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एक ऐसी खासियत जो सिर्फ इंसान में है

एक ऐसी खासियत जो सिर्फ इंसान में है

एक ऐसी खासियत जो सिर्फ इंसान में है

जोडी का अपना जायदाद बिक्री का कारोबार है। वह एक स्त्री को उसकी मरहूम बहन के घर का सामान छाँटकर बेचने में मदद दे रहा है। अँगीठी जलाने की एक पुरानी जगह को कुरेदते वक्‍त उसे औज़ार रखनेवाले दो बक्से मिलते हैं। जैसे ही वह एक बक्स को खोलकर उसके अंदर देखता है तो उसकी आँखें फटी-की-फटी रह जाती हैं! उसमें 100 डॉलर के नोटों की कई गड्डियाँ यानी करीब 41,00,000 रुपए अलुमीनियम फॉइल में लपेटी हुई रखी हैं। जोडी कमरे में अकेला है। अब उसे क्या करना चाहिए? चुपचाप बक्स को रख लेना चाहिए या अपनी ग्राहक को बता देना चाहिए कि उसे पैसे मिले हैं?

जोडी की इस कशमकश से हम इंसानों की एक ऐसी खासियत का पता लगता है जिसकी वजह से हम नासमझ जानवरों से अलग हैं। द वर्ल्ड बुक इनसाइक्लोपीडिया कहती है: “इंसान की एक खासियत यह है कि उसे क्या करना चाहिए और क्या नहीं, इस पर वह काफी सोच-विचार करता है।” लेकिन जानवरों में यह खासियत नहीं होती। मसलन, अगर एक भूखा कुत्ता मेज़ पर माँस का टुकड़ा देखे, तो वह रुककर नहीं सोचेगा कि उसे खाना चाहिए या नहीं। पर जोडी में यह परखने की काबिलीयत है कि उसका फैसला सही है या गलत। अगर वह पैसे रख लेता है तो यह चोरी होगी। और रही बात पकड़े जाने की, इसका सवाल ही नहीं उठता क्योंकि किसी को कानों-कान खबर तक नहीं होगी। देखा जाए तो इन पैसों पर उसका कोई हक नहीं बनता। पर फर्क क्या पड़ता है, उसकी ग्राहक को तो इसकी खबर ही नहीं है। और-तो-और, अगर वह ये पैसे अपने ग्राहक को दे दे, तो दुनिया उसे बेवकूफ कहेगी।

अगर आप जोडी की जगह होते तो क्या करते? आपका जवाब इस बात पर निर्भर करेगा कि आपने किस तरह के उसूलों पर चलने का फैसला किया है।

उसूल का मतलब क्या है?

“उसूल” का मतलब है, “सही बर्ताव क्या है और गलत बर्ताव क्या, इस बारे में नियम।” ये ऐसे उसूल हैं जिन्हें सदियों से लोग मानते चले आए हैं।

लंबे अरसे तक, धर्म ही लोगों के लिए सही और गलत के उसूल तय करता रहा। बहुत-से समाजों में तो परमेश्‍वर का वचन, बाइबल एक कसौटी रही थी। लेकिन आज, दुनिया-भर में बढ़ती तादाद में लोग धर्म के बनाए सही-गलत के स्तरों को बेकार मानकर उन्हें ठुकरा रहे हैं और बाइबल के उसूलों को दकियानूसी कह रहे हैं। तो फिर इनकी जगह आज किसने ली है? किताब व्यापारिक जीवन में आदर्श (अँग्रेज़ी) कहती है कि “दुनियावी तालीम ने धर्म से उसका अधिकार छीन लिया है।” आजकल लोग अपने फैसले, धर्म के ठहराए स्तरों के मुताबिक करने के बजाय नैतिक उसूलों का अध्ययन करनेवाले विशेषज्ञों की राय के मुताबिक कर रहे हैं। उसूल और कानून के प्रोफेसर पॉल मेक्‌नील कहते हैं: “मुझे लगता है कि सही-गलत के उसूल तय करने का जो काम पहले पादरी-पुजारी करते थे, वही काम आज नैतिक उसूलों के सिखानेवाले, दुनियावी राय के आधार पर कर रहे हैं। . . . एक ज़माना था जब लोग धर्म का कहा मानते थे, मगर अब वे सांसारिक उसूलों पर चल रहे हैं।”

जब आपके सामने कोई मुश्‍किल फैसला आता है, तो आप कैसे तय करते हैं कि सही क्या है और गलत क्या? आप परमेश्‍वर के उसूलों पर चलते हैं या खुद के उसूलों पर?