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हमने परमेश्‍वर की हुकूमत के पक्ष में खड़े होने का अटल फैसला किया

हमने परमेश्‍वर की हुकूमत के पक्ष में खड़े होने का अटल फैसला किया

जीवन कहानी

हमने परमेश्‍वर की हुकूमत के पक्ष में खड़े होने का अटल फैसला किया

मीकेल ज़ौब्राक की ज़ुबानी

महीना भर काल-कोठरी में बिताने के बाद मुझे घसीटकर, पूछताछ करनेवाले एक अफसर के पास लाया गया। वह एकदम गुस्से से चिल्लाने लगा: “जासूस हो तुम! अमरीका के जासूस!” वह क्यों इतना भड़का हुआ था? उसने मुझसे मेरे धर्म के बारे में पूछा और मैंने जवाब में सिर्फ इतना कहा कि “मैं एक यहोवा का साक्षी हूँ।”

इस वाकए को 50 से ज़्यादा साल बीत चुके हैं। उस समय मैं जिस देश में रहता था, उस पर कम्युनिस्ट का शासन था। लेकिन ऐसा नहीं था कि मसीही शिक्षा के हमारे काम का पहली बार कड़ा विरोध किया जा रहा था। कई साल पहले भी हम विरोध का सामना कर चुके थे।

हमने युद्ध का ज़हरीला डंक सहा

जब सन्‌ 1914 में पहला विश्‍वयुद्ध शुरू हुआ तब मैं आठ साल का था। उस समय मेरे कसबे, ज़ॉलुज़ाइट्‌से पर ऑस्ट्रिया-हंगरी साम्राज्य के राजा का कब्ज़ा था। इस युद्ध ने न सिर्फ इस दुनिया का दृश्‍य बिगाड़ दिया, बल्कि बड़ी बेरहमी से मेरा बचपन भी मुझसे छीन लिया था। मेरे पिताजी सैनिक थे जो युद्ध के पहले ही साल मारे गए। इस वजह से मेरा परिवार गरीबी के दलदल में जा गिरा। परिवार में मेरी माँ, मेरी दो छोटी बहनें और मैं था। घर में सबसे बड़ा और एक ही बेटा होने की वजह से मुझ पर अपना छोटा-सा फार्म और घर सँभालने की ज़िम्मेदारी आ गयी। छुटपन से ही, मुझे धर्म-कर्म में बड़ी आस्था थी। यहाँ तक कि अगर कभी-कभी किसी कारण से हमारे रिफॉर्मड्‌ (कैलवनिस्ट) चर्च का पादरी सिखाने नहीं आ पाता, तो वह मुझे अपने स्कूल के साथियों को सिखाने के लिए कहता।

सन्‌ 1918 में विश्‍वयुद्ध के खत्म होने पर हमने राहत की साँस ली। ऑस्ट्रिया-हंगरी साम्राज्य का तख्ता पलट दिया गया और हम चेकोस्लोवाकिया गणतंत्र के नागरिक बन गए। हमारे इलाके के जो लोग अमरीका चले गए थे, वे जल्द ही लौट आए। उनमें से एक था, मीकेल पैट्रीक जो 1922 में हमारे कसबे वापस लौटा। जब वह हमारे पड़ोस में एक परिवार से मिलने आया, तो वहाँ मुझे और मेरी माँ को भी आने का न्यौता मिला।

परमेश्‍वर की हुकूमत मेरे लिए असल बनी

मीकेल बाइबल विद्यार्थियों में से एक था, जिन्हें आज यहोवा के साक्षी के नाम से जाना जाता है। उसने बाइबल के कई अहम मसलों पर चर्चा की जिससे मेरी दिलचस्पी बहुत बढ़ गयी। इनमें से मेरे लिए सबसे अहम था, यहोवा का आनेवाला राज्य। (दानिय्येल 2:44) जब उसने कहा कि अगले रविवार को ज़ॉहौर कसबे में मसीही सभा होगी तो मैंने वहाँ जाने की ठान ली। मैं 4 बजे तड़के ही उठ गया और 8 किलोमीटर चलकर अपने एक रिश्‍तेदार के पास गया और उसकी साइकिल उधार माँगी। फिर मैंने टायर में हवा भरवायी और 24 किलोमीटर का रास्ता तय करके ज़ॉहौर पहुँचा। मुझे पता नहीं था कि सभा कहाँ होगी, इसलिए मैं एक सड़क पर धीरे-धीरे आगे बढ़ता गया। तभी एक घर से मुझे राज्य-गीत गाने की आवाज़ सुनायी दी। मैं खुशी के मारे उछल पड़ा! मैं उस घर में गया और उन्हें अपने आने की वजह बतायी। तब उस परिवार ने मुझे अपने साथ नाश्‍ता करने को कहा, फिर वे मुझे अपने साथ सभा में ले गए। हालाँकि घर लौटने के लिए मुझे साइकिल से और पैदल चलकर 32 किलोमीटर का सफर दोबारा तय करना था, मगर मुझे ज़रा भी थकावट महसूस नहीं हुई।—यशायाह 40:31.

सभा में यहोवा के साक्षियों ने जिस तरह बाइबल से साफ-साफ सब कुछ समझाया, वह मुझे बेहद पसंद आया। इस आशा ने मेरे दिल पर सबसे ज़्यादा असर किया कि परमेश्‍वर की हुकूमत में हमारी ज़िंदगी संतोष भरी होगी और हम उसका पूरा-पूरा लुत्फ उठाएँगे। (भजन 104:28) मैंने और मेरी माँ ने खत के ज़रिए चर्च से अपना नाम कटवाने का फैसला किया। इससे हमारे कसबे में बड़ी हलचल मच गयी। कई दिनों तक तो कुछ लोगों ने हमसे बात भी नहीं की, लेकिन हमें इसका कोई गम नहीं था क्योंकि हमारे इलाके में कई साक्षी रहते थे जिनकी बढ़िया संगति का हमने आनंद उठाया। (मत्ती 5:11, 12) और इसके कुछ ही समय बाद, मैंने ऊ नदी में बपतिस्मा ले लिया।

परमेश्‍वर की सेवा हमारी ज़िंदगी बन गयी

हमें जब भी मौका मिलता हम परमेश्‍वर के राज्य की गवाही देते। (मत्ती 24:14) हमने खासकर रविवार को संगठित तौर पर प्रचार करने पर ज़्यादा ध्यान दिया। उन दिनों, लोग सवेरे-सवेरे ही उठ जाते थे इसलिए हम प्रचार काफी जल्दी शुरू कर पाते थे। फिर दोपहर होते-होते जन-सभा रखी जाती थी। बाइबल सिखानेवाले भाई बिना नोट्‌स्‌ के भाषण देते। भाषण देते वक्‍त वे इन बातों का ध्यान रखते कि दिलचस्पी दिखानेवाले कितने लोग हाज़िर हुए हैं, वे किस धर्म से हैं और उन्हें किन बातों की सबसे ज़्यादा फिक्र है।

हमने बाइबल की जिन सच्चाइयों के बारे में प्रचार किया, उनसे कई नेकदिल लोग आध्यात्मिक अँधकार से बाहर निकल पाए। मेरे बपतिस्मे के कुछ समय बाद, एक दिन मैं ट्रहॉविश्‍टे कसबे में प्रचार करने गया। एक घर में मैंने ज़ुज़ौनौ मौसकौल नाम की एक महिला से बात की। वह बहुत ही मिलनसार और नर्म स्वभाव की थी। वह और उसका परिवार कैलवनिस्ट चर्च से था, जिसका कभी मैं भी सदस्य हुआ करता था। हालाँकि वह बाइबल से अच्छी तरह वाकिफ थी, फिर भी उसके दिल में बाइबल को लेकर बहुत-से सवाल थे। हमने घंटे भर तक चर्चा की, जिसके बाद मैंने उसे द हार्प ऑफ गॉड किताब दी। *

मौसकौल ने तुरंत अपने परिवार के साथ नियमित बाइबल पढ़ाई में हार्प किताब का इस्तेमाल शुरू कर दिया। धीरे-धीरे कसबे के दूसरे परिवार भी दिलचस्पी लेने लगे और हमारी सभाओं में आने लगे। मगर उनके कैलवनिस्ट पादरी ने उन्हें हमारे खिलाफ कड़ी चेतावनी दी कि वे न तो हमसे बात करें, न हमारे साहित्य लें। तब दिलचस्पी दिखानेवाले कुछ लोगों ने पादरी को सुझाव दिया कि क्यों न आप खुद ही साक्षियों की सभा में आएँ और सबके सामने उनकी शिक्षाओं को झूठा साबित करें?

पादरी आया तो सही, मगर अपनी शिक्षा को सही साबित करने के लिए बाइबल से एक भी आयत नहीं दिखा सका। अपनी नाक रखने के वास्ते उसने कहा: “हम बाइबल की हरेक बात पर विश्‍वास नहीं कर सकते। आखिर इसे इंसानों ने ही लिखा है और धार्मिक सवालों के जवाब तो दूसरे तरीकों से भी समझाए जा सकते हैं।” बस फिर क्या था, उसके इस जवाब से कइयों की ज़िंदगी ने एक नया मोड़ लिया। कुछ लोगों ने पादरी से कहा कि अगर आप बाइबल पर विश्‍वास ही नहीं करते, तो आपके उपदेश सुनने से क्या फायदा। इस तरह उन्होंने कैलवनिस्ट चर्च से अपना नाता तोड़ लिया और उस कसबे से करीब 30 लोगों ने बाइबल सच्चाई अपनाने के लिए ठोस कदम उठाया।

राज्य का प्रचार करना हमारी ज़िंदगी बन गयी थी इसलिए बेशक अब मुझे ऐसे जीवन-साथी की तलाश थी जिसका परिवार आध्यात्मिक रूप से मज़बूत हो। मैं कई भाइयों के साथ प्रचार करता था, जिनमें से एक था, भाई यॉन पैट्रूश्‍का। उसने अमरीका में सच्चाई सीखी थी। उसकी बेटी, मारियौ बिलकुल अपने पिता की तरह, हर मौके पर गवाही देने को तैयार रहती और उसका यही जोश मुझे भा गया। सन्‌ 1936 में हमने शादी कर ली और 50 साल तक यानी सन्‌ 1986 में, अपनी मौत तक उसने हर कदम पर मेरा साथ दिया। सन्‌ 1938 में हमारा एकलौता बेटा एडुअर्ट पैदा हुआ। लेकिन उस समय यूरोप में एक और युद्ध का खतरा मँडरा रहा था। अब इसका हमारे काम पर कैसा असर होता?

हमारे निष्पक्ष रहने की वजह से परीक्षा

दूसरा विश्‍वयुद्ध शुरू होने के वक्‍त स्लोवाकिया जो एक अलग देश बन गया था, नात्ज़ियों के कब्ज़े में था। लेकिन सरकार ने यहोवा के साक्षियों के संगठन के खिलाफ कोई सख्त कार्यवाही नहीं की। हाँ, हमारी किताबों को ज़रूर सेंसर किया जाता था और हमें छिप-छिपकर काम करना पड़ता था। मगर हम फिर भी पूरी सावधानी के साथ अपना काम करते रहे।—मत्ती 10:16.

जब युद्ध ने ज़ोर पकड़ा तो मुझे सेना में भरती होने का बुलावा दिया गया जबकि मैं 35 पार कर चुका था। मसीही निष्पक्षता की वजह से मैंने सेना में भरती होने से इनकार कर दिया। (यशायाह 2:2-4) मगर खुशी की बात यह है कि इससे पहले कि अधिकारी मेरे बारे में कुछ फैसला करते, मेरी उम्र के जितने भी लोग कैद थे, उन्हें रिहा कर दिया गया।

हमें एहसास हुआ कि हम कसबे में रहनेवालों के लिए ज़रूरत की चीज़ों का इंतज़ाम करना आसान था, मगर शहर में हमारे भाइयों को बड़ी मुश्‍किल का सामना करना पड़ रहा था। हमारे पास जो कुछ था, हम उनके साथ बाँटना चाहते थे। (2 कुरिन्थियों 8:14) इसलिए हम ज़्यादा-से-ज़्यादा खाने का सामान लेकर अपने कसबे से बहुत दूर, 500 किलोमीटर का सफर तय करके ब्राटस्लावा शहर जाते। इस तरह युद्ध के दौरान हमारे बीच प्यार और दोस्ती का ऐसा बंधन कायम हुआ, जिससे हमें आगे आनेवाली तकलीफों का सामना करने में बड़ी मदद मिली।

ज़रूरत की घड़ी में हौसला

दूसरे विश्‍वयुद्ध के बाद स्लोवाकिया एक बार फिर चेकोस्लोवाकिया का हिस्सा बन गया। सन्‌ 1946 से 1948 के दौरान, हर साल देश में यहोवा के साक्षियों का अधिवेशन या तो बर्नो में या फिर प्राग में होता था। पूर्वी स्लोवाकिया से हम लोग, एक खास रेलगाड़ी से सफर करते थे जो सिर्फ अधिवेशन जानेवालों के लिए बुक की जाती थी। आप उन रेलगाड़ियों को गायक रेलगाड़ी कह सकते हैं क्योंकि हम पूरे रास्ते गाते हुए जाते थे।—प्रेरितों 16:25.

मैं सन्‌ 1947 में, बर्नो में हुए अधिवेशन को कभी नहीं भूल सकता, जिसमें विश्‍व मुख्यालय से तीन मसीही ओवरसियर आए थे। उनमें से एक थे, भाई नेथन एच. नॉर। अधिवेशन में होनेवाले जन-भाषण का ऐलान करने के लिए हममें से कइयों ने ऐसे पोस्टर (प्लकार्ड) पहने जिन पर भाषण का विषय लिखा हुआ था और फिर शहर की सड़कों से गुज़रे। उस समय हमारा बेटा एडुअर्ट सिर्फ नौ साल का था। जब उसे पोस्टर नहीं दिया गया, तो उसका मुँह लटक गया। इसलिए एक भाई ने, न सिर्फ उसके लिए बल्कि दूसरे कई बच्चों के लिए भी छोटे-छोटे पोस्टर बनाए। इन छुटकुओं की दाद देनी पड़ेगी क्योंकि इन्होंने क्या ही बढ़िया तरीके से भाषण का ऐलान किया!

सन्‌ 1948 की फरवरी से कम्युनिस्ट सत्ता में आया। हमें मालूम था कि आज नहीं तो कल यह सरकार हमारे काम पर पाबंदी लगा देगी। सितंबर 1948 में प्राग में एक अधिवेशन हुआ, जिस दौरान हमारे मन में तरह-तरह की भावनाएँ उठ रही थीं, क्योंकि हमें इस तरह खुलकर मिलते हुए सिर्फ 3 साल हुए थे कि जल्द ही एक बार फिर हम पर पाबंदी लगनेवाली थी। अधिवेशन से जाने से पहले एक प्रस्ताव पेश किया गया जिसे हम सब ने स्वीकार किया। उसकी कुछ बातें इस तरह हैं: “यहाँ इकट्ठे हुए हम यहोवा के साक्षियों ने . . . यह ठान लिया है कि हम इस धन्य सेवा को बढ़ाते रहेंगे और प्रभु के अनुग्रह से हर समय, यहाँ तक कि परीक्षा की घड़ी में भी इसे नहीं छोड़ेंगे और परमेश्‍वर के राज्य का सुसमाचार और भी जोश के साथ प्रचार करते रहेंगे।”

“देश के दुश्‍मन”

प्राग में हुए अधिवेशन के सिर्फ दो महीने बाद, खुफिया पुलिस ने इस शहर के पास के बेथेल घर में छापा मारा और उस पर कब्ज़ा कर लिया, जो भी साहित्य मिले, उन्हें ज़ब्त कर लिया। और बेथेल में काम करनेवाले सभी लोगों को, साथ ही कुछ और भाइयों को भी गिरफ्तार कर लिया। लेकिन यह तो सिर्फ शुरूआत थी।

सन्‌ 1952 में, फरवरी 3-4 की रात को सुरक्षा पुलिस दल ने साक्षियों की तलाश में देश का चप्पा-चप्पा छान मारा और 100 से ज़्यादा साक्षियों को गिरफ्तार कर लिया। उनमें से मैं भी एक था। पुलिस ने सुबह तीन बजे आकर मेरे परिवार की नींद उड़ा दी। बिना कोई वजह बताए उन्होंने मुझे अपने साथ चलने का हुक्म दिया। फिर मेरे हाथों में हथकड़ी लगायी और आँखों पर पट्टी बाँधकर, दूसरे कई लोगों के साथ मुझे भी एक ट्रक में डाल दिया। पट्टी खुली तो देखा कि काल-कोठरी में बंद हूँ।

इस तरह पूरा महीना बीत गया, मेरी किसी से कोई बातचीत नहीं हुई। बस एक ही इंसान को मैं देखा करता था और वह था काल-कोठरी का पहरेदार जो मुझे दरवाज़े के एक छोटे-से छेद में से रूखा-सूखा खाने को देता था। फिर जैसा मैंने शुरूआत में बताया, मुझे पूछताछ करनेवाले अफसर के पास ले जाया गया। मुझे जासूस कहने के बाद उसने कहा: “धर्म तो सिर्फ ढकोसला है। कोई परमेश्‍वर-वरमेश्‍वर नहीं होता! हम तुम्हें मज़दूरों की आँखों में धूल नहीं झोंकने देंगे। देख लेना, या तो तुम्हें फाँसी हो जाएगी या तुम इसी जेल में पड़े-पड़े सड़ जाओगे। और अगर तुम्हारा परमेश्‍वर यहाँ आ गया तो हम उसे भी मार डालेंगे!”

अधिकारी जानते थे कि ऐसा कोई कानून नहीं, जिसमें हमारे काम के खिलाफ कुछ लिखा हो। इसलिए वे हमारे काम को इस तरह पेश करना चाहते थे ताकि हम कानून की नज़र में गुनहगार ठहरें। वे हम पर “देश के दुश्‍मन” और विदेशी जासूस होने का इलज़ाम लगाना चाहते थे। इसके लिए उन्हें हमारे पक्के इरादे को तोड़ने और हमसे गलत इलज़ामों को “कबूल करवाने” की ज़रूरत थी। उस रात की पूछताछ के बाद मुझे सोने नहीं दिया गया। कुछ ही घंटों बाद मुझे फिर से बुलाया गया। इस बार वह अफसर चाहता था कि मैं एक बयान पर दस्तखत करूँ, जिस पर लिखा था: “मैं चेकोस्लोवाकिया गणतंत्र का दुश्‍मन हूँ, इसलिए मैंने [कम्युनिस्ट सरकार] का साथ नहीं दिया क्योंकि मैं अमरीकी लोगों के आने का इंतज़ार कर रहा था।” जब मैंने ऐसे झूठे बयान पर दस्तखत करने से इनकार किया तो मुझे एक दूसरे कैदखाने में डाला गया जो कैदियों को सुधारने के लिए होता है।

मुझे वहाँ न तो सोने की, ना लेटने की, और न ही बैठने की इजाज़त थी। मैं सिर्फ खड़ा रह सकता था या चल-फिर सकता था। एक बार जब मैं बहुत थक गया तो कंक्रीट की ज़मीन पर लेट गया। तब पहरेदार मुझे फिर से उस अफसर के दफ्तर में ले गए। अफसर ने मुझसे पूछा: “क्या अब तुम दस्तखत करोगे?” जब मैंने फिर से मना कर दिया तो उसने मेरे मुँह पर ऐसा ज़ोर का घूँसा मारा कि खून बहने लगा। फिर उसने गुर्राते हुए पहरेदारों से कहा: “यह अपनी जान लेने पर तुला है। इस पर कड़ी निगरानी रखो, कहीं यह आत्म-हत्या न कर ले!” मुझे फिर से काल-कोठरी में डाल दिया गया। छः महीनों तक न जाने कितनी बार इस तरह बुला-बुलाकर मुझसे सवाल-जवाब किए गए। वे चाहते थे कि मैं किसी तरह यह कबूल कर लूँ कि मैं देश का दुश्‍मन हूँ, मगर उनकी कोई भी चाल या कोशिश यहोवा के लिए मेरी खराई नहीं तोड़ सकी क्योंकि मैं अपने फैसले पर अटल था।

मेरी अदालत में पेशी होने से एक महीने पहले, प्राग से सरकारी वकील आया और उसने हमारे समूह के हर भाई से कुछ सवाल पूछे जिसमें हम 12 जन थे। उसने मुझसे पूछा: “अगर पश्‍चिमी देश हम पर हमला कर दें, तो तुम क्या करोगे?” मैंने जवाब दिया: “वही जो मैंने तब किया था, जब इस देश के लोगों ने हिटलर के साथ मिलकर सोवियत संघ पर हमला किया। मैंने न तो उस समय लड़ाई में हिस्सा लिया, ना अब लूँगा क्योंकि मैं एक मसीही हूँ और मैं किसी का पक्ष नहीं लेता।” फिर वकील बोला: “हम यहोवा के साक्षियों को बरदाश्‍त नहीं कर सकते। अगर पश्‍चिमी देश हम पर हमला कर दें तो हमें सैनिकों की सख्त ज़रूरत पड़ेगी। और पश्‍चिमी देश में रह रहे अपने मज़दूरों को छुड़ाने के लिए भी हमें सैनिकों की ज़रूरत है।”

जुलाई 24, 1953 को हमें अदालत में पेश किया गया। एक-के-बाद-एक हम 12 जनों को जजों के पैनल के सामने लाया गया। हमने अपने विश्‍वास के बारे में गवाही देने के मौके का पूरा फायदा उठाया। हम पर लगाए झूठे इलज़ामों के खिलाफ जब हमने अपनी सफाई पेश की, तो उसे सुनने के बाद एक वकील ने खड़े होकर कहा: “मैं इस अदालत में कई बार आ चुका हूँ। अकसर यहाँ बहुतों ने अपने अपराध कबूल किए, पछतावा ज़ाहिर किया, यहाँ तक कि आँसू बहाए हैं। लेकिन जहाँ तक इनकी बात है, यहाँ से निकलने के बाद ये इरादे के और भी पक्के हो जाएँगे।” इसके बाद हम 12 जनों को देश के खिलाफ षड्यंत्र रचने का दोषी करार दिया गया। मुझे तीन साल की सज़ा हो गयी और मेरी सारी संपत्ति सरकार ने ज़ब्त कर ली।

बुढ़ापा मेरे लिए बाधा नहीं बना

रिहा होने के बाद भी मैं खुफिया पुलिस की निगरानी में था। इसके बावजूद, मैंने परमेश्‍वर की सेवा शुरू कर दी और मुझे अपनी कलीसिया की देखभाल की ज़िम्मेदारी भी सौंपी गयी। हालाँकि हमें अपने ज़ब्त किए गए घर में रहने की इजाज़त थी, लेकिन करीब 40 साल बाद ही, जब कम्युनिस्ट सरकार का तख्ता पलटा, हमें कानूनी तौर पर अपना घर वापस मिला।

जेल की सज़ा काटनेवाला सिर्फ अपने परिवार से मैं ही अकेला नहीं था। मेरे घर लौटने के बस तीन साल बाद एडुअर्ट को सेना में भरती होने का बुलावा मिला। बाइबल से तालीम पाए विवेक की वजह से उसने भी इनकार कर दिया, इसलिए उसे जेल हो गयी। सालों बाद मेरे पोते पीटर को भी इसी परीक्षा से गुज़रना पड़ा जबकि उसकी सेहत बहुत खराब रहती थी।

सन्‌ 1989 में चेकोस्लोवाकिया में कम्युनिस्ट शासन का अंत हुआ। मैं अपनी खुशी का इज़हार कैसे करूँ कि चालीस साल की पाबंदी के बाद, मैं एक बार फिर खुलेआम घर-घर की सेवा कर सकता था! (प्रेरितों 20:20) जब तक मेरी सेहत ने साथ दिया, मैंने इस सेवा का भरपूर आनंद उठाया। अब मैं 98 साल का हो गया हूँ इसलिए मेरी वह तंदुरुस्ती नहीं रही जो कभी हुआ करती थी, लेकिन मैं खुश हूँ कि मैं अब भी लोगों को इस बारे में गवाही दे पाता हूँ कि परमेश्‍वर ने भविष्य के लिए क्या ही शानदार वादे किए हैं।

मैं उन पाँच देशों के 12 अलग-अलग शासकों को गिन सकता हूँ जिन्होंने मेरे शहर पर शासन किया। उनमें तानाशाह, राष्ट्रपति और राजा शामिल थे। इन शासको में से कोई भी अपनी प्रजा की तकलीफों को हमेशा के लिए दूर नहीं कर पाया। (भजन 146:3, 4) मैं यहोवा का एहसानमंद हूँ कि उसने मुझे बचपन में ही अपने बारे में जानने का मौका दिया। इसलिए मैं समझ गया था कि सब दुःखों का अंत सिर्फ मसीहाई राज्य ही कर सकता है, और मेरी ज़िंदगी बेमकसद नहीं कटी जैसे कितनों की ज़िंदगी परमेश्‍वर के ज्ञान के बिना कट जाती है। मैंने 75 से भी ज़्यादा सालों तक सबसे बढ़िया संदेश लगातार प्रचार किया है। इससे मेरी ज़िंदगी को एक मकसद और संतुष्टि मिली है, साथ ही इस धरती पर हमेशा की ज़िंदगी की एक उज्ज्वल आशा भी। मुझे भला इससे ज़्यादा और क्या चाहिए? *

[फुटनोट]

^ इसे यहोवा के साक्षियों ने प्रकाशित किया है, लेकिन अब इसकी छपाई बंद हो चुकी है।

^ दुःख की बात है कि भाई मीकेल ज़ौब्राक की सेहत ने आखिरकार उनका साथ छोड़ दिया। जब यह लेख प्रकाशित होने के लिए तैयार किया जा रहा था, तब उनकी मौत हो गयी। उन्होंने पुनरुत्थान की आशा पर पूरा भरोसा रखते हुए आखिरी साँस तक अपनी वफादारी बनाए रखी।

[पेज 26 पर तसवीर]

हमारी शादी के कुछ ही समय बाद

[पेज 26 पर तसवीर]

सन्‌ 1940 के दशक की शुरूआत में एडुअर्ट के साथ

[पेज 27 पर तसवीर]

सन्‌ 1947 में, बर्नो के अधिवेशन का ऐलान करते हुए