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एक बेसहारा अनाथ को प्यारा पिता मिला

एक बेसहारा अनाथ को प्यारा पिता मिला

जीवन कहानी

एक बेसहारा अनाथ को प्यारा पिता मिला

डीमीट्रीस सीडीरॉपूलॉस की ज़ुबानी

मेरे सामने राइफल फेंकते हुए एक अफसर चिल्लाया: “उठा बंदूक और चला गोली।” मैंने शांति से इनकार कर दिया। फिर अचानक अफसर अपनी बंदूक चलाने लगा और एक-एक करके गोलियाँ तेज़ी से मेरे कंधे के ऊपर से गुज़रने लगीं। यह देखकर सारे सैनिक डर गए। मैं तो बस मौत के मुँह में ही था। मगर शुक्र है मेरी जान बच गयी। लेकिन यह पहली बार नहीं था जब मेरी जान खतरे में थी।

तुर्की के कप्पदुकिया ज़िले में काइज़री नाम के शहर के पास, एक ऐसी जाति रहती थी, जिसकी आबादी बहुत कम थी। मेरा परिवार उसी जाति से था। सबूतों से पता चलता है कि इस इलाके के कुछ लोगों ने सा.यु. पहली सदी में मसीहियत अपनायी थी। (प्रेरितों 2:9) लेकिन 20वीं सदी में कदम रखते ही, हालात में एक ज़बरदस्त बदलाव आया।

शरणार्थी से अनाथ

मेरा जन्म सन्‌ 1922 में हुआ। इसके कुछ महीनों बाद जाति-जाति के बीच लड़ाइयाँ शुरू हो गयीं। इस वजह से मेरे परिवार को शरणार्थी बनकर यूनान भागना पड़ा। डर के मारे मेरे माता-पिता ने सबकुछ छोड़ दिया, और अपने साथ सिर्फ कुछ महीने के अपने बच्चे, यानी मुझको ले गए। उन्होंने इतनी तकलीफें झेलीं कि उन्हें शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता। इसके बाद जाकर वे उत्तरी यूनान के ड्रामा शहर के पास कीरीआ नाम के कसबे में पहुँचे। वहाँ का हाल भी बहुत बुरा था।

जब मैं चार साल का था, तब मेरा छोटा भाई पैदा हुआ। उसके जन्म के बाद मेरे पिताजी की मौत हो गयी। उस वक्‍त वे सिर्फ 27 साल के थे, मगर मुश्‍किल-भरे दौर से गुज़रते-गुज़रते वे पूरी तरह टूट चुके थे। मेरी माँ ने भी कोई कम मुसीबतें नहीं झेलीं, कुछ समय बाद वह भी चल बसी। अब मैं और मेरा भाई, दोनों लाचार और बेसहारा हो गए। हमें एक-के-बाद-एक कई अनाथ आश्रमों में भेजा गया। आखिर में, बारह साल की उम्र में मुझे थिस्सलुनीके के एक अनाथ आश्रम में भेजा गया जहाँ मैंने मेकैनिक की तालीम हासिल की।

अनाथ आश्रम की चार दीवारी में न तो प्यार था और ना ही अपनापन। ऐसे माहौल में जैसे-जैसे मैं बड़ा होता गया, मैं सोचने लगा कि आखिर क्यों कुछ लोगों को इतनी दुःख-तकलीफें और अन्याय सहना पड़ता है। मैं खुद से पूछता कि क्यों परमेश्‍वर ऐसे हालात की इजाज़त देता है जिनमें सिवाय दुःख के कुछ और नहीं मिलता। अनाथ आश्रम में हमारी एक क्लास होती थी, जिसमें हमें धर्म की शिक्षा दी जाती थी। इन्हीं क्लासों में हमें सिखाया गया कि परमेश्‍वर सर्वशक्‍तिमान है, मगर बुराई के होने और फैलने के बारे में हमें कोई ठोस कारण नहीं दिया गया। उस ज़माने की एक जानी-मानी कहावत थी कि ग्रीक ऑर्थोडॉक्स चर्च ही सबसे बढ़िया धर्म है। जब मैंने पूछा कि “अगर ऑर्थोडॉक्स धर्म ही सबसे बढ़िया है, तो सभी लोग इसी धर्म को क्यों नहीं मानते?” तो इसका मुझे कभी कोई सही जवाब नहीं दिया गया।

फिर भी, धर्म की शिक्षा देनेवाले हमारे टीचर के दिल में बाइबल के लिए गहरा आदर था और उन्होंने हमारे दिल में भी यही बात बिठायी कि यह एक पवित्र ग्रंथ है। अनाथ आश्रम के निर्देशक भी बाइबल का आदर करते थे, मगर पता नहीं क्यों उन्होंने किसी भी धार्मिक सेवा में हिस्सा लेने से साफ इनकार कर दिया था। जब मैंने इसके बारे में पूछताछ की, तब मुझे बताया गया कि वह एक ज़माने में यहोवा के साक्षियों के साथ अध्ययन किया करता था। इस धर्म से उस वक्‍त मैं बिलकुल अनजान था।

सत्रह साल की उम्र में मैंने थिस्सलुनीके के अनाथ आश्रम से अपनी पढ़ाई पूरी की। दूसरा विश्‍वयुद्ध शुरू हो चुका था और यूनान पर नात्ज़ियों का कब्ज़ा था। सड़कों पर लोग भूखे मर रहे थे। ज़िंदा रहने के लिए मैं शहर से दूर एक इलाके में भाग गया और बहुत ही कम तनख्वाह पर खेत में मज़दूरी करने लगा।

बाइबल से मिले सवालों के जवाब

अप्रैल 1945 में, जब मैं थिस्सलुनीके लौटा, तब मेरे बचपन के एक दोस्त की बड़ी बहन मुझसे मिलने आयी। मैंने और मेरे दोस्त ने कई अनाथ आश्रमों में एक-साथ वक्‍त बिताया था। उसकी दीदी, पाशालीया ने बताया कि मेरा दोस्त लापता है और मुझसे पूछा कि क्या मैं जानता हूँ कि वह कहाँ है। बातचीत के दौरान उसने बताया कि वह यहोवा की एक साक्षी है और कहा कि परमेश्‍वर इंसानों में दिलचस्पी रखता है।

मेरा दिल कड़वाहट से भर गया और मैं शिकायत करने लगा। क्यों मुझे बचपन से ही दुःख झेलने पड़े? मुझे क्यों दर-दर की ठोकरें खाने के लिए अनाथ छोड़ दिया गया? जब हमें परमेश्‍वर की सबसे ज़्यादा ज़रूरत होती है, तब वह कहाँ होता है? पाशालीया ने जवाब दिया: “क्या तुम पूरे यकीन के साथ कह सकते हो कि इन हालात के लिए परमेश्‍वर ही ज़िम्मेदार है?” फिर उसने बाइबल से मुझे समझाया कि परमेश्‍वर इंसानों पर तकलीफें नहीं लाता। उसने मुझे यह जानने में मदद दी कि परमेश्‍वर इंसानों से प्यार करता है और जल्द ही वह सब कुछ ठीक कर देगा। यशायाह 35:5-7 और प्रकाशितवाक्य 21:3, 4 की मदद से उसने बताया कि बहुत जल्द युद्ध, झगड़े, बीमारियाँ और मौत का नामो-निशान मिटा दिया जाएगा और वफादार लोग धरती पर हमेशा के लिए जीएँगे।

मुझे एक मददगार परिवार मिला

कुछ समय बाद मुझे पता चला कि पाशालीया का भाई, गुरिल्ला दल की मुठभेड़ में मारा गया। मैं उसके परिवार से मिलने गया, मगर मैं उन्हें क्या सांत्वना देता, उन्होंने ही मुझे बाइबल से दिलासा दिया। कुछ समय बाद मैं दोबारा उनके घर गया ताकि बाइबल से कुछ और हौसला बढ़ानेवाली बातें जान सकूँ। देखते-ही-देखते मैं यहोवा के साक्षियों के छोटे-से समूह का हिस्सा बन गया जो अध्ययन और उपासना के लिए छिप-छिपकर मिलते थे। हालाँकि साक्षियों पर पाबंदी लगी थी, फिर भी मैंने ठान लिया था कि मैं उनके साथ मेल-जोल जारी रखूँगा।

नम्र मसीहियों से बना वह समूह मेरे लिए एक परिवार से कम नहीं था। उनमें वह प्यार और अपनापन था जिसके लिए मैं बरसों से तरस रहा था। उन्होंने मुझे आध्यात्मिक सहारा और मदद दी जिसकी मुझे सख्त ज़रूरत थी। वे ऐसे दोस्त साबित हुए जिनमें ज़रा भी स्वार्थ नहीं था, बल्कि वे हमेशा दूसरों की परवाह करते थे। वे हर पल मेरी मदद करने और मुझे दिलासा देने को तैयार रहते थे और ऐसा वे खुशी-खुशी करते थे। (2 कुरिन्थियों 7:5-7) सबसे बढ़कर, उन्होंने मुझे यहोवा के करीब आने में मदद दी, जिसे मैं अपना प्यारा पिता मानने लगा था। प्यार, करुणा और गहरी चिंता जैसे उसके गुणों ने मुझे उसकी तरफ खींचा। (भजन 23:1-6) आखिरकार, मुझे एक आध्यात्मिक परिवार और एक प्यारा पिता मिल ही गया! ये बातें मेरे दिल को छू गयीं। जल्द ही मुझे अपना जीवन यहोवा को समर्पित करने की प्रेरणा मिली और सितंबर 1945 में मैंने बपतिस्मा ले लिया।

मसीही सभाओं में हाज़िर होने से न सिर्फ मेरा ज्ञान बढ़ा बल्कि विश्‍वास भी मज़बूत हुआ। आने-जाने का कोई साधन न होने की वजह से, हममें से कई भाई-बहन अकसर अपने कसबे से 5 किलोमीटर पैदल चलकर सभा की जगह तक जाते थे। रास्ते में चलते-चलते ऐसी आध्यात्मिक बातों की चर्चा होती थी जिन्हें मैं ज़िंदगी-भर भूल नहीं सकता। सन्‌ 1945 के आखिर में, जब मुझे पूरे समय के प्रचार काम के बारे में पता चला, तो मैंने पायनियर सेवा शुरू कर दी। यहोवा के साथ एक मज़बूत रिश्‍ता बनाए रखना बेहद ज़रूरी था, क्योंकि वह समय नज़दीक था जब मेरा विश्‍वास और मेरी खराई पूरी तरह परखी जाती।

विरोध का उलटा असर

पुलिस अकसर हमारी सभा की जगह पर छापा मारती थी और हमें जान से मार डालने की धमकी भी देती थी। यूनान में गृह-युद्ध छिड़ा हुआ था, इसलिए पूरे देश पर फौजियों की हुकूमत थी। विरोधी-दलों की आपसी रंजिश की वजह से वे एक-दूसरे पर हमला करने के लिए हिंसा पर उतर आए थे। पादरियों को लगा कि साक्षियों को फँसाने का यह एक अच्छा मौका है और उन्होंने अधिकारियों को यकीन दिलाया कि हम साक्षी कम्यूनिस्ट हैं और बेरहमी से हम पर ज़ुल्म ढाने के लिए उकसाया।

उन दो सालों के दौरान, मुझे और मेरे साथ पायनियर सेवा करनेवाले दो भाइयों को कई बार गिरफ्तार किया गया और छः बार हमें चार महीने की जेल की सज़ा सुनायी गयी। मगर सभी जेल राजनीतिक कैदियों से भरी पड़ी थीं, इसलिए हमें छोड़ दिया गया। हमने इस आज़ादी की बिलकुल उम्मीद नहीं की थी। इस मौके का फायदा उठाकर हमने प्रचार काम जारी रखा। मगर कुछ समय बाद हमें फिर से गिरफ्तार किया गया और वह भी एक ही हफ्ते में तीन बार। हम जानते थे कि हमारे कई भाइयों को वीरान द्वीपों के कारावास में रखा गया है। क्या मेरा विश्‍वास इतना मज़बूत था कि मैं यह परीक्षा सह पाता?

मेरी मुश्‍किल तब और भी बढ़ गयी जब मुझसे कहा गया कि सज़ा पूरी होने तक मुझे रोज़ाना पुलिस थाने में आकर अपनी हाज़िरी देनी होगी। मुझ पर नज़र रखने के लिए अधिकारियों ने मुझे थिस्सलुनीके के पास एवॉज़मॉस कसबे में भेज दिया, जहाँ एक पुलिस थाना था। वहीं पास में मैंने एक कमरा किराए पर लिया और अपने गुज़ारे के लिए जगह-जगह जाकर दस्तकारी और ताँबे के बरतनों को चमकाने का काम करने लगा। इस तरह मैं आस-पास के गाँवों में पायनियर सेवा करता रहा, क्योंकि मेरा काम ऐसा था कि मैं लोगों के घरों में आसानी से जा पाता था और पुलिसवालों को मुझ पर ज़रा भी शक नहीं होता था। नतीजा यह हुआ कि कई लोगों ने सुसमाचार सुना और सच्चाई कबूल की। उनमें से 10 से भी ज़्यादा लोग आगे चलकर यहोवा के समर्पित उपासक बन गए।

दस सालों के दौरान आठ जेलों में कैद

सन्‌ 1949 के आखिर तक मैं पुलिस की निगरानी में रहा। उसके बाद मैं थिस्सलुनीके वापस आया और पूरे समय की सेवा जारी रखने के लिए बेताब था। ठीक जब मैं सोच ही रहा था कि चलो मेरे आज़माइश के दिन पूरे हुए, तभी सन्‌ 1950 में अचानक मुझे फौज में भर्ती होने का आदेश मिला। अपनी मसीही निष्पक्षता की वजह से मैंने यह ठान लिया था कि मैं “युद्ध की विद्या” नहीं सीखूँगा। (यशायाह 2:4) इसी वजह से शुरू हुआ एक भयानक, लंबा सफर जिसमें मुझे यूनान के सबसे बदनाम कैदखानों में से कुछ में बंद किया गया।

इसकी शुरूआत ड्रामा के शहर से हुई। जब मैं वहाँ की जेल में कैद था, तो पहले के कुछ हफ्तों में नए सैनिकों ने निशानेबाज़ी का अभ्यास करना शुरू किया। एक दिन मुझे वहाँ ले जाया गया। एक अफसर ने मेरे सामने राइफल फेंकते हुए मुझे गोली चलाने का हुक्म दिया। जब मैंने इनकार किया तो वह मुझ पर गोलियाँ चलाने लगा। जब दूसरे अफसरों ने देखा कि मैं कतई समझौता नहीं करनेवाला, तो वे हैवानों की तरह मुझे घूँसे मारने लगे। फिर उन्होंने कई सिगरेट जलायीं और उन्हें बुझाने के लिए मेरी हथेलियों पर मसलने लगे। इसके बाद उन्होंने मुझे काल-कोठरी में डाल दिया। ऐसा तीन दिन तक चलता रहा। हथेली पर बुझायी सिगरेटों की जलन का दर्द इतना था कि मेरी जान निकली जा रही थी। इसके निशान कई सालों तक रहे।

सैनिक अदालत में पेश करने से पहले, मुझे क्रीट के इराकलीअन शहर की फौजियों की छावनी में भेज दिया गया। वहाँ मेरी खराई तोड़ने के लिए मुझे बुरी तरह पीटा गया। तभी इस डर से कि कहीं मेरे हौसले पस्त न हो जाएँ, मैंने अपने स्वर्ग में रहनेवाले पिता से हिम्मत और ताकत के लिए गिड़गिड़ाकर बिनती की। तब मुझे यिर्मयाह 1:19 में लिखी बात याद आयी: “वे तुझ से लड़ेंगे तो सही, परन्तु तुझ पर प्रबल न होंगे, क्योंकि बचाने के लिये मैं तेरे साथ हूं, यहोवा की यही वाणी है।” “परमेश्‍वर की शान्ति” से मेरे दिल को कितना चैन और सुकून मिला! तब मैंने जाना कि यहोवा पर पूरा भरोसा रखने में कितनी बुद्धिमानी है।—फिलिप्पियों 4:6, 7; नीतिवचन 3:5.

इसके बाद मुझ पर मुकद्दमा चलाया गया और मुझे उम्रकैद की सज़ा सुनायी गयी। यहोवा के साक्षियों को “देश का [सबसे बड़ा] दुश्‍मन” समझा जाता था। मेरी उम्रकैद की शुरूआत कनीआ शहर के बाहर, ईटसीडीन अपराधी जेल से हुई जहाँ मुझे काल-कोठरी में डाला गया। ईटसीडीन एक पुराना किला था और जिस कोठरी में मुझे रखा गया था वह चूहों से भरी थी। ये चूहे अकसर मेरे ऊपर चढ़ जाते थे। इनसे बचने के लिए मैं सिर-से-पैर तक एक फटा-पुराना कंबल ओढ़ लेता था। फिर मुझे निमोनिया ने जकड़ लिया। डॉक्टर ने कहा कि मेरे लिए धूप में बैठना बेहद ज़रूरी है और इस तरह बाहर आँगन में बैठकर मैं दूसरे कई कैदियों के साथ चर्चा कर पाया। मगर मेरी हालत दिन-ब-दिन बिगड़ती गयी और जब मेरे फेफड़ों में खून बुरी तरह बहने लगा, तब मुझे वहाँ से इराकलीअन अस्पताल ले जाया गया।

एक बार फिर संगी मसीहियों का मेरा आध्यात्मिक परिवार ज़रूरत की घड़ी में मेरी मदद करने के लिए आगे आया। (कुलुस्सियों 4:11) इराकलीअन के भाई नियमित तौर पर मुझसे मिलने आते, तसल्ली देते और मेरा हौसला बढ़ाते। मैंने उन्हें बताया कि मुझे साहित्य की ज़रूरत है ताकि मैं दिलचस्पी दिखानेवालों को गवाही दे सकूँ। उन्होंने मुझे एक ऐसा सूटकेस लाकर दिया जिसमें दो तह थीं। सूटकेस की निचली तह नज़र नहीं आती थी और इसी में, मैं साहित्य आसानी से छिपाकर रख सकता था। इन कैदखानों में रहते वक्‍त मैं बहुत खुश था, क्योंकि मैंने कम-से-कम छः कैदियों को सच्चे मसीही बनने में मदद दी!

इस बीच गृह-युद्ध खत्म हो गया और मेरी सज़ा को घटाकर सिर्फ दस साल कर दिया गया। सज़ा के बचे हुए साल मैंने रेथीम्नो, गेंटी कूले और कासान्ड्रा की जेलों में गुज़ारे। आठ जेलों में करीब दस साल बिताने के बाद मुझे रिहा कर दिया गया। मैं थिस्सलुनीके लौटा, जहाँ मेरे प्यारे मसीही भाइयों ने मेरा दिल से स्वागत किया और मेरी देखभाल की।

मसीही बिरादरी के बीच रहते हुए आध्यात्मिक उन्‍नति

मेरी रिहाई के दौरान, यूनान में रहनेवाले साक्षियों को उपासना करने के लिए काफी हद तक आज़ादी मिल गयी थी। मैंने तुरंत मौके का फायदा उठाया और पूरे समय की सेवा फिर से शुरू कर दी। कुछ ही समय बाद मुझे एक और आशीष मिली। एक वफादार मसीही बहन, काटीना के साथ मेरी जान-पहचान बढ़ी। वह यहोवा से बहुत प्यार करती थी और प्रचार में बहुत जोशीली थी। अक्टूबर 1959 में हमने शादी कर ली। हमारी एक बेटी, आगापी हुई। इस तरह अपना एक मसीही परिवार पाकर, मेरे वे सारे ज़ख्म भर गए जो मुझे बचपन में अनाथ होने की वजह से मिले थे। और सबसे अहम बात तो यह थी कि यहोवा की हिफाज़त में हमारा पूरा परिवार उसकी सेवा करने में संतुष्ट था।—भजन 5:11.

फिर ऐसे हालात पैदा हो गए कि मजबूरन मुझे पायनियर सेवा छोड़नी पड़ी। मगर पूरे समय की सेवा करने में मैंने अपनी पत्नी का पूरा साथ दिया। इसके बाद, मेरी मसीही ज़िंदगी की सबसे यादगार घटना घटी। यह सन्‌ 1969 की बात है जब जर्मनी के न्युरमबर्ग शहर में यहोवा के साक्षियों का अंतर्राष्ट्रीय अधिवेशन आयोजित किया गया। वहाँ जाने की तैयारी करने के लिए मैंने पासपोर्ट के लिए अर्ज़ी दी। दो महीने तक मुझे मेरा पासपोर्ट नहीं मिला। इस बारे में पता लगाने के लिए जब मेरी पत्नी पुलिस थाने गयी, तो एक अफसर ने दराज़ में से एक मोटी फाइल निकाली और कहा: “क्या तुम इस आदमी के लिए पासपोर्ट माँग रही हो, ताकि वो जर्मनी जाकर वहाँ के लोगों का धर्म-परिवर्तन कर सके? हरगिज़ नहीं! यह आदमी खतरनाक है।”

यहोवा और कुछ भाइयों की मदद से पूरे समूह के लिए बनाए गए एक ही पासपोर्ट में मुझे शामिल किया गया। इस तरह मैं उस बढ़िया अधिवेशन में हाज़िर हो सका। अधिवेशन की हाज़िरी 1,50,000 से भी ज़्यादा थी जो एक नया शिखर था। मैं साफ-साफ देख पाया कि यहोवा की आत्मा ही है जो इस अंतर्राष्ट्रीय आध्यात्मिक परिवार को राह दिखा रही है और एकता के बंधन में बाँध रही है। अपनी ज़िंदगी के बाद के सालों में, मैं मसीही भाईचारे की अहमियत की और भी ज़्यादा कदर करता।

सन्‌ 1977 में, मेरी हमसफर और वफादार साथी मेरा साथ छोड़कर मौत की नींद सो गयी। अपनी बेटी की परवरिश बाइबल के सिद्धांतों के मुताबिक करने में मैंने अपना भरसक किया। मगर मैं अकेला नहीं था। एक बार फिर मेरा आध्यात्मिक परिवार मेरी मदद करने के लिए आगे आया। मुश्‍किलों की उन घड़ियों में भाइयों ने मुझे जो सहारा दिया उसके लिए मैं उनका ज़िंदगी-भर एहसानमंद रहूँगा। मेरी बेटी की देखभाल करने के लिए उनमें से कई भाई तो कुछ समय के लिए मेरे घर में ही आकर रहने लगे। उन्होंने जिस तरह हमारी खातिर खुद को त्याग दिया, उसे मैं कभी नहीं भुला सकूँगा।—यूहन्‍ना 13:34, 35.

आगापी बड़ी हो गयी और एक भाई इलीअस के साथ उसकी शादी हो गयी। उनके चार बेटे हैं और चारो सच्चाई में हैं। हाल ही में मुझे कई बार स्ट्रोक (मस्तिष्क आघात) हुआ और मेरी तबियत दिन-ब-दिन बिगड़ती जा रही है। मेरी बेटी और उसका परिवार मेरी अच्छी देखभाल कर रहा है। तबियत खराब होने के बावजूद भी मेरे पास खुशी मनाने के कई कारण हैं। मुझे वो पल याद है जब पूरे थिस्सलुनीके में सिर्फ करीब सौ भाई-बहन थे, जो छिप-छिपकर घरों में मिलकर सभाएँ चलाते थे। मगर आज उसी इलाके में करीब पाँच हज़ार जोशीले साक्षी हैं। (यशायाह 60:22) अधिवेशनों में कई नौजवान भाई मेरे पास आकर मुझसे पूछते हैं: “क्या आपको याद है कि आप हमारे घर आकर हमें पत्रिकाएँ देते थे?” हालाँकि ये पत्रिकाएँ माता-पिता नहीं पढ़ते थे, मगर उनके बच्चों ने इन्हें ज़रूर पढ़ा और आध्यात्मिक रूप से तरक्की की!

आज जब मैं यहोवा के संगठन की बढ़ोतरी देखता हूँ, तो ऐसा लगता है कि जितनी परीक्षाओं का मैंने सामना किया वे बेकार नहीं गयीं। मैं अपने नातियों और दूसरे जवानों से हमेशा यही कहता हूँ कि अपनी जवानी के दिनों में स्वर्ग में रहनेवाले अपने पिता को याद करो और वह तुम्हें कभी बेसहारा नहीं छोड़ेगा। (सभोपदेशक 12:1) यहोवा ने अपनी कही हुई बात पूरी की, जब वह मेरे लिए “अनाथों का पिता” बना। (भजन 68:5) हालाँकि बचपन में मैं एक अनाथ था, मगर अब मुझे एक परवाह करनेवाला पिता मिल गया है!

[पेज 22 पर तसवीर]

ड्रामा शहर की जेल में, मैं एक बावर्ची का काम करता था

[पेज 23 पर तसवीर]

सन्‌ 1959 में, हमारी शादी के दिन, काटीना के साथ

[पेज 23 पर तसवीर]

सन्‌ 1960 के आखिर में, थिस्सलुनीके के पास के जंगल में हुआ एक सम्मेलन

[पेज 24 पर तसवीर]

सन्‌ 1967 में अपनी बेटी के साथ