मैं सारी ज़िंदगी सीखता आया हूँ
जीवन कहानी
मैं सारी ज़िंदगी सीखता आया हूँ
हैरल्ड ग्लूयस की ज़ुबानी
बचपन का एक किस्सा मुझे आज भी याद है, हालाँकि उस बात को 70 से ज़्यादा बरस बीत चुके हैं। मैं माँ के रसोईघर में बैठा हुआ एक लेबल देख रहा था जिस पर ये शब्द लिखे थे: “सिलोन चाय।” उस लेबल पर कुछ औरतों की तसवीर भी थी जो सिलोन (अब श्रीलंका) के हरे-भरे चाय के बागानों में चाय की पत्तियाँ चुन रही थीं। उस वक्त, हम दक्षिण ऑस्ट्रेलिया में रहते थे जहाँ चारों तरफ तेज़ धूप से झुलसते मैदान थे। हमारे घर से कोसों दूर सिलोन देश का यह नज़ारा देखकर मेरी कल्पना के घोड़े दौड़ने लगे। मैंने सोचा कि सिलोन देश कितना सुंदर और रोमांचकारी होगा! उस वक्त मुझे इसका ज़रा भी अंदाज़ा नहीं था कि मैं एक मिशनरी बनकर अपनी ज़िंदगी के 45 साल इस लाजवाब द्वीप पर गुज़ारूँगा।
मेरा जन्म सन् 1922 के अप्रैल महीने में हुआ। उस वक्त की दुनिया और आज की दुनिया में ज़मीन-आसमान का फर्क है। हमारा परिवार एक दूर-दराज़ इलाके में फार्म पर अनाज उगाता था। यह फार्म शहर से दूर किमबा कसबे के पास था, जो ऑस्ट्रेलिया के विशाल महाद्वीप के बीचों-बीच और बड़े रेगिस्तानी इलाके के दक्षिणी सिरे पर था। हमारी ज़िंदगी खतरों से भरी थी। हमें लगातार सूखे का, महामारी की तरह फैलनेवाले कीड़े-मकोड़ों का और झुलसाती गर्मी का सामना करना पड़ता था। हमारा घर टिन के छप्परों से बना एक छोटा-सा झोंपड़ा था। माँ हम छः बच्चों और पिताजी की देखभाल करने के लिए दिन-रात मेहनत करती थी।
मगर, मुझे उस वीराने में भी आज़ादी और उमंग का एहसास होता था। मुझे याद है जब मैं लड़का ही था, तो कैसे आँखें फाड़े उन ताकतवर बैलों के जोड़े को ताकता रहता था जिनसे
झाड़-झंखाड़ साफ करने का काम लिया जाता था। मुझे वो साँय-साँय चलते अंधड़ भी याद हैं, जो सारे इलाके को धूल-मिट्टी से ढक देते थे। इस तरह, सचमुच के स्कूल जाने से बहुत पहले मैंने ज़िंदगी के स्कूल में शिक्षा लेनी शुरू कर दी थी। फिर मैं एक छोटे-से स्कूल में जाने लगा, जो घर से पाँच किलोमीटर की पैदल दूरी पर था और वहाँ सिर्फ एक टीचर पढ़ाती थी।मेरे माता-पिता धार्मिक किस्म के इंसान थे, मगर वे कभी चर्च नहीं जाते थे, क्योंकि चर्च शहर में था और हमारा फार्म शहर से बहुत दूर था। फिर भी, 1930 के दशक के शुरूआती सालों में माँ ने बाइबल पर आधारित जज रदरफर्ड के भाषण सुनने शुरू किए। ये भाषण हर हफ्ते एडलेड शहर के रेडियो स्टेशन से प्रसारित किए जाते थे। मैं सोचता था कि जज रदरफर्ड एडलेड का कोई पादरी होगा और मुझे उसकी बातों में कोई खास दिलचस्पी नहीं थी। मगर माँ हर हफ्ते बड़ी बेसब्री से रदरफर्ड के प्रसारणों का इंतज़ार करती थी और बैटरी से चलनेवाले हमारे पुराने रेडियो से रह-रहकर आवाज़ निकलने पर भी वह बड़े ध्यान से ये भाषण सुनती थी।
एक दिन जब दोपहर के वक्त सड़ी गर्मी पड़ रही थी और धूल-मिट्टी उड़ रही थी, तब एक वैन हमारे घर के सामने आकर रुकी और उसमें से साफ-सुथरे कपड़े पहने दो आदमी उतरे। वे यहोवा के साक्षी थे। माँ ने उनका संदेश सुना, उनसे ढेर सारी किताबें लीं और दान में पैसे दिए। वह फौरन उन किताबों को पढ़ने लगी। इन किताबों को पढ़ने का माँ पर ऐसा ज़बरदस्त असर हुआ कि उसने जल्द ही पिताजी से गाड़ी निकलवाकर पड़ोसियों के घर चलने को कहा ताकि वह उन्हें बता सके कि वह क्या सीख रही है।
अच्छी संगति का फायदा
कुछ ही समय बाद, ऑस्ट्रेलिया के उस दूर-दराज़ इलाके की मुश्किलों से मजबूर होकर हमें वहाँ से 500 किलोमीटर दूर एडलेड शहर में बसना पड़ा। हमारा परिवार, यहोवा के साक्षियों की एडलेड कलीसिया में जाने लगा और हम आध्यात्मिक तरक्की करने लगे। शहर में आकर बसने की वजह से मुझे स्कूल की पढ़ाई छोड़नी पड़ी। मैं सातवीं क्लास खत्म करके 13 साल की उम्र में स्कूल से निकल गया। मैं मन-मौजी किस्म का इंसान था और इस वजह से मैं बड़ी आसानी से बहककर आध्यात्मिक कामों से दूर जा सकता था। लेकिन कई प्रौढ़ भाइयों ने मेरी मदद की और मुझमें निजी दिलचस्पी ली, उनमें से कई तो पायनियर और पूरे समय के सेवक भी थे।
जैसे-जैसे समय बीतता गया, इन जोशीले भाइयों की संगति ने मेरे अंदर सोयी हुई आध्यात्मिकता को जगाया। मुझे उनका साथ अच्छा लगता था और उनके मेहनती स्वभाव की मैं कदर करता था। इसलिए जब 1940 में एडलेड के एक अधिवेशन में पूरे समय की सेवा में शामिल होने का बढ़ावा दिया गया, तो मैं खुद हैरान था कि मैंने अपना नाम कैसे लिखवा दिया। उस वक्त तो मेरा बपतिस्मा भी नहीं हुआ था और मुझे प्रचार करने का कोई खास तजुरबा नहीं था। इसके बावजूद भी, कुछ दिन बाद मुझे एडलेड से सैकड़ों किलोमीटर दूर, पड़ोसी राज्य विक्टोरिया के वॉरनमबूल कसबे में पायनियरों के एक छोटे दल के साथ काम करने का न्यौता मिला।
अधूरे मन से की गयी शुरूआत के बावजूद, जल्द ही प्रचार काम मुझे अच्छा लगने लगा और मुझे यह कहने में खुशी हो रही है कि आज भी प्रचार के लिए मेरी लगन कम नहीं हुई है। दरअसल, पूरे समय की सेवा ने मेरी ज़िंदगी की कायापलट कर दी और मैं सचमुच में आध्यात्मिक तरक्की करने लगा।
मैंने उन लोगों का करीबी दोस्त होने की अहमियत समझी जिन्हें आध्यात्मिक बातों से प्रेम है। मैंने जाना कि उनकी अच्छी संगति से कैसे हमारे अंदर छिपे बेहतरीन गुण खुलकर सामने आ सकते हैं, फिर चाहे हम कितने भी पढ़े-लिखे हों। मैंने यह भी जाना कि सीखे गए सबक कैसे हमें सारी ज़िंदगी फायदा पहुँचा सकते हैं।परीक्षाओं से हिम्मत पायी
पायनियर सेवा करते हुए मुझे कुछ ही समय बीता था कि ऑस्ट्रेलिया में यहोवा के साक्षियों के काम पर पाबंदी लगा दी गयी। ऐसे में मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मैं क्या करूँ, इसलिए मैंने भाइयों से मदद माँगी। भाइयों ने मुझसे कहा कि लोगों से बाइबल के बारे में बात करने पर कोई पाबंदी नहीं है। इसलिए दूसरे पायनियरों के साथ-साथ, मैं घर-घर जाकर बाइबल से एक आसान संदेश सुनाने लगा। इससे मुझे बहुत जल्द आनेवाली परीक्षाओं का सामना करने की हिम्मत मिली।
चार महीने बाद, मैं 18 साल का हो गया और मुझे फौज में भर्ती होने का बुलावा भेजा गया। इससे मुझे कई फौजी अफसरों और मजिस्ट्रेट के सामने अपने विश्वास के पक्ष में बोलने का मौका मिला। उस वक्त, लगभग 20 भाई फौज में भर्ती न होने और निष्पक्ष रहने की वजह से एडलेड जेल में थे और जल्द ही मैं भी उनमें शामिल हो गया। हमसे कड़ी मेहनत करवायी गयी, खदानों में पत्थर खुदवाए गए और सड़कों की मरम्मत करवायी गयी। इससे मुझे धीरज और लगन जैसे गुण बढ़ाने में मदद मिली। हमारे अच्छे व्यवहार और अटल फैसले की वजह से धीरे-धीरे जेल की रखवाली करनेवाले गार्ड हमारी इज़्ज़त करने लगे।
कई महीने बाद जब मैं रिहा हुआ, तो एक अरसे बाद मैंने अच्छा खाना खाया और फौरन पायनियर सेवा शुरू कर दी। लेकिन, उस वक्त पायनियर साथियों की कमी थी इसलिए मुझसे पूछा गया कि क्या मैं दक्षिण ऑस्ट्रेलिया में किसानों के एक दूर-दराज़ इलाके में अकेले प्रचार करूँगा। मैं इसके लिए राज़ी हो गया और पानी के जहाज़ से योर्क प्रायद्वीप के लिए निकल पड़ा। मेरे पास सिर्फ प्रचार का सामान और एक साइकिल थी। जब मैं वहाँ पहुँचा तो सच्चाई में दिलचस्पी दिखानेवाले एक परिवार ने मुझे एक छोटे-से गेस्टहाऊस में जाने के लिए कहा जहाँ एक दयालु महिला रहती थीं। उन्होंने मुझे अपने बेटे की तरह रखा। दिन के वक्त, मैं प्रायद्वीप में चारों तरफ फैले हुए छोटे-छोटे कसबों में प्रचार करने के लिए धूल-भरी सड़कों पर साइकिल चलाता हुआ जाता था। दूर-दराज़ के इलाकों में प्रचार करने के लिए, मैं अकसर रात को वहीं किसी छोटे होटल या गेस्टहाऊस में ठहर जाता था। इस तरह, साइकिल से मैंने सैकड़ों किलोमीटर रास्ता तय किया और मुझे कई उम्दा अनुभव मिले। मैं कभी इस बात को लेकर बहुत ज़्यादा परेशान नहीं हुआ कि मैं अकेले प्रचार कर रहा हूँ। और जब मैंने देखा कि यहोवा किस तरह मेरी देखभाल कर रहा है, तो मैं उसके और करीब आ गया।
नाकाबिल होने की भावना से लड़ना
सन् 1946 में, मुझे एक खत मिला कि भाइयों का सेवक (आज जिसे सर्किट ओवरसियर कहा जाता है) बनकर मैं सफरी काम करूँ। इस काम में मुझे एक ही सर्किट की कई कलीसियाओं का दौरा करना था। मुझे यह मानना पड़ेगा कि इस काम की ज़िम्मेदारियों को निभाना मेरे लिए सचमुच बहुत मुश्किल रहा। एक दिन मैंने एक भाई को कहते सुना, “हैरल्ड भाषण देने में अच्छा ना भी हो, मगर प्रचार में उसका काम बहुत ही उम्दा है।” भाई के इन शब्दों ने मेरा हौसला बहुत बढ़ाया। मैं अच्छी तरह जानता था कि भाषण देने और सब काम व्यवस्थित ढंग से करने की मेरी काबिलीयत इतनी अच्छी नहीं थी, फिर भी मेरा यह मानना था कि मसीहियों के लिए सबसे खास काम है, प्रचार करना।
सन् 1947 में, यहोवा के साक्षियों के मुख्यालय से भाई नेथन नॉर और मिल्टन हैनशल के दौरे को लेकर भाइयों में काफी उत्साह था। सन् 1938 में भाई रदरफर्ड के दौरे के
बरसों बाद, मुख्यालय से भाई ऑस्ट्रेलिया आ रहे थे। इसी दौरे के वक्त सिडनी में एक बड़ा अधिवेशन रखा गया। संस्था ने हाल ही में वॉचटावर बाइबल स्कूल ऑफ गिलियड शुरू किया था जो अमरीका के न्यू यॉर्क राज्य में साउथ लैंसिंग शहर में चलाया जा रहा था। दूसरे नौजवान पायनियरों की तरह मैं भी इस स्कूल से प्रशिक्षण पाकर मिशनरी बनना चाहता था। हममें से कइयों के मन में यह सवाल था कि इस स्कूल में नाम लिखवाने की शर्त कहीं यह तो न होगी कि विद्यार्थी को बहुत पढ़ा-लिखा होना चाहिए। लेकिन, भाई नॉर ने समझाया कि अगर हम प्रहरीदुर्ग के एक लेख को पढ़कर उसके खास मुद्दे याद रख सकते हैं, तो हम शायद गिलियड स्कूल में भी कामयाब होंगे।मुझे लगा कि कम पढ़ा-लिखा होने की वजह से शायद मैं स्कूल में दाखिला पाने के काबिल न हो सकूँ। मगर कई महीने बाद जब मुझे गिलियड के लिए अर्ज़ी भेजने को कहा गया, तो मुझे बड़ा ताज्जुब हुआ। आखिरकार, मुझे स्कूल में दाखिला मिला और मैं 1950 में गिलियड की 16वीं क्लास में हाज़िर हुआ। गिलियड स्कूल में तालीम पाने का मेरा तजुरबा लाजवाब था और इसने मेरे हौसले को बहुत मज़बूत किया। मुझे यकीन हुआ कि कामयाबी पाने के लिए बहुत ज़्यादा पढ़ा-लिखा होना ज़रूरी नहीं। इसके बजाय, मेहनत करना और आज्ञा मानना सबसे ज़रूरी है। हमारे शिक्षकों ने हमें जी-जान से मेहनत करने का बढ़ावा दिया। उनकी सलाह मानने की वजह से, मैं लगातार तरक्की करता गया और पूरे कोर्स की हिदायतों पर काफी अच्छी तरह से अमल कर सका।
सूखे महाद्वीप से मोती द्वीप पर
ग्रैजुएशन के बाद, मुझे और ऑस्ट्रेलिया के दो और भाइयों को सिलोन (अब श्रीलंका) भेजा गया। हम सितंबर 1951 में, सिलोन की राजधानी, कोलंबो पहुँचे। मौसम गर्म था और हवा में नमी थी। इसके अलावा, हमने बहुत-से ऐसे नज़ारे देखे, आवाज़ें सुनीं और तरह-तरह की गंध सूँघी जो पहले कभी देखी, सुनी और सूँघी नहीं थीं। पानी के जहाज़ से उतरते ही वहाँ सेवा कर रहे एक मिशनरी भाई ने एक पर्चा देकर मेरा स्वागत किया। वह पर्चा, आनेवाले इतवार को शहर के चौराहे पर दिए जानेवाले जन भाषण का इश्तहार था। मुझे यह देखकर बड़ी हैरानी हुई कि उस पर्चे पर मेरा नाम था, मैं ही वह भाषण देनेवाला था! आप सोच सकते हैं कि मैं किस परेशानी से गुज़रा होऊँगा। मगर ऑस्ट्रेलिया में सालों-साल की पायनियर सेवा ने मुझे सिखाया था कि परमेश्वर की सेवा में कोई भी काम मिले उसे कबूल करना चाहिए। इसलिए यहोवा की मदद से मैं वह जन भाषण देने में कामयाब रहा। कोलंबो के मिशनरी घर में चार भाई पहले ही रहते थे, अब हम तीन भाई उनके साथ मिलकर सिंहाला भाषा सीखने की कोशिश करने लगे और प्रचार में जाने लगे। ज़्यादातर हम अकेले काम करते थे और हमें खुशी होती थी कि वहाँ के लोग इज़्ज़त से पेश आते थे और मेहमाननवाज़ी भी दिखाते थे। कुछ ही समय बाद, सभाओं में हाज़िर होनेवालों की गिनती बढ़ने लगी।
जैसे-जैसे वक्त बीता, मैं एक खूबसूरत पायनियर बहन के बारे में सोचने लगा। गिलियड स्कूल के लिए जब मैं पानी के जहाज़ से सफर कर रहा था, तब यह बहन भी उसी जहाज़ से न्यू यॉर्क में एक अंतर्राष्ट्रीय अधिवेशन के लिए जा रही थी। इस बहन का नाम था, सिबिल। बाद में, वह गिलियड की 21वीं क्लास में हाज़िर हुई और उसे 1953 में हाँगकाँग भेजा गया। मैंने उसे खत लिखने का फैसला किया और 1955 तक हम एक-दूसरे को खत लिखते रहे और उसी साल सिबिल, सिलोन आ गयी जहाँ हमारी शादी हुई।
मिशनरी जोड़े की हैसियत से, हमें उत्तरी श्रीलंका के एक शहर, जाफना जाने के लिए कहा गया। सन् 1955 के आस-पास, राजनैतिक मतभेदों की वजह से सिंहाला और तमिल जातियों में फूट पड़ने लगी और इस वजह से बाद के दशकों में इन दोनों दलों के बीच युद्ध भी हुआ। मुश्किलों के इस दौर में, तमिल और सिंहाला साक्षी जिस तरह एक-दूसरे को महीनों तक अपने घर में हिफाज़त से रखते थे यह देखकर दिल गद्गद् हो उठता था! इन मुसीबतों ने भाइयों के विश्वास को निखारा और मज़बूत किया।
श्रीलंका में प्रचार करना और सिखाना
हिंदू और मुसलिम समाज के लोगों को समझने और उसी के मुताबिक खुद को ढालने के लिए सब्र और लगन की ज़रूरत थी। फिर भी, हम दोनों संस्कृतियों के लोगों और उनकी अच्छाइयों की इज़्ज़त करने लगे और उन्हें समझने लगे। वहाँ के लोग विदेशियों को बसों में सफर करते देखने के आदी नहीं थे। इसलिए जब हम बस में होते थे, तो लोग हमें टकटकी लगाए देखते रहते और सोचते कि ये यहाँ क्या कर रहे हैं। सिबिल ने फैसला किया कि जब कोई उसे इस तरह देखेगा तो वह उन्हें देखकर मुस्कुराएगी। हमें कितनी खुशी हुई कि जिन चेहरों पर हमें देखकर सवालिया निशान होते थे उन्हीं पर अब हम मुस्कान खिलते देखते थे!
एक बार, हमें एक नाके पर रोका गया। नाके पर तैनात हवलदार ने हमसे पूछा कि हम कहाँ के रहनेवाले हैं और किधर जा रहे हैं। उसके बाद वह हमसे कुछ निजी सवाल पूछने लगा।
“ये मैडम कौन हैं?”
मैंने जवाब दिया, “मेरी पत्नी हैं।”
“आपकी शादी को कितने साल हो गए?”
“आठ साल।”
“क्या आपके बच्चे हैं?”
“जी नहीं।”
“बाप रे! क्या आपने इन्हें डॉक्टर को नहीं दिखाया है?”
लोगों का ऐसा स्वभाव देखकर और उनके सवाल सुनकर, पहले-पहल तो हमें हैरानी हुई। मगर धीरे-धीरे हम समझने लगे कि यहाँ के लोग इस तरीके से दूसरों में सच्ची दिलचस्पी दिखाते हैं। दरअसल, उनका यही गुण हमारे मन को भा गया। अगर एक इंसान बीच बाज़ार या किसी सड़क पर थोड़ी देर तक अकेला खड़ा रहे, तो कुछ ही पल में कोई-न-कोई पास आकर उससे प्यार से पूछेगा कि क्या मैं आपकी कोई मदद कर सकता हूँ?
बदलाव और यादें
श्रीलंका में मिशनरी काम के अलावा हमें परमेश्वर के काम में और भी कई ज़िम्मेदारियाँ मिलीं। मुझे सर्किट और डिस्ट्रिक्ट ओवरसियर के नाते और ब्रांच कमिटी के सदस्य के नाते सेवा करने का मौका दिया गया। सन् 1996 तक, मेरी उम्र 75 के आसपास थी। पिछले 45 साल से मैंने श्रीलंका में मिशनरी के नाते सेवा करने की खुशी पायी थी। कोलंबो में मेरी पहली सभा में, करीब 20 लोग मौजूद थे। वह गिनती बढ़कर अब 3,500 हो गयी है! सिबिल और मैं, इन प्यारे भाई-बहनों में से कइयों को अपने आध्यात्मिक बच्चे और नाती-पोते मानते हैं। मगर इस देश में अब भी काफी काम करना बाकी था, जिसके लिए नौजवानों की ताकत और काबिलीयत की ज़रूरत थी। इस बात को ध्यान में रखते हुए, हमने शासी निकाय का यह न्यौता कबूल किया कि हम ऑस्ट्रेलिया वापस जाएँ। हमारे जाने से काबिल नौजवान जोड़ों के लिए, श्रीलंका में मिशनरियों के रूप में हमारी जगह आना मुमकिन हुआ है।
अब मैं अपनी ज़िंदगी के 82 साल पूरे कर चुका हूँ और हम दोनों खुश हैं कि हमारी सेहत हमें अपने पुराने शहर, एडलेड में स्पेशल पायनियर सेवा करने की इजाज़त देती है। हमारे प्रचार से हमारा दिमाग सचेत रहता है और हम हालात के मुताबिक खुद को ढाल सकते हैं। इसी की बदौलत हम इस देश के एकदम अलग रहन-सहन के मुताबिक खुद को फिर से ढाल सके हैं।
यहोवा आज भी हमारी हर ज़रूरत पूरी कर रहा है, और हमारी कलीसिया के भाई-बहन हमें बहुत प्यार करते हैं और सहारा देते हैं। हाल ही में मुझे एक नयी ज़िम्मेदारी मिली। मुझे अपनी कलीसिया में सेक्रेट्री का काम दिया गया है। इस तरह, मैंने पाया है कि वफादारी से यहोवा की सेवा करने की कोशिश करते वक्त, मैं आज भी तालीम हासिल कर रहा हूँ। बीते सालों को याद करते वक्त, मुझे हमेशा इस बात से ताज्जुब होता है कि वीराने में पला-बढ़ा एक अल्हड़, मन-मौजी लड़का कैसे सबसे उम्दा शिक्षा पा सका—और मैं आज भी सीख रहा हूँ।
[पेज 26 पर तसवीर]
सन् 1955 में, हमारी शादी के दिन
[पेज 27 पर तसवीर]
सन् 1957 में, श्रीलंका के एक भाई राजन कादीरगामार के साथ प्रचार में
[पेज 28 पर तसवीर]
आज सिबिल के साथ