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ऐसे रिवाज़ों से सावधान रहिए जो परमेश्‍वर को नाराज़ करते हैं

ऐसे रिवाज़ों से सावधान रहिए जो परमेश्‍वर को नाराज़ करते हैं

ऐसे रिवाज़ों से सावधान रहिए जो परमेश्‍वर को नाराज़ करते हैं

अफ्रीका में एक घर के छोटे-से आँगन में, एक ताबूत धूप में खुला पड़ा है। कतार में खड़े लोग अपना मातम ज़ाहिर करने के लिए एक-एक करके ताबूत के पास से गुज़रते हैं। उनमें एक बूढ़ा आदमी भी है, जो लाश के आगे ठिठक जाता है। उसकी आँखें दुःख से भरी हैं, और वह मुरदा आदमी के चेहरे के पास झुककर उससे कहता है: “तुमने मुझे बताया क्यों नहीं कि मुझे छोड़कर जा रहे हो? मुझे इस तरह अकेला क्यों छोड़ गए? अब क्योंकि तुम आत्मिक लोक में लौट गए हो, तो क्या पहले की तरह मेरी मदद करते रहोगे?”

अफ्रीका में ही एक और जगह, एक बच्चा पैदा हुआ है। घरवालों को छोड़ किसी को भी उसे देखने की इजाज़त नहीं है। कुछ वक्‍त के बाद ही बच्चे को सबके सामने लाया जाता है, और रस्म के मुताबिक उसका नाम रखा जाता है।

किसी मरे हुए इंसान से बात करना या बच्चे के पैदा होने पर उसे कुछ समय तक दूसरों की नज़रों से छिपाए रखना, शायद कुछ लोगों को बिलकुल अजीबो-गरीब लगे। लेकिन कुछ संस्कृतियों और समाजों में ये बातें बहुत आम हैं। वहाँ जन्म और मृत्यु से जुड़े लोगों के विचार और रीति-रिवाज़ दिखाते हैं कि उन्हें यह पक्का विश्‍वास है कि मरे हुए दरअसल मरे नहीं, बल्कि ज़िंदा और सचेत हैं।

लोगों में यह धारणा इस कदर समा चुकी है कि ज़िंदगी के तकरीबन हर पहलू से जुड़े रीति-रिवाज़ इसी पर आधारित हैं। मसलन, लाखों लोगों का मानना है कि ज़िंदगी के सफर की मंज़िल पूर्वजों का आत्मिक लोक है। और जन्म लेना, जवानी, शादी, बच्चे पैदा करना और मौत, ये सभी इस सफर के अलग-अलग पड़ाव हैं। माना जाता है कि आत्मिक लोक में पहुँचने के बाद भी एक मरहूम व्यक्‍ति, दुनिया में जी रहे अपने नाते-रिश्‍तेदारों की कई तरीकों से मदद करता रहता है। और दोबारा जन्म लेकर वह अपना जीवन-चक्र कायम रख सकता है।

मरहूम व्यक्‍ति को इस जीवन-चक्र के हर पड़ाव से बिना किसी तकलीफ के गुज़रने में मदद देने के लिए ढेरों रस्में निभायी जाती हैं। ये सारे रिवाज़, इस विश्‍वास को लेकर मनाए जाते हैं कि हमारे अंदर एक ऐसी चीज़ होती है जो हमारी मौत के बाद भी ज़िंदा रहती है। मगर सच्चे मसीही इस विश्‍वास से जुड़े किसी भी रिवाज़ को नहीं मानते। भला क्यों?

मरे हुए किस हालत में हैं?

बाइबल साफ समझाती है कि मरे हुए किस हालत में हैं। यह कहती है: “जीवते तो इतना जानते हैं कि वे मरेंगे, परन्तु मरे हुए कुछ भी नहीं जानते . . . उनका प्रेम और उनका बैर और उनकी डाह नाश हो चुकी . . . अधोलोक [सभी इंसानों की कब्र] में जहां तू जानेवाला है, न काम न युक्‍ति न ज्ञान और न बुद्धि है।” (सभोपदेशक 9:5, 6, 10) परमेश्‍वर के सच्चे उपासक, बाइबल की इस बुनियादी सच्चाई को एक लंबे अरसे से मानते आए हैं। उन्होंने इस बात को समझा है कि इंसान के अंदर साए जैसी कोई चीज़ नहीं होती जो उसके मरने के बाद भी ज़िंदा रहे। उन्होंने यह भी जाना है कि मरे हुओं की आत्माओं का कोई वजूद नहीं होता। (भजन 146:4) पुराने ज़माने में, यहोवा ने अपने लोगों को सख्त हिदायत दी थी कि वे ऐसे हर रिवाज़ या संस्कार से पूरी तरह दूर रहें, जो इस विश्‍वास पर आधारित है कि मरे हुए सचेत हैं और ज़िंदा लोगों की मदद कर सकते हैं या उनका नुकसान कर सकते हैं।—व्यवस्थाविवरण 14:1; 18:9-13; यशायाह 8:19, 20.

उसी तरह, पहली सदी के मसीही भी झूठे धर्म की शिक्षाओं से जुड़ी ऐसी हर रस्म से दूर रहे जिसे लोग बरसों से मानते चले आ रहे थे। (2 कुरिन्थियों 6:15-17) आज यहोवा के साक्षी, चाहे वे किसी भी जाति, कबीले या संस्कृति से आए हों, उन परंपराओं और रस्मों को ठुकराते हैं जो इस झूठी शिक्षा से जुड़ी हैं कि इंसान में ऐसी कोई चीज़ होती है जो उसके मरने के बाद भी ज़िंदा रहती है।

हम मसीहियों को क्या बात यह फैसला करने में मदद दे सकती है कि फलाँ रिवाज़ को मनाना सही होगा या नहीं? एक तो हमें बहुत ध्यान से सोचना होगा कि क्या उस रिवाज़ का किसी ऐसी शिक्षा से नाता है जो बाइबल के खिलाफ है। मसलन, यह शिक्षा कि मरे हुओं की आत्माएँ ज़िंदा लोगों को मदद या तकलीफ दे सकती हैं। इसके अलावा, हमें देखना होगा कि क्या हमारे उस रिवाज़ या संस्कार में हिस्सा लेने से ऐसे लोगों को ठोकर लग सकती है जो यहोवा के साक्षियों की शिक्षाओं और विश्‍वास से वाकिफ हैं। इन्हीं मुद्दों को ध्यान में रखते हुए, आइए हम दो ज़रूरी मामलों की जाँच करें—जन्म और मौत।

जन्म और नामकरण से जुड़े रिवाज़

बच्चे के जन्म से जुड़े कई दस्तूर ऐसे हैं जो मसीहियों के लिए गलत नहीं हैं। लेकिन जिन जगहों में माना जाता है कि जब एक बच्चा पैदा होता है तो वह पूर्वजों के आत्मिक लोक से इंसानों की दुनिया में कदम रखता है, वहाँ सच्चे मसीहियों को सावधानी बरतने की ज़रूरत है। मसलन, अफ्रीका के कुछ हिस्सों में नवजात शिशु को कुछ वक्‍त के लिए घर के अंदर ही रखा जाता है और उस वक्‍त के बीतने पर ही उसे नाम दिया जाता है। इंतज़ार की यह घड़ी हर इलाके के हिसाब से अलग हो सकती है, मगर जब यह घड़ी खत्म होती है तो नामकरण का रिवाज़ मनाया जाता है। उस वक्‍त बच्चे को घर के बाहर लाया जाता और रस्म के मुताबिक रिश्‍तेदारों और दोस्तों को दिखाया जाता है। तभी वहाँ मौजूद लोगों के सामने बच्चे का नाम ऐलान किया जाता है।

घाना—लोगों और उनकी संस्कृति को समझना (अँग्रेज़ी) किताब बताती है कि इस रिवाज़ को क्यों इतना ज़रूरी समझा जाता है: “माना जाता है कि पैदा होने के शुरूआती सात दिनों के दौरान, बच्चा एक ‘दौरे’ पर होता है। तब वह आत्माओं की दुनिया से इंसानों की दुनिया में कदम रखने के बदलाव से गुज़र रहा होता है। . . . बच्चे को आम तौर पर घर के अंदर ही रखा जाता है और घरवालों को छोड़ किसी को भी उसे देखने की इजाज़त नहीं दी जाती।”

नामकरण से पहले, इस तरह कुछ वक्‍त के लिए इंतज़ार क्यों किया जाता है? किताब, घाना पर दोबारा नज़र (अँग्रेज़ी) बताती है: “आठवें दिन तक बच्चे को इंसान नहीं समझा जाता। उसे कुछ हद तक आत्मिक लोक का ही हिस्सा माना जाता है जहाँ से वह आया है।” वही किताब आगे कहती है: “ऐसी धारणा है कि नाम मिलने के बाद ही बच्चा असल में एक इंसान बनता है। इसलिए अगर एक पति-पत्नी को डर हो कि उनका बच्चा मर सकता है, तो वे तब तक उसका नाम नहीं रखेंगे जब तक उन्हें पक्का यकीन न हो जाए कि वह ज़िंदा रहेगा। . . . इसलिए कहा जाता है कि लोगों को बच्चे का मुँह दिखाने की यह रस्म, बच्चे और उसके माता-पिता पर भारी असर कर सकती है, क्योंकि यही वह रस्म है जो बच्चे को इंसानों की दुनिया में ले आती है।”

नामकरण के वक्‍त आम तौर पर परिवार का कोई बुज़ुर्ग जन, रस्मों को निभाने में अगुवाई करता है। हर जगह नामकरण की रस्में अलग होती हैं। लेकिन ऐसी कुछ रस्में आम हैं, जैसे अर्घ चढ़ाना, पूर्वजों की आत्माओं से प्रार्थना करके उन्हें इस बात के लिए शुक्रिया कहना कि बच्चा दुनिया में सही-सलामत पहुँच गया है और दूसरी कुछ रस्में।

इस रिवाज़ की सबसे खास घड़ी वह होती है जब बच्चे का नाम ऐलान किया जाता है। हालाँकि बच्चे का नाम रखने की ज़िम्मेदारी माँ-बाप की होती है, लेकिन इस मामले में अकसर दूसरे रिश्‍तेदारों की बहुत चलती है। कुछ नाम ऐसे होते हैं जो एक इलाके की भाषा में खास मतलब रखते हैं, जैसे “गया और लौट आया” “माँ दूसरी बार आयी है” या “पिताजी लौट आए हैं।” कुछ ऐसे मतलबवाले नाम भी रखे जाते हैं जिनसे पूर्वज, नवजात शिशु को वापस अपने साथ मरे हुओं की दुनिया में न ले जाएँ।

बच्चे के जन्म पर खुशियाँ मनाने में कोई बुराई नहीं है। और ऐसे दस्तूर भी गलत नहीं हैं, जैसे बच्चे का नाम किसी और के नाम पर रखना और जिन हालात में वह पैदा हुआ, उसके मुताबिक नाम रखना। और बच्चे को कब नाम देना ठीक रहेगा, इसका फैसला करना एक निजी मामला है। लेकिन जो मसीही परमेश्‍वर को खुश करना चाहते हैं, वे ऐसी कोई भी रस्म नहीं मनाते, जिससे लग सकता है कि वे भी इस धारणा को मानते हैं कि नवजात शिशु, पूर्वजों के आत्मिक लोक से ज़िंदा लोगों की बिरादरी में आया “मेहमान” है।

इसके अलावा, अगर एक बिरादरी के ज़्यादातर लोग मानते हैं कि नामकरण, आत्मिक लोक से बच्चे के इस दुनिया में आने की खुशी में मनाया जानेवाला एक अहम रिवाज़ है, वहाँ मसीहियों को समझदारी से काम लेना होगा। उन्हें खयाल रखना होगा कि इस रिवाज़ को मनाने से क्या दूसरों के विवेक को चोट लग सकती है, साथ ही अविश्‍वासी हमारे बारे में क्या कहेंगे। मसलन, अगर एक मसीही परिवार, अपने बच्चे को नाम देने तक उसे दूसरों की नज़रों से छिपाए रखे, तो कुछ लोग उनके बारे में क्या सोचेंगे? अगर वे बच्चे को ऐसा नाम दें जो उनके इस दावे को झुठलाता है कि वे बाइबल की सच्चाई सिखानेवाले हैं, तो लोग उनके बारे में कैसी राय कायम करेंगे?

इसलिए जब मसीहियों को फैसला करना होता है कि उन्हें अपने बच्चों को कब और किस तरीके से नाम देने हैं, तो वे ‘सब कुछ परमेश्‍वर की महिमा के लिये करने’ की कोशिश करते हैं, ताकि वे किसी के लिए ठोकर के कारण न बनें। (1 कुरिन्थियों 10:31-33) वे ‘परमेश्‍वर की आज्ञा टालकर’ समाज की ऐसी ‘रीतियों को नहीं मानते’ जो मरे हुओं का सम्मान करने के लिए बनायी गयी हैं। इसके बजाय, वे अपने जीवित परमेश्‍वर, यहोवा को आदर और महिमा देते हैं।—मरकुस 7:9, 13.

मौत के बाद ज़िंदगी का नया सफर

बहुत-से लोग मानते हैं कि जन्म की तरह मौत भी, ज़िंदगी के एक नए सफर की शुरूआत है। यानी मरने के बाद इंसान इस दुनिया को छोड़कर मरे हुओं के अदृश्‍य लोक में चला जाता है। कइयों का मानना है कि एक इंसान की मौत पर अगर कुछ तरह की रस्में नहीं निभायी गयीं तो पूर्वजों की आत्माएँ भड़क सकती हैं। कहा जाता है कि पूर्वजों के पास ज़िंदा लोगों को सज़ा या इनाम देने की शक्‍ति होती है। अंत्येष्टि कार्यक्रम का जिस तरह से इंतज़ाम किया जाता और उसे चलाया जाता है, वह काफी हद तक इसी विश्‍वास को ज़ाहिर करता है।

मरे हुओं को खुश करने के इरादे से जो अंत्येष्टि कार्यक्रम रखे जाते हैं, उनमें तरह-तरह की भावनाएँ ज़ाहिर की जाती हैं। लाश के सामने बेकाबू होकर रोना-पीटना किया जाता है और उसे दफन करने के बाद जश्‍न मनाया जाता है। ऐसे जश्‍न में अकसर बेरोक-टोक खाना, शराब में धुत्त होना, ज़ोर-ज़ोर से संगीत बजाना और नाचना होता है। अंतिम संस्कार को इतना ज़रूरी समझा जाता है कि गरीब-से-गरीब परिवार भी अपने अज़ीज़ को “सही तरह से दफनाने” के लिए किसी-न-किसी तरह पैसे जुटाते हैं, फिर चाहे बाद में उन पर मुसीबत टूट पड़े और वे कर्ज़ में डूब जाएँ।

बरसों से यहोवा के साक्षियों ने अंत्येष्टि के ऐसे रिवाज़ों का पूरी तरह खंडन किया है, जो बाइबल के खिलाफ हैं। * इसकी कुछ मिसालें हैं, रात-भर जागकर लाश की रखवाली करना, अर्घ चढ़ाना, मरहूम व्यक्‍ति से बात करना और उससे गुज़ारिश करना, मौत की सालगिरह मनाना और दूसरे ऐसे रिवाज़ जो इस विश्‍वास पर आधारित हैं कि इंसान के मरने के बाद उसका कुछ हिस्सा ज़िंदा रहता है। परमेश्‍वर की निंदा करनेवाले ऐसे रिवाज़ “अशुद्ध” हैं। ये ‘व्यर्थ धोखा’ हैं जो “मनुष्यों के परम्पराई मत” पर आधारित हैं, न कि परमेश्‍वर के सत्य वचन पर।—यशायाह 52:11; कुलुस्सियों 2:8.

रिवाज़ मानने का दबाव

पीढ़ी-दर-पीढ़ी चले आ रहे रिवाज़ों में हिस्सा लेने से इनकार करना, कुछ साक्षियों के लिए बहुत मुश्‍किल रहा है, खासकर उन देशों में जहाँ माना जाता है कि मरे हुओं का आदर करना निहायत ज़रूरी है। ऐसे रिवाज़ों को ठुकराने की वजह से यहोवा के साक्षियों को शक की निगाह से देखा गया है। या उन पर समाज के दुश्‍मन होने और मरे हुओं का अपमान करने का इलज़ाम लगाया गया है। जब कुछ मसीहियों की इस तरह नुक्‍ताचीनी की गयी और उन पर रस्मों को मानने का ज़बरदस्त दबाव डाला गया, तो वे अपनी बिरादरी से अलग दिखने से डर गए, इसके बावजूद कि उन्हें बाइबल की सच्चाई की सही समझ थी। (1 पतरस 3:14) दूसरे मसीहियों को लगता है कि ऐसे रिवाज़ उनकी संस्कृति का ताना-बाना हैं और उनसे पूरी तरह नाता तोड़ना नामुमकिन है। कुछ और मसीहियों ने यह दलील दी है कि अगर वे रस्मों को मानने से इनकार कर देंगे, तो पूरा समाज परमेश्‍वर के लोगों के खिलाफ हो सकता है।

यह सच है कि हम बेवजह दूसरों को ठेस नहीं पहुँचाना चाहते। मगर बाइबल हमें चिताती है कि सच्चाई के पक्ष में अटल फैसला करने की वजह से, हमें इस दुनिया की नफरत का सामना करना पड़ेगा जो परमेश्‍वर से दूर है। (यूहन्‍ना 15:18,19; 2 तीमुथियुस 3:12; 1 यूहन्‍ना 5:19) हम यह फैसला खुशी-खुशी करते हैं क्योंकि हम जानते हैं कि हमें आध्यात्मिक अंधकार में पड़े लोगों से अलग रहना चाहिए। (मलाकी 3:18; गलतियों 6:12) जब शैतान ने यीशु को एक ऐसा काम करने के लिए लुभाया जो परमेश्‍वर को नाराज़ करता है, तो यीशु ने उसका विरोध किया। जब हम पर ऐसे दबाव आते हैं, तो हमें भी विरोध करना चाहिए। (मत्ती 4:3-7) सच्चे मसीही इंसान से खौफ खाने के बजाय, यहोवा को खुश करने और सच्चाई के परमेश्‍वर के नाते उसका आदर करने की खास कोशिश करते हैं। शुद्ध उपासना के बारे में बाइबल के स्तरों से मुकरने के लिए जब दूसरे उन पर दबाव डालते हैं, तो वे ऐसा करने से इनकार कर देते हैं और इस तरह यहोवा को खुश करते और उसका आदर करते हैं।—नीतिवचन 29:25; प्रेरितों 5:29.

मरे हुओं के बारे में सही नज़रिया रखते हुए यहोवा का सम्मान करना

जब हमारे किसी अज़ीज़ की मौत हो जाती है, तो यह स्वाभाविक है कि हमारे मन में गहरी वेदना होती है। (यूहन्‍ना 11:33, 35) अपने अज़ीज़ की यादों को संजोए रखना और उसे इज़्ज़त से दफनाना सही होगा और ऐसा करके हम सही तरह से उसके लिए अपना प्यार ज़ाहिर करते हैं। यहोवा के साक्षी, परमेश्‍वर का अनादर करनेवाले किसी भी रीति-रिवाज़ को माने बगैर, अपने अज़ीज़ की मौत का गम सहते हैं। यह उन लोगों के लिए आसान नहीं है जो ऐसी संस्कृतियों में पले-बढ़े हैं, जहाँ मरे हुओं से सभी बहुत डरते हैं। जब हमारा कोई अपना मर जाता है, तो ऐसे में दिल का दर्द सहना और अपना संतुलन बनाए रखना एक चुनौती हो सकती है। मगर ऐसे वक्‍त पर “हर प्रकार की सान्त्वना का ईश्‍वर” यहोवा, वफादार मसीहियों को मज़बूत करता है, और वे अपने मसीही भाई-बहनों की प्यार-भरी मदद से भी फायदा पाते हैं। (2 कुरिन्थियों 1:3, 4, बुल्के बाइबिल) उनका यह पक्का विश्‍वास है कि मरे हुए कुछ नहीं जानते और परमेश्‍वर की याद में बसे हैं और एक दिन दोबारा ज़िंदा होंगे। इसलिए वे अंत्येष्टि से जुड़े उन गैर-मसीही रिवाज़ों से पूरी तरह दूर रहते हैं जो पुनरुत्थान की पक्की आशा के खिलाफ हैं।

क्या हम इस बात से रोमांचित नहीं कि यहोवा ने हमें “अन्धकार में से अपनी अद्‌भुत ज्योति में बुलाया है”? (1 पतरस 2:9) जब हम किसी बच्चे के जन्म की खुशी मनाते हैं या किसी की मौत का दुःख सहते हैं, तो ऐसा हो कि सही काम करने का मज़बूत इरादा और यहोवा परमेश्‍वर के लिए गहरा प्यार हमें हर वक्‍त ‘ज्योति की सन्तान की नाईं चलने’ के लिए उकसाता रहे। आइए ठान लें कि जो गैर-मसीही रिवाज़, परमेश्‍वर को नाराज़ करते हैं, उनमें हिस्सा लेकर हम खुद को आध्यात्मिक रूप से कभी दूषित न करें।—इफिसियों 5:8.

[फुटनोट]

^ कृपया अँग्रेज़ी ब्रोशर, मृत जनों की आत्माएँ—क्या वे आपकी मदद कर सकती हैं या नुकसान पहुँचा सकती हैं? क्या वे सचमुच अस्तित्त्व में हैं? और हमेशा की ज़िंदगी की राह—क्या आपने इसे पा लिया है? देखिए। इन्हें यहोवा के साक्षियों ने प्रकाशित किया है।