आप परमेश्वर की मरज़ी के मुताबिक फैसले कैसे कर सकते हैं?
आप परमेश्वर की मरज़ी के मुताबिक फैसले कैसे कर सकते हैं?
अमरीका में एक आदमी 25,000 डॉलर का चॆक लेकर एक बैंक में गया। वह उस पैसे को फिक्स डिपॉज़िट में रखना चाहता था। मगर बैंक के एक अफसर ने उसे शेयर बाज़ार में पैसा लगाने की सलाह दी क्योंकि उसका दावा था कि आगे चलकर शेयर बाज़ार में उसके पैसे डूबने की नौबत नहीं आएगी। उस आदमी ने इस अफसर की सलाह मानने का फैसला किया। मगर अफसोस, कुछ ही समय बाद उस आदमी के ज़्यादातर पैसे डूब गए।
यह अनुभव दिखाता है कि सही फैसला करना एक चुनौती है। और उन फैसलों का क्या जो हम अपनी ज़िंदगी में आए दिन लेते रहते हैं? हमारे कई फैसलों का अंजाम या तो कामयाबी हो सकता है या फिर नाकामी। इतना ही नहीं, आगे चलकर ये फैसले हमें ज़िंदगी दे सकते हैं या हमारी मौत का सबब बन सकते हैं। तो फिर, हम कैसे यकीन कर सकते हैं कि हम जो फैसला ले रहे हैं वह सही है या गलत?
“मार्ग यही है”
हम हर दिन कई फैसले करते हैं, जैसे हम क्या खाएँगे, क्या पहनेंगे, कहाँ जाएँगे, वगैरह। कुछ फैसले हमें मामूली लग सकते हैं, मगर उनका बहुत बुरा अंजाम हो सकता है। मिसाल के लिए, पहली बार सिगरेट पीने का फैसला करना भले ही मामूली बात लगे, लेकिन यही फैसला एक इंसान को उम्र-भर के लिए सिगरेट का गुलाम बना सकता है। इसलिए हमें कभी-भी यह नहीं सोचना चाहिए कि छोटे और मामूली फैसलों का हम पर कोई असर नहीं पड़ता।
ऐसे फैसले लेते वक्त भी जो शायद हमारी नज़र में मामूली हों, हमें किसकी मदद लेनी चाहिए? अगर हमें एक भरोसेमंद सलाहकार की मदद मिले जो हमें किसी मुश्किल फैसले के बारे में सलाह दे सके, तो कितना अच्छा होगा! आपको जानकर खुशी होगी कि ऐसा सलाहकार मौजूद है। सदियों पुरानी एक किताब में लिखा यह पैगाम आज भी हमारे लिए कारगर है: “जब कभी तुम दहिनी वा बाई ओर मुड़ने लगो, तब तुम्हारे पीछे से यह वचन तुम्हारे कानों में पड़ेगा, मार्ग यही है, इसी पर चलो।” (यशायाह 30:21) ये किसके शब्द हैं? और आप कैसे यकीन कर सकते हैं कि उसकी दिखायी राह सही है?
सही राह दिखाने का वादा करनेवाले ये शब्द बाइबल में पाए जाते हैं। करोड़ों लोगों ने इसका अध्ययन किया है और पाया है कि यह किताब हमारे सिरजनहार यहोवा परमेश्वर की प्रेरणा से लिखी गयी है। (2 तीमुथियुस 3:16, 17) यहोवा हमारी बनावट जानता है, इसलिए वही सबसे बढ़कर हमें सही राह दिखा सकता है। वह यह भी बता सकता है कि भविष्य में क्या होनेवाला है क्योंकि जैसे वह कहता है: “मैं तो अन्त की बात आदि से और प्राचीनकाल से उस बात को बताता आया हूं जो अब तक नहीं हुई। मैं कहता हूं, मेरी युक्ति स्थिर रहेगी।” (यशायाह 46:10) इसलिए एक भजनहार ने यहोवा के वचन पर अपना भरोसा इस तरह ज़ाहिर किया: “तेरा वचन मेरे पांव के लिये दीपक, और मेरे मार्ग के लिये उजियाला है।” (भजन 119:105) मगर सवाल यह है कि इस संसार के तूफानी सागर में यहोवा हमारी मदद करके हमें सही-सलामत किनारे तक कैसे ले आता है? हम परमेश्वर की मरज़ी के मुताबिक फैसले कैसे कर सकते हैं?
बाइबल सिद्धांतों पर चलिए
यहोवा परमेश्वर ने मसीहियों को बाइबल में अपने सिद्धांत दिए हैं जिनकी मदद से वे सही फैसले कर सकते हैं। उन सिद्धांतों को सीखना और उन पर चलना, नयी भाषा सीखने और बोलने के बराबर है। जब आप कोई भाषा अच्छी तरह सीख लेते हैं, और जब दूसरा वह भाषा बोलते वक्त व्याकरण में गलतियाँ करता है, तो आप जान लेते हैं कि वह सही नहीं बोल रहा क्योंकि वह सुनने में ठीक नहीं लगता। आप शायद ठीक-ठीक न बता पाएँ कि वह गलती क्या है, मगर आपको मालूम है कि वह गलत है। उसी तरह जब आप बाइबल सिद्धांतों को अच्छी तरह सीख लेते हैं और उन पर सही तरह से अमल करना भी सीखते हैं, तो आम तौर पर आप भी बता सकेंगे कि कौन-सा फैसला गलत है या परमेश्वर के सिद्धांतों के मुताबिक नहीं है।
मान लीजिए, एक नौजवान को यह फैसला करना है कि उसे अपने बालों का स्टाइल कैसे रखना है। बाइबल में ऐसी कोई आज्ञा नहीं है जो किसी स्टाइल को गलत बताती है। लेकिन बाइबल के एक सिद्धांत पर गौर कीजिए। प्रेरित पौलुस ने लिखा: “स्त्रियां भी शालीनता और सादगी के साथ उचित वस्त्रों से अपने आप को सुसज्जित करें। वे बाल गूंथने और सोने या मोतियों या बहुमूल्य वस्त्रों से नहीं, वरन् अपने को भले कार्यों से संवारें जैसा कि उन स्त्रियों को शोभा देता है जो अपने आप को भक्तिन कहती हैं।” (1 तीमुथियुस 2:9, 10, NHT) पौलुस यहाँ स्त्रियों की बात कर रहा था, मगर इसमें दिया सिद्धांत स्त्री-पुरुष दोनों पर लागू होता है। कौन-सा सिद्धांत? यही कि हमारे रंग-रूप में शालीनता और सादगी झलकनी चाहिए। इसलिए वह नौजवान खुद से पूछ सकता है: ‘क्या मेरे बालों के स्टाइल से शालीनता दिखायी देगी जो मसीहियों को शोभा देती है?’
इसके अलावा, शिष्य याकूब के इन शब्दों से एक जवान कौन-सा फायदेमंद सिद्धांत सीख सकता है? “हे व्यभिचारिणियो, क्या तुम नहीं जानतीं, कि संसार से मित्रता करनी परमेश्वर से बैर करना है? सो जो कोई संसार का मित्र होना चाहता है, वह अपने आप को परमेश्वर का बैरी बनाता है।” (याकूब 4:4) संसार का मित्र बनना—मसीहियों को इस खयाल से ही सख्त नफरत है क्योंकि यह संसार परमेश्वर का बैरी है। अगर वह जवान अपने बालों का ऐसा स्टाइल रखता है जो उसके हमउम्र साथियों को पसंद है, तो वह खुद को किसका मित्र दिखाएगा? परमेश्वर का या संसार का? अपने बालों के स्टाइल के बारे में सही फैसला करने के लिए वह नौजवान बाइबल में ऐसे सिद्धांतों को इस्तेमाल कर सकता है। वाकई, बाइबल के सिद्धांत फैसला करने में हमारी मदद करते हैं। और जब हम परमेश्वर के इन सिद्धांतों को ध्यान में रखकर फैसले करने के आदी हो जाते हैं, तो हमारे लिए सही फैसले लेना आसान हो जाता है जिनका कोई बुरा अंजाम नहीं होता।
परमेश्वर के वचन में बहुत सारे सिद्धांत दिए गए हैं। बेशक, हमें शायद ऐसा कोई वचन न मिले जो खास उत्पत्ति 4:6, 7, 13-16; व्यवस्थाविवरण 30:15-20; 1 कुरिन्थियों 10:11) इन किस्सों को पढ़ने और परमेश्वर के मार्गदर्शन को मानने या न मानने का जो अंजाम हुआ, उस पर गहराई से सोचने से हम परमेश्वर के सिद्धांतों को समझ पाएँगे। और ये सिद्धांत हमें ऐसे फैसले करने में मदद देंगे जिनसे परमेश्वर खुश होता है।
हमारे हालात पर लागू होता है। फिर भी, बाइबल ऐसे कुछ लोगों के बारे में बताती है जिन्होंने परमेश्वर के मार्गदर्शन को कबूल किया और कइयों ने उसकी चेतावनियों को अनसुना कर दिया। (यीशु मसीह और प्रेरित पतरस के बीच हुई एक छोटी-सी बातचीत की मिसाल लीजिए। मंदिर का कर वसूल करनेवालों ने पतरस से पूछा था: “क्या तुम्हारा गुरु मन्दिर का कर नहीं देता?” पतरस ने जवाब दिया: “हां देता तो है।” थोड़ी देर बाद, यीशु ने पतरस से पूछा: “पृथ्वी के राजा महसूल या कर किन से लेते हैं? अपने पुत्रों से या परायों से?” जब पतरस ने जवाब दिया: “परायों से,” तो यीशु ने कहा: “तो पुत्र बच गए। तौभी इस लिये कि हम उन्हें ठोकर न खिलाएं, तू झील के किनारे जाकर बंसी डाल, और जो मछली पहिले निकले, उसे ले; तो तुझे उसका मुंह खोलने पर एक सिक्का मिलेगा, उसी को लेकर मेरे और अपने बदले उन्हें दे देना।” (मत्ती 17:24-27) इस किस्से से हम कौन-से बाइबल सिद्धांत सीखते हैं?
यीशु ने एक-के-बाद-एक सवाल पूछकर पतरस को यह समझने में मदद दी कि परमेश्वर का पुत्र होने के नाते यीशु कर चुकाने से मुक्त था। हालाँकि पतरस यह बात शुरू में न समझ सका, मगर यीशु ने उसे बड़े प्यार से समझाया। इससे हम एक सिद्धांत सीखते हैं। अगर कोई गलती करता है, तो बड़ी रुखाई से उसकी गलती बताने या उसे बुरा-भला कहने के बजाय हमें यीशु की तरह प्यार से उसे उसकी गलती समझानी चाहिए।
प्यार से समझाए जाने के बाद पतरस यह समझ सका कि यीशु ने किस वजह से कर चुकाने को कहा था। इसलिए कि दूसरों को ठोकर न खिलाए। यह दूसरा सिद्धांत है जो हम इस किस्से से सीख सकते हैं। हमें दूसरों के विवेक का लिहाज़ करना चाहिए, और ऐसा कोई काम करने पर अड़े नहीं रहना चाहिए जो चाहे अपने आप में गलत न हो मगर जिससे दूसरे ठोकर खा सकते हैं।
क्या बात हमें उकसाती है कि हम फैसले करते वक्त दूसरों के विवेक का आदर करें? इंसानों के लिए प्यार। यीशु मसीह ने सिखाया था कि परमेश्वर को तन-मन से प्यार करना सबसे बड़ी आज्ञा है और इंसानों को प्यार करना दूसरी सबसे बड़ी आज्ञा है। (मत्ती 22:39) लेकिन आज हम एक मतलबी दुनिया में जीते हैं, और पापी इंसान होने के नाते अकसर हम भी सिर्फ अपने मतलब की सोचते हैं। इसलिए अगर हम जितना खुद से प्यार करते हैं उतना ही दूसरों से करना चाहते हैं, तो सबसे पहले हमें अपने सोचने का तरीका बदलना होगा।—रोमियों 12:2.
बहुतों ने ऐसा बदलाव किया है और अपने हर छोटे-बड़े फैसले में वे ध्यान रखते हैं कि दूसरों के विवेक को ठेस न पहुँचाएँ। पौलुस ने लिखा: “हे भाइयो, तुम स्वतंत्र होने के लिये बुलाए गए हो परन्तु ऐसा न हो, कि यह स्वतंत्रता शारीरिक कामों के लिये अवसर बने, बरन प्रेम से एक दूसरे के दास बनो।” (गलतियों 5:13) हम यह कैसे कर सकते हैं? आइए एक लड़की की मिसाल पर गौर करें। वह एक छोटे कसबे में आकर रहने लगी थी ताकि वहाँ के लोगों को परमेश्वर के वचन के बारे में सिखा सके। जैसे-जैसे वह लोगों को प्रचार करने लगी उसे एहसास हुआ कि उसके कपड़ों को लेकर पूरे इलाके में चर्चा हो रही थी। उसके कपड़े शालीन तो थे, मगर उस जगह के हिसाब से वे कुछ ज़्यादा ही फैशनबल थे। इसलिए इस लड़की ने सादे और ऐसे रंग के कपड़े पहनने का फैसला किया जो चटकीले न हों, “ताकि परमेश्वर के वचन की निन्दा न [हो]।”—तीतुस 2:5.
अगर आपको अपने कपड़े पहनने के ढंग या किसी और निजी मामले में अपनी पसंद बदलनी पड़े, तो क्या आप भी उस बहन की तरह फैसला करेंगे? अगर आप अपने फैसलों से दिखाते हैं कि आप दूसरों के विवेक का लिहाज़ करते हैं, तो यकीन मानिए यहोवा आपसे बहुत खुश होगा।
दूर की सोचना
फैसला लेते वक्त बाइबल सिद्धांतों और दूसरों के विवेक का लिहाज़ करने के अलावा हमें और किस बात का ध्यान रखना चाहिए? मसीहियों की ज़िंदगी एक ऐसी डगर की तरह है जो तंग और ऊबड़-खाबड़ है, मगर परमेश्वर ने अपनी ठहरायी हदों के अंदर हमें काफी आज़ादी दी है। (मत्ती 7:13, 14) इसलिए हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि हमारे फैसलों का आगे चलकर हमारी आध्यात्मिकता पर, हमारे दिलो-दिमाग और शरीर पर क्या असर पड़ेगा।
मान लीजिए, आप कोई नौकरी कबूल करने की सोच रहे हैं। शायद इस नौकरी में कोई अनैतिक या गलत काम शामिल न हो। आप मसीही सभाओं और अधिवेशनों में हाज़िर हो पाएँगे। तनख्वाह आपकी उम्मीद से बढ़कर है। मालिक आपके हुनर की बहुत कदर करता है और आपकी काबिलीयत का पूरा-पूरा फायदा उठाना चाहता है। यही नहीं, आपको काम भी पसंद है। तो फिर, क्या कोई ऐसी बात हो सकती है जो आपको यह नौकरी कबूल करने से रोके? अगर आपको यह खतरा नज़र आता है कि आगे चलकर शायद आप सबकुछ भूलकर इस काम में डूब जाएँगे, तब आप क्या करेंगे? आपको कहा जाता है कि आपसे ज़बरदस्ती ओवरटाइम नहीं करवाया जाएगा। लेकिन किसी प्रोजेक्ट को खत्म करने के लिए क्या आप दिन-रात उसके लिए मेहनत करेंगे? क्या इस तरह का ओवरटाइम आपको आए दिन करना पड़ सकता है? क्या यह आपको अपने परिवार से और धीरे-धीरे उन आध्यात्मिक कामों से दूर ले जाएगा जो आपको हर हाल में करने चाहिए?
जिम की मिसाल पर गौर कीजिए और देखिए कि किस बात ने उसे अपनी नौकरी के बारे में एक बड़ा फैसला लेने में मदद की। जिम ने दिन-रात मेहनत की और वह तरक्की की सीढ़ियाँ चढ़ता गया। आखिरकार वह पूर्वी एशिया में अपनी कंपनी का मैनेजिंग डाइरेक्टर बन गया और उसने अमरीका और यूरोप में अपनी कंपनी की शाखाओं में भी बड़ा ओहदा पाया। लेकिन जब जापान की अर्थव्यवस्था में गिरावट आयी तो जिम इस हकीकत से रू-ब-रू हुआ कि पैसे और ताकत के पीछे भागना बेकार है। उसके खून-पसीने की कमाई देखते-ही-देखते मिट्टी में मिल गयी। उसे लगा कि उसके जीने का कोई मकसद नहीं रह गया है। वह खुद से पूछने लगा: ‘अब से दस साल बाद मेरी ज़िंदगी कैसी होगी?’ फिर उसे एहसास हुआ कि उसकी पत्नी और बच्चे अपनी ज़िंदगी को अच्छे कामों में लगा रहे हैं। वे कई सालों से यहोवा के साक्षियों के साथ संगति कर रहे थे। जिम चाहता था कि जो खुशी और चैन उसके परिवार को मिला है, वह उसे भी मिले। इसलिए उसने बाइबल अध्ययन करना शुरू किया।
बहुत जल्द जिम समझ गया कि उसके जीने का तरीका ऐसा था जो उसे एक मसीही के नाते सफल ज़िंदगी जीने से रोक रहा था। कैसे? उसे अपने काम के सिलसिले में बार-बार एशिया, अमरीका और यूरोप आना-जाना पड़ता था। इस वजह से उसके पास बाइबल अध्ययन करने या मसीही भाई-बहनों के साथ संगति करने के लिए ज़्यादा वक्त नहीं बचता था। उसे फैसला करना था: ‘मैं पिछले 50 साल से जैसी ज़िंदगी जी रहा हूँ, क्या वैसे ही जीना जारी रखूँगा, या क्या मैं नयी ज़िंदगी शुरू करूँगा?’ उसने इस बारे में परमेश्वर से प्रार्थना की और गहराई से सोचा कि उसके इस फैसले का आगे चलकर क्या असर पड़ सकता है। इसके बाद, उसने फैसला किया कि वह सिर्फ एक नौकरी करेगा और बाकी ओहदे छोड़ देगा ताकि उसे आध्यात्मिक कामों के लिए ज़्यादा वक्त मिले। (1 तीमुथियुस 6:6-8) इस फैसले से उसकी खुशी बढ़ गयी और उसे मसीही कामों के लिए ज़्यादा वक्त मिलने लगा।
आपके हर छोटे-बड़े फैसले का आपकी ज़िंदगी पर ज़बरदस्त असर होता है। आपके फैसले से आपको कामयाबी मिल सकती है या नाकामी। और आगे चलकर इसकी वजह से आपको ज़िंदगी मिल सकती है या मौत। अगर आप बाइबल सिद्धांतों, दूसरों के विवेक और आपके फैसले का आगे चलकर क्या असर होगा, इन बातों का ध्यान रखें तो आप सही फैसले कर पाएँगे। जी हाँ, ऐसे फैसले कीजिए जो परमेश्वर की मरज़ी के मुताबिक हैं।
[पेज 13 पर तसवीर]
मामूली लगनेवाले फैसलों का बहुत बुरा अंजाम हो सकता है
[पेज 14 पर तसवीर]
बाइबल के सिद्धांत, कैसे बुद्धिमानी से फैसला करने में उसकी मदद कर सकते हैं?
[पेज 15 पर तसवीर]
यीशु ने प्यार से पतरस को समझाया