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यहोवा की प्यार भरी परवाह पर भरोसा रखना

यहोवा की प्यार भरी परवाह पर भरोसा रखना

जीवन कहानी

यहोवा की प्यार भरी परवाह पर भरोसा रखना

आना डेन्ट्‌स टरपन की ज़ुबानी

“तुम तो सवालों की पिटारी हो!” मेरी मम्मी ने मुस्कराते हुए कहा। जब मैं छोटी थी, तब मम्मी-डैडी के सामने सवालों की झड़ी लगा देती थी। लेकिन उन्होंने मेरी इस बचकानी आदत के लिए मुझे कभी नहीं डाँटा, बल्कि मुझे सिखाया कि मैं बाइबल से तालीम पाए विवेक के मुताबिक तर्क करके अपने फैसले खुद करूँ। यह ट्रेनिंग मेरे लिए वाकई फायदेमंद निकली! जब मैं 14 साल की थी, तब एक दिन नात्ज़ियों ने आकर मेरे प्यारे मम्मी-डैडी को मुझसे छीन लिया और मैं उनसे कभी दोबारा न मिल सकी।

मेरे डैडी ऑसकार डेन्ट्‌स और मम्मी आना मारीया, जर्मनी के लोराक शहर में रहते थे जो स्विट्‌ज़रलैंड की सरहद के पास है। वे जवानी में राजनीति में काफी ज़ोर-शोर से हिस्सा लेते थे और उनके इलाके के लोग उन्हें अच्छी तरह जानते और उनकी इज़्ज़त करते थे। लेकिन शादी के थोड़े ही समय बाद, सन्‌ 1922 में राजनीति के बारे में उन्होंने अपना नज़रिया बदला और जीवन के लक्ष्यों में भी बदलाव किए। मम्मी ने बाइबल विद्यार्थियों से बाइबल के बारे में सीखना शुरू किया। उन दिनों यहोवा के साक्षियों को बाइबल विद्यार्थी कहा जाता था। जब मम्मी ने सीखा कि परमेश्‍वर का राज्य इस पृथ्वी पर शांति लाएगा, तो उसका दिल खुशी के मारे गद-गद हो उठा। जल्द ही डैडी भी मम्मी के साथ-साथ सीखने लगे, और फिर दोनों ने बाइबल विद्यार्थियों की सभाओं में जाना शुरू किया। यहाँ तक कि डैडी ने उस साल क्रिसमस के मौके पर मम्मी को बाइबल अध्ययन की एक किताब तोहफे में दी, जिसका नाम था, द हार्प ऑफ गॉड। मेरा जन्म 25 मार्च, 1923 को हुआ, मैं अपने मम्मी-डैडी की एकलौती बेटी थी।

अपने परिवार के साथ बिताए वो सुनहरे पल आज भी मेरी यादों में ताज़ा हैं। गर्मियों के दिनों में ब्लैक फॉरेस्ट नाम के शांत जंगलों में सैर पर जाना, और मम्मी का मुझे घर के ज़रूरी काम-काज सिखाना। आज भी मैं उन लम्हों को याद कर सकती हूँ, जब मम्मी किचन में खड़ी अपनी नन्ही-सी बिटिया को बावरची का काम सिखाया करती थी। मगर इन सबसे बढ़कर, मम्मी-डैडी ने मुझे यहोवा परमेश्‍वर से प्यार करना और उस पर पूरा भरोसा रखना सिखाया।

हमारी कलीसिया करीब 40 मेहनती राज्य प्रचारकों से बनी थी। मम्मी-डैडी, मौका निकालकर दूसरों को राज्य संदेश सुनाने में काफी माहिर थे। वे पहले समाज-सेवा के कामों में हिस्सा लेते थे, इसलिए दूसरों के साथ आसानी से घुल-मिल जाते थे। और लोग भी उनकी बातें बड़ी दिलचस्पी के साथ सुनते थे। जब मैं सात साल की हुई, तब मैं भी घर-घर जाकर प्रचार करना चाहती थी। प्रचार के पहले ही दिन मेरी साथी ने मेरे हाथ में कुछ साहित्य देकर एक घर की तरफ इशारा किया और बोली: “ज़रा वहाँ जाकर पूछो कि कोई इस साहित्य को पढ़ना चाहता है।” सन्‌ 1931 में हम बाज़ल, स्विट्‌ज़रलैंड में बाइबल विद्यार्थियों के अधिवेशन में हाज़िर हुए। उस अधिवेशन में मम्मी-डैडी ने बपतिस्मा लिया।

खलबली से लेकर तानाशाह हुकूमत तक

उन दिनों जर्मनी में हर कहीं खलबली मची हुई थी। बहुत-से राजनीतिक दल सरेआम सड़कों पर आपस में मार-पीट करते थे। एक रात पड़ोस के घर से इतनी ज़ोर की चीख सुनायी पड़ी कि मैं हड़बड़ाकर उठ बैठी। बाद में मुझे पता चला कि दो किशोर भाइयों ने मिलकर अपने ही बड़े भाई को पाँचे से मार डाला, क्योंकि उन्हें उसके राजनीतिक विचार रास नहीं आए। इसके अलावा, यहूदियों के खिलाफ बढ़ती हुई नफरत साफ नज़र आ रही थी। हमारे स्कूल में एक यहूदी लड़की से कोई बात तक नहीं करता था। मुझे उसे देखकर बड़ा तरस आता था। लेकिन मैं नहीं जानती थी कि थोड़े समय बाद लोग मेरे साथ भी इसी तरह बेरुखी से पेश आएँगे।

जनवरी 30, 1933 को एडॉल्फ हिटलर जर्मनी का चांसलर बना। दो ब्लॉक की दूरी से हमने मुख्य सरकारी दफ्तर पर नात्ज़ियों को फतह की खुशी में स्वस्तिक झंडा फहराते हुए देखा। स्कूल में हमारे टीचर ने पूरे जोश के साथ हमें “हेल हिटलर!” कहकर सलामी देना सिखाया। उसी दिन दोपहर को मैंने घर आकर डैडी को इस बारे में बताया। मेरी बात सुनते ही वे परेशान हो गए और बोले: “यह बिलकुल गलत है। ‘हेल’ का मतलब है, उद्धार। अगर हम ‘हेल हिटलर’ कहने लगें तो यहोवा के बदले हिटलर को उद्धार का श्रेय दे रहे होंगे। मेरे ख्याल से यह ठीक नहीं है। फिर भी, फैसला तुम्हारा है कि तुम क्या करना चाहोगी।”

मैंने हिटलर को सलाम न करने का फैसला किया। इस वजह से स्कूल के साथी मेरे साथ ऐसा सलूक करने लगे जैसे मुझे कोई छूत की बीमारी लग गयी हो। कुछ लड़के तो टीचर से नज़र बचाकर मुझे मारते भी थे। हालाँकि बाद में उन्होंने मुझे सताना छोड़ दिया, मगर स्कूल में कोई मेरे साथ नहीं खेलता था, मेरे दोस्त भी नहीं। उन्होंने मुझे बताया कि उनके पिताओं ने उन्हें मेरे साथ खेलने से मना किया है क्योंकि मैं बहुत खतरनाक हूँ।

जर्मनी में नात्ज़ियों के सत्ता में आने के दो महीने बाद, यहोवा के साक्षियों को सरकार के लिए खतरा बताकर उन पर पाबंदी लगा दी गयी। नात्ज़ियों की खुफिया सेना ने मागडबर्ग में शाखा दफ्तर को ताला लगा दिया और हमारी सभाओं पर भी पाबंदी लगा दी। हमारा घर सरहद के पास था, इसलिए डैडी ने हमारे लिए परमिट हासिल किए, ताकि हम सरहद पार करके बाज़ल, स्विट्‌ज़रलैंड जा सकें और वहाँ रविवार की सभाओं में हाज़िर हो सकें। डैडी अकसर कहा करते थे कि काश, मेरे जर्मन भाइयों को भी ऐसा ही आध्यात्मिक भोजन मिलता जिससे वे भविष्य में आनेवाली मुसीबतों का डटकर सामना कर सकें।

खतरों से भरी सैर

जब मागडबर्ग का शाखा दफ्तर बंद कर दिया गया, तो वहाँ काम करनेवाला एक भाई यूलीउस रिफल अपने शहर लोराक लौट आया, ताकि लुक-छिपकर प्रचार करने का इंतज़ाम कर सके। डैडी ने फौरन इस काम में हाथ बँटाने की इच्छा ज़ाहिर की। फिर उन्होंने मम्मी और मुझे बिठाकर बताया कि वे स्विट्‌ज़रलैंड से बाइबल साहित्य चोरी-छिपे जर्मनी लाने में मदद देने के लिए राज़ी हुए हैं। उन्होंने समझाया कि यह बहुत ही जोखिम-भरा काम है और उन्हें कभी-भी गिरफ्तार किया जा सकता है। वे नहीं चाहते थे कि मैं और मम्मी किसी दबाव में आकर उनका साथ दें, क्योंकि इससे हमारी जान को भी खतरा हो सकता था। डैडी की बात सुनते ही मम्मी ने कहा: “मैं आपके साथ हूँ।” फिर दोनों ने मेरी तरफ देखा, तो मेरा जवाब भी हाज़िर था, “मैं भी आप दोनों के साथ हूँ।”

मम्मी ने क्रोशिए का एक पर्स बनाया जो प्रहरीदुर्ग पत्रिका के नाप का था। इस पर्स की एक तरफ, अस्तर में साहित्य डालने के बाद वह इसे क्रोशिए से बुनकर बंद कर देती थी। मम्मी ने डैडी के कपड़ों में भी ऐसी जेबें बनायीं जिनमें साहित्य छिपाया जा सकता था। उसने अपने और मेरे लिए भी कमर कसने के लिए पहने जानेवाले ऐसे जाँघिए बनाए जिनमें छोटे-छोटे साहित्य छिपाए जा सकते थे। हर बार जब हम चोरी-छिपे साहित्य घर लाने में कामयाब होते, तो राहत की साँस लेते और यहोवा का धन्यवाद करते। हम इन्हें घर की अटारी में छिपाकर रखते थे।

शुरू-शुरू में नात्ज़ियों को हम पर ज़रा भी शक नहीं हुआ। उन्होंने ना तो हमसे कुछ पूछताछ की और ना ही हमारे घर की तलाशी ली। फिर भी, हमने एहतियात के तौर पर तय किया कि मुसीबत के वक्‍त अगर हमें किसी भी भाई को होशियार करना पड़े, तो हम 4711 नंबर का इस्तेमाल करेंगे, जो कि एक मशहूर इत्र का नाम था। अगर भाइयों का हमारे घर आना जोखिम-भरा होता, तो किसी-न-किसी तरह इस नंबर का इस्तेमाल करके हम उनको खबरदार कर देते कि वे हमारे घर न आएँ। डैडी ने उनको यह भी बता रखा था कि वे हमारे घर में घुसने से पहले बैठक के कमरे की खिड़की पर एक नज़र डाल लिया करें। अगर उन्हें बाँयी खिड़की खुली दिखे तो समझ जाएँ कि कुछ खतरा है और उन्हें हमारे घर नहीं आना चाहिए।

सन्‌ 1936 और 1937 के दौरान, गेस्टापो (खुफिया पुलिस) ने बड़ी तादाद में लोगों को गिरफ्तार किया और हज़ारों साक्षियों को जेलों और यातना शिविरों में डाल दिया। वहाँ उन्हें बड़ी बेरहमी से और वहशियाना तरीकों से सताया गया। स्विट्‌ज़रलैंड के बर्न शहर के शाखा दफ्तर ने इस बारे में ब्यौरेदार जानकारी इकट्ठी करनी शुरू की। इसमें से कुछ जानकारी को कैंप से चोरी-छिपे लाया गया था। बाद में, इस तमाम जानकारी को मिलाकर एक किताब प्रकाशित की गयी जिसका नाम है, क्रोइट्‌सट्‌सूग गेगन दास क्रिसटेनटूम (मसीहियत के खिलाफ जंग)। इस किताब में नात्ज़ियों की काली करतूतों का भाँडा फोड़ा गया था। इन रिपोर्टों को सरहद के पार, बाज़ल ले जाने का खतरा हमने मोल लिया था। अगर नात्ज़ी इन गैर-कानूनी रिपोर्टों के साथ हमें रंगे हाथ पकड़ लेते तो उसी वक्‍त हमें जेल हो जाती। भाइयों पर जो-जो ज़ुल्म ढाए जा रहे थे, उस बारे में पढ़कर मेरे आँसू नहीं रुक पाए। फिर भी, मैं डरी नहीं। मुझे यहोवा परमेश्‍वर और मम्मी-डैडी पर पूरा भरोसा था कि वे मेरी देखभाल करेंगे, क्योंकि वे मेरे सबसे करीबी दोस्त थे।

मैंने 14 साल की उम्र में स्कूल की पढ़ाई खत्म करके, हार्डवेयर की एक दुकान में क्लर्क की नौकरी शुरू की। आम तौर पर, शनिवार की दोपहर या रविवार को जब डैडी की छुट्टी होती थी, तब हम खुफिया तरीके से साहित्य लाने के लिए सैर पर निकल पड़ते थे। हर दो हफ्ते में कम-से-कम एक बार तो सैर हो ही जाती थी। दूसरे परिवारों की तरह हम भी ऐसे ही नज़र आते थे मानो टहलने के लिए निकले हों। करीब चार साल तक हमें सरहद पर तैनात सिपाहियों ने कभी रोका नहीं, ना ही हमारी तलाशी ली। लेकिन सन्‌ 1938 की फरवरी में एक दिन ऐसा आया जब हमारी तलाशी ली गयी।

पकड़े गए!

उस दिन जब हम बाज़ल के पास उस जगह पहुँचे जहाँ से हम साहित्य लाया करते थे, तो वहाँ किताबों-पत्रिकाओं का ढेर लगा हुआ था। उसे देखकर डैडी के चेहरे पर जो भाव उभरा, वह मैं कभी नहीं भूल सकती। दरअसल हुआ यह कि एक और परिवार, जो हमारी ही तरह खुफिया तरीके से साहित्य लाया करता था, उसे गिरफ्तार कर लिया गया था। इसलिए हमें उनके हिस्सा का साहित्य भी अपने साथ ले जाना था। सरहद पर एक कस्टम अफसर को हम पर शक हो गया और उसने हमारी तलाशी लेने का हुक्म दिया। जब उसे साहित्य मिला, तो वह बंदूक की नोक पर हमें थोड़ी दूर खड़ी पुलिस की गाड़ियों की तरफ ले गया। जब अफसर हमें कार में बिठाकर ले जा रहे थे तो उस वक्‍त डैडी ने मेरा हाथ दबाते हुए धीमी आवाज़ में कहा: “कभी गद्दारी न करना। न ही किसी का नाम बताना!” मैंने उनको विश्‍वास दिलाते हुए कहा: “मैं ऐसा कभी नहीं करूँगी।” जब हम वापस लोराक पहुँचे, तो उन्होंने मेरे प्यारे डैडी को मुझसे छीन लिया। मैंने डैडी को उस वक्‍त आखरी बार देखा जब उन्हें जेल के अंदर ले जाया गया और फिर दरवाज़ा बंद हो गया।

चार घंटों तक, चार गेस्टापो ने मुझसे पूछताछ की और मुझ पर दबाव डाला कि मैं दूसरे साक्षियों के नाम और पते बता दूँ। मेरे इनकार करने पर एक अफसर आग-बबूला हो उठा और मुझे धमकाते हुए बोला: “हमारे पास बुलवाने के और भी तरीके हैं!” मगर मैंने अपना मुँह नहीं खोला। फिर वे मुझे और मम्मी को हमारे घर ले आए और पहली बार हमारे घर की तलाशी ली। इसके बाद, उन्होंने मम्मी को हिरासत में ले लिया और मुझे मेरी मौसी के हवाले कर दिया, ताकि वह मुझ पर निगरानी रख सके। लेकिन उन्हें मालूम नहीं था कि मौसी भी एक साक्षी है। हालाँकि मुझे नौकरी पर जाने की इजाज़त थी, पर घर के सामने एक गाड़ी से चार गेस्टापो मेरे हर काम पर नज़र रखते थे। इसके अलावा, एक पुलिसवाला हमेशा फुटपाथ पर गश्‍त लगाता रहता था।

कुछ दिन बाद, एक दोपहर को खाने के वक्‍त, जब मैं घर से बाहर आयी तो देखा कि एक जवान बहन साइकिल पर मेरी तरफ आ रही है। थोड़ा नज़दीक आने पर मैंने देखा कि वह मेरी ओर एक कागज़ का टुकड़ा फेंकनेवाली है। मैंने झट-से वह कागज़ पकड़ा और फौरन पलटकर देखा कि कहीं गेस्टापो ने मुझे देख तो नहीं लिया। लेकिन हैरत की बात तो यह थी कि ठीक उसी वक्‍त वे किसी बात पर ठहाका मार रहे थे!

बहन ने जो कागज़ दिया उसमें लिखा था कि मुझे उसी दोपहर को उसके मम्मी-डैडी के घर पहुँचना है। लेकिन गेस्टापो से नज़र बचाकर निकलना नामुमकिन था। ऐसे में, मैं उस बहन के मम्मी-डैडी की जान को खतरे में कैसे डाल सकती थी? एक तरफ गेस्टापो और दूसरी तरफ गश्‍त लगा रहा पुलिसवाला। मुझे कुछ सूझ नहीं रहा था कि मैं क्या करूँ। तभी मैंने यहोवा परमेश्‍वर से गिड़गिड़ाकर प्रार्थना की। इसके बाद मैंने देखा कि अचानक पुलिसवाले ने गेस्टापो के पास जाकर कुछ कहा और फिर वह गाड़ी में बैठकर उनके साथ कहीं रवाना हो गया।

ठीक तभी मेरी मौसी सड़क के कोने से चलकर आ रही थी। दोपहर काफी बीत चुकी थी। मौसी ने नोट पढ़ा और समझ गयी कि भाइयों ने मुझे स्विट्‌ज़रलैंड ले जाने का बंदोबस्त किया होगा। इसलिए उसने कहा कि हमें उनके घर जाना चाहिए। जब हम उस बहन के मम्मी-डैडी के घर पहुँचे तो उन्होंने एक अजनबी से मेरा परिचय कराया जिसका नाम हाइनरिक राइफ था। इस भाई ने मुझसे कहा कि वह यह देखकर खुश है कि मैं सही-सलामत वहाँ पहुँच गयी। उसने यह भी बताया कि वह मुझे स्विट्‌ज़रलैंड भागने में मदद करने के लिए आया है। फिर उस भाई ने मुझे आधे घंटे के अंदर एक जंगल में मिलने के लिए कहा।

पराए देश में जीवन

जब मैं भाई राइफ से मिली, तब मेरी आँखों से आँसू बह रहे थे। मम्मी-डैडी को छोड़कर जाने की बात सोच-सोचकर मेरा दिल डूबा जा रहा था। यह सब इतनी जल्दी हो गया कि कुछ पता ही नहीं चला। मैं थोड़ी डरी-सहमी सी थी, फिर कुछ ही समय बाद हम पर्यटकों की एक टोली में जा मिले और इस तरह सही-सलामत स्विट्‌ज़रलैंड की सरहद पार कर सके।

जब मैं बर्न के शाखा दफ्तर पहुँची, तो पता चला कि वहाँ के भाइयों ने ही मेरे भागने का बंदोबस्त किया था। उन्होंने मुझे रहने के लिए एक जगह दी। मुझे किचन में काम करने को कहा गया, जिसका मैंने बहुत आनंद लिया। लेकिन एक पराए देश में रहना मेरे लिए आसान नहीं था। मुझे यह चिंता खाए जा रही थी कि मम्मी-डैडी का क्या होगा, दोनों को दो साल के लिए कैद की सज़ा सुनायी गयी थी। कभी-कभी तो मेरा गम और मेरी चिंता इतनी बढ़ जाती थी कि मुझसे सहा नहीं जाता और मैं खुद को बाथरूम में बंद करके रो पड़ती थी। लेकिन एक दिलासे की बात थी कि हम हमेशा एक-दूसरे को चिट्ठियाँ लिख सकते थे। और मम्मी-डैडी मुझे हिम्मत दिलाते थे कि मैं यहोवा की वफादार बनी रहूँ।

मम्मी-डैडी के विश्‍वास ने मेरे दिल को छू लिया और उन्हीं की मिसाल पर चलते हुए मैंने अपना जीवन यहोवा को समर्पित करके 25 जुलाई, 1938 को बपतिस्मा ले लिया। एक साल बेथेल में सेवा करने के बाद, मुझे शॉनेला नाम के फार्म में भेजा गया, जिसे स्विट्‌ज़रलैंड के शाखा दफ्तर ने खरीदा था। वहाँ से बेथेल परिवार के लिए खाने-पीने की चीज़ें मुहैया करायी जाती थीं और वहीं पर उन भाइयों को भी पनाह दी गयी थी जो ऐसे इलाकों से भाग आए थे जहाँ साक्षियों पर ज़ुल्म ढाए जा रहे थे।

सन्‌ 1940 में जब मम्मी-डैडी की कैद की सज़ा खत्म हुई, तब नात्ज़ियों ने उनके सामने यह शर्त रखी कि अगर वे अपने विश्‍वास से मुकरने के लिए राज़ी हो जाएँ तो उन्हें छोड़ दिया जाएगा। लेकिन वे अटल बने रहे, इसलिए इस बार उन्हें यातना शिविरों में डाला गया। डैडी को डॉकाउ और मम्मी को रावन्सब्रूक यातना शिविर में भेजा गया। सन्‌ 1941 की सर्दियों में, मम्मी और कैंप की दूसरी साक्षी बहनों ने फौजियों के लिए काम करने से इनकार कर दिया। सज़ा के तौर पर उन्हें तीन दिन और तीन रात बाहर ठंड में खड़ा किया गया। इसके बाद उन्हें काल-कोठरियों में बंद कर दिया गया और 40 दिन तक बहुत ही कम खाना देकर उन्हें भूखा रखा गया। फिर उन्हें कोड़ों से बहुत मारा गया। इस वहशियाना तरीके से मारे जाने के तीन हफ्तों बाद, जनवरी 31, 1942 को मम्मी की मौत हो गयी।

डैडी को डॉकाउ से ऑस्ट्रिया के माउथाउसन शिविर में ले जाया गया। इस कैंप में नात्ज़ी लोग कैदियों को मार डालने के लिए उन्हें भूखा रखते और उनसे कोल्हू के बैल की तरह काम करवाकर उनका खून चूसते थे। लेकिन मम्मी की मौत के छः महीने बाद, डैडी को नात्ज़ियों ने एक अलग ही तरीके से मार डाला। उन्होंने डैडी पर तरह-तरह की दवाइयाँ आज़मायीं। कैंप में डॉक्टर कैदियों को जानबूझकर टी.बी. के बैक्टीरिया से भरे इंजेक्शन लगाते थे। इसके बाद, वे कैदियों को सीधे दिल में ज़हर का इंजेक्शन देते थे। सरकारी रिपोर्ट के मुताबिक डैडी की मौत “दिल के कमज़ोर” होने के कारण हुई थी। उनकी उम्र 43 थी। कई महीनों बाद जाकर मुझे बेरहमी से की गयीं इन हत्याओं के बारे में मालूम पड़ा। आज भी अपने प्यारे मम्मी-डैडी को याद करके मुझे रोना आता है। लेकिन उस समय और अब भी इस बात से मुझे बहुत तसल्ली मिलती है कि उन दोनों को स्वर्ग में जीने की आशा थी और वे यहोवा परमेश्‍वर के हाथों में महफूज़ हैं।

दूसरे विश्‍वयुद्ध के बाद, मुझे न्यू यॉर्क राज्य में वॉचटावर बाइबल स्कूल ऑफ गिलियड की 11वीं क्लास में हाज़िर होने का मौका मिला। पाँच महीने बाइबल का अध्ययन करने में डूबे रहना, वाकई यह कितनी खुशी की बात थी! सन्‌ 1948 में, ग्रैजुएशन के बाद मुझे मिशनरी के तौर पर स्विट्‌ज़रलैंड भेजा गया। कुछ समय बाद, जेम्स एल. टरपन नाम के एक वफादार भाई से मेरी मुलाकात हुई, जो गिलियड की पाँचवीं क्लास के ग्रैजुएट थे। जब तुर्की में पहली बार शाखा दफ्तर खोला गया तब जेम्स ने वहाँ पर ओवरसियर के नाते सेवा की। हमने मार्च 1951 में शादी की और कुछ ही समय बाद हमें पता चला कि हम मम्मी-डैडी बननेवाले हैं! वहाँ से हम अमरीका चले गए। उसी साल के दिसंबर में हमारी बेटी मार्लीन पैदा हुई।

बीते कई सालों के दौरान, जिम (जेम्स का दूसरा नाम) और मुझे राज्य सेवा में बड़ी खुशी मिली। मुझे खासकर अपनी एक बाइबल विद्यार्थी याद है, जो चीन से थी। उस लड़की का नाम पैनी था और उसे बाइबल अध्ययन करना बेहद पसंद था। उसने बपतिस्मा लिया और बाद में उसकी शादी भाई गाय पीयर्स से हुई, जो आज यहोवा के साक्षियों के शासी निकाय के सदस्य हैं। ऐसे अज़ीज़ भाई-बहनों ने मुझे कभी अपने मम्मी-डैडी की कमी महसूस नहीं होने दी।

सन्‌ 2004 की शुरूआत में, मम्मी-डैडी के शहर लोराक में भाइयों ने श्‍टिक स्ट्रीट पर एक नया किंगडम हॉल बनाया। यहोवा के साक्षियों ने जो किया उसके लिए कदरदानी दिखाते हुए, सिटी काउंसिल ने मम्मी-डैडी के सम्मान में उस स्ट्रीट का नाम बदलकर डेन्ट्‌सश्‍ट्रासा (डेन्ट्‌स स्ट्रीट) रखा। वहाँ के अखबार बादिशॆ ट्‌साइटुंग में इस शीर्षक पर एक लेख छपा: “कत्ल किए गए डेन्ट्‌स दंपत्ति की याद में: सड़क का नया नाम।” इस लेख में बताया गया कि मेरे मम्मी-डैडी को “उनके विश्‍वास के कारण हिटलर की हुकूमत (थर्ड राइख) के दौरान यातना शिविर में मार डाला गया।” मुझे सिटी काउंसिल से इसकी ज़रा भी उम्मीद नहीं थी, और हालात में आए इस बदलाव ने मुझे अंदर तक छू लिया।

डैडी हमेशा कहा करते थे कि हमें हरमगिदोन के डर से भविष्य के लिए योजनाएँ बनाना छोड़ नहीं देना चाहिए, मगर ज़िंदगी इस तरह जीनी चाहिए जैसे हरमगिदोन कल ही आनेवाला हो। यह क्या ही अनमोल सलाह है! मैंने हमेशा इस पर चलने की कोशिश की है। लेकिन बेसब्री से इंतज़ार करने के साथ-साथ धीरज धरना हमेशा इतना आसान नहीं होता, खासकर इस ढलती उम्र में जब तकलीफों की वजह से मैं घर की चारदीवारी में कैद हूँ। फिर भी, मैंने यहोवा के इस वादे पर कभी शक नहीं किया जो उसने अपने सभी वफादार लोगों से किया है: “सम्पूर्ण मन से यहोवा पर भरोसा रखना। उसी को स्मरण करके सब काम करना, तब वह तेरे लिये सीधा मार्ग निकालेगा।”—नीतिवचन 3:5, 6.

गुज़रे वक्‍त के बेशकीमती लफ्ज़

सन्‌ 1980 के दशक में, पास के एक कसबे से एक महिला लोराक शहर आयी। उस वक्‍त शहर के लोग अपना गैर-ज़रूरी सामान लाकर एक आम जगह पर रख रहे थे, जहाँ से दूसरे लोग मनचाही चीज़ें ले सकते थे। इस महिला को एक सिलाई का बक्सा मिला और वह उसे अपने घर ले गयी। बाद में, उस बक्स के निचले हिस्से से उसे एक लड़की के कुछ फोटो और चिट्ठियाँ मिलीं, जो यातना शिविर में मिलनेवाले कागज़ों पर लिखी गयी थीं। उस महिला को ये चिट्ठियाँ बहुत दिलचस्प लगीं, और वह सोच में पड़ गयी कि फोटो में जो दो चोटियोंवाली लड़की है, वह कौन हो सकती है।

एक दिन सन्‌ 2000 में इस महिला ने अखबार के एक लेख में लोराक में हुई ऐतिहासिक प्रदर्शनी के बारे में पढ़ा। उस लेख में नात्ज़ियों की हुकूमत के दौरान यहोवा के साक्षियों के साथ जो हुआ, उस पर रिपोर्ट दी गयी थी। उसी लेख में हमारे परिवार के बारे में भी कुछ जानकारी दी गयी थी। और मेरा उस वक्‍त का एक फोटो भी छापा गया जब मैं किशोर थी। इस महिला ने देखा कि अखबार में छपे फोटो और उसके पास जो फोटो है, वे दोनों मिलते-जुलते हैं और अखबार में छपी जानकारी भी उसे मिली चिट्ठियों से मेल खाती है। फिर उसने पत्रकार से संपर्क किया और उन चिट्ठियों के बारे में बताया, जो कुल मिलाकर 42 थीं! कुछ हफ्तों बाद वे सारी चिट्ठियाँ मेरे हाथ में आ गयीं। ये वो चिट्ठियाँ थीं जिन्हें मम्मी-डैडी ने खुद अपने हाथों से लिखा था। उन्हें पढ़कर मुझे पता चला कि वे हमेशा मेरी मौसी से मेरे बारे में खबर लेते रहे। उनके दिल में मेरे लिए प्यार और परवाह कभी कम नहीं हुई। यह वाकई ताज्जुब की बात है कि ये चिट्ठियाँ अभी तक सही-सलामत रहीं और 60 से भी ज़्यादा साल बाद जाकर मुझे मिलीं।

[पेज 25 पर तसवीर]

हिटलर के सत्ता में आने से हमारा खुशहाल परिवार बिखर गया

[चित्र का श्रेय]

हिटलर: U.S. Army photo

[पेज 26 पर तसवीरें]

1. मागडबर्ग का दफ्तर

2. गेस्टापो ने हज़ारों साक्षियों को गिरफ्तार किया

[पेज 28 पर तसवीर]

जिम और मुझे राज्य सेवा में बड़ी खुशी मिली