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‘अब की जिन्दगी’ का पूरा लुत्फ उठाया!

‘अब की जिन्दगी’ का पूरा लुत्फ उठाया!

जीवन कहानी

‘अब की जिन्दगी’ का पूरा लुत्फ उठाया!

टेड बकिंगहैम की ज़ुबानी

सन्‌ 1950 की बात है जब मैं सिर्फ 24 साल का था। मेरी पूरे समय की सेवा को छः साल और शादी को छः महीने हुए थे। तभी अचानक एक दिन मुझे पोलियो हो गया। मुझे नौ महीने अस्पताल में रहना पड़ा। इस दौरान मैंने अपनी ज़िंदगी के बारे में गहराई से सोचा। मेरी इस नयी बीमारी की वजह से मेरी पत्नी, जॉइस का और मेरा आनेवाला कल कैसा होगा?

मेरे पिता को धर्म में कोई दिलचस्पी नहीं थी। मगर सन्‌ 1938 में उन्होंने गवर्नमैंट (सरकार) नाम की एक किताब हासिल की। * उस समय देश की राजनीति में उथल-पुथल मची हुई थी और युद्ध के आसार भी नज़र आ रहे थे। शायद इसी वजह से मेरे पिता ने वह किताब हासिल की हो। लेकिन उन्होंने इस किताब को खोलकर पढ़ा तक नहीं। मगर मेरी माँ, जो धर्म में गहरी आस्था रखती थी, उसने यह किताब पढ़ी। बस फिर क्या था, उसने जो पढ़ा फौरन उसके मुताबिक कदम उठाया। उसने चर्च ऑफ इंग्लैंड से अपना नाता तोड़ लिया और मेरे पिता के कड़े विरोध के बावजूद यहोवा की एक वफादार साक्षी बन गयी। वह सन्‌ 1990 में अपनी मौत तक वफादार बनी रही।

मेरी माँ मुझे पहली बार मसीही सभा के लिए लंदन के दक्षिण में एपसम कसबे के एक राज्य घर में ले गयी। यह राज्य घर पहले एक गोदाम हुआ करता था। वहाँ हमने जे. एफ. रदरफर्ड का रिकॉर्ड किया हुआ भाषण सुना। भाई रदरफर्ड उस वक्‍त यहोवा के साक्षियों के कामों की देखरेख करते थे। इस भाषण ने मुझ पर गहरा असर किया।

लंदन पर हुए हवाई हमले के दौरान, ज़बरदस्त बमबारी हुई थी। इस वजह से वहाँ रहने का खतरा बढ़ता जा रहा था। इसलिए सन्‌ 1940 में मेरे पिता ने अपने परिवार को एक सुरक्षित जगह पर ले जाने का फैसला किया। हम मेडनहेड जाकर बस गए, जो लंदन से पश्‍चिम की तरफ 45 किलोमीटर दूर एक छोटा-सा कसबा है। यह कदम हमारे लिए काफी फायदेमंद साबित हुआ क्योंकि वहाँ की कलीसिया के 30 भाई-बहनों ने हमारा काफी हौसला बढ़ाया। फ्रेड स्मिथ नाम के एक भाई, सच्चाई में काफी मज़बूत और जोशीले थे। उनका बपतिस्मा सन्‌ 1917 में हुआ था। उन्होंने मुझमें गहरी दिलचस्पी ली और एक अच्छा प्रचारक बनने की ट्रेनिंग दी। उन्होंने मेरे लिए जो मिसाल रखी और जिस तरह प्यार से मेरी मदद की, उसके लिए मैं आज तक उनका एहसानमंद हूँ।

पूरे समय की सेवा शुरू करना

सन्‌ 1941 में, मार्च के सर्द महीने के एक दिन, मैंने थेम्ज़ नदी में बपतिस्मा लिया। तब मैं 15 साल का था। उस वक्‍त मेरा बड़ा भाई जिम, पूरे समय की सेवा शुरू कर चुका था। उसने और उसकी पत्नी, मेज ने अपनी ज़्यादातर ज़िंदगी ब्रिटेन में सर्किट और ज़िला काम करते हुए यहोवा की सेवा में बिता दी थी। आज वे बर्मिंगहैम में रहते हैं। मेरी छोटी बहन, रोबीना और उसके पति, फ्रैंक भी यहोवा के वफादार सेवक हैं।

मैं एक कपड़े बनानेवाली कंपनी में अकाउंटेंट था। एक दिन मैनेजिंग डाइरेक्टर ने मुझे अपने दफ्तर में बुलाया और मेरे सामने एक बढ़िया पेशकश रखी। वह थी, इस कंपनी के लिए माल खरीदने का काम। उसने कहा कि अगर मैं यह पेशकश कबूल करूँ तो आगे चलकर खूब तरक्की करूँगा। मगर मैं कुछ समय से अपने भाई के नक्शेकदम पर चलकर पूरे समय की सेवा शुरू करने की सोच रहा था। इसलिए मैंने अदब के साथ अपने मालिक की पेशकश को इनकार कर दिया और उसे इसकी वजह भी बतायी। हैरानी की बात है कि उसने मेरे अंदर मसीही काम करने की चाह देखकर मुझे शाबाशी दी। सन्‌ 1944 में, नॉर्थएम्प्टन में हुए एक ज़िला अधिवेशन के बाद, मैं पूरे समय का सेवक बन गया।

मुझे प्रचार करने के लिए सबसे पहले डेवन प्रांत में एकसटर शहर भेजा गया। यह शहर उस वक्‍त युद्ध के दौरान हुई बमबारी से धीरे-धीरे उबर रहा था। मैं एक फ्लैट में रहने लगा, जहाँ पहले से दो पायनियर, फ्रैंक और रूथ मिडलटन रहते थे। उन्होंने मेरी बहुत मदद की। उस वक्‍त मैं सिर्फ 18 साल का था और मुझे न तो कपड़े धोना आता था और ना ही खाना पकाना। मगर धीरे-धीरे मैंने ये सारे काम सीख लिए।

प्रचार में मेरे साथी थे, 50 साल के भाई विक्टर गर्ड। वे आयरलैंड से थे और सन्‌ 1920 से प्रचार करते आए थे। उन्होंने मुझे शेड्‌यूल बनाना सिखाया ताकि मैं अपने समय का अच्छा इस्तेमाल कर सकूँ। साथ ही, उन्होंने बाइबल की पढ़ाई करने में गहरी दिलचस्पी बढ़ाना और बाइबल के अलग-अलग अनुवादों की अहमियत की कदर करना सिखाया। उम्र के जिस दौर में एक नौजवान की शख्सियत ढलती है, उसी दौर में मैंने भाई विक्टर के साथ प्रचार में गुज़ारे। और भाई विक्टर की मिसाल ने ही मेरी शख्सियत को ढाला, जो सच्चाई में अडिग खड़े रहे।

मसीही निष्पक्षता—एक बड़ी चुनौती

वैसे तो युद्ध लगभग खत्म होने को आया था, मगर अधिकारी अब भी नौजवानों को फौज में भर्ती करने में लगे हुए थे। इसलिए सन्‌ 1943 में, मैं मेडनहेड की एक अदालत में गया, जहाँ मैंने यह गुज़ारिश की कि सुसमाचार का एक प्रचारक होने के नाते मुझे फौज में भर्ती होने से छूट दी जाए। हालाँकि मेरी गुज़ारिश नामंज़ूर कर दी गयी, फिर भी मैंने एकसटर वापस जाकर अपना काम जारी रखने का फैसला किया। आखिरकार, एकसटर में ही मुझे अदालत में हाज़िर होने का बुलावा आया। जब मजिस्ट्रेट ने मुझे छः महीने जेल में कड़ी मज़दूरी करने की सज़ा सुनायी, तब उसने कहा कि काश, वह मुझे इससे लंबी सज़ा दे सकता। छः महीने सज़ा काटने के बाद, मुझे और चार महीनों के लिए जेल भेजा गया।

जेल में मैं अकेला साक्षी था, इसलिए वहाँ के पहरेदार मझे ‘यहोवा’ बुलाते थे। हाज़िरी लेते वक्‍त जब मुझे इस नाम से पुकारा जाता था, तब जवाब देने में मुझे बड़ा अजीब लगता था। फिर भी, इसका एक फायदा था। मैं हर दिन परमेश्‍वर का नाम ऐलान होते हुए सुन पाता था! इससे दूसरे कैदियों को भी पता चला कि मैं एक यहोवा का साक्षी हूँ और मसीही सिद्धांत के मुताबिक फौज में भर्ती न होने की वजह से ही मैं उनके बीच हूँ। कुछ समय बाद, एक और साक्षी, नॉरमन कैस्ट्रो को इस जेल में डाला गया। तब जाकर मेरा नाम बदल दिया गया। अब वे हमें मूसा और हारून बुलाने लगे।

मुझे एकसटर से ब्रिस्टल और आखिर में विनचेस्टर जेल भेजा गया। हालात हमेशा अच्छे नहीं थे। फिर भी, हँसते-हँसाते रहने से हालात का सामना करना आसान हो जाता था। विनचेस्टर जेल में, नॉरमन और मैंने मिलकर स्मारक मनाया, जिससे हमें बेहद खुशी मिली। उस दिन भाई फ्रानसस कुक, जेल में हमसे मिलने आए और उन्होंने हमारे लिए एक शानदार भाषण दिया।

युद्ध के बाद के सालों में बदलाव

सन्‌ 1946 में, ब्रिस्टल के अधिवेशन में, जहाँ बाइबल अध्ययन की किताब, “लॆट गॉड बी ट्रू” रिलीज़ की गयी थी, मेरी मुलाकात जॉइस मूर से हुई। वह देखने में बहुत खूबसूरत थी और वह भी मेरी तरह डेवन में पायनियर सेवा कर रही थी। हमारे बीच दोस्ती हुई। यह दोस्ती धीरे-धीरे प्यार में बदल गयी और चार साल बाद हमने टिवर्टन कसबे में शादी कर ली। सन्‌ 1947 से मैं इसी कसबे में रह रहा था। हमने एक कमरा लिया जिसका एक हफ्ते का किराया 60 रुपए (15 शिलिंग) था। हमारी ज़िंदगी हँसी-खुशी कट रही थी!

हमारे शादी के पहले ही साल में, हम टिवर्टन छोड़कर दूसरी जगह जाकर बस गए। वह जगह थी ब्रिक्सहम, जो इग्लैंड के दक्षिण की ओर है। यह वही खुशनुमा बंदरगाह नगर है, जहाँ पहली बार मछलियों को ट्रॉल (समुद्र-तल में बिछाया जानेवाला बड़ा जाल) से पकड़ने की तकनीक की शुरूआत हुई थी। मगर हम वहाँ ज़्यादा समय तक नहीं रहे क्योंकि लंदन के अधिवेशन में हाज़िर होने के लिए जब हम सफर कर रहे थे, तब मुझे पोलियो हो गया। मैं कोमा में चला गया था। और जैसे मैंने लेख की शुरूआत में बताया, मैंने नौ महीने अस्पताल में बिताए। पोलियो की वजह से मेरे दाहिने हाथ और दोनों पैरों पर बुरा असर पड़ा। आज भी मेरी यही हालत है और मैं लाठी के सहारे चलता हूँ। मेरी प्यारी पत्नी हमेशा हँसती-मुस्कराती रहती थी और हरदम मेरा हौसला बढ़ाती थी, उस वक्‍त भी, जब वह किसी तरह पूरे समय की सेवा कर रही थी। लेकिन हम आगे क्या करते? मैं जल्द ही यह बात जाननेवाला था कि यहोवा का हाथ छोटा नहीं है।

उसके अगले साल, हम लंदन के विम्बलडन कसबे में एक सम्मेलन में हाज़िर हुए। उस वक्‍त मैं बिना लाठी के चल-फिर पा रहा था। वहाँ हम भाई प्राइस ह्‍यूज़ से मिले, जो उस वक्‍त ब्रिटेन के काम की देखरेख कर रहे थे। मुझे देखते ही उन्होंने कहा: “अरे भाई! हम चाहते हैं कि तुम सर्किट काम करो!” मेरा हौसला बढ़ानेवाली इससे बड़ी और क्या बात हो सकती थी! लेकिन क्या मेरी सेहत मुझे इसकी इजाज़त देती? इस बात को लेकर मैं और जॉइस दोनों कशमकश में पड़ गए। मगर एक हफ्ते की ट्रेनिंग लेकर और यहोवा पर पूरा भरोसा रखकर हम दोबारा इग्लैंड के दक्षिण-पश्‍चिम इलाके के लिए निकल पड़े, जहाँ मुझे सर्किट अध्यक्ष के तौर पर सेवा करने के लिए भेजा गया। उस वक्‍त मैं सिर्फ 25 साल का था। मगर आज भी मैं एहसान-भरे दिल से उन भाइयों को याद करता हूँ, जिन्होंने प्यार और सब्र के साथ मेरी बहुत मदद की।

मैं और जॉइस ने परमेश्‍वर की सेवा में, अलग-अलग तरीके के काम किए हैं। मगर हमने पाया है कि इनमें से जो काम हमें अपने मसीही भाई-बहनों के सबसे ज़्यादा करीब लाया है, वह है कलीसियाओं का दौरा करना। हमारी अपनी गाड़ी नहीं थी इसलिए हम या तो ट्रेन से या फिर बस से सफर करते थे। उस वक्‍त अपनी बीमारी के बावजूद जितना मुझसे बन पड़ता था, उतना करने की मैं पूरी कोशिश कर रहा था। इस तरह हम सन्‌ 1957 तक अपनी खास सेवा में लगे रहे। ज़िंदगी में इससे ज़्यादा हमें और क्या चाहिए था? मगर उस साल एक और चुनौती खड़ी हुई।

मिशनरी सेवा के लिए

जब हमें गिलियड स्कूल की 30वीं क्लास में हाज़िर होने का न्यौता मिला तो हम सातवें आसमान में उड़ने लगे। मैं अपने लकवे की बीमारी से जूझने में काफी हद तक कामयाब रहा था, इसलिए जॉइस और मैंने यह न्यौता खुशी-खुशी कबूल किया। अपने तजुरबे से हम यह जानते थे कि अगर हम यहोवा की मरज़ी पूरी करने के लिए जी-तोड़ कोशिश करेंगे, तो वह हमें ज़रूर ताकत देगा। इस तरह हम पाँच महीने की ज़बरदस्त ट्रेनिंग पाने के लिए ‘वॉचटावर बाइबल स्कूल ऑफ गिलियड’ गए, जो अमरीका के न्यू यॉर्क राज्य में बसे साउथ लैंसिंग के सुंदर शहर में है। ये पाँच महीने किस तरह निकल गए कुछ पता ही नहीं चला। स्कूल में ज़्यादातर शादी-शुदा जोड़े थे, जो सफरी काम कर रहे थे। जब क्लास से पूछा गया कि क्या कोई विदेश में मिशनरी सेवा करने के लिए जाना चाहता है, तो कुछ भाई-बहनों ने तुरंत हाँ कर दी। उनमें हम भी थे। हमें कहाँ भेजा गया? पूर्वी अफ्रीका के युगाण्डा देश में।

उस वक्‍त युगाण्डा में यहोवा के साक्षियों के काम पर पाबंदी लगी हुई थी। इसलिए मुझे यह सलाह दी गयी कि मैं उस देश में बस जाऊँ और नौकरी की तलाश करूँ। ट्रेन और नाव के लंबे सफर के बाद हम युगाण्डा के कम्पाला शहर पहुँचे। देश में आकर बसनेवालों के कागज़ात की जाँच करनेवाले अफसरों ने जब हमें देखा तो वे खुश नहीं हुए। उन्होंने हमें सिर्फ कुछ महीनों के लिए वहाँ रहने की इजाज़त दी। वक्‍त पूरा होने पर उन्होंने हमें वहाँ से चले जाने का हुक्म दिया। ब्रुकलिन के मुख्यालय से मिली हिदायतों के मुताबिक हम उत्तरी रोडेशिया (आज ज़ाम्बिया) के लिए रवाना हुए। वहाँ गिलियड में साथ ट्रेनिंग पानेवाले चार भाई-बहनों से मिलकर हमें बहुत खुशी हुई। वे थे, फ्रैंक और कैरी लुईस और हेज़ और हैरियट हॉसकंज़। कुछ समय बाद हमें दक्षिणी रोडेशिया (आज ज़िम्बाबवे) भेजा गया।

हमने ट्रेन से सफर किया और बुलवायो शहर पहुँचने से पहले हमने पहली बार विशाल विक्टोरिया झरना देखा। बुलवायो पहुँचने पर हम थोड़े समय के लिए मक्लकी परिवार के साथ रहे, जो वहाँ आकर बसनेवाले साक्षियों में सबसे पहला था। अगले 16 सालों के दौरान उन्हें अच्छी तरह जानने का हमें बढ़िया मौका मिला।

बदलते हालात के मुताबिक खुद को ढालना

अफ्रीका के इलाकों में कैसे प्रचार किया जाता है, इस बारे में अच्छी तरह जानने के लिए मुझे दो हफ्तों की ट्रेनिंग दी गयी। इसके बाद मुझे ज़िला अध्यक्ष ठहराया गया। अफ्रीका के वीरान इलाके में प्रचार करने का मतलब है अपने साथ पानी, खाना, बिस्तर, कपड़े, एक फिल्म प्रोजेक्टर, एक जनरेटर, एक बड़ा परदा और दूसरी ज़रूरी चीज़ें लेकर सफर करना। ये सारी चीज़ें हम एक ऐसे ट्रक में पैक कर देते थे जो हमें ऊबड़-खाबड़ रस्तों से जगह-जगह ले जाने के लिए काफी मज़बूत था।

मैं अफ्रीका के सर्किट अध्यक्षों के साथ काम करता था, जबकि जॉइस साथ आयीं उनकी पत्नियों और बच्चों की मदद करती थी। अफ्रीका के खुले मैदान में पैदल चलना काफी थकाऊ होता है, खासकर तब जब कड़कती धूप हो। मगर जल्द ही मुझे एहसास हुआ कि इस मौसम में अपनी कमज़ोरियों से जूझना ज़्यादा आसान है। इसके लिए मैं बेहद एहसानमंद था।

यहाँ के लोग आम तौर पर बहुत गरीब थे। बहुत-से लोग रीति-रिवाज़ों और अंधविश्‍वासों में पूरी तरह डूबे हुए थे, और उनके एक-से-ज़्यादा पति या पत्नियाँ होते थे। फिर भी, उन्हें बाइबल के लिए गहरा आदर था। कुछ इलाकों में तो कलीसिया की सभाएँ बड़े-बड़े और घने पेड़ों के नीचे होती थीं और शाम के वक्‍त रोशनी के लिए पेड़ पर तेल की बत्तियाँ लटकायी जाती थीं। जब भी हम तारों से भरे आसमान के नीचे बैठकर परमेश्‍वर के वचन का अध्ययन करते थे, तो हमारा दिल परमेश्‍वर के लिए भय और श्रद्धा से भर आता था। वाकई तारों से भरा आसमान, उसके हाथों की क्या ही अद्‌भुत रचना है!

अफ्रीका के उन इलाकों में वॉच टावर संस्था की बनी फिल्में दिखाना एक अलग ही अनुभव था जहाँ आदिवासी लोग रहते थे। एक कलीसिया में कुछ 30 साक्षी होंगे, मगर जब हम वहाँ ये फिल्में दिखाते, तो हम जानते थे कि वहाँ 1,000 या उससे ज़्यादा लोग हाज़िर होंगे!

यहाँ के गर्म इलाके में एक व्यक्‍ति अकसर बीमार पड़ सकता है। मगर ऐसे में हमेशा सही नज़रिया बनाए रखना बेहद ज़रूरी है। मुझे कई बार मलेरिया हुआ, और जॉइस अकसर अमीबा से बीमार पड़ जाती थी। मगर हमने इन हालात का सामना करना काफी अच्छी तरह सीख लिया था।

बाद में, हमें सॉल्ज़बेरी (अब हरारे) के शाखा दफ्तर में सेवा करने के लिए भेजा गया। वहाँ हमें यहोवा के दूसरे वफादार सेवकों से साथ काम करने का बढ़िया मौका मिला। जैसे लेसटर डेवी, और जॉर्ज और रूबी ब्रैडली। सरकार ने मुझे विवाह अफसर (रजिस्ट्रार) नियुक्‍त किया, जिसकी बदौलत मैं कई अफ्रीकी भाइयों की शादी-ब्याह करवा सका और इस तरह कलीसिया में मसीही शादी के बंधन को मज़बूत कर सका। कुछ सालों बाद, मुझे एक और सुअवसर मिला। मैंने देश की उन सभी कलीसियाओं का दौरा किया जहाँ ज़िम्बाबवे की भाषा बन्टू के बजाय अँग्रेज़ी जैसी दूसरी भाषा बोली जाती थी। दस से भी ज़्यादा सालों तक इस तरह काम करके अपने भाइयों को और भी अच्छी तरह जानने में मुझे और जॉइस को बहुत खुशी हुई। इतना ही नहीं, उनकी आध्यात्मिक तरक्की देखकर भी हम बहुत खुश हुए। उस दौरान हम बोत्सवाना और मोज़म्बिक के भाइयों से भी जाकर मिले।

एक और सफर

दक्षिणी अफ्रीका में काफी साल खुशी-खुशी बिताने के बाद, सन्‌ 1975 में हमें पश्‍चिम अफ्रीका के सिएरा लिओन भेजा गया। हम वहाँ के शाखा दफ्तर में जाकर बस गए और अपने एक नए इलाके में काम का मज़ा लेने के लिए तैयार हो गए। मगर हम वहाँ ज़्यादा समय तक नहीं रहे। मुझे ज़बरदस्त मलेरिया हो गया, जिसकी वजह से मैं बीमार और कमज़ोर पड़ गया। आखिरकार, अपना इलाज करवाने के लिए मुझे लंदन जाना पड़ा। वहाँ मुझे यह सलाह दी गयी कि मैं फिर अफ्रीका न लौटूँ। यह सुनकर जॉइस और मैं बहुत निराश हो गए। मगर लंदन के बेथेल परिवार ने हमें वहाँ रहने का बुलावा दिया और हमारा गर्मजोशी से स्वागत किया। इतना ही नहीं, लंदन की कई कलीसियाओं में बहुत-से अफ्रीकी भाई हैं जिन्होंने हमें अफ्रीका की कमी महसूस होने नहीं दी। जैसे-जैसे मेरी तबियत ठीक होती गयी, हम एक अलग माहौल में अपने आपको ढालने लगे और वह था, बेथेल में सेवा करना। मुझे खरीदारी करनेवाले विभाग (पर्चेसिंग डिपार्टमेंट) को सँभालने के लिए कहा गया। इसके बाद के सालों में जब हमने बेथेल में बढ़ोतरी होते देखी, उस दौरान यह काम करने में मुझे बड़ा मज़ा आया।

सन्‌ 1990 के शुरूआती सालों में मेरी प्यारी जॉइस बीमार पड़ गयी। उसे मोटर न्यूरॉन का रोग लग गया था और वह सन्‌ 1994 में चल बसी। वह मरते दम तक मेरी वफादार हमदम रही और हमारे सामने जो भी हालात आए उसके मुताबिक खुद को ढालने के लिए हमेशा तैयार रहती थी। अपने अज़ीज़ को खोने से वाकई सबसे बड़ा सदमा पहुँचता है, मगर मैंने पाया है कि इसका सामना करने के लिए एक साफ आध्यात्मिक नज़रिया बनाए रखना और हमेशा भविष्य की ओर देखना बेहद ज़रूरी है। इसके अलावा, यहोवा से प्रार्थना करना कि वह हमें प्रचार जैसे आध्यात्मिक कामों का एक अच्छा कार्यक्रम बनाए रखने में मदद करे, फायदेमंद साबित हुआ है। क्योंकि इससे मेरे पास वक्‍त ही नहीं बचता कि मैं किसी और चीज़ के बारे में सोचूँ।—नीतिवचन 3:5,6.

बेथेल में सेवा करना एक अनमोल सुअवसर है। और ज़िंदगी जीने का इससे बढ़िया तरीका नहीं हो सकता। यहाँ साथ काम करने और अपनी खुशियाँ बाँटने के लिए कितने सारे नौजवान हैं। और लंदन का शाखा दफ्तर देखने के लिए कितने मेहमान आते हैं। यह हमारे लिए एक आशीष है। कभी-कभी मैं अपने पुराने दोस्तों से मिलता हूँ जिनसे अफ्रीका में मिशनरी सेवा के दौरान मेरी जान-पहचान हुई थी। उस वक्‍त पुरानी यादें फिर से ताज़ा हो जाती हैं। ये सारी बातें मुझे ‘अब की ज़िन्दगी’ का लुत्फ उठाने, साथ ही दृढ़ विश्‍वास और आशा के साथ “आनेवाली ज़िन्दगी” की राह देखने में मदद देती हैं।—1 तीमुथियुस 4:8, हिन्दुस्तानी बाइबिल।

[फुटनोट]

^ इसे यहोवा के साक्षियों ने सन्‌ 1928 में प्रकाशित किया था, मगर अब इसकी छपाई नहीं होती।

[पेज 25 पर तसवीर]

सन्‌ 1946 में, अपनी माँ के साथ

[पेज 26 पर तसवीर]

सन्‌ 1950 में, शादी के दिन जॉइस के साथ

[पेज 26 पर तसवीर]

सन्‌ 1953 में, ब्रिस्टल के अधिवेशन में

[पेज 27 पर तसवीरें]

एक अलग-थलग समूह (ऊपर) और दक्षिणी रोडेशिया की एक कलीसिया (बाँयी तरफ) का दौरा करते वक्‍त जो आज ज़िम्बाबवे है