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दूसरे हमारे बारे में क्या सोचते हैं—क्या यह कोई मायने रखता है?

दूसरे हमारे बारे में क्या सोचते हैं—क्या यह कोई मायने रखता है?

दूसरे हमारे बारे में क्या सोचते हैं—क्या यह कोई मायने रखता है?

हममें से कौन ऐसा है जो दूसरों से तारीफ पाना पसंद नहीं करता? जब किसी अच्छे काम के लिए कोई हमारी पीठ थपथपाता है, तो दिल खुश हो जाता है और हमें कामयाबी का एहसास होता है। इससे हमारे अंदर अपने काम को और भी बेहतरीन ढंग से करने की इच्छा जागती है। दूसरी तरफ, जब हमें लगता है कि कुछ लोग हमसे खुश नहीं हैं तो हम बिलकुल उलटा महसूस करते हैं। जब कोई हमसे सीधे मुँह बात नहीं करता या कोई तीखी बात कह देता है, तो हमारा हौसला पस्त हो जाता है। जी हाँ, दूसरे हमारे बारे में जो सोचते हैं, यह इस बात पर गहरा असर करता है कि हम खुद को किस नज़र से देखेंगे।

‘लोग मेरे बारे में जो चाहे सोचें, इसकी मुझे कोई परवाह नहीं,’ ऐसा कहना गलत होगा। जब दूसरे हमारे बर्ताव या चालचलन को ध्यान से देखकर अपनी राय बताते हैं, तो दरअसल हमें फायदा होता है। वह कैसे? अगर वे ऊँचे नैतिक उसूलों पर चलनेवाले हैं, तो उनकी राय पर ध्यान देने से हमें सीधी चाल चलने का बढ़ावा मिल सकता है। (1 कुरिन्थियों 10:31-33) लेकिन, लोगों की राय कभी-कभी गलत भी हो सकती है। मिसाल के लिए, याद कीजिए कि यीशु मसीह के बारे में प्रधान याजकों और दूसरे लोगों की राय कितनी गलत थी। तभी ‘वे चिल्लाकर कहने लगे; कि उसे क्रूस पर चढ़ा, क्रूस पर।’ (लूका 23:13, 21-25) जिन लोगों को हमारे बारे में गलत जानकारी दी जाती है या जो हमसे जलन रखते हैं या भेदभाव करते हैं, उनकी राय को एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल देना अच्छा होगा। इसलिए दूसरों की राय जानने के बाद, हमें सोच-समझकर तय करना होगा कि हम उनकी राय को गंभीरता से लेंगे या नहीं।

किसकी राय अहमियत रखती है?

हम उन लोगों की मंज़ूरी पाना चाहते हैं जो हमारी तरह सच्ची उपासना करते हैं। इसमें हमारे परिवार के विश्‍वासी सदस्य और मसीही भाई-बहन शामिल हैं जिनके साथ हमारा करीबी रिश्‍ता है। (रोमियों 15:2; कुलुस्सियों 3:18-21) मसीही भाई-बहन हमें जो प्यार और आदर देते हैं, साथ ही जिस तरह हम ‘एक दूसरे से प्रोत्साहित’ किए जाते हैं, यह सब हमारे लिए बहुत मायने रखता है। (रोमियों 1:11, 12, NHT) हम ‘दीनता से एक दूसरे को अपने से अच्छा समझते हैं।’ (फिलिप्पियों 2:2-4) इसके अलावा, हम “अपने अगुवों” यानी कलीसिया के प्राचीनों की भी मंज़ूरी पाना चाहते हैं और उनकी मंज़ूरी को अनमोल समझते हैं।—इब्रानियों 13:17.

हमारी यह ख्वाहिश है कि ‘बाहरवालों में भी हमारा सुनाम हो।’ (1 तीमुथियुस 3:7) जब हम देखते हैं कि हमारे अविश्‍वासी रिश्‍तेदार, साथ काम करनेवाले और पड़ोसी हमारी इज़्ज़त करते हैं, तो हमें कितना अच्छा लगता है! और क्या हम प्रचार में मिलनेवाले लोगों पर भी अच्छी छाप छोड़ने की कोशिश नहीं करते ताकि राज्य के संदेश में उनकी दिलचस्पी बढ़े? अगर हम अपने इलाके में शरीफ और ईमानदार होने का नाम कमाते हैं तो इससे परमेश्‍वर की महिमा होती है। (1 पतरस 2:12) मगर हम लोगों की वाह-वाही पाने के लिए बाइबल के सिद्धांतों से कभी समझौता नहीं करेंगे और ना ही उनको खुश करने के चक्कर में हम कपट का सहारा लेंगे। हमें इस हकीकत को कबूल करना चाहिए कि हम हर किसी को खुश नहीं कर सकते। यीशु ने कहा था: “यदि तुम संसार के होते, तो संसार अपनों से प्रीति रखता, परन्तु इस कारण कि तुम संसार के नहीं, बरन मैं ने तुम्हें संसार में से चुन लिया है इसी लिये संसार तुम से बैर रखता है।” (यूहन्‍ना 15:19) जो हमसे बैर रखते हैं यानी हमारा विरोध करते हैं, उनकी नज़रों में आदर पाने के लिए क्या हम कुछ कर सकते हैं?

विरोधियों से आदर पाना

यीशु ने आगाह किया था: “मेरे नाम के कारण सब लोग तुम से बैर करेंगे, पर जो अन्त तक धीरज धरे रहेगा उसी का उद्धार होगा।” (मत्ती 10:22) इस बैर की वजह से कभी-कभी हम पर गलत और झूठे इलज़ाम लगाए जाते हैं। कुछ सरकारी अधिकारी जो हमारे खिलाफ हैं, वे शायद कहें कि हम “देशद्रोही” हैं। विरोधी खुलेआम हमारे बारे में यह ज़हर उगले कि हम ऐसे पंथ के लोग हैं जो खलबली पैदा करना चाहते हैं इसलिए हमारे काम पर रोक लगा दी जानी चाहिए। (प्रेरितों 28:22) कभी-कभी ऐसे इलज़ामों को झूठा साबित किया जा सकता है। कैसे? प्रेरित पतरस की इस सलाह पर चलकर: “जो कोई तुम से तुम्हारी आशा के विषय में कुछ पूछे, तो उसे उत्तर देने के लिये सर्वदा तैयार रहो, पर नम्रता और भय के साथ।” (1 पतरस 3:15) ऐसी सफाई पेश करते वक्‍त हमारी ‘बातचीत अच्छी होनी चाहिए जिसकी कोई निंदा न कर सके; ताकि विरोधी को हमारे बारे में बुरा कहने का कोई मौका न मिले और वह लज्जित हो जाए।’—तीतुस 2:8, NW.

हालाँकि हम अपने नाम पर लगे कलंक को मिटाने की कोशिश करते हैं, मगर यह देखकर हमें निराश या दुःखी नहीं होना चाहिए कि हमारे बारे में झूठी बातें फैलायी जा रही हैं। परमेश्‍वर का सिद्ध बेटा यीशु जब धरती पर था तो उस पर इलज़ाम लगाया गया कि वह परमेश्‍वर की निंदा करता है, सरकार के खिलाफ साज़िश रचता है, यहाँ तक कि दुष्टात्माओं का साझेदार है। (मत्ती 9:3; मरकुस 3:22; यूहन्‍ना 19:12) उसी तरह, प्रेरित पौलुस के नाम पर भी कीचड़ उछाला गया था। (1 कुरिन्थियों 4:13) यीशु और पौलुस, दोनों ने इन झूठी बातों पर ध्यान नहीं दिया, बस अपने काम में लगे रहे। (मत्ती 15:14) उन्हें मालूम था कि वे कभी अपने दुश्‍मनों को खुश नहीं कर पाएँगे क्योंकि “सारा संसार उस दुष्ट के वश में पड़ा है।” (1 यूहन्‍ना 5:19) आज हमारे साथ भी ऐसा ही होता है। विरोधी हमसे नफरत करने की वजह से हमारे बारे में झूठ फैलाते हैं, मगर हमें ऐसी बातों से घबराने की कोई ज़रूरत नहीं।—मत्ती 5:11.

ऐसी राय जो सचमुच मायने रखती हैं

हमारे बारे में लोगों की अलग-अलग राय होती हैं। यह काफी हद तक इस बात पर निर्भर होता है कि उनके इरादे क्या हैं और उन्होंने हमारे बारे में दूसरों से क्या सुना है। कुछ लोग हमारी तारीफ और इज़्ज़त करते हैं, तो कुछ हमसे नफरत करते हैं, हमारे बारे में बुरा-भला कहते हैं। लेकिन अगर हम बाइबल के सिद्धांतों पर चलते हैं, तो दूसरों की राय को लेकर हमें हद-से-ज़्यादा परेशान होने की ज़रूरत नहीं है।

प्रेरित पौलुस ने लिखा: “हर एक पवित्रशास्त्र परमेश्‍वर की प्रेरणा से रचा गया है और उपदेश, और समझाने, और सुधारने, और धर्म की शिक्षा के लिये लाभदायक है। ताकि परमेश्‍वर का जन सिद्ध बने, और हर एक भले काम के लिये तत्पर हो जाए।” (2 तीमुथियुस 3:16, 17) परमेश्‍वर के वचन को अपना मार्गदर्शक मानकर, जीवन के हर दायरे में इसकी सलाह लेने से हम यहोवा परमेश्‍वर और उसके बेटे, यीशु मसीह की मंज़ूरी पाएँगे। यहोवा और उसके बेटे की राय ही सबसे ज़्यादा अहमियत रखती है। वे हमारे बारे में क्या सोचते हैं, इसी से पता चलता है कि असल में हमारा कितना मोल है। आखिरकार, उनकी मंज़ूरी पर ही हमारी ज़िंदगी टिकी है।—यूहन्‍ना 5:27; याकूब 1:12.

[पेज 30 पर बड़े अक्षरों में लेख की खास बात]

“प्रशंसा मुझे लज्जित करती है, क्योंकि मैं मन-ही-मन इसे पाने को तरसता हूँ।”—भारत के कवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर

[पेज 31 पर तसवीरें]

हमारे मसीही भाई-बहनों की राय मायने रखती हैं

[पेज 30 पर चित्र का श्रेय]

Culver Pictures