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क्या आप ‘बोलने का हियाव’ रखते हैं?

क्या आप ‘बोलने का हियाव’ रखते हैं?

क्या आप ‘बोलने का हियाव’ रखते हैं?

दुनिया के 235 देशों में 60 लाख से भी ज़्यादा लोग, “साहस” या ‘बोलने का हियाव’ रखते हैं। ये शब्द, बाइबल के मसीही यूनानी शास्त्र में कई बार आते हैं। (फिलिप्पियों 1:20; 1 तीमुथियुस 3:13; इब्रानियों 3:6; 1 यूहन्‍ना 3:21) शब्द, ‘बोलने का हियाव’ का क्या मतलब है? ऐसा हियाव रखने में क्या बात हमारी मदद करती है? और किन मौकों पर ऐसा हियाव रखने से हम अपनी बात बेझिझक कह पाएँगे?

वाइन्स्‌ एक्सपॉज़िट्री डिक्शनरी ऑफ ओल्ड एण्ड न्यू टेस्टामेंट वर्ड्‌स्‌ के मुताबिक, जिस यूनानी शब्द का अनुवाद ‘बोलने का हियाव’ किया गया है, उसका मतलब है: “बोलने की आज़ादी, बेधड़क अपनी बात कहना, . . . निडरता से बोलना; या दूसरे शब्दों में कहें तो इससे दृढ़ता, साहस और निडरता का अर्थ मिलता है। इसलिए यह ज़रूरी नहीं कि इस शब्द को हर बार बातचीत से जोड़ा जाए।” लेकिन अगर कोई बेधड़क अपनी बात कहता है, तो उसका मतलब यह नहीं कि वह बदतमीज़ है। बाइबल कहती है: ‘तुम्हारा वचन सदा अनुग्रह सहित हो।’ (कुलुस्सियों 4:6) बोलने का हियाव का मतलब है, अपनी बात सोच-समझकर कहना, साथ ही इस बात का ध्यान रखना कि मुश्‍किल हालात या इंसान का डर हमें अपनी बात कहने से न रोके।

क्या बोलने का हियाव हमारा पैदाइशी हक है? गौर कीजिए कि प्रेरित पौलुस ने इफिसुस के मसीहियों से क्या कहा: “मुझ पर जो सब पवित्र लोगों में से छोटे से भी छोटा हूं, यह अनुग्रह हुआ, कि मैं अन्यजातियों को मसीह के अगम्य धन का सुसमाचार सुनाऊं।” पौलुस ने आगे कहा कि यीशु मसीह की बदौलत ही “हम को उस पर विश्‍वास रखने से हियाव और भरोसे से निकट आने का अधिकार है।” (इफिसियों 3:8-12) इन शब्दों से पता चलता है कि बोलने का हियाव हमारा पैदाइशी हक नहीं बल्कि यह हमें इसलिए मिला है क्योंकि यहोवा परमेश्‍वर के साथ हमारा रिश्‍ता है। और इस रिश्‍ते की बुनियाद है, यीशु मसीह पर हमारा विश्‍वास। आइए देखें कि ऐसा हियाव रखने में क्या बात हमारी मदद कर सकती है और हम प्रचार में, सिखाते वक्‍त और प्रार्थना में ऐसा हियाव कैसे दिखा सकते हैं।

साहस के साथ प्रचार करने में क्या बात हमारी मदद करती है?

बोलने का हियाव रखने में यीशु मसीह हमारे लिए सबसे बेहतरीन मिसाल है। प्रचार के लिए उसका जोश काबिले-तारीफ था। वह परमेश्‍वर के राज्य के बारे में गवाही देने का कोई भी मौका नहीं छोड़ता था, फिर चाहे वह आराम कर रहा हो, किसी के घर पर भोजन कर रहा हो, या रास्ते पर कहीं जा रहा हो। खिल्ली उड़ाए जाने पर या खुलेआम विरोध किए जाने पर भी उसने डर के मारे सुसमाचार सुनाना बंद नहीं किया। इसके बजाय, उसने बड़ी हिम्मत के साथ अपने दिनों के झूठे धर्मगुरुओं की कड़ी निंदा की। (मत्ती 23:13-36) जब उसे गिरफ्तार किया गया और उस पर मुकदमा चलाया गया, उस वक्‍त भी उसने निडर होकर गवाही दी।—यूहन्‍ना 18:6, 19, 20, 37.

यीशु के प्रेरितों ने उसी के जैसा साहस दिखाया। पतरस ने सा.यु. 33 के पिन्तेकुस्त के दिन, बड़े हियाव से 3,000 से भी ज़्यादा लोगों को गवाही दी। मगर पतरस हमेशा से साहसी नहीं था। कुछ समय पहले जब एक दासी ने उसे पहचाना कि वह यीशु का साथी है, तो पतरस डर गया और इस बात से साफ इनकार कर दिया। (मरकुस 14:66-71; प्रेरितों 2:14, 29, 41) मगर उस घटना के बाद पतरस और बाकी प्रेरितों में कितना बदलाव आया! जब पतरस और यूहन्‍ना को धर्मगुरुओं के सामने लाया गया तो वे बिलकुल नहीं डरे। बल्कि उन्होंने बेझिझक और साहस के साथ यीशु के बारे में गवाही दी जो मरे हुओं में से जी उठा था। पतरस और यूहन्‍ना का यही साहस देखकर धर्मगुरुओं ने पहचान लिया कि वे यीशु के साथी थे। (प्रेरितों 4:5-13) हियाव के साथ बात करने में उन्हें किस बात ने मदद दी?

यीशु ने अपने प्रेरितों से वादा किया था: “जब वे तुम्हें पकड़वाएंगे तो यह चिन्ता न करना, कि हम किस रीति से; या क्या कहेंगे: क्योंकि जो कुछ तुम को कहना होगा, वह उसी घड़ी तुम्हें बता दिया जाएगा। क्योंकि बोलनेवाले तुम नहीं हो परन्तु तुम्हारे पिता का आत्मा तुम में बोलता है।” (मत्ती 10:19, 20) पवित्र आत्मा ने पतरस और बाकी प्रेरितों के डर या झिझक को दूर किया और उन्हें हियाव के साथ बात करने में मदद दी। यह शक्‍तिशाली आत्मा आज हमें भी ऐसी मदद दे सकती है।

इसके अलावा, यीशु ने अपने प्रेरितों को चेले बनाने की आज्ञा दी थी। वह उन्हें इस बिनाह पर यह आज्ञा दे सका क्योंकि उसे “स्वर्ग और पृथ्वी का सारा अधिकार” दिया गया है। और उसने उन्हें भरोसा दिलाया कि इस काम में वह ‘उनके संग है।’ (मत्ती 28:18-20) यह जानकर पहली सदी के चेलों को उन अधिकारियों का सामना करने की हिम्मत मिली जो उनके प्रचार काम को बंद करने पर तुले हुए थे। (प्रेरितों 4:18-20; 5:28, 29) उसी तरह आज हमें भी यह जानकर हिम्मत मिलती है कि यीशु, प्रचार के काम में हमारे साथ है।

चेलों की हिम्मत की एक और वजह थी। पौलुस ने बताया कि वह है, उनकी आशा जो उन्हें ‘हियाव के साथ बोलने’ में मदद करती है। (2 कुरिन्थियों 3:12; फिलिप्पियों 1:20) चेलों के पास आशा का बढ़िया संदेश था, इसलिए उन्होंने यह संदेश अपने तक नहीं रखा बल्कि दूसरों को भी सुनाना ज़रूरी समझा। उसी तरह आज, हमारी आशा भी हमें बोलने का हियाव देती है।—इब्रानियों 3:6.

साहस के साथ प्रचार करना

मुश्‍किल हालात में भी हम साहस के साथ कैसे प्रचार कर सकते हैं? प्रेरित पौलुस की मिसाल लीजिए। जब वह रोम में कैद था, तो उसने मसीही भाइयों से उसके लिए प्रार्थना करने को कहा ताकि उसे ‘बोलने के समय ऐसा प्रबल वचन दिया जाए, कि वह उस के विषय में जैसा उसे चाहिए हियाव से बोल सके।’ (इफिसियों 6:19, 20) क्या भाइयों की प्रार्थनाएँ सुनी गयीं? बिलकुल। कैद में रहकर भी पौलुस “बिना रोक टोक बहुत निडर होकर परमेश्‍वर के राज्य का प्रचार करता . . . रहा।”—प्रेरितों 28:30, 31.

जब हम नौकरी की जगह पर, स्कूल में, या सफर करते वक्‍त गवाही देने के मौके इस्तेमाल करते हैं, तो यह ज़ाहिर होता है कि हममें कितना हियाव है। लेकिन हो सकता है कि हम कई वजहों से गवाही देने में झिझक महसूस करें। जैसे, हम स्वभाव से शर्मिले हो, या हमें डर हो कि सामनेवाला कैसा रवैया दिखाएगा, या गवाही देने में हम खुद को नाकाबिल महसूस करें। इस मामले में भी प्रेरित पौलुस हमारे लिए एक अच्छा आदर्श है। उसने लिखा: “हमारे परमेश्‍वर ने हमें ऐसा हियाव दिया, कि हम परमेश्‍वर का सुसमाचार भारी विरोधों के होते हुए भी तुम्हें सुनाएं।” (1 थिस्सलुनीकियों 2:2) जी हाँ, पौलुस अपनी काबिलीयतों पर नहीं बल्कि परमेश्‍वर पर पूरा भरोसा रखकर प्रचार का काम कर पाया।

शेरी नाम की एक मसीही बहन को जब गवाही देना का एक मौका मिला, तो प्रार्थना की मदद से वह हिम्मत के साथ बोल पायी। एक दिन, शेरी एक जगह पर अपने पति का इंतज़ार कर रही थी। उसने देखा कि एक स्त्री भी वहाँ किसी का इंतज़ार कर रही है। शेरी बताती है कि आगे क्या हुआ: “उसे गवाही देने के खयाल से ही मेरे हाथ-पाँव ठंडे हो गए। इसलिए मैंने हिम्मत के लिए यहोवा से प्रार्थना की।” जैसे ही शेरी उस स्त्री के पास गयी, तभी वहाँ इत्तफाक से एक पादरी आ पहुँचा। उसे देखकर शेरी थोड़ा घबरायी मगर उसने दोबारा प्रार्थना की और उस स्त्री को गवाही दी। नतीजा, शेरी ने उसे कुछ साहित्य दिए और उससे दोबारा मिलने का इंतज़ाम किया। यह अनुभव दिखाता है कि जब हम यहोवा पर भरोसा रखते हैं और मौके का फायदा उठाकर गवाही देते हैं, तो वह हमें हिम्मत के साथ बोलने में ज़रूर मदद देता है।

सिखाते वक्‍त बोलने का हियाव रखना

सिखाने का हियाव के साथ बोलने से गहरा नाता है। कलीसिया में ‘सेवक का काम अच्छी तरह से करनेवाले’ भाइयों के बारे में बाइबल कहती है: “वे अपने लिये अच्छा पद और उस विश्‍वास में, जो मसीह यीशु पर है, बड़ा हियाव प्राप्त करते हैं।” (1 तीमुथियुस 3:13) ये भाई बोलने का हियाव इसलिए प्राप्त करते हैं क्योंकि वे खुद उन बातों पर चलते हैं जो वे दूसरों को सिखाते हैं। ऐसा करके वे कलीसिया की हिफाज़त करते हैं और उसे मज़बूत करते हैं।

जब हम इस तरह बोलने का हियाव रखते हैं, तो यह गुंजाइश ज़्यादा रहती है कि सुननेवालों पर हमारी सलाह का अच्छा असर होगा और वे उसे मानेंगे। यह देखकर उनकी हौसला-अफज़ाई होती है कि सलाह देनेवाला खुद उन बातों को मानने में एक अच्छी मिसाल है जो वह दूसरों को सिखाता है। बोलने का हियाव, आध्यात्मिक काबिलीयत रखनेवाले मसीहियों को हक देता है कि वे ‘अपने भाई को सुधारें,’ इससे पहले कि वह कोई गंभीर पाप कर बैठे। (गलतियों 6:1, नयी हिन्दी बाइबिल) इसके उलट, अगर एक मसीही खुद एक अच्छी मिसाल नहीं है, तो वह उसी हक से गलती करनेवाले भाई को सलाह देने या उसे सुधारने में झिझक महसूस करेगा। ऐसे में वक्‍त पर सलाह न देने से अंजाम बहुत बुरा हो सकता है।

साहस के साथ बोलने का यह मतलब नहीं कि हम दूसरों की नुक्‍ताचीनी करें या उनकी न मानकर अपनी ही बात पर अड़े रहें। मिसाल के लिए, पौलुस ने फिलेमोन को लिखी अपनी पत्री में उसकी नुक्‍ताचीनी नहीं की बल्कि “प्रेम के आधार पर” उसे कुछ सलाह दी। (फिलेमोन 8, 9, ईज़ी-टू-रीड वर्शन) और ऐसा मालूम होता है कि फिलेमोन ने राज़ी-खुशी उसकी सलाह कबूल की। इससे साफ ज़ाहिर होता है कि प्राचीन चाहे जो भी सलाह दे, उसका आधार हमेशा प्यार होना चाहिए।

बेशक, दूसरों को सलाह देते वक्‍त बोलने का हियाव रखना बेहद ज़रूरी है। मगर दूसरे मौकों पर भी इसकी ज़रूरत पड़ती है। पौलुस ने कुरिन्थुस की कलीसिया को लिखा: “मैं तुम से बहुत हियाव के साथ बोल रहा हूं, मुझे तुम पर बड़ा घमण्ड है।” (2 कुरिन्थियों 7:4) पौलुस अपने भाई-बहनों को शाबाशी देने से कभी पीछे नहीं हटा। वह अपने मसीही भाइयों से बेहद प्यार करता था, इसलिए उनकी खामियों को जानते हुए भी उसने हमेशा उनमें अच्छाइयाँ देखीं। पौलुस की तरह जब प्राचीन भी अपने भाई-बहनों को दिल खोलकर शाबाशी देते हैं और उनकी हौसला-अफज़ाई करते हैं, तो इससे मसीही कलीसिया मज़बूत होती है।

अगर हम मसीही चाहते हैं कि सिखाने के काम में हमें अच्छे नतीजे मिलें, तो बोलने का हियाव रखना ज़रूरी है। शेरी, जिसका पहले ज़िक्र किया गया है, अपने बच्चों को स्कूल में गवाही देने का बढ़ावा देना चाहती थी। मगर वह कबूल करती है: “हालाँकि मैं बचपन से सच्चाई जानती थी, मगर मैंने स्कूल में सिर्फ एकाध बार गवाही दी थी। और आज भी मैं मौका देखकर गवाही देने से झिझकती हूँ। मैंने खुद से पूछा: ‘अगर मैं चाहती हूँ कि मेरे बच्चे गवाही दें, तो क्या मैं उनके लिए एक अच्छी मिसाल हूँ?’” इसलिए शेरी, मौका ढूँढ़कर गवाही देने में पहले से ज़्यादा मेहनत करने लगी।

जी हाँ, दूसरे हमारे कामों को देखते हैं और जब हम उन बातों पर नहीं चलते जो हम सिखाते हैं, तो वे यह भी बड़ी आसानी से देख सकते हैं। इसलिए आइए हम अपनी बातों के मुताबिक चलने की पूरी-पूरी कोशिश करें ताकि हम बोलने का हियाव रख सकें।

प्रार्थना में

खासकर यहोवा से प्रार्थना करते वक्‍त बोलने का हियाव रखना बेहद ज़रूरी है। हम बेझिझक उसे अपने दिल की बात कह सकते हैं और यह भरोसा रख सकते हैं कि यहोवा हमारी दुआएँ ज़रूर सुनेगा और उनका जवाब भी देगा। इस तरह हम अपने पिता, यहोवा के और भी करीब आते हैं। हमें कभी यहोवा से प्रार्थना करने में संकोच नहीं करना चाहिए और यह नहीं सोचना चाहिए कि यहोवा मुझ जैसे मामूली इंसान की क्या सुनेगा। लेकिन मान लीजिए, कोई गलती या पाप करने पर हम दोषी महसूस कर रहे हैं और यहोवा को अपने दिल की बात नहीं कह पा रहे हैं। ऐसे में हमें क्या करना चाहिए? क्या हम तब भी बेझिझक सारे जहान के महाराजाधिराज से प्रार्थना कर सकते हैं?

जी हाँ, कर सकते हैं। यही नहीं, यीशु को हमारा महायाजक ठहराया गया है और इस वजह से भी हम बेझिझक यहोवा से प्रार्थना कर सकते हैं और यह भरोसा रख सकते हैं कि वह हमारी सुनेगा। इब्रानियों 4:15, 16 में हम पढ़ते हैं: “हमारा ऐसा महायाजक नहीं, जो हमारी निर्बलताओं में हमारे साथ दुखी न हो सके; बरन वह सब बातों में हमारी नाईं परखा तो गया, तौभी निष्पाप निकला। इसलिये आओ, हम अनुग्रह के सिंहासन के निकट हियाव बान्धकर चलें, कि हम पर दया हो, और वह अनुग्रह पाएं, जो आवश्‍यकता के समय हमारी सहायता करे।” वाकई यीशु के बलिदान और उसके महायाजक बनने से हमें क्या ही अनमोल मदद मिली है।

अगर हम यहोवा की आज्ञा मानने की पूरी-पूरी कोशिश करते हैं, तो हम यह भरोसा रख सकते हैं कि यहोवा हमारी प्रार्थनाएँ ज़रूर सुनेगा। प्रेरित यूहन्‍ना ने लिखा: “हे प्रियो, यदि हमारा मन हमें दोष न दे, तो हमें परमेश्‍वर के साम्हने हियाव होता है। और जो कुछ हम मांगते हैं, वह हमें उस से मिलता है; क्योंकि हम उस की आज्ञाओं को मानते हैं; और जो उसे भाता है वही करते हैं।”—1 यूहन्‍ना 3:21, 22.

प्रार्थना में यहोवा के सामने हियाव रखने का मतलब है कि हम उसे कोई भी बात बेझिझक बता सकते हैं। हमें जो डर, चिंता, या परेशानी सताती है, वह हम यहोवा से कह सकते हैं और यह यकीन रख सकते हैं कि वह हमारे दिल से निकली प्रार्थनाओं को अनसुना नहीं करेगा। अगर हमसे गंभीर पाप हुआ है, तो ऐसे में भी यहोवा से खुलकर प्रार्थना करने में दोष की भावनाएँ एक रुकावट नहीं होगी। बशर्ते हम सच्चे दिल से पश्‍चाताप करें।

बोलने का हियाव, परमेश्‍वर की तरफ से एक बेशकीमती तोहफा है जिसके हम लायक नहीं। इस हियाव से हम अपने प्रचार में और सिखाने के काम में परमेश्‍वर की महिमा कर सकते हैं और प्रार्थना में उसके और भी करीब आ सकते हैं। तो फिर आइए, हम ‘अपना हियाव न छोड़े क्योंकि उसका प्रतिफल बड़ा है।’ जी हाँ, हमेशा की ज़िंदगी का वह बढ़िया प्रतिफल जो हमें भविष्य में मिलेगा।—इब्रानियों 10:35.

[पेज 13 पर तसवीर]

प्रेरित पौलुस ने हिम्मत के साथ गवाही दी

[पेज 15 पर तसवीरें]

सिखाने के काम में अच्छे नतीजे हासिल करने के लिए बोलने का हियाव रखना ज़रूरी है

[पेज 16 पर तसवीर]

प्रार्थना में बोलने का हियाव होना ज़रूरी है