माता-पिता की मिसाल से मेरा हौसला बढ़ा
जीवन कहानी
माता-पिता की मिसाल से मेरा हौसला बढ़ा
यानेज़ रेकेल की ज़ुबानी
सन् 1958 की बात है। मैं अपनी पत्नी स्तानका के साथ कॉरवॉन्गकन आल्प्स पर्वतों पर था, जो युगोस्लाविया और ऑस्ट्रिया की सरहद पर हैं। हम सरहद पार करके ऑस्ट्रिया भाग जाने की कोशिश कर रहे थे। मगर ऐसा करना खतरे से खाली नहीं था, क्योंकि युगोस्लाविया की सीमा पर गश्त लगानेवाले हथियारबंद सैनिक किसी का साया तक वहाँ फटकने नहीं देते थे। चलते-चलते हम एक खड़ी चट्टान की कगार पर आ पहुँचे और आगे गहरी खाई थी। स्तानका और मैंने कभी ऑस्ट्रिया की सरहद से इन पहाड़ों को नहीं देखा था। यहाँ से हम पूरब की ओर बढ़े, और हमें कंकड़-पत्थर की एक ऊबड़-खाबड़ ढलान मिली। हमारे पास जो तिरपाल था उससे हमने खुद को बाँध लिया और ढलान पर फिसल पड़े। हम नहीं जानते थे कि आगे हमारे साथ क्या होगा।
चलिए मैं आपको बताता हूँ कि हमारा यह हाल कैसे हुआ और मेरे माता-पिता की वफादारी की मिसाल ने कैसे मुझे मुश्किल हालात में भी यहोवा का वफादार बने रहने की हिम्मत दी।
मैं स्लोवीनिया में पला-बढ़ा था, जो आज मध्य यूरोप का एक छोटा-सा देश है। यह देश यूरोप के आल्प्स पहाड़ों के बीचोंबीच है। इसके उत्तर में ऑस्ट्रिया, दक्षिण में क्रोएशिया, पूरब में हंगरी और पश्चिम में इटली देश हैं। मगर, जब मेरे पिता फ्रान्त्स और मेरी माँ रोज़ेलीया रेकेल का जन्म हुआ था, तब स्लोवीनिया ऑस्ट्रिया-हंगरी साम्राज्य का एक हिस्सा था। पहले विश्वयुद्ध के खत्म होने पर, स्लोवीनिया एक नए राज्य का हिस्सा बन गया जिसे सर्बिया, क्रोएशिया और स्लोवीनिया का राज्य कहा जाता था। सन् 1929 में इसका नाम स्लोवीनिया से बदलकर युगोस्लाविया रखा गया, जिसका मतलब है
“दक्षिण स्लाविया।” उसी साल जनवरी 9 को पोदहोम गाँव से थोड़ी दूर, ब्लैड झील के पास एक खूबसूरत इलाके में मेरा जन्म हुआ था।माँ कट्टर कैथोलिक परिवार में पली-बढ़ी थी। माँ का एक चाचा पादरी था और तीन बूआएँ नन थीं। माँ की यह बड़ी आरज़ू थी कि उसकी अपनी एक बाइबल हो और वह उसे पढ़े और समझे। मगर पिताजी को धर्म में कोई दिलचस्पी नहीं थी। क्योंकि उन्होंने सन् 1914-18 में हुए महायुद्ध (पहला विश्वयुद्ध) में धर्मों को हिस्सा लेते देखा था, तब से वे धर्म से नफरत करने लगे थे।
सच्चाई सीखना
युद्ध के कुछ समय बाद, यानेज़ ब्रायेत्स जो माँ का भाई लगता था, वह और उसकी पत्नी आन्चका दोनों, बाइबल विद्यार्थी बन गए थे। उन दिनों यहोवा के साक्षी इसी नाम से जाने जाते थे। उस वक्त, वे दोनों ऑस्ट्रिया में रहते थे। करीब सन् 1936 से आन्चका अकसर माँ से मिलने आया करती थी। उसने माँ को स्लोवीनिया भाषा की एक बाइबल और उसके साथ-साथ प्रहरीदुर्ग पत्रिकाएँ और दूसरे साहित्य भी दिए। माँ ने इन्हें पढ़ने में देर नहीं लगायी। मगर सन् 1938 में यानेज़ और आन्चका स्लोवीनिया लौट आए क्योंकि उस साल हिटलर ने ऑस्ट्रिया पर कब्ज़ा कर लिया था। वे दोनों पढ़े-लिखे और समझदार थे और उन्हें यहोवा से सच्चा प्यार था। माँ के साथ वे अकसर बाइबल की सच्चाइयों पर चर्चा करते थे और इन्हीं चर्चाओं से माँ को बढ़ावा मिला और उसने अपना जीवन यहोवा को समर्पित कर दिया। माँ ने सन् 1938 में बपतिस्मा लिया।
जब माँ ने क्रिसमस जैसे रीति-रिवाज़ मनाने छोड़ दिए जो बाइबल के हिसाब से गलत थे, और खून से बनी सॉसेज खाने बंद कर दिए, और खासकर जब अपने घर की सारी मूर्तियों को जला दिया, तो पूरे इलाके में खलबली मच गयी। बहुत जल्द हमने विरोध का सामना भी किया। माँ की बूआएँ जो नन थीं, उन्होंने उसे खत लिखने की ज़हमत उठायी और दोबारा मरियम को पूजने और चर्च का एक हिस्सा बनने के लिए उसे कायल करने की कोशिश की। मगर माँ ने जवाब में जब उन्हें खत लिखे और बाइबल के कुछ सवालों के उनसे जवाब माँगे, तो उनसे कोई जवाब नहीं आया। नाना ने भी माँ का ज़बरदस्त विरोध किया। वैसे नाना अच्छे इंसान थे, मगर आसपास के लोगों और रिश्तेदारों के दबाव में आकर उन्होंने कई बार माँ का बाइबल साहित्य नष्ट कर दिया। लेकिन नाना ने कभी बाइबल को हाथ नहीं लगाया। उन्होंने घुटने टेककर माँ से बिनती की कि वह चर्च लौट आए। माँ के न मानने पर वे यहाँ तक उतर आए कि उन्होंने माँ को चाकू दिखाकर धमकी दी। पिताजी यह देखकर बहुत गुस्सा हो गए और उन्होंने नाना से साफ-साफ कह दिया कि वे ऐसा बर्ताव हरगिज़ बरदाश्त नहीं करेंगे।
पिताजी हमेशा माँ का साथ देते रहे और उनका मानना था कि माँ को बाइबल पढ़ने और अपने विश्वासों के मुताबिक फैसले लेने का पूरा-पूरा हक है। फिर सन् 1946 में पिताजी ने भी बपतिस्मा ले लिया। जब मैंने देखा कि यहोवा ने किस
तरह माँ को विरोध के बावजूद, सच्चाई के पक्ष में निडर खड़े रहने की हिम्मत दी और उसके मज़बूत विश्वास के लिए उसे आशीष दी, तो मेरे अंदर भी यहोवा के साथ एक रिश्ता कायम करने की इच्छा पैदा हुई। माँ मुझे बाइबल और बाइबल का साहित्य पढ़कर सुनाया करती थी और इससे भी मुझे बहुत फायदा हुआ।माँ ने अपनी बहन मारीया रेपे के साथ भी बाइबल पर कई बार लंबी चर्चाएँ कीं और बाद में, मारीया मौसी ने और मैंने 1942 की जुलाई में, एक ही दिन बपतिस्मा लिया। इस मौके पर एक भाई हमारे घर आए और एक छोटा-सा भाषण दिया। उसके बाद अपने घर में लकड़ी के एक बड़े टब में हमें बपतिस्मा दिया गया।
दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान जबरन मज़दूरी में लगाया गया
सन् 1942 में जब दूसरा विश्वयुद्ध ज़ोरों पर था, तब जर्मनी और इटली ने मिलकर स्लोवीनिया पर कब्ज़ा कर लिया और फिर स्लोवीनिया को जर्मनी, इटली और हंगरी ने आपस में बाँट लिया। उस दौरान जब मेरे माता-पिता पर नात्ज़ियों के फॉक्सबुन्ट संगठन का हिस्सा होने के लिए दबाव डाला गया, तो उन्होंने साफ इनकार कर दिया। मैंने स्कूल में “हेल हिटलर” कहने से इनकार कर दिया। फिर क्या था, मेरे टीचर ने इस बारे में अधिकारियों से शिकायत कर दी।
हम सबको एक ट्रेन में चढ़ाकर बवेरिया के हूटनबॉक्ख गाँव से थोड़ी दूर एक किले में भेजा गया, जहाँ कड़ी मज़दूरी करायी जाती थी। पिताजी ने वहाँ के डबल रोटी बनानेवाले एक बेकर के घर मेरे रहने और काम करने का बंदोबस्त किया। उनके साथ रहकर मैंने भी बेकर का काम सीखा जो बाद में मेरे बहुत काम आया। कुछ वक्त बाद, मेरे परिवार को (जिसमें मारीया मौसी और उनका परिवार भी शामिल था) गुनज़नहाउज़न कैंप भेजा गया।
दूसरे विश्वयुद्ध के बाद, मैं माँ-पिताजी के पास जाना चाहता था इसलिए मैंने लोगों के एक झुंड के साथ सफर करने की सोची। मगर जिस दिन मैं सफर पर निकलनेवाला था, उससे पहले की शाम को अचानक पिताजी मेरे पास आ पहुँचे। अगर मैं उन लोगों के साथ निकल जाता, तो पता नहीं मेरा क्या होता क्योंकि वे भरोसे के लायक लोग नहीं थे। इस मौके पर, एक बार फिर मैंने महसूस किया कि यहोवा कितने प्यार से मेरी देखभाल करता है, तभी तो वह मेरे माता-पिता के ज़रिए मेरी हिफाज़त कर रहा था और मुझे तालीम दे रहा था। घर लौटने के लिए, पिताजी और मैंने तीन दिन पैदल सफर तय किया। जून 1945 में, हमारा बिखरा हुआ परिवार एक हो गया।
युद्ध के बाद, कम्युनिस्ट राष्ट्रपति यॉसीप ब्रोज़ टीटो, युगोस्लाविया पर हुकूमत करने लगा। नतीजा यह था कि यहोवा के साक्षियों पर ज़ुल्म जारी रहे।
सन् 1948 में ऑस्ट्रिया से एक भाई हमारे यहाँ खाने पर आया। यह भाई जहाँ कहीं जाता पुलिस उसका पीछा करती, इसलिए वह जिन भाइयों के यहाँ गया उन सबको पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। भाई की मेहमाननवाज़ी करने और पुलिस को उसके बारे में इत्तला न करने के जुर्म में पिताजी को दो साल जेल में गुज़ारने पड़े। माँ के लिए यह सबसे मुश्किल वक्त था, सिर्फ इसलिए नहीं कि उन्हें पिताजी की कमी महसूस हो रही थी, पर इसलिए क्योंकि उसे पता था कि बहुत जल्द मुझे और मेरे छोटे भाई को निष्पक्ष रहने की वजह से परीक्षा का सामना करना पड़ेगा।
मैसडोनिया की जेल में
नवंबर 1949 में मुझे फौज में भर्ती होने के लिए बुलाया गया। मैंने जाकर उन्हें बताया कि मेरा विवेक मुझे फौज में भर्ती होने की इजाज़त नहीं देता। अधिकारियों ने मेरी एक न सुनी और मुझे ट्रेन में डालकर मैसडोनिया भेज दिया जो युगोस्लाविया के दूसरे छोर पर है।
तीन साल तक, मैं न तो अपने परिवार से और न ही मसीही भाइयों से मिल सका। मेरे पास न तो बाइबल थी और न ही बाइबल की समझ देनेवाली किताबें-पत्रिकाएँ। वे बहुत-ही मुश्किल-भरे दिन थे। मैंने यहोवा और उसके बेटे, यीशु मसीह की मिसाल पर मनन करके अपने आपको आध्यात्मिक तौर पर ज़िंदा रखा। मेरे माता-पिता की मिसाल ने भी मेरा हौसला बढ़ाया। इसके अलावा, मैंने निराशा की भावना से लड़ने के
लिए हमेशा प्रार्थना का सहारा लिया जिससे मुझे बहुत हिम्मत मिली।बाद में मुझे वहाँ से स्कॉपये शहर के पास, इड्रीज़ोवो जेल भेजा गया। यहाँ कैदियों को तरह-तरह के काम दिए जाते थे और कई अपने हुनर के हिसाब से भी काम करते थे। शुरू में मुझे साफ-सफाई करने और एक दफ्तर से दूसरे दफ्तर के बीच फाइलें लाने-ले जाने का काम दिया गया। एक कैदी जो पहले खुफिया पुलिस में था, मुझे अकसर सताया करता था। मगर उसे छोड़ बाकी सबके साथ, जैसे पहरेदार, कैदियों और यहाँ तक कि जेल की फैक्टरी के मैनेजर से भी मेरी अच्छी बनती थी।
बाद में मुझे पता चला कि जेल की बेकरी में एक बेकर की ज़रूरत है। कुछ दिन बाद, जब कैदी हाज़िरी देने के लिए कतार में खड़े थे तब मैनेजर आया और मेरे पास रुककर मुझसे बोला: “क्या तुम बेकर हो?” मैंने कहा: “जी हाँ।” उसने कहा: “कल से तुम्हें बेकरी में काम करना है।” जो कैदी मुझसे बुरा सलूक करता था वह अकसर बेकरी के पास से गुज़रता था, पर अब वह मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकता था। मैंने वहाँ 1950 के फरवरी से जुलाई महीने तक काम किया।
उसके बाद, मेरा तबादला दक्षिण मैसडोनिया के वोल्कोडेरी कसबे में प्रेसपा झील के पास एक बैरक में हो गया। इस कसबे से थोड़ी दूरी पर ओटेशओवो कसबा था जहाँ से मैं घर खत लिख सकता था। वहाँ मैं सड़क बनानेवाले कैदियों के एक दल के साथ काम करता था। मगर ज़्यादातर मैं बेकरी में ही काम करता था जिस वजह से मुझे थोड़ी राहत मिल जाती थी। मुझे नवंबर 1952 को रिहा किया गया।
जब मैं जेल में था, उस दौरान पोदहोम में एक कलीसिया बन चुकी थी। शुरू में कलीसिया, सभा के लिए स्पोदन्ये गोर्ये कसबे के एक गेस्टहाउस में इकट्ठा हुआ करती थी। बाद में पिताजी ने हमारे घर का एक कमरा, सभा चलाने के लिए दिया। जब मैं मैसडोनिया से लौटकर आया तो मुझे कलीसिया के भाइयों से मिलकर बहुत खुशी हुई। जेल जाने से पहले स्तानका से मेरी मुलाकात हुई थी। अब मैंने दोबारा उसके साथ अपनी जान-पहचान बढ़ायी। अप्रैल 24, 1954 को हमने शादी कर ली। मगर यह आज़ादी बहुत जल्द खत्म होनेवाली थी।
मारीबॉर के जेल भेजा गया
मुझे सितंबर 1954 को फौज में भर्ती होने के लिए दोबारा बुलावा आया। इस बार मुझे साढ़े तीन साल से भी ज़्यादा समय के लिए मारीबॉर के जेल भेजा गया, जो स्लोवीनिया के पूरब की सरहद पर है। जैसे ही मेरे पास कुछ पैसे जमा हो गए, मैंने कुछ कागज़ और पैनसिल खरीद लिए। मुझे बाइबल की जितनी भी आयतें और प्रहरीदुर्ग या दूसरे साहित्य के जितने भी हिस्से याद थे, मैंने उन्हें लिख लिया। उन नोट्स् को मैं हमेशा पढ़ता था और पढ़ने के बाद अगर मुझे और भी कुछ याद आता तो मैं उसे भी अपनी इस किताब में लिख लेता था। मेरे रिहा होने तक मेरी पूरी किताब नोट्स् से भर चुकी थी। उन्हीं की बदौलत मैं अपना ध्यान सच्चाई पर लगाए रख सका और आध्यात्मिक तौर पर मज़बूत बना रहा। इसके अलावा, प्रार्थना और मनन करने से मुझे बड़ी अनमोल मदद मिली और मैं आध्यात्मिक मायने में मज़बूत बना रहा। इसी वजह से मुझे दूसरों को सच्चाई के बारे में बताने की भी हिम्मत मिली।
उस वक्त, मुझे महीने में सिर्फ एक खत पाने और एक बार 15 मिनट के लिए अपने जान-पहचानवालों से बात करने की इजाज़त थी। स्तानका मुझसे मिलने के लिए रात-भर का सफर तय करके आती थी ताकि सुबह-सुबह मुझसे मिलकर उसी दिन वापस घर लौट सके। इन मुलाकातों से मुझे बहुत हिम्मत मिली थी। फिर मैंने एक बाइबल पाने के लिए एक तरकीब बनायी। एक बार जब स्तानका मुझसे मिलने आयी तो हम दोनों एक टेबल पर आमने-सामने बैठे थे और एक पहरेदार हम पर नज़र रखे हुए था। जैसे ही थोड़ी देर के लिए पहरेदार की नज़र हम पर से हटी, मैंने एक चिट्ठी स्तानका के हैंडबैग में डाल दी जिसमें लिखा था कि अगली बार अपने साथ एक बाइबल ले आना।
स्तानका और मेरे माता-पिता ने सोचा कि यह बड़ा ही जोखिम भरा काम है। इसलिए उन्होंने मसीही यूनानी शास्त्र का हिस्सा फाड़कर इसके कुछ पन्ने डबलरोटी के अंदर छिपा दिए। इस तरह मुझे एक बाइबल मिल गयी जिसकी मुझे बहुत
ज़रूरत थी। स्तानका मेरे लिए प्रहरीदुर्ग की कॉपियाँ भी बनाती थी और इसी तरीके से मुझे देती थी। स्तानका के हाथ की लिखी प्रहरीदुर्ग की मैं फौरन एक और कॉपी बना लेता था और पहलीवाली को नष्ट कर देता था, ताकि पकड़े जाने पर किसी को यह पता न लगे कि मुझे ये कहाँ से मिलती थीं।मैं हमेशा दूसरों को प्रचार करता था, इसलिए मेरे साथी कैदी मुझसे कहते थे कि देखना, एक दिन तुम ज़रूर मुसीबत में फँसोगे। एक बार जब मैं बड़े जोश के साथ अपने साथी कैदी से बाइबल पर चर्चा कर रहा था, तभी हमें ताला खोलने की आवाज़ आयी और एक पहरेदार अंदर आया। मैंने मन में सोचा, अब तो गए काल-कोठरी के अंदर। मगर पहरेदार किसी और इरादे से आया था। वह हमारी चर्चा में शामिल होना चाहता था क्योंकि उसने हमारी बातें सुनी थीं। पहरेदार ने मुझ से सवाल किए और मैंने उसके सभी सवालों के जवाब दिए। अपने सवालों के जवाब पाने पर उसे तसल्ली मिली और फिर वह चला गया।
मेरी सज़ा के आखिरी महीने में कैदियों को सुधारने के काम की निगरानी करनेवाले कमिश्नर ने, सच्चाई को थामे रहने के मेरे पक्के इरादे के लिए मुझे शाबाशी दी। यहोवा का नाम दूसरों को बताने की मेरी मेहनत का यह क्या ही बढ़िया इनाम था। मई 1958 को मुझे दोबारा जेल से रिहाई मिली।
बचकर ऑस्ट्रिया भागा, फिर ऑस्ट्रेलिया
मेरी माँ अगस्त 1958 में कुछ वक्त तक बीमार रहने के बाद गुज़र गयी। सितंबर 1958 में तीसरी बार मुझे फौज में भर्ती होने के लिए बुलाया गया। उस शाम स्तानका और मैंने एक बहुत ही यादगार फैसला लिया। हमने सरहद पार करके ऑस्ट्रिया भाग जाने की सोची, जिसके बारे में मैंने शुरू में बताया था। हमने कुछ ज़रूरी चीज़ें बैग में डालीं, एक तिरपाल लिया और किसी को बताए बगैर खिड़की से कूदकर निकल गए। हम ऑस्ट्रिया की सरहद की ओर बढ़ने लगे, जो स्टोल पर्वत के पश्चिम की तरफ थी। हमें लगा जैसे यहोवा ने ही हमारे लिए यह रास्ता खोला था क्योंकि उसे पता था कि हमें थोड़ी राहत की ज़रूरत थी।
ऑस्ट्रिया के अधिकारियों ने हमें सॉल्ज़बर्ग के शरणार्थी शिविर भेजा। हम वहाँ छः महीने रहे, मगर हम बहुत कम समय शिविर में बिताते थे। ज़्यादातर वक्त हम मसीही भाइयों के साथ रहते थे। शिविर के लोगों को यह देखकर बड़ा ताज्जुब हुआ कि कैसे हमने इतनी जल्दी दोस्त बना लिए थे। इसी दौरान हम अपने पहले सम्मेलन में हाज़िर हुए। और ज़िंदगी में पहली बार हमने पूरी आज़ादी से घर-घर का प्रचार काम किया। जब उन प्यारे भाई-बहनों से जुदा होने का वक्त आया तो हमें बहुत दुःख हुआ।
ऑस्ट्रिया के अधिकारियों ने हमारे सामने ऑस्ट्रेलिया में जा बसने की पेशकश रखी। हमने कभी ख्वाब में भी नहीं सोचा था कि हम इतनी दूर जा बसेंगे। हम ट्रेन से इटली के बंदरगाह, जेनोआ गए और वहाँ से जहाज़ के ज़रिए ऑस्ट्रेलिया पहुँचे। आखिरकार, हम न्यू साउथ वेल्स राज्य के वुलनगॉन्ग शहर में बस गए। यहीं पर मार्च 30, 1965 को हमारा बेटा, फिलिप पैदा हुआ।
यहाँ ऑस्ट्रेलिया में हमें सेवा करने के तरह-तरह के मौके मिले। हमें उन लोगों को खुशखबरी सुनाने का मौका भी मिला जो पहले युगोस्लाविया कहलाए जानेवाले इलाकों से यहाँ आ बसे थे। हम यहोवा की आशीषों के लिए बहुत एहसानमंद हैं। उसी की आशीष से हमारा पूरा परिवार एक साथ उसकी सेवा कर रहा है। फिलिप और उसकी पत्नी सूज़ी को यहोवा के साक्षियों के ऑस्ट्रेलिया शाखा दफ्तर में सेवा करने का सुअवसर मिला है। और उन्हें दो साल के लिए स्लोवीनिया के शाखा दफ्तर में भी सेवा करने का मौका मिला था।
ढलती उम्र की शिकायतों और दूसरी चुनौतियों का सामना करने के बावजूद, मैं और मेरी पत्नी खुशी-खुशी यहोवा की सेवा कर रहे हैं। मैं अपने माता-पिता की बेहतरीन मिसाल के लिए उनका बहुत एहसानमंद हूँ! उनकी मिसाल ने मुझे हमेशा मज़बूत किया है और प्रेरित पौलुस की इस सलाह को मानने में मेरी मदद की है: “आशा में आनन्दित रहो; क्लेश में स्थिर रहो; प्रार्थना में नित्य लगे रहो।”—रोमियों 12:12.
[पेज 16, 17 पर तसवीर]
मेरे माता-पिता 1920 के दशक के आखिरी सालों में
[पेज 17 पर तसवीर]
दायीं तरफ, मेरी माँ, अपनी रिश्तेदार आन्चका के साथ जिसने उसे सच्चाई सिखायी थी
[पेज 18 पर तसवीर]
शादी के कुछ वक्त बाद, अपनी पत्नी स्तानका के साथ
[पेज 19 पर तसवीर]
सन् 1955 में वह कलीसिया जो हमारे घर पर इकट्ठी हुआ करती थी
[पेज 20 पर तसवीर]
अपनी पत्नी, बेटे फिलिप और बहू सूज़ी के साथ