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और ज़्यादा पाने की ख्वाहिश

और ज़्यादा पाने की ख्वाहिश

और ज़्यादा पाने की ख्वाहिश

“अगर हमारी ख्वाहिशों का कोई अंत नहीं, तो हम कभी नहीं कहेंगे कि ‘बस, अब और नहीं।’ ”—वर्ल्डवॉच इंस्टिट्यूट की रिपोर्ट।

“हमें क्या चाहिए? सबकुछ। हमें कब चाहिए? अभी, इसी वक्‍त।” यह नारा 1960 के दशक में कॉलेज के कुछ विद्यार्थियों में बहुत मशहूर था। आज यह नारा चाहे शब्द-ब-शब्द सुनायी न देता हो, मगर इसमें छिपी भावना अब भी लोगों में बरकरार है। जी हाँ, और ज़्यादा पाने की ख्वाहिश मानो हमारे ज़माने की पहचान बन गयी है।

ज़्यादातर लोगों के लिए, ज़मीन-जायदाद बढ़ाना और दौलत इकट्ठी करना उनकी ज़िंदगी का सबसे बड़ा मकसद है। अमरीका के भूतपूर्व राष्ट्रपति जिमी कार्टर ने एक बार कहा: “अब इंसान की पहचान उसके कामों से नहीं बल्कि उसके पास क्या है इससे होती है।” क्या ऐसे कुछ आदर्श हैं जो हमारी तमाम संपत्ति से भी ज़्यादा कीमती हों? अगर हैं, तो वे क्या हैं और उनसे हमें क्या फायदे होंगे?