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वफादार और अटल—कल भी और आज भी

वफादार और अटल—कल भी और आज भी

वफादार और अटल—कल भी और आज भी

पोलैंड देश के दक्षिणी भाग में वीस्वा नाम का एक छोटा-सा कसबा है जिसके दोनों तरफ, स्लोवाकिया और चेक रिपब्लिक की सरहदें हैं। आपने शायद वीस्वा का नाम पहले कभी नहीं सुना होगा, मगर इस शहर की एक अनोखी कहानी है जिसमें सच्चे मसीहियों को काफी दिलचस्पी होगी। यह उन लोगों की कहानी है जिन्होंने यहोवा के लिए अपनी खराई दिखायी और उसकी उपासना में कमाल का जोश दिखाया। कैसे?

वीस्वा एक खूबसूरत पहाड़ी इलाके में बसा है जहाँ से पहाड़ों का शानदार नज़ारा देखने को मिलता है। तेज़ी से बहते झरने और दो नदियाँ, विस्चुला नदी से जा मिलती हैं जो पहाड़ों के जंगलों और घाटियों से होती हुई बहती है। वहाँ के लोग मिलनसार हैं और मौसम भी बड़ा अनोखा है। यही वजह है कि वीस्वा में एक मशहूर मेडिकल सेंटर है जहाँ पर लोग अपना इलाज करवाने आते हैं। और गर्मियों के साथ-साथ सर्दियों में भी यहाँ छुट्टी मनाने आते हैं।

ऐसा लगता है कि इस जगह का नाम वीस्वा 1590 के दशक में पड़ा जब लोग यहाँ आकर बसने लगे। यहाँ लकड़ी काटने का एक कारखाना खड़ा किया गया और जल्द ही इस पहाड़ी इलाके के मैदानों में लोगों ने भेड़-बकरियाँ और गाय-बैल पालने और खेती-बाड़ी करनी शुरू कर दी। यहाँ के लोग बड़े सीधे-सादे थे। मगर जब धर्म के मामले में तेज़ी से बदलाव आया तो इन लोगों पर गहरा असर पड़ा खासकर मार्टिन लूथर के शुरू किए गए धर्म-सुधार के कामों का। शोधकर्ता आँजे ऑटचेक के मुताबिक प्रोटेस्टेंट धर्म “सन्‌ 1545 में सरकारी धर्म” बन गया। प्रोटेस्टेंट और कैथोलिक लोगों के बीच हुए ‘तीस साल के युद्ध’ और उसके बाद हुए कैथोलिक धर्म-सुधार आंदोलन से देखते-ही-देखते देश का पूरा नक्शा बदल गया। ऑटचेक आगे कहता है, “सन्‌ 1654 में प्रोटेस्टेंट लोगों के सभी चर्चों पर कब्ज़ा कर लिया गया, उनकी सभाओं पर पाबंदी लगा दी गयी। और-तो-और उनकी बाइबलें और धार्मिक किताबें तक ज़ब्त कर ली गयीं।” फिर भी वहाँ के ज़्यादातर लोग प्रोटेस्टेंट बने रहे।

बाइबल सच्चाई के बोए गए पहले बीज

खुशी की बात यह है कि धर्म के मामले में एक और अहम सुधार होनेवाला था। सन्‌ 1928 में पहली बार, दो जोशीले बाइबल स्टूडेंट्‌स ने यहाँ बाइबल की सच्चाई के बीज बोए। उन दिनों यहोवा के साक्षियों को बाइबल स्टूडेंट्‌स कहा जाता था। उसके अगले ही साल एक साक्षी, यान गॉमॉला वीस्वा पहुँचा। उसने अपने फोनोग्राफ पर बाइबल के भाषण सुनाए। जब वह अपने फोनोग्राफ के साथ पासवाली घाटी में गया, तो वहाँ आँजे राशका नाम के एक नेकदिल इंसान ने बड़े ध्यान से इन भाषणों को सुना। वह छोटे कद का गठीला पहाड़ी आदमी था। भाषण में बतायी जा रही बातें सचमुच बाइबल से हैं या नहीं, इसे पुख्ता करने के लिए उसने फौरन अपनी बाइबल में देखना शुरू किया। तब मारे खुशी के वह बोल पड़ा: “मेरे भाई, जब से मैं पहले विश्‍वयुद्ध की जंग लड़ रहा था तब से मुझे इसी सच्चाई की तलाश थी। और आखिर मैंने इसे पा ही लिया!”

इससे राशका में इतना जोश भर आया कि वह गॉमॉला को अपने दोस्तों, येरशे और आँजे पिल्क से मिलवाने ले गया। उन्होंने भी उसी जोश के साथ राज्य के संदेश को सुना और कबूल किया। परमेश्‍वर के संदेश के बारे में गहराई से जानने के लिए एक और साक्षी आँजे तिर्ना ने, जिसने खुद फ्रांस में सच्चाई सीखी थी, इन लोगों की मदद की। बहुत जल्द उनका बपतिस्मा हो गया। सन्‌ 1935 के करीब वीस्वा के आस-पास के कसबे से कुछ भाई आए और उन्होंने बाइबल स्टूडेंट्‌स के इस छोटे-से समूह की मदद की। नतीजा वाकई हैरतअँगेज़ था।

सच्चाई में दिलचस्पी दिखानेवालों की गिनती में कमाल की तेज़ी आयी। कसबे में रहनेवाले प्रोटेस्टेंट परिवारों को अपने-अपने घरों में हर रोज़ बाइबल पढ़ने की आदत थी। इसलिए जब उन्हें नरक की आग और त्रियेक की शिक्षा के बारे में बाइबल से ठोस दलीलें दी गयीं तो बहुतों ने समझ लिया कि ये शिक्षाएँ गलत हैं। इस वजह से कई परिवारों ने झूठी शिक्षाओं को न मानने का फैसला किया। इस तरह वीस्वा की कलीसिया में बढ़ोतरी हुई और सन्‌ 1939 तक इस कलीसिया में करीब 140 लोग थे। लेकिन, हैरानी की बात है कि इस कलीसिया के ज़्यादातर बड़ों का बपतिस्मा नहीं हुआ था। उस ज़माने की एक साक्षी हेलेना कहती है: “इसका यह मतलब नहीं कि उस वक्‍त जिनका बपतिस्मा नहीं हुआ था वे यहोवा का पक्ष लेने का फैसला नहीं कर सके। क्योंकि जब बहुत जल्द उनके विश्‍वास की आज़माइश हुई तो उन्होंने अपनी खराई का बेहतरीन सबूत दिया।”

उनके बच्चों के बारे में क्या? बच्चों को भी एहसास हुआ कि उनके माता-पिता ने जो रास्ता चुना है वही सच्चाई है। फ्रांनचीशेक ब्रांट्‌ज़ कहता है: “जब मेरे पापा को एहसास हुआ कि उन्हें सच्चाई मिल गयी, तो उन्होंने मुझे और मेरे भाई को सच्चाई सिखाना शुरू किया। उस वक्‍त मैं आठ बरस का था और मेरा भाई दस का। पापा हमसे कुछ छोटे-छोटे सवाल पूछते, जैसे: ‘परमेश्‍वर कौन है और उसका नाम क्या है? यीशु मसीह के बारे में तुम क्या जानते हो?’ हमें अपने जवाब लिखकर देने होते थे और वह भी बाइबल से।” एक और साक्षी कहता है: “मेरे मम्मी-पापा ने राज्य के संदेश को फौरन कबूल किया और सन्‌ 1940 में लूथरन चर्च से नाता तोड़ लिया। इसलिए स्कूल में मुझे कड़ा विरोध सहना पड़ा और कई बार मुझे पीटा भी गया। मगर मैं अपने मम्मी-पापा का बहुत एहसानमंद हूँ कि उन्होंने मेरे दिल में बाइबल के उसूलों को अच्छी तरह बिठाया। क्योंकि उसी तालीम की वजह से ही मैं विरोध के उस मुश्‍किल दौर का सामना कर पाया।”

विश्‍वास की आज़माइश

दूसरे विश्‍वयुद्ध के दौरान जब नात्ज़ियों ने इस इलाके पर कब्ज़ा किया तो उन्होंने यहोवा के साक्षियों को पूरी तरह मिटाने की ठान ली। शुरू-शुरू में उन्होंने बड़ों को, खासकर पिताओं को ऐसे कागज़ पर दस्तखत करने के लिए कहा जिसमें लिखा था कि वे जर्मन नागरिक हैं। ऐसा करने पर उन्हें काफी फायदे मिलते। लेकिन साक्षियों ने नात्ज़ियों का साथ देने से साफ इनकार कर दिया। जिन भाइयों और दिलचस्पी दिखानेवालों की उम्र सेना में भरती होने की हो चुकी थी, उन्हें एक मुश्‍किल फैसला करना था: या तो वे सेना में भरती हो जाएँ या फिर निष्पक्ष रहकर कड़ी-से-कड़ी सज़ा भुगतें। नात्ज़ियों की खुफिया पुलिस (गेस्टापो) ने आँजे शालबोट को सन्‌ 1943 में गिरफ्तार कर लिया था। वह कहता है: “सेना में भरती होने से इनकार करने का मतलब था, खौफनाक यातना शिविरों में भेजा जाना जो आम तौर पर ऑशविट्‌ज़ यातना शिविर होता था। गिरफ्तारी के वक्‍त मेरा बपतिस्मा नहीं हुआ था, फिर भी मैं जानता था कि मत्ती 10:28, 29 में यीशु ने हमें क्या भरोसा दिलाया है। मुझे पूरा यकीन था कि अगर मैं अपने विश्‍वास के लिए मर भी गया तो यहोवा मुझे फिर से जी उठाएगा।”

सन्‌ 1942 की शुरूआत में नात्ज़ियों ने वीस्वा से 17 भाइयों को गिरफ्तार कर लिया। तीन महीने के अंदर ही उनमें से 15 भाइयों की ऑशविट्‌ज़ यातना शिविर में मौत हो गयी। इससे वीस्वा में बचे-खुचे साक्षियों पर क्या असर हुआ? अपने विश्‍वास को छोड़ने के बजाय वे यहोवा को थामे रहे और उन्होंने समझौता नहीं किया! अगले छः महीने के दौरान वीस्वा के प्रचारकों की गिनती दुगनी हो गयी। लेकिन जल्द ही और भी भाइयों को गिरफ्तार किया गया। कुल मिलाकर 83 भाई, दिलचस्पी दिखानेवाले लोग और बच्चे भी हिटलर की सेना के वहशीपन का शिकार हुए। उनमें से 53 भाइयों को यातना शिविरों में भेजा गया (ज़्यादातर ऑशविट्‌ज़ में), या लेबर कैम्पों में भेजा गया जहाँ उनसे कोल्हू के बैल की तरह दिन-रात खानों-खदानों में काम करवाया जाता था। ये कैम्प पोलैंड, जर्मनी, और बोहिमीआ में थे।

वफादार और अटल

ऑशविट्‌ज़ यातना शिविर में नात्ज़ियों ने साक्षियों को जल्द रिहा करने का लालच देकर उन्हें फँसाना चाहा। एक एस.एस. गार्ड ने एक भाई से कहा: “हम तुम्हें अभी इसी वक्‍त रिहा कर देंगे और तुम आराम से अपने घर जा सकोगे। बस इस कागज़ पर दस्तखत कर दो कि अब से बाइबल स्टूडेंट्‌स के साथ तुम्हारा कोई वास्ता नहीं रहा।” उस भाई को बार-बार यह लालच दिया गया, लेकिन फिर भी उसने समझौता करके यहोवा के साथ गद्दारी नहीं की। नतीजा यह हुआ कि जर्मनी के ऑशविट्‌ज़ और मिटलबाऊडोरा के यातना शिविरों में उसे बेरहमी से पीटा गया, उस पर ताने कसे गए और दिन-रात उससे मेहनत-मशक्कत करवायी गयी। आज़ादी से थोड़े समय पहले दुश्‍मनों ने उस शिविर पर बमबारी की जहाँ यह भाई कैद था। वह भाई मौत के मुँह में जाने से बाल-बाल बचा।

उन दिनों को याद करते हुए पावेल शालबोट नाम का एक साक्षी, जो हाल ही में चल बसा, उसने कहा था: “पूछताछ के दौरान गेस्टापो मुझसे बार-बार यही सवाल करते कि मैंने जर्मनी की सेना में भरती होने से इनकार क्यों किया और क्यों मैं ‘हेल हिटलर!’ नहीं कहता हूँ।” जब उस भाई ने बाइबल से बताया कि मसीही क्यों निष्पक्ष रहते हैं, तो उसे हथियार बनानेवाले कारखाने में काम करने के लिए भेज दिया गया। “ज़ाहिर है कि मेरा ज़मीर मुझे ऐसा काम करने की इजाज़त नहीं देता, इसलिए उन्होंने मुझे खान में काम करने के लिए भेजा।” इसके बावजूद यह भाई वफादार बना रहा।

जो औरतें और बच्चे आज़ाद थे, वे ऑशविट्‌ज़ में कैदी भाइयों के लिए खाना भेजते थे। एक भाई जो उस वक्‍त जवान था, वह कहता है: “गर्मियों के दिनों में हम जंगलों से करौंदे इकट्ठा करते और इनके बदले गेहूँ लेते थे। उनसे बहनें पाव-रोटियाँ बनाकर चरबी में भिगोती थीं। फिर हम थोड़ा-थोड़ा करके ये रोटियाँ अपने कैदी भाइयों को भेजते थे।”

वीस्वा से कुल मिलाकर 53 भाइयों को यातना शिविरों में भेजा गया जहाँ उनसे दिन-रात मेहनत करवायी गयी। उनमें से 38 की मौत हो गयी।

नयी पीढ़ी का उभरना

नात्ज़ियों के ज़ुल्मों का असर यहोवा के साक्षियों के बच्चों पर भी पड़ा। कुछ बच्चों को उनकी माँ के साथ बोहिमीआ के ऐसे कैम्पों में भेज दिया गया जो कुछ समय के लिए बनाए गए थे। लेकिन कुछ बच्चों को उनके माँ-बाप से अलग करके लॉज़ शहर के एक कैम्प में डाला गया जो खासकर बच्चों के लिए था। यह कैम्प काफी बदनाम था क्योंकि यहाँ बच्चों के साथ बुरा सलूक किया जाता था।

उन दिनों को याद करते हुए, तीन लोगों ने कहा: “जर्मन लोग सबसे पहले हम दस बच्चों को लॉज़ ले गए। हमारी उम्र पाँच से नौ साल के बीच थी। प्रार्थना और बाइबल के बारे में बात करके हम एक-दूसरे की हिम्मत बढ़ाते थे। धीरज धरना आसान नहीं था।” सन्‌ 1945 में ये सभी बच्चे वापस अपने घर लौटे। हालाँकि वे सूखकर काँटा हो चुके थे और उन्हें सदमा पहुँचा था, मगर दुनिया की कोई भी ताकत उनकी खराई नहीं तोड़ सकी।

इसके बाद क्या हुआ?

दूसरा विश्‍वयुद्ध खत्म होने पर था, मगर वीस्वा के साक्षियों का विश्‍वास अब भी मज़बूत था और वे अपना प्रचार काम पूरे जोश और हिम्मत के साथ फिर से शुरू करने को तैयार थे। भाइयों के कई समूहों ने वीस्वा से 40 किलोमीटर दूर रहनेवाले लोगों को प्रचार करने और उनमें बाइबल साहित्य बाँटने का काम किया। यान कशॉक कहता है: “जल्द ही हमारे कसबे में तीन कलीसियाएँ बन गयीं।” लेकिन उनकी यह आज़ादी ज़्यादा दिन तक नहीं रही।

नात्ज़ियों के बाद कम्युनिस्ट सरकार ने अपना सिक्का जमा लिया। और उसने 1950 में पोलैंड में यहोवा के साक्षियों के कामों पर पाबंदी लगा दी। इसलिए वहाँ के भाइयों को गवाही देने के नए-नए तरीके ढूँढ़ने थे मगर साथ ही उन्हें होशियारी बरतने की ज़रूरत थी। कभी-कभी वे मवेशी या अनाज खरीदने के बहाने लोगों के घर जाकर उन्हें गवाही देते। मसीही सभाएँ अकसर रात को छोटे-छोटे समूहों में हुआ करती थीं। इसके बावजूद सरकार के जासूसों ने यहोवा के कई उपासकों को गिरफ्तार कर लिया, और उन पर यह इलज़ाम लगाया कि वे विदेशी सरकार के लिए जासूसी कर रहे हैं। यह एक ऐसा इलज़ाम था जिसमें रत्ती भर भी सच्चाई नहीं थी। कुछ अफसरों ने ताना कसते हुए पावेल पिल्क को धमकाया: “हिटलर तुम्हें तोड़ने में नाकाम रहा, मगर हम तुम्हें तोड़कर रहेंगे।” भाई को पाँच साल की सज़ा होने के बावजूद भी वह यहोवा का वफादार रहा। जब जवान साक्षियों ने कम्युनिस्ट सरकार के एक राजनीतिक कागज़ात पर दस्तखत करने से इनकार किया तो उनमें से कुछ को स्कूल से निकाल दिया गया और कुछ को नौकरी से बरख्वास्त किया गया।

यहोवा हमेशा उनके साथ रहा

सन्‌ 1989 में कुछ राजनीतिक बदलाव हुए और यहोवा के साक्षियों को पोलैंड में कानूनी मान्यता मिली। जैसा कि वीस्वा में पायनियरों या पूरे समय के प्रचारकों की गिनती से पता चलता है, यहोवा के अटल उपासकों ने और भी ज़ोर-शोर से प्रचार का काम किया। इस इलाके के करीब 100 भाई-बहनों ने पायनियर सेवा शुरू की। तभी इसमें कोई ताज्जुब नहीं कि प्यार से इस कसबे को ‘पायनियर फैक्टरी’ कहा जाता है।

बीते समय में यहोवा ने अपने सेवकों को जो सहारा दिया, उसके बारे में बाइबल कहती है: “यदि यहोवा उस समय हमारी ओर न होता जब मनुष्यों ने हम पर चढ़ाई की, तो वे हम को उसी समय जीवित निगल जाते।” (भजन 124:2, 3) आज हमारे समय में, जब चारों तरफ लोगों की बेरुखी और अनैतिक चालचलन देखने को मिलता है, ऐसे में भी वीस्वा में यहोवा के उपासक अपनी खराई बनाए रखने के लिए कड़ी मेहनत करते हैं। और इसके लिए उन्हें बेशुमार आशीषें भी मिली हैं। उस इलाके में पीढ़ी-दर-पीढ़ी चले आ रहे साक्षी गवाही दे सकते हैं कि प्रेरित पौलुस के ये शब्द सोलह आने सच हैं: “यदि परमेश्‍वर हमारी ओर है, तो हमारा विरोधी कौन हो सकता है?”—रोमियों 8:31.

[पेज 26 पर तसवीरें]

एमीलया कशॉक को अपने बच्चों, हेलेना, एमीलया और यान के साथ बोहिमीआ के एक कैम्प में भेज दिया गया जो कुछ समय के लिए था

[पेज 26 पर तसवीर]

जब पावेल शालबोट ने सेना में भरती होने से इनकार कर दिया तो उसे एक खान में काम करने भेजा गया

[पेज 27 पर तसवीर]

जब भाइयों को ऑशविट्‌ज़ भेजा गया और वहाँ उन्होंने दम तोड़ा, तब भी वीस्वा में प्रचार का काम नहीं रुका

[पेज 28 पर तसवीर]

पावेल पिल्क और यान पोलोक को लॉज़ के एक कैम्प में ले जाया गया जो खासकर जवानों के लिए था

[पेज 25 पर चित्र का श्रेय]

सरस फल और फूल: © R.M. Kosinscy / www.kosinscy.pl