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क्या आप ‘आत्मा के अनुसार चलेंगे’?

क्या आप ‘आत्मा के अनुसार चलेंगे’?

क्या आप ‘आत्मा के अनुसार चलेंगे’?

“आत्मा के अनुसार चलो, तो तुम शरीर की लालसा किसी रीति से पूरी न करोगे।”—गलतियों 5:16.

1. आत्मा के खिलाफ पाप करने के डर को कैसे दूर किया जा सकता है?

 कहीं हमने यहोवा की पवित्र आत्मा के खिलाफ तो पाप नहीं किया, इस डर को दूर करने का एक तरीका है। वह क्या है? इसका जवाब प्रेरित पौलुस ने दिया: “आत्मा के अनुसार चलो, तो तुम शरीर की लालसा किसी रीति से पूरी न करोगे।” (गलतियों 5:16) अगर हम परमेश्‍वर की आत्मा की दिखायी राह पर चलें, तो हम शरीर की गलत इच्छाओं से लड़ने में कामयाब होंगे।—रोमियों 8:2-10.

2, 3. जब हम आत्मा के अनुसार चलेंगे, तो इसका हम पर क्या असर होगा?

2 जब हम ‘आत्मा के अनुसार चलेंगे,’ तो परमेश्‍वर की यह सक्रिय शक्‍ति हमें उसकी आज्ञाओं को मानने के लिए उकसाएगी। हम अपने घर में, कलीसिया में, प्रचार में और दूसरी जगहों पर यहोवा के जैसे गुण दिखा पाएँगे। अपने जीवन-साथी, अपने बच्चों, मसीही भाई-बहनों और दूसरों के साथ हमारे व्यवहार से ज़ाहिर होगा कि परमेश्‍वर की आत्मा हम पर काम कर रही है।

3 ‘आत्मा में परमेश्‍वर के अनुसार जीवित रहने,’ यानी परमेश्‍वर के आदर्शों के मुताबिक जीने से हम पाप करने से दूर रहेंगे। (1 पतरस 4:1-6) और परमेश्‍वर की आत्मा के अधीन काम करने से तो हम ऐसा पाप हरगिज़ नहीं करेंगे जिसकी कोई माफी नहीं। लेकिन आत्मा के अनुसार चलने से हमें और क्या फायदे होंगे?

परमेश्‍वर और मसीह के करीब रहिए

4, 5. आत्मा के अनुसार चलने से यीशु के बारे में हम कैसा नज़रिया रखेंगे?

4 हम पवित्र आत्मा के अनुसार चलते हैं, इसलिए हम परमेश्‍वर और उसके बेटे के साथ एक करीबी रिश्‍ता बनाए रख पाते हैं। पौलुस ने आत्मिक वरदानों के बारे में लिखते वक्‍त, कुरिन्थुस के मसीही भाई-बहनों से कहा: “मैं तुम्हें [जो पहले मूर्ति पूजनेवाले थे] चितौनी देता हूं कि जो कोई परमेश्‍वर की आत्मा की अगुआई से बोलता है, वह नहीं कहता कि यीशु स्रापित है; और न कोई पवित्र आत्मा के बिना कह सकता है कि यीशु प्रभु है।” (1 कुरिन्थियों 12:1-3) ऐसी कोई भी आत्मा जो लोगों को उकसाती है कि वे यीशु को शाप दें, वह यहोवा की तरफ से नहीं हो सकती। यह आत्मा सिर्फ शैतान इब्‌लीस की तरफ से हो सकती है। लेकिन, हम मसीही जो आत्मा के अनुसार चलते हैं, यीशु को शापित नहीं ठहराते। इसके बजाय, हमें पूरा यकीन है कि यहोवा ने यीशु को मुरदों में से जिलाया और उसे सारी सृष्टि पर अति महान किया। (फिलिप्पियों 2:5-11) इसके अलावा, हम मसीह के छुड़ौती बलिदान पर विश्‍वास रखते हैं और यह कबूल करते हैं कि यीशु को परमेश्‍वर ने हम पर प्रभु ठहराया है।

5 पहली सदी में, मसीही होने का दम भरनेवाले चंद लोगों ने इस बात को नकार दिया कि यीशु धरती पर इंसान बनकर आया था। (2 यूहन्‍ना 7-11) इस झूठी धारणा पर विश्‍वास करके कुछ लोगों ने यीशु यानी मसीहा से जुड़ी सच्ची शिक्षाओं को ठुकरा दिया। (मरकुस 1:9-11; यूहन्‍ना 1:1, 14) लेकिन हम अगर आत्मा के अनुसार चलें, तो हम इस तरह के धर्मत्याग के फंदे में नहीं फँसेंगे। और आध्यात्मिक रूप से सतर्क रहकर ही हम लगातार यहोवा की अपार कृपा पा सकेंगे और “सत्य पर चलते” रह सकेंगे। (3 यूहन्‍ना 3, 4) इसलिए आइए हम ठान लें कि हम हर किस्म के धर्मत्याग को ठुकरा देंगे ताकि अपने पिता, यहोवा के साथ हमारा रिश्‍ता मज़बूत बना रहे।

6. परमेश्‍वर की सक्रिय शक्‍ति उन लोगों में कौन-से गुण पैदा करती है, जो आत्मा के अनुसार चलते हैं?

6 पौलुस ने ‘शरीर के कामों’ में व्यभिचार और लुचपन के साथ-साथ मूर्तिपूजा और विधर्म का भी ज़िक्र किया था। मगर उसने यह भी समझाया: “जो मसीह यीशु के हैं, उन्हों ने शरीर को उस की लालसाओं और अभिलाषों समेत क्रूस पर चढ़ा दिया है। यदि हम आत्मा के द्वारा जीवित [हैं], तो आत्मा के अनुसार चलें भी।” (गलतियों 5:19-21, 24, 25) परमेश्‍वर की सक्रिय शक्‍ति उन लोगों में कौन-से गुण पैदा करती है, जो आत्मा के अनुसार जीते और चलते हैं? इसके जवाब में पौलुस ने लिखा: “आत्मा का फल प्रेम, आनन्द, मेल, धीरज, कृपा, भलाई, विश्‍वास, नम्रता [“कोमलता,” NW], और संयम हैं।” (गलतियों 5:22, 23) आइए हम एक-एक करके आत्मा के इन फलों पर चर्चा करें।

‘आपस में प्रेम रखिए’

7. प्रेम क्या है, और इसकी कुछ खासियतें क्या हैं?

7 आत्मा का एक फल है, प्रेम। प्रेम का मतलब है, किसी के साथ गहरा लगाव और करीबी रिश्‍ता होना। यह एक ऐसा गुण है जो लोगों को अपने स्वार्थ के बजाय दूसरों की फिक्र करने को उकसाता है। यहोवा प्रेम का साक्षात्‌ रूप है, इसलिए बाइबल कहती है कि “परमेश्‍वर प्रेम है।” यीशु मसीह का छुड़ौती बलिदान इस बात का सबूत है कि परमेश्‍वर और उसके बेटे को इंसानों से बेइंतिहा प्यार है। (1 यूहन्‍ना 4:8; यूहन्‍ना 3:16; 15:13; रोमियों 5:8) यीशु के चेले होने के नाते, हमारी पहचान इसी से होती है कि हम एक-दूसरे के लिए प्यार दिखाते हैं। (यूहन्‍ना 13:34, 35) दरअसल, हमें आज्ञा दी गयी है कि हम “आपस में प्रेम रखें।” (1 यूहन्‍ना 3:23) पौलुस कहता है कि प्रेम धीरजवन्त और कृपाल है। प्रेम डाह नहीं करता, अपनी बड़ाई नहीं करता, अभद्र व्यवहार नहीं करता या अपनी भलाई नहीं चाहता। प्रेम झुंझलाता नहीं, ना ही बुराई का लेखा रखता है। वह अधर्म से नहीं, बल्कि सत्य से आनंदित होता है। प्रेम सब बातें सह लेता है, सब बातों पर विश्‍वास करता है, सब बातों की आशा रखता है और सब बातों में धीरज धरता है। इसके अलावा, प्रेम कभी टलता नहीं।—1 कुरिन्थियों 13:4-8.

8. हमें अपने मसीही भाई-बहनों के लिए प्यार क्यों दिखाना चाहिए?

8 अगर हम परमेश्‍वर की आत्मा को हमारे अंदर प्रेम का गुण बढ़ाने दें, तो हम परमेश्‍वर और लोगों के लिए प्यार दिखा पाएँगे। (मत्ती 22:37-39) प्रेरित यूहन्‍ना ने लिखा: “जो प्रेम नहीं रखता, वह मृत्यु की दशा में रहता है। जो कोई अपने भाई से बैर रखता है, वह हत्यारा है; और तुम जानते हो, कि किसी हत्यारे में अनन्त जीवन नहीं रहता।” (1 यूहन्‍ना 3:14, 15) प्राचीन इस्राएल में, एक हत्यारे को किसी शरणनगर में सिर्फ तभी पनाह मिल सकती थी, जब यह साबित हो जाता कि मारे गए व्यक्‍ति के लिए उसके दिल में कोई नफरत नहीं थी। (व्यवस्थाविवरण 19:4, 11-13) आज अगर हम पवित्र आत्मा के निर्देशन में चलें, तो हम परमेश्‍वर, मसीही भाई-बहनों और दूसरों के लिए प्यार दिखा पाएँगे।

“यहोवा का आनन्द तुम्हारा दृढ़ गढ़ है”

9, 10. आनंद क्या है, और खुश होने की कुछ वजह क्या हैं?

9 आनंद, दिली खुशी का एहसास है। यहोवा “आनंदित परमेश्‍वर” है। (1 तीमुथियुस 1:11, NW; भजन 104:31) उसके बेटे को अपने पिता की मरज़ी पूरी करने से सच्ची खुशी मिलती है। (भजन 40:8; इब्रानियों 10:7-9) और “यहोवा का आनन्द [हमारा] दृढ़ गढ़ है।”—नहेमायाह 8:10.

10 यहोवा का यह आनंद हमें उस वक्‍त भी गहरा संतोष देता है, जब हम मुश्‍किलों, दुःखों या ज़ुल्मों के दौरान परमेश्‍वर की मरज़ी पूरी करते हैं। “परमेश्‍वर का ज्ञान” लेने से हमें क्या ही खुशी मिलती है! (नीतिवचन 2:1-5) इसी ज्ञान की बदौलत, साथ ही परमेश्‍वर पर और उसके बेटे के छुड़ौती बलिदान पर विश्‍वास करने से, हम यहोवा के साथ एक खुशनुमा रिश्‍ता कायम कर पाए हैं। (1 यूहन्‍ना 2:1, 2) खुश होने की एक और वजह यह है कि हम पूरी दुनिया में फैले एकमात्र सच्चे भाईचारे का हिस्सा हैं। (सपन्याह 3:9; हाग्गै 2:7) हमें राज्य की जो बेहतरीन आशा दी गयी है और सुसमाचार सुनाने का जो शानदार मौका मिला है, इनकी वजह से भी हमें खुशी मिलती है। (मत्ती 6:9, 10; 24:14) इतना ही नहीं, हमेशा की ज़िंदगी पाने की आशा से भी हम गद्‌गद हो उठते हैं। (यूहन्‍ना 17:3) जब हमें इतनी शानदार आशा मिली है, तो बेशक हमें “आनन्द ही करना” चाहिए।—व्यवस्थाविवरण 16:15.

मेल करनेवाले और धीरज धरनेवाले बनिए

11, 12. (क) शांति का मतलब क्या है, बताइए। (ख) परमेश्‍वर की शांति का हम पर कैसा असर होता है?

11 आत्मा का एक और फल है, मेल या शांति। यह एक ऐसी दशा है जिसमें एक इंसान हर तरह की चिंता से मुक्‍त होता है और सुकून महसूस करता है। स्वर्ग में रहनेवाला हमारा पिता, शांति का परमेश्‍वर है। और हमें भरोसा दिलाया गया है: “यहोवा अपनी प्रजा को शान्ति की आशीष देगा।” (भजन 29:11; 1 कुरिन्थियों 14:33) यीशु ने अपने चेलों से कहा था: “मैं तुम्हें शान्ति दिए जाता हूं, अपनी शान्ति तुम्हें देता हूं।” (यूहन्‍ना 14:27) इससे उसके चेलों को किस तरह फायदा होता?

12 यीशु ने अपने चेलों को जो शांति दी, उससे उनके मन का डर दूर हुआ और उन्हें चैन मिला। उन्होंने खासकर इस शांति को तब महसूस किया, जब यीशु के वादे के मुताबिक उन्हें पवित्र आत्मा मिली। (यूहन्‍ना 14:26) आज भी, जब हम पवित्र आत्मा के अधीन काम करते हैं और शांति के लिए प्रार्थना करते हैं, तो उसके जवाब में हमें “परमेश्‍वर की [अनोखी] शान्ति” मिलती है। और यह शांति हमारे मन को सुकून पहुँचाती है। (फिलिप्पियों 4:6, 7) इसके अलावा, हम यहोवा की आत्मा की मदद से मसीही भाई-बहनों और दूसरों के साथ मेल-मिलाप बनाए रखते हैं।—रोमियों 12:18; 1 थिस्सलुनीकियों 5:13.

13, 14. धीरज क्या है, और हमें यह गुण क्यों दिखाना चाहिए?

13 शांति का ताल्लुक आत्मा के एक और फल से है। वह है धीरज। धीरज का मतलब है, अन्याय झेलते या गुस्सा दिलानेवाले हालात का सामना करते वक्‍त सब्र रखना और हालात के सुधरने की उम्मीद न छोड़ना। यहोवा धीरज धरनेवाला परमेश्‍वर है। (रोमियों 9:22-24) यीशु भी यह गुण दिखाता है। उसके धीरज धरने से हमें फायदा हो सकता है, क्योंकि पौलुस ने अपने अनुभव से लिखा: “मुझपर इसलिये दया हुई, कि मुझ सब से बड़े पापी में यीशु मसीह अपनी पूरी सहनशीलता दिखाए, कि जो लोग उस पर अनन्त जीवन के लिये विश्‍वास करेंगे, उन के लिये मैं एक आदर्श बनूं।”—1 तीमुथियुस 1:16.

14 जब लोग जानबूझकर या बिना सोचे-समझे अपनी बातों और कामों से हमें ठेस पहुँचाते हैं, तो धीरज या सहनशीलता का गुण ही हमें सब्र रखने में मदद देता है। पौलुस ने अपने संगी मसीहियों को उकसाया: “सब की ओर सहनशीलता दिखाओ।” (1 थिस्सलुनीकियों 5:14) हम सब असिद्ध हैं और गलतियाँ करते हैं। इसलिए जब हमसे कोई गलती हो जाती है, तो हम चाहते हैं कि लोग हमारे साथ धीरज और सब्र से पेश आएँ। तो फिर, क्या हमें भी ‘आनन्द के साथ सहनशीलता दिखाने’ की कोशिश नहीं करनी चाहिए?—कुलुस्सियों 1:9-12.

कृपा और भलाई दिखाइए

15. कृपा का मतलब बताइए, और इसकी कुछ मिसालें दीजिए।

15 कृपा का मतलब है, दूसरों की खैरियत में गहरी दिलचस्पी लेना। यह गुण, दूसरों की मदद करके और ढाढ़स बँधानेवाली बातों से दिखाया जा सकता है। यहोवा और उसका बेटा कृपालु हैं। (रोमियों 2:4; 1 पतरस 2:3) उसी तरह, उनके सेवकों से माँग की जाती है कि वे कृपा दिखाएँ। (मीका 6:8; कुलुस्सियों 3:12, NW) कुछ लोग जो सच्चे परमेश्‍वर की उपासना नहीं करते थे, उन्होंने “अनोखी कृपा” दिखायी थी। (प्रेरितों 27:3; 28:2) तो फिर, हमसे यह माँग करना बिलकुल सही है कि हम कृपा दिखाएँ। और ‘आत्मा के अनुसार चलने’ से हम यह गुण ज़रूर दिखा सकते हैं।

16. हमें किन हालात में कृपा दिखानी चाहिए?

16 जब कोई अपनी बातों से हमारा दिल दुखाता है या अपने बर्ताव से दिखाता कि उसे हमारी कोई परवाह नहीं, तब हमारा गुस्सा होना जायज़ है। मगर ऐसे में भी हम कृपा का गुण दिखा सकते हैं। पौलुस ने कहा था: “क्रोध तो करो, पर पाप मत करो: सूर्य अस्त होने तक तुम्हारा क्रोध न रहे। और न शैतान को अवसर दो। . . . एक दूसरे पर कृपाल, और करुणामय हो, और जैसे परमेश्‍वर ने मसीह में तुम्हारे अपराध क्षमा किए, वैसे ही तुम भी एक दूसरे के अपराध क्षमा करो।” (इफिसियों 4:26, 27, 32) हमें खासकर उन लोगों के लिए कृपा दिखानी चाहिए, जो आज़माइशों से गुज़र रहे हैं। लेकिन हाँ, अगर एक मसीही प्राचीन किसी भाई को “भलाई, और धार्मिकता, और सत्य” की राह से भटकते देखता है और फिर भी, यह सोचकर उसे बाइबल से सलाह नहीं देता कि कहीं उसे ठेस न पहुँचे, तो वह प्राचीन कृपा नहीं दिखा रहा होता।—इफिसियों 5:9.

17, 18. भलाई का मतलब क्या है, और हमारी ज़िंदगी में इस गुण की क्या भूमिका होनी चाहिए?

17 भलाई का मतलब है, सदाचारी होना, नैतिकता के ऊँचे आदर्शों पर चलना और अच्छाई करना। परमेश्‍वर ही सही मायनों में भला है। (भजन 25:8; 31:19) यीशु में कोई पाप नहीं है और वह हमेशा ऊँचे आदर्शों पर चलता है। फिर भी, धरती पर रहते वक्‍त जब उसे “भला गुरू” कहा गया, तब उसने खुद को “भला” कहलाने से साफ इनकार कर दिया। (मरकुस 10:17, 18, बुल्के बाइबिल) उसने ऐसा इसलिए किया क्योंकि वह मानता था कि पूरे जहान में यहोवा से भला और कोई नहीं है।

18 विरासत में मिले पाप की वजह से, हर समय भलाई करना हमारे लिए आसान नहीं होता। (रोमियों 5:12) फिर भी, हम यह गुण दिखा सकते हैं, बशर्ते हम परमेश्‍वर से प्रार्थना करें कि वह ‘हमें भलाई सिखाए।’ (भजन 119:66, NW) पौलुस ने रोम के मसीहियों से कहा था: “हे मेरे भाइयो; मैं आप भी तुम्हारे विषय में निश्‍चय जानता हूं, कि तुम भी आप ही भलाई से भरे और ईश्‍वरीय ज्ञान से भरपूर हो।” (रोमियों 15:14) एक मसीही अध्यक्ष को “भलाई का चाहनेवाला” होना चाहिए। (तीतुस 1:7, 8) अगर हम परमेश्‍वर की आत्मा की दिखायी राह पर चलें, तो हम भलाई दिखाने के लिए जाने जाएँगे और यहोवा ‘हमारे अच्छे कामों के लिए हमें याद रखेगा।’—नहेमायाह 5:19; 13:31, ईज़ी-टू-रीड वर्शन।

“कपटरहित विश्‍वास”

19. इब्रानियों 11:1 के मुताबिक विश्‍वास क्या है?

19 विश्‍वास भी आत्मा के फलों में से एक है। यह “आशा की हुई वस्तुओं का निश्‍चय, और अनदेखी वस्तुओं का प्रमाण है।” (इब्रानियों 11:1) अगर हमारे अंदर विश्‍वास है, तो हमें पक्का यकीन होगा कि यहोवा के तमाम वादे ज़रूर पूरे होंगे। अनदेखी वस्तुओं के लिए दिए गए सबूत इतने पुख्ता होते हैं कि उन सबूतों पर यकीन करने को ही विश्‍वास कहते हैं। मिसाल के लिए, हालाँकि हम सिरजनहार को देख नहीं सकते, फिर भी अपने चारों तरफ की सृष्टि को देखकर हमें यकीन हो जाता है कि एक सिरजनहार है। और इस तरह का विश्‍वास हम तभी दिखा पाएँगे, जब हम आत्मा के अनुसार चलेंगे।

20. “उलझानेवाला पाप” क्या है, और हम इससे, साथ ही शरीर के कामों से कैसे दूर रह सकते हैं?

20 इसके उलट, विश्‍वास की कमी को एक “उलझानेवाला पाप” कहा गया है। (इब्रानियों 12:1) शरीर के कामों, धन-दौलत के लालच और विश्‍वास को तोड़नेवाली झूठी शिक्षाओं से दूर रहने के लिए हमें परमेश्‍वर की आत्मा का सहारा लेना चाहिए। (कुलुस्सियों 2:8; 1 तीमुथियुस 6:9, 10; 2 तीमुथियुस 4:3-5) यह आत्मा आज परमेश्‍वर के लोगों में वैसा ही विश्‍वास पैदा करती है, जैसा विश्‍वास बाइबल में बताए उन सेवकों और दूसरे लोगों में था, जो मसीह के आने से पहले जीए थे। (इब्रानियों 11:2-40) और जब हम यह “कपटरहित विश्‍वास” दिखाते हैं, तो इससे दूसरों का भी विश्‍वास बढ़ सकता है।—1 तीमुथियुस 1:5; इब्रानियों 13:7.

कोमलता और संयम दिखाइए

21, 22. कोमलता का मतलब क्या है, और हमें यह गुण क्यों दिखाना चाहिए?

21 कोमलता का मतलब है, अपने स्वभाव और व्यवहार में नर्मदिल होना। कोमलता भी परमेश्‍वर का एक गुण है। यह हम कैसे जानते हैं? धरती पर यीशु ने अपने पिता की शख्सियत को हू-ब-हू ज़ाहिर किया था। और यीशु कोमल स्वभाव का था, इसलिए हम जानते हैं कि यहोवा भी कोमल स्वभाव का है। (मत्ती 11:28-30; यूहन्‍ना 1:18; 5:19) तो फिर, परमेश्‍वर के सेवक होने के नाते हमसे क्या माँग की जाती है?

22 मसीही होने के नाते हमसे माँग की जाती है कि हम “सब मनुष्यों के साथ कोमलता से पेश आएँ।” (तीतुस 3:2, NW) हम यह गुण प्रचार में दिखाते हैं। आध्यात्मिक रूप से काबिल भाइयों को सलाह दी जाती है कि वे गलती करनेवाले मसीहियों को “कोमलता” से सुधारें। (गलतियों 6:1, NW) हम सभी, “नम्रता और कोमलता” के गुण दिखाकर अपनी मसीही एकता और शांति बढ़ा सकते हैं। (इफिसियों 4:1-3, ईज़ी-टू-रीड वर्शन) अगर हम लगातार आत्मा के अनुसार चलते रहें और संयम दिखाएँ, तो हम कोमलता का गुण दिखा सकते हैं।

23, 24. संयम क्या है, और यह गुण किस तरह हमारी मदद कर सकता है?

23 संयम वह गुण है, जो हमें अपने सोच-विचार और अपनी बातों पर काबू रखने में मदद देता है। साथ ही, यह हमें गलत काम करने से भी रोकता है। प्राचीन समय में, यहोवा ने यरूशलेम की तबाही करनेवाले बाबुलियों के साथ अपने बर्ताव में “नियंत्रण बनाये रखा।” (यशायाह 42:14, ईज़ी-टू-रीड वर्शन) यीशु ने क्लेश झेलते वक्‍त, संयम बनाए रखा और वह हमारे लिए “एक आदर्श दे गया।” और प्रेरित पतरस ने अपने मसीही भाइयों को यह सलाह दी कि वे अपनी ‘समझ पर संयम बढ़ाते जाएँ।’—1 पतरस 2:21-23; 2 पतरस 1:5-8.

24 मसीही प्राचीनों से उम्मीद की जाती है कि वे संयमी हों। (तीतुस 1:7, 8) दरअसल, आत्मा की दिखायी राह पर चलनेवाले सभी लोग खुद पर संयम बरत सकते हैं। इस तरह वे ना तो अनैतिक काम करेंगे और ना ही अश्‍लील बातचीत करेंगे। और-तो-और वे ऐसा कोई भी काम नहीं करेंगे, जिससे यहोवा नाराज़ हो सकता है। अगर हम परमेश्‍वर की आत्मा को हमारे अंदर संयम का गुण बढ़ाने दें, तो हम अपनी बातों और चालचलन में यह गुण दिखा पाएँगे। इससे दूसरों को भी यह साफ नज़र आएगा कि हम संयमी हैं।

आत्मा के अनुसार चलिए

25, 26. अगर हम आत्मा के अनुसार चलें, तो इसका दूसरों के साथ हमारे रिश्‍ते पर और हमारे भविष्य पर क्या असर होगा?

25 अगर हम आत्मा के अनुसार चलें, तो हम राज्य के जोशीले प्रचारक बनेंगे। (प्रेरितों 18:24-26) हम ऐसे साथी साबित होंगे जिनके संग सभी, खासकर ईश्‍वरीय भक्‍ति से जीनेवाले लोग मेलजोल रखना पसंद करते हैं। इतना ही नहीं, हम अपने भाई-बहनों को भी आत्मा के अनुसार चलने के लिए उकसाएँगे। (फिलिप्पियों 2:1-4) आखिर हम सब मसीही यही तो चाहते हैं, है ना?

26 शैतान की इस दुनिया में रहकर आत्मा के अनुसार चलना आसान नहीं है। (1 यूहन्‍ना 5:19) फिर भी, आज लाखों लोग ऐसा करने में कामयाब हो रहे हैं। अगर हम पूरे दिल से यहोवा पर भरोसा रखें, तो हम न सिर्फ आज, बल्कि आनेवाले समय में भी ज़िंदगी का लुत्फ उठा सकेंगे। हम उस परमेश्‍वर के धर्मी मार्गों पर हमेशा-हमेशा तक चलते रहेंगे, जो बड़े प्यार से हमें अपनी पवित्र आत्मा देता है।—भजन 128:1; नीतिवचन 3:5, 6. (w07 7/15)

आपका जवाब क्या है?

• ‘आत्मा के अनुसार चलने’ से परमेश्‍वर और उसके बेटे के साथ हमारे रिश्‍ते पर क्या असर होता है?

• पवित्र आत्मा के फल क्या हैं?

• किन तरीकों से परमेश्‍वर की आत्मा के फल दिखाए जा सकते हैं?

• अगर हम आत्मा के अनुसार चलें, तो इसका दूसरों के साथ हमारे रिश्‍ते पर और हमारे भविष्य पर क्या असर होगा?

[अध्ययन के लिए सवाल]