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“एक स्वर से” परमेश्‍वर की महिमा कीजिए

“एक स्वर से” परमेश्‍वर की महिमा कीजिए

“एक स्वर से” परमेश्‍वर की महिमा कीजिए

“एक स्वर से प्रभु यीशु मसीह के पिता परमेश्‍वर की स्तुति करते रहो।”रोमियों 15:6, नयी हिन्दी बाइबिल।

1. मतभेद सुलझाने के बारे में पौलुस ने अपने मसीही भाई-बहनों को क्या सीख दी?

 सभी मसीहियों के चुनाव और पसंद-नापसंद एक जैसी नहीं होतीं। फिर भी, यह ज़रूरी है कि वे जीवन के मार्ग पर कंधे-से-कंधा मिलाकर एकता से चलते रहें। क्या यह मुमकिन है? ज़रूर मुमकिन है, बशर्ते हम छोटे-छोटे मतभेदों को पहाड़ जैसा न बनाएँ। यही सीख प्रेरित पौलुस ने पहली सदी में अपने मसीही भाई-बहनों को दी थी। उसने इस अहम मुद्दे को कैसे समझाया? और आज हम ईश्‍वर-प्रेरणा से दी गयी इस सलाह पर कैसे अमल कर सकते हैं?

मसीही एकता की अहमियत

2. पौलुस ने एकता की अहमियत पर कैसे ज़ोर दिया?

2 पौलुस जानता था कि मसीहियों में एकता होना बहुत ज़रूरी है। तभी तो उसने मसीहियों को ऐसी बढ़िया सलाह दी जो उन्हें प्यार से एक-दूसरे की कमज़ोरियों को सहने में मदद देती। (इफिसियों 4:1-3; कुलुस्सियों 3:12-14) उसने कई कलीसियाएँ स्थापित की थीं और 20 से भी ज़्यादा सालों तक उनका दौरा किया था। इसलिए वह जानता था कि आपसी एकता बनाए रखना वाकई मुश्‍किल हो सकता है। (1 कुरिन्थियों 1:11-13; गलतियों 2:11-14) यही वजह है कि उसने रोम के मसीहियों से आग्रह किया: “धैर्य एवं प्रोत्साहन प्रदान करनेवाला परमेश्‍वर तुम्हें ऐसा वर दे कि . . . [तुम] मिलकर एक स्वर से प्रभु यीशु मसीह के पिता परमेश्‍वर की स्तुति करते रहो।” (रोमियों 15:5, 6; नयी हिन्दी बाइबिल) यहोवा परमेश्‍वर के लोग होने के नाते आज हमें भी एकता में रहकर, “एक स्वर से” उसकी महिमा करनी चाहिए। हम ऐसा कितनी अच्छी तरह कर रहे हैं?

3, 4. (क) रोम के मसीही किन अलग-अलग संस्कृतियों से आए थे? (ख) रोम में, मसीही कैसे “एक स्वर से” यहोवा की सेवा कर सकते थे?

3 रोम के कई मसीही, पौलुस के अच्छे दोस्त थे इसलिए वह उन्हें करीब से जानता था। (रोमियों 16:3-16) हालाँकि उनकी परवरिश अलग-अलग माहौल में हुई थी, फिर भी पौलुस ने उन्हें “परमेश्‍वर के प्यारे” लोग समझा। उसने लिखा: “मैं तुम सब के लिये यीशु मसीह के द्वारा अपने परमेश्‍वर का धन्यवाद करता हूं, कि तुम्हारे विश्‍वास की चर्चा सारे जगत में हो रही है।” इससे साफ ज़ाहिर है कि रोम के मसीही कई मामलों में अच्छी मिसाल थे। (रोमियों 1:7, 8; 15:14) मगर एकाध मामलों में कलीसिया के कुछ लोगों की अलग-अलग राय थी। आज के मसीही भी तरह-तरह के माहौल और संस्कृति में पले-बढ़े हैं, जिस वजह से कुछेक मामलों में उनकी राय अलग-अलग हो सकती है। इसलिए आपसी मतभेदों के बारे में पौलुस की ईश्‍वर-प्रेरणा से दी गयी सलाह का अध्ययन करने से उन्हें “एक स्वर से” बात करने में मदद मिलेगी।

4 रोम की कलीसिया में यहूदी और अन्यजातियों से आए विश्‍वासी थे। (रोमियों 4:1; 11:13) ऐसा लगता है कि कुछ यहूदी मसीही, अब भी उन रस्मों को मान रहे थे जो पहले वे मूसा की व्यवस्था के अधीन रहते वक्‍त मानते थे, जबकि उन्हें समझना चाहिए था कि उद्धार पाने के लिए ऐसी रस्मों को मानना ज़रूरी नहीं है। दूसरी तरफ, कई यहूदी मसीहियों ने इस बात को कबूल कर लिया था कि मसीह के बलिदान ने उन्हें ऐसी पाबंदियों से छुटकारा दिलाया है। नतीजा, उन्होंने अपनी कुछ आदतें बदलीं और कुछ रिवाज़ों को मनाना छोड़ दिया। (गलतियों 4:8-11) हालाँकि उनकी सोच अलग-अलग थी, फिर भी जैसे पौलुस ने कहा, वे सभी “परमेश्‍वर के प्यारे” थे। वे एक-दूसरे के बारे में सही नज़रिया बनाए रखने के ज़रिए “एक स्वर से” परमेश्‍वर की स्तुति कर सकते थे। आज हमारी भी कुछेक मामलों में अलग-अलग राय हो सकती है, इसलिए इस अहम सिद्धांत को पौलुस ने कैसे समझाया, इसकी जाँच करना बहुत ज़रूरी है।—रोमियों 15:4.

“एक दूसरे को ग्रहण करो”

5, 6. रोम की कलीसिया में मतभेद क्यों था?

5 पौलुस ने रोमियों को लिखी अपनी पत्री में एक ऐसे मामले का ज़िक्र किया, जिसके बारे में मसीहियों की अलग-अलग राय थी। उसने लिखा: “एक को विश्‍वास है, कि सब कुछ खाना उचित है, परन्तु जो विश्‍वास में निर्बल है, वह साग पात ही खाता है।” ऐसा क्यों था? मूसा की व्यवस्था में कुछ तरह का मांस खाना मना था। मसलन, सूअर का मांस। (रोमियों 14:2; लैव्यव्यवस्था 11:7) मगर यीशु की मौत के बाद, यह व्यवस्था रद्द कर दी गयी थी। (इफिसियों 2:15) फिर यीशु की मौत के साढ़े तीन साल बाद, एक स्वर्गदूत ने प्रेरित पतरस को बताया कि परमेश्‍वर की नज़र में अब कोई भी भोजन अशुद्ध नहीं है। (प्रेरितों 11:7-12) इन बातों को ध्यान में रखते हुए, कुछ यहूदी मसीहियों को लगा होगा कि अब वे सूअर का मांस या फिर व्यवस्था में मना की गयी दूसरी चीज़ें खा सकते हैं।

6 मगर कुछ यहूदी मसीहियों को शायद ऐसी चीज़ें खाने के खयाल से ही घिन थी जिन्हें पहले अशुद्ध माना जाता था। ऐसे लोग जो बड़ी आसानी से ठोकर खा जाते थे, उन्हें यह देखकर बुरा लगा होगा कि उनके कुछ यहूदी भाई उन चीज़ों को खा रहे हैं। इसके अलावा, अन्यजातियों से आए कुछ मसीहियों को यह देखकर बड़ा ताज्जुब हुआ होगा कि खाने-पीने की चीज़ों को लेकर इतना बवाल खड़ा किया जा रहा है। क्योंकि वे जिन धर्मों से आए थे उनमें खान-पान पर कोई पाबंदी नहीं थी। बेशक, अगर एक मसीही किसी भोजन से परहेज़ करता तो यह गलत नहीं था, बशर्ते वह अपनी राय किसी पर ना थोपता कि उद्धार पाने के लिए ऐसा करना ज़रूरी है। मगर ऐसे मतभेदों की वजह से कलीसिया में आसानी से फूट पड़ सकती थी। इसलिए रोमी मसीहियों को सावधान रहना था कि ये मतभेद उन्हें “एक स्वर से” परमेश्‍वर की महिमा करने से न रोकें।

7. हफ्ते के एक दिन को खास मानने के बारे में मसीहियों की राय कैसे एक-दूसरे से अलग थी?

7 पौलुस ने एक और मिसाल दी: “कोई तो एक दिन को दूसरे से बढ़कर जानता है, और कोई सब दिन एक सा जानता है।” (रोमियों 14:5क) मूसा की व्यवस्था के तहत, सब्त के दिन कोई भी काम करना मना था। यहाँ तक कि उस दिन सफर करने पर भी कई पाबंदियाँ थीं। (निर्गमन 20:8-10; मत्ती 24:20; प्रेरितों 1:12) लेकिन व्यवस्था के रद्द होने पर इन पाबंदियों के कोई मायने नहीं रह गए। फिर भी, कुछ यहूदी मसीहियों को शायद सब्त के दिन कोई भी काम करना या लंबा सफर करना ठीक नहीं लगता था क्योंकि इस दिन को वे पहले पवित्र माना करते थे। हालाँकि परमेश्‍वर की नज़र में अब सब्त मनाना ज़रूरी नहीं था, मगर मसीही बनने के बाद भी वे शायद सातवें दिन आध्यात्मिक कामों को छोड़ कोई और काम नहीं करते होंगे। क्या उन मसीहियों का यह रवैया गलत था? नहीं, बशर्ते वे इस बात पर अड़े न रहते कि सब्त मनाना परमेश्‍वर की माँग है। इसलिए पौलुस ने अपने मसीही भाइयों के विवेक का लिहाज़ करते हुए लिखा: “हर एक अपने ही मन में निश्‍चय कर ले।”—रोमियों 14:5ख.

8. हालाँकि रोम के मसीही दूसरों के विवेक का लिहाज़ कर सकते थे, मगर उन्हें क्या नहीं करना था?

8 पौलुस ने अपने भाइयों को प्यार से सलाह दी कि वे उन लोगों के साथ धीरज से पेश आएँ जिन्हें विवेक से जुड़े कुछ मामलों को समझना मुश्‍किल लग रहा था। पर साथ ही उसने उन मसीहियों को फटकारा जो दूसरों पर यह विचार थोपने की कोशिश कर रहे थे कि उद्धार पाने के लिए मूसा की व्यवस्था को मानना ज़रूरी है। मसलन, करीब सा.यु. 61 में पौलुस ने यहूदी मसीहियों के नाम इब्रानियों की पत्री लिखी। इसमें उसने बड़े ही ज़बरदस्त ढंग से और साफ-साफ समझाया कि मूसा की व्यवस्था को मानने का अब कोई फायदा नहीं है, क्योंकि मसीहियों को यीशु के छुड़ौती बलिदान की बिनाह पर एक श्रेष्ठ आशा मिली है।—गलतियों 5:1-12; तीतुस 1:10, 11; इब्रानियों 10:1-17.

9, 10. मसीहियों को क्या नहीं करना चाहिए? समझाइए।

9 जैसे हमने देखा, पौलुस ने यह तर्क दिया कि जिन मामलों में मसीही सिद्धांतों का उल्लंघन नहीं होता, उनमें हर किसी को अपनी पसंद का काम करने का हक है और इससे कलीसिया की एकता को कोई खतरा नहीं होना चाहिए। इसलिए पौलुस कमज़ोर विवेकवाले मसीहियों से पूछता है: “तू अपने भाई पर क्यों दोष लगाता है?” और वह मज़बूत विवेकवालों से पूछता है (शायद वे लोग जिनका विवेक उन्हें व्यवस्था में मना की गयी चीज़ें खाने या सब्त के दिन हर तरह के काम करने की इजाज़त देता था): “तू [भी] क्यों अपने भाई को तुच्छ जानता है?” (रोमियों 14:10) पौलुस के मुताबिक, कमज़ोर विवेकवाले मसीहियों को उन भाइयों की नुक्‍ताचीनी नहीं करनी चाहिए जो खुले-विचार के हैं। साथ ही, मज़बूत विवेकवाले मसीहियों को ऐसे भाइयों को नीचा नहीं दिखाना चाहिए जिनका विवेक अब भी कुछ मामलों में कमज़ोर है। सभी को चाहिए कि वे एक-दूसरे के साफ इरादों को समझें और ‘अपने आप को जैसा समझना चाहिए, उस से बढ़कर न समझें।’—रोमियों 12:3, 18.

10 इस सही नज़रिए के बारे में पौलुस ने यूँ समझाया: “खानेवाला न-खानेवाले को तुच्छ न जाने, और न-खानेवाला खानेवाले पर दोष न लगाए; क्योंकि परमेश्‍वर ने उसे ग्रहण किया है।” उसने आगे कहा: “मसीह ने भी परमेश्‍वर की महिमा के लिये तुम्हें ग्रहण किया है।” जब परमेश्‍वर और मसीह को मज़बूत और कमज़ोर विवेकवाले मसीही, दोनों कबूल हैं तो हमारा भी दिल बड़ा होना चाहिए ताकि हम “एक दूसरे को ग्रहण” कर सकें। (रोमियों 14:3; 15:7) क्या इस बात को कोई नकार सकता है?

आज भाईचारे का प्यार एकता बढ़ाता है

11. पौलुस के दिनों में कैसे अनोखे हालात पैदा हुए?

11 पौलुस ने रोमियों को लिखी पत्री में जिन हालात का ज़िक्र किया वे अपने आप में अनोखे थे। कुछ ही समय पहले, यहोवा ने एक वाचा को रद्द करके उसकी जगह एक नयी वाचा बाँधी थी। कुछ मसीहियों को उस नयी वाचा के मुताबिक खुद को ढालने में मुश्‍किल हो रही थी। हालाँकि आज हमारे बीच ठीक वैसे हालात नहीं हैं, मगर कभी-कभी इससे मिलते-जुलते मसले खड़े हो सकते हैं।

12, 13. ऐसे कुछ हालात क्या हैं जिनमें आज मसीही, अपने भाइयों के विवेक का लिहाज़ कर सकते हैं?

12 मसलन, हो सकता है एक मसीही स्त्री पहले किसी ऐसे धर्म को मानती थी जिसमें सिखाया जाता था कि सादे कपड़े पहनने चाहिए और सिंगार बिलकुल नहीं करना चाहिए। मगर सच्चाई कबूल करने के बाद, शायद उसे यह पचाना मुश्‍किल लगे कि कुछेक मौकों पर सलीकेदार, रंगीन कपड़े पहनना और थोड़ा-बहुत मेकअप करना गलत नहीं है। बहन के उस रवैये से बाइबल के किसी सिद्धांत का उल्लंघन नहीं होता, इसलिए किसी को भी उसे अपने विवेक के खिलाफ काम करने के लिए मजबूर नहीं करना चाहिए। साथ ही, उस बहन को भी चाहिए कि वह उन मसीही स्त्रियों का खंडन न करे जिनका विवेक उन्हें सजने-सँवरने की इजाज़त देता है।

13 एक और मिसाल पर गौर कीजिए। हो सकता है, एक मसीही भाई की परवरिश ऐसे माहौल में हुई हो जहाँ शराब पीना बिलकुल गलत माना जाता है। सच्चाई जानने के बाद वह सीखता है कि बाइबल के मुताबिक दाखमधु परमेश्‍वर का दिया एक तोहफा है और उसे सही मात्रा में लिया जा सकता है। (भजन 104:15) वह बाइबल के उस नज़रिया को कबूल भी करता है। फिर भी, बचपन से उसके मन में जो बात बिठायी गयी है, उसकी वजह से वह शराब से पूरी तरह परहेज़ करने का चुनाव करता है। मगर वह उन लोगों का खंडन नहीं करता जो सही मात्रा में शराब पीते हैं। इस तरह वह पौलुस के इन शब्दों पर अमल करता है: “हम उन बातों का प्रयत्न करें जिनसे मेल मिलाप और एक दूसरे का सुधार हो।”—रोमियों 14:19.

14. किन हालात में मसीही, रोमियों को दी गयी पौलुस की सलाह को लागू कर सकते हैं?

14 हमारे सामने ऐसे और भी हालात पैदा होते हैं जब हमें पौलुस की सलाह के असल मुद्दे को लागू करने की ज़रूरत होती है। मसीही कलीसिया में तरह-तरह के लोग हैं और सबकी अपनी-अपनी पसंद है। इसलिए उनके चुनावों में फर्क हो सकता है जैसे कि पहनावे और बनाव-श्रृंगार के मामले में। बेशक, बाइबल साफ शब्दों में कुछ सिद्धांत बताती है जिन्हें सभी नेकदिल मसीही मानते हैं। हममें से किसी को भी ऐसे कपड़े नहीं पहनने चाहिए या बाल ऐसे नहीं बनाने चाहिए जो बिलकुल ऊट-पटांग या बेहूदा लगें, या जिनसे हमारी पहचान समाज के गिरे हुए लोगों में हो। (1 यूहन्‍ना 2:15-17) मसीही याद रखते हैं कि हर पल, यहाँ तक कि फुरसत के वक्‍त भी, वे सारे जहान के मालिक यहोवा के सेवक और उसके प्रतिनिधि हैं। (यशायाह 43:10; यूहन्‍ना 17:16; 1 तीमुथियुस 2:9, 10) बहरहाल, कई मामलों में मसीहियों के सामने चुनाव का बड़ा दायरा होता है जिससे वे बाइबल के उसूलों के मुताबिक सही चुनाव कर सकते हैं। *

दूसरों को ठोकर मत खिलाइए

15. किन हालात में एक मसीही, दूसरों की खातिर अपने हक का इस्तेमाल नहीं करेगा?

15 रोमी मसीहियों को दी सलाह में पौलुस एक और अहम सिद्धांत की तरफ हमारा ध्यान खींचता है। कभी-कभी एक मसीही, जिसका विवेक बाइबल से अच्छी तालीम पाया हुआ है, वह शायद ऐसे काम से दूर रहने का फैसला करे जो अपने आप में गलत नहीं है। क्यों? क्योंकि वह समझता है कि उस काम से शायद दूसरों को ठोकर लग सकती है। अगर हमारे सामने ऐसा कोई चुनाव है तो हमें क्या करना चाहिए? पौलुस कहता है: “भला तो यह है, कि तू न मांस खाए और न दाख रस पीए, न और कुछ ऐसा करे, जिस से तेरा भाई ठोकर खाए।” (रोमियों 14:14, 20, 21) इस तरह, “हम बलवानों को चाहिए, कि निर्बलों की निर्बलताओं को सहें; न कि अपने आप को प्रसन्‍न करें। हम में से हर एक अपने पड़ोसी को उस की भलाई के लिये सुधारने के निमित्त प्रसन्‍न करे।” (रोमियों 15:1, 2) अगर हमारे किसी काम से एक भाई को ठोकर लग सकती है, तो उसके लिए प्यार हमें उकसाएगा कि हम उसका लिहाज़ करें और उस काम से दूर ही रहें। इसकी एक मिसाल है, शराब पीना। एक मसीही को सही मात्रा में शराब पीने की इजाज़त है। लेकिन अगर उसके पीने से किसी भाई को ठोकर लग सकती है, तो वह मसीही यह कहकर अपनी ज़िद पर अड़ा नहीं रहेगा कि उसे शराब पीने का हक है।

16. हम अपने इलाके के लोगों की भावनाओं के लिए कैसे लिहाज़ दिखा सकते हैं?

16 यही सिद्धांत दुनियावालों के साथ हमारे व्यवहार पर भी लागू किया जा सकता है। मसलन, हम शायद ऐसे इलाके में रहते हों जहाँ का धर्म अपने सदस्यों को सिखाता है कि हफ्ते के एक दिन उन्हें कोई भी काम नहीं करना चाहिए, बस आराम करना चाहिए। ऐसे में हम भी पूरी कोशिश करेंगे कि उस दिन हम ऐसा कोई काम न करें जिससे हमारे पड़ोसियों को ठोकर लगे और हमारे प्रचार काम में रुकावट पैदा हो। एक और मिसाल लीजिए। एक रईस भाई ऐसी जगह जाकर बस जाता है जहाँ प्रचारकों की सख्त ज़रूरत है और जहाँ के ज़्यादातर लोग गरीब हैं। ऐसे में भाई अपने नए पड़ोसियों की भावनाओं का लिहाज़ करते हुए शायद बिलकुल सादा कपड़े पहनने का फैसला करे या फिर उसके पास बहुत पैसा होने पर भी, वह सादगी भरी ज़िंदगी जीए।

17. कोई भी चुनाव करते वक्‍त दूसरों को ध्यान में रखना क्यों सही होगा?

17 जो आध्यात्मिक रूप से ‘बलवान’ हैं, उनसे क्या यह उम्मीद करना वाजिब है कि वे अपनी ज़िंदगी में ऐसे फेरबदल करें? जवाब के लिए क्यों न इस उदाहरण पर गौर करें: मान लीजिए हम सड़क पर गाड़ी चला रहे हैं और देखते हैं कि आगे कुछ बच्चे चल रहे हैं। ऐसे में क्या हम उतनी तेज़ रफ्तार से गाड़ी चलाते रहेंगे जितनी का हमारे पास कानूनी हक है? नहीं। इसके बजाय, हम गाड़ी की रफ्तार कम कर देंगे ताकि बच्चों को कोई खतरा न हो। ठीक उसी तरह, कभी-कभी हमारे भाइयों या बाहरवालों के साथ अच्छा रिश्‍ता बनाए रखने के लिए हमें अपने कुछ अधिकारों का त्याग करना पड़ सकता है। हो सकता है कि हमारे पास एक काम करने का पूरा-पूरा हक है और उससे बाइबल के किसी भी सिद्धांत का उल्लंघन नहीं होता। लेकिन अगर उस काम से दूसरों को ठेस पहुँच सकती है या कमज़ोर विवेकवालों को ठोकर लग सकती है, तो मसीही प्यार हमें उकसाएगा कि हम वह काम न करें। (रोमियों 14:13, 15) अपने अधिकारों पर अड़े रहने से ज़्यादा ज़रूरी है, भाई-बहनों के बीच एकता बनाए रखना और राज्य के कामों को बढ़ावा देना।

18, 19. (क) दूसरों का लिहाज़ करके हम यीशु की मिसाल पर कैसे चलते हैं? (ख) किन मामलों में हम सभी पूरी तरह एकता से काम करते हैं, और अगले लेख में किस बात पर चर्चा की जाएगी?

18 इस तरह अपने अधिकारों का त्याग करके हम दिखाएँगे कि हम सबसे बेहतरीन मिसाल पर चल रहे हैं। पौलुस कहता है: “मसीह ने अपने आप को प्रसन्‍न नहीं किया, पर जैसा लिखा है, कि तेरे निन्दकों की निन्दा मुझ पर आ पड़ी।” यीशु ने हमारे लिए खुशी-खुशी अपनी जान दे दी। तो ज़रूरत पड़ने पर बेशक हम भी अपने कुछ अधिकारों का त्याग करने से पीछे नहीं हटेंगे ताकि “निर्बलों” को हमारे साथ मिलकर परमेश्‍वर की महिमा करने में मदद मिले। जी हाँ, जिन मसीहियों का विवेक कमज़ोर है, उनके साथ हम धीरज से पेश आएँगे और त्याग की भावना दिखाएँगे। दूसरे शब्दों में कहें तो हम उनकी खातिर अपनी ख्वाहिशों को न्यौछावर कर देंगे और अपने अधिकारों पर अड़े नहीं रहेंगे। इससे ज़ाहिर होगा कि हम ‘वही नज़रिया दिखाते हैं जो मसीह यीशु में था।’(NW)—रोमियों 15:1-5.

19 जिन मामलों में बाइबल के उसूल लागू नहीं होते, उनमें भले ही हमारे विचार एक-दूसरे से अलग होते हैं, मगर जहाँ तक उपासना से जुड़े मामलों की बात है उनमें हम पूरी एकता से काम करते हैं। (1 कुरिन्थियों 1:10) हमारी यह एकता बिलकुल साफ दिखायी देती है। इसकी एक मिसाल यह है कि सच्ची उपासना का विरोध करनेवालों की तरफ हम सभी एक जैसा रवैया दिखाते हैं। परमेश्‍वर का वचन ऐसे विरोधियों को पराये लोग कहता है और हमें खबरदार करता है कि हम इन “परायों का शब्द” न सुनें। (यूहन्‍ना 10:5) हम पराये लोगों को कैसे पहचान सकते हैं? हमें उनकी आवाज़ सुनने पर क्या करना चाहिए? इन सवालों पर अगले लेख में चर्चा की जाएगी।

[फुटनोट]

^ छोटे बच्चों के लिए कपड़ों का चुनाव उनके माता-पिता करते हैं।

आपका जवाब क्या होगा?

• निजी मामलों पर अलग-अलग नज़रिया रखना एकता के लिए खतरा क्यों नहीं है?

• मसीही होने के नाते हमें एक-दूसरे के लिए प्यार और लिहाज़ क्यों दिखाना चाहिए?

• ऐसे कुछ तरीके क्या हैं, जिनसे आज हम एकता के बारे में पौलुस की सलाह पर चल सकते हैं, और ऐसा करने के लिए कौन-सी बात हमें उकसाएगी?

[अध्ययन के लिए सवाल]

[पेज 9 पर तसवीर]

एकता के बारे में पौलुस की सलाह कलीसिया के लिए बहुत ज़रूरी थी

[पेज 10 पर तसवीर]

अलग-अलग माहौल में पलने-बढ़ने के बावजूद मसीहियों के बीच एकता है

[पेज 12 पर तसवीर]

इस ड्राइवर को अब क्या करना चाहिए?