख्मी पीठ पर लिया और 13 किलोमीटर दूर पैदल चलकर रेलवे स्टेशन गयी। फिर ट्रेन से मैं घर गयी, मगर उसी दिन मुझे वापस कैंप लौटना था।

मुझे बुडापेस्ट की जेल में छः साल की सज़ा मिली। वहाँ पहुँचने पर मुझे पता चला कि टीबॉर भी वहीं हैं। हमें एक-दूसरे से बात करने की इजाज़त मिली, बस हम दोनों के बीच लोहे का एक बाड़ा था। भले ही यह मुलाकात चंद मिनटों के लिए थी, फिर भी हम खुशी से फूले न समाए। हम दोनों ने यहोवा का प्यार महसूस किया और इस अनमोल घड़ी से काफी हौसला पाया। लेकिन इससे पहले कि हम दोनों दोबारा मिलते, हमें भयानक परीक्षाओं से गुज़रना था। कई बार हम मौत के मुँह में जाने से बाल-बाल बचे!

एक जेल से दूसरी जेल

बुडापेस्ट की जेल में करीब 80 बहनों को एक ही कोठरी में ठसाठस भर दिया गया। हम सब आध्यात्मिक भोजन के लिए तरस रही थीं, मगर जेल तक किताबें-पत्रिकाएँ पहुँचना लगभग नामुमकिन था। क्या हमें जेल के अंदर से ही कुछ मिल सकता था? चलिए मैं बताती हूँ कि हमने क्या किया। मैंने जेल के क्लर्कों के फटे मोजे सीने की पेशकश की। फिर मैंने एक मोजे के अंदर कागज़ का एक टुकड़ा डाला जिस पर मैंने लिखा कि कृपया मुझे बताएँ कि जेल की लाइब्रेरी में जो किताबों की सूची है, उसमें बाइबल का नंबर क्या है। मैंने बाइबल के साथ-साथ दो और किताबों के नंबर भी पूछे ताकि किसी को शक न हो।

अगले दिन मुझे क्लर्कों की तरफ से मोजों का एक और ढेर मिला। एक मोजे के अंदर मेरे सवाल का जवाब था। फिर मैंने एक गार्ड को ये नंबर देकर उससे किताबें मँगवायीं। जब हमें वे किताबें और बाइबल मिली तो हमारी खुशी का ठिकाना न रहा! हर हफ्ते हम बाइबल को छोड़ बाकी किताबों को बदलते रहे। जब भी गार्ड हमसे बाइबल माँगता तो हम यह कहकर उसे टाल देते: “वह तो बहुत बड़ी किताब है, और हर कोई उसे पढ़ना चाहता है।” इस तरह हमें बाइबल पढ़ने का मौका मिला।

एक दिन एक अफसर ने मुझे अपने दफ्तर में बुलाया। वह मेरे साथ कुछ ज़्यादा ही अदब से पेश आ रहा था।

उसने कहा: “मिसेज़ हाफनर, मेरे पास आपके लिए एक खुशखबरी है। आप घर जा सकती हैं, हो सके तो कल ही। अगर आज कोई ट्रेन है, तो आप आज ही जा सकती हैं।”

मैंने कहा: “यह तो बहुत अच्छी बात है।”

“बेशक! आखिर आपका एक बच्चा है और आप खुद उसे पाल-पोसकर बड़ा करना चाहती होंगी।” फिर उसने कहा: “बस इस चिट्ठी पर दस्तखत कर दीजिए।”

मैंने पूछा, “इसमें क्या लिखा है?”

वह दस्तखत के लिए मुझे किसी-न-किसी तरह राज़ी कराना चाहता था, इसलिए उसने कहा: “आप इसकी चिंता मत कीजिए। बस दस्तखत कर दीजिए तो आप इत्मीनान से घर जा सकती हैं। फिर जो जी में आए वह करना। मगर फिलहाल आपको इस पर दस्तखत करने ही होंगे कि अब से आप यहोवा की साक्षी नहीं हैं।”

मैंने साफ इनकार कर दिया और अपनी बात पर अटल रही।

इस पर वह भड़क उठा और उसने चिल्लाते हुए कहा: “तब तो मरो यहीं!” और मुझे वापस कोठरी में भेज दिया।

मई 1943 में मुझे बुडापेस्ट की एक दूसरी जेल में भेजा गया। इसके बाद, मारियानॉस्ट्रा नाम के गाँव में भेजा गया जहाँ मैं और दूसरी बहनें 70 ननों के साथ एक कॉन्वेन्ट में रहीं। भूख और दूसरी कई मुश्‍किलों को सहते हुए भी हम पूरे जोश से दूसरों को अपनी आशा के बारे बताते थे। एक नन ने हमारे संदेश में बहुत दिलचस्पी दिखायी और कहा: “इतनी बढ़िया बातें मैंने पहले कभी नहीं सुनीं। मुझे इसके बारे में और भी बताइए।” हमने उसे नयी दुनिया और उसमें मिलनेवाली बेहतरीन ज़िंदगी के बारे में समझाया। हम उससे बात कर ही रही थीं कि तभी मदर सुपीरियर वहाँ आ गयी। उस नन को फौरन वहाँ से ले जाया गया और उसके कपड़े उतारकर उसे कोड़े से बुरी तरह पीटा गया। बाद में जब उससे हमारी मुलाकात हुई तो उसने हमसे गिड़गिड़ाकर कहा: “प्लीज़, आप लोग मेरे लिए यहोवा से प्रार्थना करें कि वह मुझे बचा ले और किसी तरह यहाँ से छुटकारा दिला दे। मैं भी एक यहोवा की एक साक्षी बनना चाहती हूँ।”

हमारी अगली मंज़िल कोमारोम शहर की एक पुरानी जेल थी। यह शहर बुडापेस्ट के करीब 80 किलोमीटर पश्‍चिम की ओर डैन्यूब नदी के पास था। वहाँ हमें और भी बदतरीन हालत में जीना पड़ा। दूसरी कई बहनों की तरह मुझे भी टाइफस हो गया। मुझे खून की उल्टियाँ होने लगीं और मैं बहुत कमज़ोर हो गयी। दवा-दारू का कोई नाम नहीं था इसलिए मैंने सोचा कि अब तो मैं ज़िंदा नहीं बचूँगी। लेकिन हुआ यह कि वहाँ के अफसरों को किसी ऐसे व्यक्‍ति की ज़रूरत आ पड़ी जो दफ्तर का काम कर सके। बहनों ने उन्हें मेरा नाम सुझाया। इसलिए मुझे दवा दी गयी और मैं ठीक हो गयी।

जुदाई के दिन खत्म

जब सोवियत संघ की सेना पूरब से आने लगी, तो हमें मजबूरन पश्‍चिम की तरफ भेजा गया। इस दौरान हम जिन दिल-दहलानेवाले हालात से गुज़रे, उनके बारे में बताना शुरू करूँ तो वह एक अलग लंबी दास्तान होगी। न जाने कितनी बार मेरा मौत से सामना हुआ मगर यहोवा का लाख-लाख शुक्र है कि उसने मुझे हर बार बचाया। जब युद्ध खत्म हुआ तो हम चेकोस्लोवाकिया के टाबॉर शहर में थे, जो प्राग से करीब 80 किलोमीटर दूर है। मुझे और मेरी ननद मागडलेना को लुचेनयेट्‌ज़ तक अपने घर पहुँचने में तीन और हफ्ते लगे। हम मई 30, 1945 को घर पहुँचे।

जब हम घर की तरफ पहुँचे तो मैंने दूर से देखा कि मेरी सास और मेरा लाड़ला बेटा बागीचे में हैं। मेरी आँखें भर आयीं और मैंने ज़ोर से पुकारा, ‘टीबॉर बेटे!’ वह दौड़कर आया और मुझसे लिपट गया। उसने कहा, “मम्मी, तुम फिर कभी मुझे छोड़कर नहीं जाओगी ना?” मुझे देखने पर सबसे पहले उसके मुँह से यही बात निकली, जिसे मैं ज़िंदगी भर नहीं भूलूँगी।

मेरे पति टीबॉर पर भी यहोवा की कृपा रही। करीब 160 भाइयों के साथ उन्हें बुडापेस्ट की जेल से बॉर नाम की जगह में लेबर कैंप में भेज दिया गया। कई बार वे सभी मौत से रू-ब-रू हुए। मगर उनके समूह के ज़्यादातर लोग सही-सलामत बच गए। अप्रैल 8,1945 को टीबॉर घर लौट आए थे, यानी मुझसे करीब एक महीने पहले।

युद्ध के बाद भी चेकोस्लोवाकिया में कम्यूनिस्ट शासन की वजह से अगले 40 सालों तक हम पर कई परीक्षाएँ आयीं, जिनसे गुज़रने के लिए हमें लगातार यहोवा से हिम्मत की ज़रूरत थी। टीबॉर को एक बार फिर लंबी कैद की सज़ा सुनायी गयी, और मैंने अकेले बच्चे की परवरिश की। जब टीबॉर रिहा किए गए तो उन्होंने एक सफरी ओवरसियर की हैसियत से सेवा शुरू की। कम्यूनिस्ट शासन के उन 40 सालों के दौरान हमने अपने विश्‍वास के बारे में दूसरों को गवाही देने के हर मौके का फायदा उठाया। हम कई लोगों को सच्चाई सीखने में मदद दे पाए। इस तरह वे हमारे आध्यात्मिक बच्चे बने।

आखिरकार सन्‌ 1989 को जब हमें अपने धर्म को मानने की आज़ादी मिल गयी तो हम खुशी से फूले न समाए! और इसके अगले ही साल, यानी मुद्दतों बाद हमारे देश में पहली बार अधिवेशन रखा गया जिसमें हम हाज़िर हुए। वहाँ हमने ऐसे हज़ारों भाई-बहनों को देखा जो बरसों से खराई के मार्ग पर अटल रहे थे। उन्हें देखकर हमें एहसास हुआ कि यहोवा उन सभी को ताकत देकर हमेशा मज़बूत करता रहा।

मेरे प्यारे पति टीबॉर, अक्टूबर 14, 1993 को गुज़र गए। उन्होंने आखिर तक अपनी वफादारी बनाए रखी। आज मैं स्लोवाकिया के शीलीना कस्बे में अपने बेटे के घर के पास रहती हूँ। मुझमें अब पहले की तरह ताकत नहीं रही, लेकिन यहोवा की शक्‍ति से आज भी मेरा इरादा मज़बूत है। मुझे पूरा यकीन है कि इस पुराने संसार में मुझ पर चाहे जो भी परीक्षा आए, उसे मैं यहोवा की ताकत से ज़रूर सह पाऊँगी। इतना ही नहीं, मुझे उस समय का भी इंतज़ार है, जब मैं यहोवा की अपार दया से हमेशा-हमेशा के लिए जी सकूँगी।

[पेज 20 पर तसवीर]

मेरा बेटा टीबॉर जूनियर (4 साल का), जब मुझे उसे छोड़कर जाना पड़ा

[पेज 21 पर तसवीर]

बॉर में दूसरे भाइयों के साथ टीबॉर सीनियर

[पेज 22 पर तसवीर]

सन्‌ 1947, बर्नो में मैं टीबॉर और अपनी ननद, मागडलेना के साथ

[पेज 23 पर तसवीर]

न जाने कितनी बार मेरा मौत से सामना हुआ मगर यहोवा का लाख-लाख शुक्र है कि उसने मुझे हर बार बचाया