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माता-पिताओ—अपने बच्चों के लिए एक बढ़िया आदर्श बनिए

माता-पिताओ—अपने बच्चों के लिए एक बढ़िया आदर्श बनिए

माता-पिताओ—अपने बच्चों के लिए एक बढ़िया आदर्श बनिए

“मनोवैज्ञानिक एक लंबे अरसे से यह जानने की कोशिश कर रहे हैं कि बच्चों की परवरिश करने का राज़ क्या है, जिससे वे बड़े होकर अच्छे इंसान बन सकें। ये विशेषज्ञ अब अपनी खोज बंद कर सकते हैं। क्यों? क्या उन्होंने इसका राज़ पता कर लिया है? नहीं, दरअसल ऐसा कोई राज़ है ही नहीं।” यह बात टाइम पत्रिका ने बच्चों की परवरिश पर छपी एक किताब की समीक्षा पेश करते हुए कही। यह किताब दावा करती है कि बच्चे अपने माँ-बाप के आदर्शों पर चलने के बजाय, दोस्तों को अपना आदर्श बना लेते हैं।

इसमें कोई दो राय नहीं कि एक बच्चे पर उसके दोस्तों की सोहबत का ज़बरदस्त असर होता है। (नीतिवचन 13:20; 1 कुरिन्थियों 15:33) इस बारे में एक अखबार का लेखक, विलियम ब्राउन कहता है: “किशोरों के लिए उनके दोस्त ईश्‍वर समान होते हैं और उन्हें खुश करना ही वे अपना धर्म समझते हैं। . . . वे मर जाना पसंद करेंगे, पर उनसे जुदा दिखना उन्हें कतई मंज़ूर नहीं होगा।” आखिर बच्चे क्यों अपने दोस्तों को आदर्श बनाते हैं? इसके लिए उनके माँ-बाप ज़िम्मेदार हैं जो अपने बच्चों के साथ वक्‍त नहीं बिताते, न ही उन्हें वो प्यार और परवाह दिखाते हैं जिनकी उन्हें ज़रूरत है। आज की दौड़-धूप की दुनिया में ज़्यादातर परिवारों का यही हाल है।

इसके अलावा, बाइबल की भविष्यवाणी के मुताबिक आज इन “अन्तिम दिनों” में लोग पैसा कमाने, मन-बहलाव और अपने स्वार्थ को पूरा करने में डूब हुए हैं। इन सारी बातों का परिवार पर बुरा असर पड़ रहा है। ऐसे में, क्या हमें यह देखकर हैरानी होनी चाहिए कि बच्चे भी “माता-पिता की आज्ञा टालनेवाले, कृतघ्न, अपवित्र” और “स्नेहरहित” (NHT) हो गए हैं, जैसा भविष्यवाणी आगे बताती है?—2 तीमुथियुस 3:1-3.

बाइबल में ‘स्नेह’ के लिए इस्तेमाल हुए यूनानी शब्द का मतलब है, वह प्यार जो परिवार में अपनों के बीच होता है। यह प्यार पैदाइशी होता है और परिवार को एक मज़बूत बंधन में बाँधे रखता है। इसी प्यार की वजह से माता-पिता अपने बच्चों की देखभाल करते हैं और बच्चे उनसे गहरा लगाव रखते हैं। मगर जब माता-पिता बच्चों को अपने प्यार से महरूम रखते हैं तो लाज़िमी है कि बच्चे गैरों से प्यार पाने की कोशिश करेंगे। ऐसे में वे अकसर अपने यार-दोस्तों से नज़दीकियाँ बढ़ाते हैं, और उनके रंग-ढंग और उनकी आदतें अपना लेते हैं। मगर इस नौबत से बचा जा सकता है, बशर्ते माता-पिता अपने परिवार में बाइबल सिद्धांतों को लागू करें।—नीतिवचन 3:5, 6.

परिवार—परमेश्‍वर का इंतज़ाम

परमेश्‍वर ने आदम और हव्वा को पति-पत्नी के बंधन में जोड़ने के बाद, उन्हें यह आज्ञा दी: “फूलो-फलो, और पृथ्वी में भर जाओ।” इस तरह एक परिवार की शुरूआत हुई जिसमें पिता, माता और बच्चे होते हैं। (उत्पत्ति 1:28; 5:3, 4; इफिसियों 3:14, 15) परमेश्‍वर ने इंसानों को इस तरह बनाया है कि उन्हें अपने बच्चों की देखभाल और परवरिश करने की बुनियादी ज़िम्मेदारियों का एहसास रहता है। ऐसी सहज-बुद्धि उसने जानवरों को भी दी है। मगर इंसानों पर दूसरी ज़िम्मेदारियाँ भी हैं। इसलिए उनकी मदद करने के लिए यहोवा ने बाइबल में ज़रूरी हिदायतें दी हैं। जैसे, बच्चों को सही चालचलन बनाए रखने की तालीम देने, परमेश्‍वर की उपासना के बारे में सिखाने और उन्हें सही अनुशासन देने के बारे में हिदायतें।—नीतिवचन 4:1-4.

परमेश्‍वर ने खास पिताओं को ध्यान में रखकर कहा: “ये आज्ञाएं जो मैं आज तुझ को सुनाता हूं वे तेरे मन में बनी रहें; और तू इन्हें अपने बालबच्चों को समझाकर सिखाया करना, और घर में बैठे, मार्ग पर चलते, लेटते, उठते, इनकी चर्चा किया करना।” (व्यवस्थाविवरण 6:6, 7; नीतिवचन 1:8, 9) गौर कीजिए, यहाँ माता-पिताओं से कहा गया है कि वे पहले खुद परमेश्‍वर के नियमों को अपने दिलों में बिठाएँ। ऐसा करना क्यों ज़रूरी है? क्योंकि एक इंसान जो नसीहत देता है, उसका दूसरों पर तभी बढ़िया असर होगा जब वह खुद अपनी बात के मुताबिक काम करेगा। इसलिए अगर माता-पिता अपने बच्चों को परमेश्‍वर के नियम सिखाने के साथ-साथ उन नियमों पर खुद चलेंगे, तभी वे अपने बच्चों के दिल में इन्हें बिठा पाएँगे। ऐसा करके माँ-बाप अपने बच्चों के लिए एक बढ़िया आदर्श बनेंगे। लेकिन अगर वे ऐसा नहीं करेंगे तो बच्चे फौरन समझ जाएँगे कि उनके माता-पिता बोलते कुछ हैं, मगर करते कुछ और हैं।—रोमियों 2:21.

मसीही माता-पिताओं से कहा गया है कि वे अपने बच्चों को छुटपन से ही “प्रभु की शिक्षा और अनुशासन” दें। (इफिसियों 6:4, NHT; 2 तीमुथियुस 3:15) लेकिन क्या बच्चों को छुटपन से प्रभु की शिक्षा देना मुमकिन है? बेशक मुमकिन है! एक माँ लिखती है: “कभी-कभी हम माता-पिता, अपने बच्चों की सीखने की काबिलीयत को कम आँकते हैं। हमें लगता है कि वे अभी बहुत छोटे हैं। मगर सच तो यह है कि उनमें सीखने की गज़ब की काबिलीयत होती है। इसलिए हमें बच्चों को ज़्यादा-से-ज़्यादा सिखाना चाहिए।” बच्चों में काबिलीयत के साथ-साथ सीखने की ललक भी होती है। इसलिए जब परमेश्‍वर का भय माननेवाले माता-पिता अपने बच्चों को यहोवा के बारे में सिखाते हैं, तो परमेश्‍वर उनके लिए असल बन जाता है और वे उससे प्यार करने लगते हैं। ऐसे बच्चे माँ-बाप की लगायी बंदिशों में सुरक्षित महसूस करते हैं। इसलिए अगर माता-पिता अपने बच्चों की परवरिश करने में कामयाब होना चाहते हैं, तो उन्हें चाहिए कि वे अपने बच्चों के दोस्त बनें, उनके साथ खुलकर बातचीत करें, सब्र से उन्हें सिखाएँ और सख्ती भी बरतें। * इस तरह बच्चों को बढ़ने के लिए भरा-पूरा माहौल मिलेगा।

अपने बच्चों की हिफाज़त करें

जर्मनी में एक हैडमास्टर ने बच्चों का भला चाहते हुए, माता-पिताओं को एक खत में यह लिखा: “हमारी आपसे यह गुज़ारिश है कि आप अपने बच्चों की परवरिश करने में और भी ज़्यादा ध्यान दें। उन्हें हर वक्‍त टी.वी देखने या बुरे दोस्तों से मेल-जोल रखने की इजाज़त न दें। याद रखिए कि उन्हें एक अच्छा इंसान बनाने की [ज़िम्मेदारी] आपकी है।”

अगर हम अपने बच्चे को हर वक्‍त टी.वी देखने या बुरे दोस्तों के साथ मेल-जोल रखने देंगे, तो उस पर संसार की आत्मा हावी हो सकती है। (इफिसियों 2:1, 2) संसार की आत्मा, परमेश्‍वर की आत्मा के विरोध में काम करती है और नादान और नासमझ लोगों के दिलो-दिमाग को ‘सांसारिक, शारीरिक और शैतानी’ विचारों से भर देती है। (याकूब 3:15) फिर ऐसे खतरनाक विचार धीरे-धीरे उनके मन को पूरी तरह दूषित कर देते हैं। इसका क्या नतीजा होता है? यीशु ने एक उदाहरण देकर समझाया: “भला मनुष्य अपने मन के भले भण्डार से भली बातें निकालता है; और बुरा मनुष्य अपने मन के बुरे भण्डार से बुरी बातें निकालता है; क्योंकि जो मन में भरा है वही उसके मुंह पर आता है।” (लूका 6:45) इसलिए बाइबल हमें आगाह करती है: “सब से अधिक अपने मन की रक्षा कर; क्योंकि जीवन का मूल स्रोत वही है।”—नीतिवचन 4:23.

आम तौर पर बच्चे नादान होते हैं, मगर कुछ ज़िद्दी बन सकते हैं और कुछ में तो गलत रास्ते पर जाने का रुझान भी हो सकता है। (उत्पत्ति 8:21) ऐसे में माता-पिता क्या कर सकते हैं? बाइबल कहती है: “लड़के के मन में मूढ़ता बन्धी रहती है, परन्तु छड़ी की ताड़ना के द्वारा वह उस से दूर की जाती है।” (नीतिवचन 22:15) कुछ लोगों का मानना है कि बच्चों को छड़ी से मारना बेरहमी है और अनुशासन देने का एक दकियानूसी तरीका है। दरअसल बाइबल भी मारने-कूटने और गाली-गलौज करने की निंदा करती है। हालाँकि बाइबल में कभी-कभी “छड़ी” का मतलब पिटाई करना है, मगर कई बार माता-पिता के अधिकार को दर्शाने के लिए “छड़ी” शब्द का इस्तेमाल किया जाता है। जब माता-पिता इस अधिकार का सही इस्तेमाल करते हैं, यानी अपने बच्चों को प्यार से अनुशासन देते हैं और सख्ती भी बरतते हैं तो इससे बच्चों को हमेशा के फायदे मिलते हैं।—इब्रानियों 12:7-11.

अपने बच्चों के साथ मनोरंजन का मज़ा लीजिए

सभी जानते हैं कि बच्चों को अच्छी तरह बढ़ने के लिए मनोरंजन और खेल-कूद की ज़रूरत है। समझदार माता-पिता न सिर्फ अपने बच्चों के लिए मनोरंजन का इंतज़ाम करते हैं, बल्कि जब भी मुमकिन हो वे खुद उनके साथ मिलकर मनोरंजन करते हैं। इससे उनके आपस का रिश्‍ता और भी मज़बूत होता है। इस तरह माता-पिता न सिर्फ उन्हें सही किस्म का मनोरंजन चुनना सिखाते हैं, बल्कि यह भी एहसास दिलाते हैं कि उनके साथ वक्‍त बिताना उनके लिए बहुत मायने रखता है।

एक पिता जो साक्षी है, वह कहता है कि काम से आने के बाद वह अकसर अपने बेटे के साथ गेंद का खेल खेलता था। एक माँ कहती है कि मेरे बच्चों को मेरे साथ शतरंज जैसे खेल खेलने में बड़ा मज़ा आता था। एक लड़की, अपने बचपन के दिन याद करते हुए कहती है कि हमारे परिवार के सभी लोगों को मिलकर अपनी-अपनी साइकिल पर सैर करना बहुत अच्छा लगता था। आज ये सभी बच्चे बड़े हो गए हैं, मगर अपने माँ-बाप और यहोवा के लिए उनके दिल में प्यार कम नहीं हुआ है, बल्कि और यह गहरा हो गया है।

वाकई, जब माता-पिता बातों से ही नहीं, बल्कि कामों से भी यह ज़ाहिर करते हैं कि उन्हें अपने बच्चे से प्यार है और उनके साथ वक्‍त बिताने में उन्हें बेहद खुशी मिलती है, तो इसका बच्चों के दिल पर गहरा असर पड़ता है और वे उम्र-भर अपने माँ-बाप के आदर्शों पर चलते हैं। मसलन, ‘वॉचटावर बाइबल स्कूल ऑफ गिलियड’ की एक क्लास पर गौर कीजिए। इसके ज़्यादातर ग्रेजुएट भाई-बहनों ने बताया कि उनमें पूरे समय की सेवा करने का जज़्बा पैदा करनेवाले उनके माँ-बाप ही थे, जिन्होंने उनके सामने बढ़िया आदर्श रखा और उनका जोश भी बढ़ाया। इन बच्चों को अपने माँ-बाप से क्या ही बढ़िया विरासत मिली है, और माँ-बाप को भी अपने इन बच्चों पर कितना नाज़ होगा! माना कि सभी बच्चे बड़े होकर पूरे समय के सेवक नहीं बनते, क्योंकि हालात उनका साथ नहीं देते। मगर एक बात तय है कि अगर परमेश्‍वर का भय माननेवाले माता-पिता अपने बच्चों के करीबी दोस्त बनें और उनके लिए बढ़िया आदर्श रखें, तो बड़े होकर वे ज़रूर उनकी मिसाल पर चलेंगे और उनका आदर करेंगे।—नीतिवचन 22:6; इफिसियों 6:2, 3.

अकेले परिवार चलानेवाले भी कामयाब हो सकते हैं

आज कई परिवारों में, माँ या पिता अकेले अपने बच्चों की परवरिश कर रहे हैं। बच्चों की परवरिश करना वैसे भी एक मुश्‍किल ज़िम्मेदारी है, मगर यह उन लोगों के लिए और भी बड़ी चुनौती बन जाती है जो अकेले घर चलाते हैं। फिर भी, वे कामयाब हो सकते हैं। ऐसे माता-पिता बाइबल में दर्ज़ यूनीके की बेहतरीन मिसाल से हौसला पा सकते हैं। वह पहली सदी की एक यहूदिन मसीही थी। उसका पति अविश्‍वासी था, तो ज़ाहिर है कि सच्ची उपासना में वह उसका साथ नहीं देता था। इसके बावजूद, यूनीके ने अपने बेटे तीमुथियुस को सच्चाई सिखाने में एक बढ़िया मिसाल कायम की। यूनीके और उसकी माँ, लोइस ने तीमुथियुस को छुटपन से ही अच्छी तालीम दी। इसलिए अगर तीमुथियुस के साथियों ने गलत राह पर चलने के लिए उस पर दबाव डाला भी हो, मगर वह उनके बहकावे में नहीं आया।—प्रेरितों 16:1, 2; 2 तीमुथियुस 1:5; 3:15.

आज कई जवान ऐसे परिवार में पले-बढ़े हैं जिनमें या तो माँ-पिता में से सिर्फ एक जन सच्चाई में है, या फिर उनकी परवरिश माँ या पिता ने अकेले की है। फिर भी, वे तीमुथियुस के जैसे बढ़िया गुण दिखाते हैं। ऐसा ही एक जवान है, रायन। आज वह 22 साल का है और पूरे समय की सेवा कर रहा है। उसका एक बड़ा भाई और एक बड़ी बहन भी है। उसका पिता एक शराबी था और जब रायन 4 साल का था, तो वह उन्हें छोड़कर चला गया। इसलिए उसकी माँ को अपने तीन बच्चों की परवरिश अकेले करनी पड़ी। रायन कहता है: “माँ ने ठान लिया था कि वह अपने तीनों बच्चों के संग यहोवा की सेवा करती रहेगी। और उसने ऐसा करने में जी-जान से मेहनत भी की।”

रायन आगे कहता है: “माँ इस बात का खास ध्यान रखती थी कि हम सिर्फ अच्छे बच्चों के साथ दोस्ती करें। वह हमें ऐसे बच्चों के साथ मेल-जोल नहीं रखने देती थी जो बाइबल के मुताबिक बुरी संगति थे, फिर चाहे वे बाहरवाले हों या कलीसिया के अंदर के। इसके अलावा, माँ ने स्कूल की पढ़ाई के बारे में भी हमारे अंदर सही नज़रिया पैदा किया।” रायन की माँ बहुत व्यस्त रहती थी और कई बार थककर चूर हो जाती थी, फिर भी वह अपने बच्चों के लिए वक्‍त ज़रूर निकालती थी। रायन कहता है: “माँ को हमारे साथ वक्‍त बिताना और हमसे बातचीत करना बहुत अच्छा लगता था। वह हमें सिखाते वक्‍त सब्र से काम लेती थी मगर सख्ती भी बरतती थी। हर हफ्ते बराबर पारिवारिक अध्ययन चलाने के लिए वह अपनी तरफ से पूरी कोशिश करती थी। और जहाँ बाइबल के सिद्धांतों को लागू करने की बात आती, तो ‘समझौता’ करने का सवाल ही नहीं उठता था।”

रायन जब अपने बचपन के दिन याद करता है, तो उसे एहसास होता है कि आज वह और उसके भाई-बहन ज़िंदगी के जिस मुकाम पर हैं, इसमें उनकी माँ का बहुत बड़ा हाथ रहा है जो यहोवा और अपने बच्चों को दिलो-जान से प्यार करती है। इसलिए मसीही माता-पिताओ, चाहे आप अकेले परिवार चला रहे हों या अपने पति/पत्नी के साथ, चाहे आपका साथी सच्चाई में हो या नहीं, अपने बच्चों को परमेश्‍वर के बारे में सिखाने में कभी हार मत मानिए, इसके बावजूद कि कभी बच्चे आपको निराश कर दें या फिर आपकी कोशिशें नाकाम होती नज़र आएँ। ऐसा भी हो सकता है कि कुछ जवान बच्चे शायद उड़ाऊ बेटे की तरह, सच्चाई से बहक जाएँ। लेकिन दुनिया का मज़ा लेते-लेते एक दिन जब उन्हें होश आएगा कि दुनिया कितनी ज़ालिम और खोखली है, तो हो सकता है कि वे सच्चाई की तरफ लौट आएँ। जी हाँ, “धर्मी जो खराई से चलता रहता है, उसके पीछे उसके लड़केबाले धन्य होते हैं।”—नीतिवचन 20:7; 23:24, 25; लूका 15:11-24.

[फुटनोट]

^ इनमें से हर मुद्दे पर ज़्यादा जानकारी पाने के लिए पारिवारिक सुख का रहस्य किताब, पेज 55-9 देखिए। इसे यहोवा के साक्षियों ने प्रकाशित किया है।

[पेज 11 पर बक्स/तसवीरें]

यीशु के माता-पिता को परमेश्‍वर ने चुना था

यहोवा ने जब अपने बेटे, यीशु को धरती पर भेजा, तो बहुत सोच-समझकर उसके लिए माता-पिता को चुना। यह गौरतलब है कि यहोवा ने एक ऐसा जोड़ा चुना जो बहुत ही नम्र और परमेश्‍वर का भय माननेवाले था। उन्होंने यीशु को खूब लाड़-प्यार देकर बिगाड़ा नहीं बल्कि उसे परमेश्‍वर के वचन के बारे में सिखाया, साथ ही कड़ी मेहनत करना और एक ज़िम्मेदार इंसान बनना सिखाया। (नीतिवचन 29:21; विलापगीत 3:27) यीशु के पिता, यूसुफ ने उसे बढ़ई का काम सिखाया। यीशु सबसे बड़ा बेटा था और उसके कम-से-कम छः भाई-बहन थे। इसलिए यूसुफ और मरियम ने ज़रूर अपने दूसरे बच्चों की देखभाल करने में यीशु की भी मदद ली होगी।—मरकुस 6:3.

ज़रा सोचिए कि फसह के पर्व के लिए, यूसुफ का पूरा परिवार कैसे यरूशलेम जाने की तैयारी करता होगा। वे हर साल ये सफर करते थे। आने-जाने में उन्हें कुल मिलाकर 200 किलोमीटर का लंबा सफर तय करना पड़ता था और उस ज़माने में कोई गाड़ी भी नहीं थी। उनके परिवार में करीब नौ लोग थे, यानी उन्हें सफर के लिए अच्छा बंदोबस्त करना पड़ता था। (लूका 2:39, 41) इन सारी मुश्‍किलों के बावजूद, यूसुफ और मरियम इन मौकों को बहुत अहमियत देते थे। और हो सकता है कि ऐसे सफर के दौरान, वे अपने बच्चों को बाइबल में दर्ज़ बीती घटनाओं के बारे में बताते थे।

जब यीशु अपने माता-पिता के साथ था, तो वह उनके “अधीन रहा” (NHT) और “बुद्धि और डील-डौल में और परमेश्‍वर और मनुष्यों के अनुग्रह में बढ़ता गया।” (लूका 2:51, 52) जी हाँ, यूसुफ और मरियम ने यीशु की अच्छी परवरिश की और इस तरह यहोवा की दी अमानत को सँभालकर रखा। वाकई, वे दोनों आज के माता-पिताओं के लिए क्या ही बढ़िया मिसाल हैं!—भजन 127:3.