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ज़िंदगी के असली मकसद की तलाश कीजिए

ज़िंदगी के असली मकसद की तलाश कीजिए

ज़िंदगी के असली मकसद की तलाश कीजिए

“जितने प्राणी हैं सब के सब याह की स्तुति करें!”—भजन 150:6.

1. बताइए कि कैसे एक नौजवान ज़िंदगी में एक मकसद की तलाश कर रहा था।

 कोरिया में पला-बढ़ा एक नौजवान, संग-जिन * अपने बीते दिनों को याद करते हुए कहता है: “मैंने डॉक्टरी की पढ़ाई इसलिए की, क्योंकि मैं अपनी ज़िंदगी दूसरों की मदद करने में लगाना चाहता था। मुझे यह भी लगा था कि डॉक्टर बनने से मुझे जो इज़्ज़त और दौलत मिलेगी, उससे मैं खुश रह सकूँगा। मगर जब यह बात मेरी समझ में आयी कि एक डॉक्टर लोगों की पूरी तरह मदद नहीं कर सकता, तो मैं निराश हो गया। फिर मैंने चित्रकारी सीखनी शुरू की। मगर मेरे बनाए चित्रों से भला दूसरों को क्या फायदा होता? मुझे लगा कि मैं कितना मतलबी हो गया हूँ, बस अपने आपको खुश करने की कोशिश कर रहा हूँ। इसके बाद, मैं टीचर बना। लेकिन जल्द ही मुझे एहसास हुआ कि इससे मैं दूसरों को सिर्फ जानकारी दे सकता हूँ, उन्हें सच्ची खुशी पाने की राह नहीं दिखा सकता।” बहुत-से लोगों की तरह, संग-जिन भी ज़िंदगी में एक असली मकसद की तलाश कर रहा था।

2. (क) ज़िंदगी में असली मकसद होने का क्या मतलब है? (ख) हम कैसे जानते हैं कि सिरजनहार ने हमें एक मकसद से बनाया है?

2 ज़िंदगी में एक असली मकसद होने का मतलब है, जीने की एक वजह होना, एक लक्ष्य होना और उस लक्ष्य को हासिल करने की जी-तोड़ कोशिश करना। क्या वाकई इंसानों के लिए ऐसा कोई मकसद है? बेशक है! सिरजनहार ने हमें जो बुद्धि, विवेक और तर्क करने की काबिलीयत दी है, उससे पता चलता है कि उसने हमें एक खास मकसद से बनाया है। इसलिए ज़ाहिर-सी बात है कि सिरजनहार के मकसद के मुताबिक जीने से ही हम ज़िंदगी का असली मकसद जान पाएँगे और उसे अंजाम दे पाएँगे।

3. इंसानों के लिए परमेश्‍वर के मकसद में क्या बातें शामिल हैं?

3 बाइबल बताती है कि परमेश्‍वर ने हमारे लिए जो मकसद ठहराया है, उसमें कई बातें शामिल हैं। मिसाल के लिए, हमें जिस अद्‌भुत तरीके से रचा गया है, वह वाकई इस बात का सबूत है कि परमेश्‍वर हमसे निःस्वार्थ प्रेम करता है। (भजन 40:5; 139:14) तो फिर, परमेश्‍वर के मकसद के मुताबिक जीने का यह मतलब है कि हम उसके जैसा निःस्वार्थ प्रेम दिखाएँ। (1 यूहन्‍ना 4:7-11) इसका यह भी मतलब है कि हम परमेश्‍वर की हिदायतों को मानें, जो हमें उसके प्यार-भरे मकसद के मुताबिक जीने में मदद देती हैं।—सभोपदेशक 12:13; 1 यूहन्‍ना 5:3.

4. (क) ज़िंदगी में सच्चा मकसद पाने के लिए क्या ज़रूरी है? (ख) एक इंसान के जीने का सबसे बड़ा मकसद क्या है?

4 परमेश्‍वर के मकसद में यह बात भी शामिल है कि इंसान आपस में और बाकी सृष्टि के साथ खुशी और शांति से रहें। (उत्पत्ति 1:26; 2:15) लेकिन खुशी और शांति पाने और सुरक्षित महसूस करने के लिए क्या ज़रूरी है? गौर कीजिए कि एक बच्चे के खुश रहने और सुरक्षित महसूस करने के लिए क्या ज़रूरी है। उसे यह एहसास होना ज़रूरी है कि उसके माँ-बाप उसके करीब हैं। उसी तरह, अगर हम ज़िंदगी में खुशी और सच्चा मकसद पाना चाहते हैं, तो अपने पिता यहोवा के साथ हमारा एक अच्छा रिश्‍ता होना ज़रूरी है। (इब्रानियों 12:9) परमेश्‍वर हमें उसके करीब आने देने और हमारी प्रार्थनाओं को सुनने के ज़रिए ऐसा रिश्‍ता मुमकिन बनाता है। (याकूब 4:8; 1 यूहन्‍ना 5:14, 15) अगर हम विश्‍वास दिखाते हुए ‘परमेश्‍वर के साथ साथ चलें’ और उसके मित्र बनें, तो हम अपने पिता, यहोवा का दिल खुश कर रहे होंगे और उसकी स्तुति कर रहे होंगे। (उत्पत्ति 6:9; नीतिवचन 23:15, 16; याकूब 2:23) एक इंसान के जीने का भला इससे बड़ा मकसद और क्या हो सकता है? इसलिए भजनहार ने लिखा: “जितने प्राणी हैं सब के सब याह की स्तुति करें!”—भजन 150:6.

आपकी ज़िंदगी का मकसद क्या है?

5. ऐशो-आराम की चीज़ों को ज़िंदगी में पहली जगह देना क्यों अक्लमंदी नहीं है?

5 हम इंसानों के लिए परमेश्‍वर का एक मकसद यह भी है कि हम अपनी और अपने परिवार की अच्छी देखभाल करें। इसमें अपनी और अपने घरवालों की शारीरिक और आध्यात्मिक ज़रूरतें पूरी करना शामिल है। मगर ऐसा करते वक्‍त हमें सही तालमेल रखने की ज़रूरत है। कहीं ऐसा न हो कि हमारी रोज़मर्रा की चिंताएँ उन आध्यात्मिक बातों की जगह ले लें, जो ज़्यादा अहमियत रखती हैं। (मत्ती 4:4; 6:33) बड़े अफसोस की बात है कि बहुत-से लोग ऐशो-आराम की चीज़ें बटोरने में अपनी पूरी ज़िंदगी लगा देते हैं। लेकिन ऐशो-आराम की चीज़ों से अपनी हर ज़रूरत पूरी करना अक्लमंदी नहीं है। हाल ही में, एशिया के लखपतियों का एक सर्वे लिया गया था। उस सर्वे से पता चला कि “समाज में रुतबा होने और दौलत की वजह से कामयाबी का एहसास होने के बावजूद” उनमें से ज़्यादातर लोग “न तो सुरक्षित महसूस करते हैं और न ही चिंताओं से मुक्‍त हैं।”—सभोपदेशक 5:11.

6. यीशु ने धन-दौलत के पीछे भागनेवालों को क्या सलाह दी?

6 यीशु ने एक मौके पर ‘धन के धोखे’ की बात कही थी। (मरकुस 4:19) धन-दौलत किस तरह धोखा देती है? वह इस तरह कि लोगों को लगता है कि धन-दौलत उनके दामन को खुशियों से भर सकती है, जबकि हकीकत में ऐसा नहीं होता। बुद्धिमान राजा सुलैमान ने कहा था: “जो रुपये से प्रीति रखता है वह रुपये से तृप्त न होगा।” (सभोपदेशक 5:10) मगर क्या धन-दौलत के पीछे भागने के साथ-साथ तन-मन से परमेश्‍वर की सेवा करना मुमकिन है? जी नहीं, यह मुमकिन नहीं। यीशु ने समझाया: “कोई मनुष्य दो स्वामियों की सेवा नहीं कर सकता, क्योंकि वह एक से बैर और दूसरे से प्रेम रखेगा, वा एक से मिला रहेगा और दूसरे को तुच्छ जानेगा; ‘तुम परमेश्‍वर और धन दोनों की सेवा नहीं कर सकते।’” यीशु ने अपने चेलों को उकसाया कि वे पृथ्वी पर ऐशो-आराम की चीज़ें इकट्ठा न करें, बल्कि ‘स्वर्ग में धन इकट्ठा करें।’ यानी उस परमेश्‍वर की नज़रों में एक अच्छा नाम कमाएँ, जो “[हमारे] मांगने से पहिले ही जानता है, कि [हमारी] क्या क्या आवश्‍यकता है।”—मत्ती 6:8, 19-25.

7. हम “सच्ची ज़िन्दगी पर कब्ज़ा” कैसे कर सकते हैं?

7 अपने साथी तीमुथियुस को लिखी अपनी पत्री में, प्रेरित पौलुस ने इस विषय पर कड़ी सलाह दी थी। उसने तीमुथियुस से कहा: “दौलतमन्दों को हुकम दे कि . . . चंचल दौलत पर नहीं बल्कि परमेश्‍वर पर उम्मेद रखें जो हमारे सुख के लिये सब चीज़ें बहुतायत से देता है। . . . दान देने में तैयार और मदद करने को राज़ी हों। और आगे के लिये अपने वास्ते एक अच्छी बुनियाद क़ायम रखें ताकि सच्ची ज़िन्दगी पर कब्ज़ा करें।”—1 तीमुथियुस 6:17-19, हिन्दुस्तानी बाइबल।

“सच्ची ज़िन्दगी” क्या है?

8. (क) आज ज़्यादातर लोग धन-दौलत और रुतबा हासिल करने में क्यों लगे हुए हैं? (ख) वे क्या समझने से चूक जाते हैं?

8 आज कइयों को लगता है कि ऐशो-आराम और मौज-मस्ती की ज़िंदगी ही “सच्ची ज़िन्दगी” है या इसी में जीने का असली मज़ा है। एशिया की एक समाचार पत्रिका बताती है: “लोग फिल्मों में या टी.वी. पर जो देखते हैं, उन चीज़ों के लिए उनके मन में चाहत पैदा होती है और उन्हें हासिल करने का वे ख्वाब देखने लगते हैं।” कई लोगों के लिए दौलत और रुतबा हासिल करना उनकी ज़िंदगी का मकसद बन जाता है। और कई ऐसे हैं जो इन्हें पाने के जुनून में अपनी जवानी, सेहत, परिवार और आध्यात्मिक आदर्श तक कुरबान कर देते हैं। वे यह समझने से चूक जाते हैं कि टी.वी. वगैरह में दिखायी जानेवाली ऐशो-आराम की ज़िंदगी दरअसल “संसार की आत्मा” को ज़ाहिर करती है। यह ऐसी आत्मा या रवैया है जो दुनिया के अरबों लोगों पर ज़बरदस्त असर करता है और उन्हें उस मकसद के खिलाफ काम करने के लिए उकसाता है, जो परमेश्‍वर ने हमारे लिए ठहराया है। (1 कुरिन्थियों 2:12; इफिसियों 2:2) इसलिए इसमें कोई ताज्जुब नहीं कि आज दुनिया में ऐसे कई लोग हैं, जो ज़िंदगी में खुश नहीं हैं!—नीतिवचन 18:11; 23:4, 5.

9. इंसान क्या नहीं कर पाएँगे, और क्यों?

9 उन लोगों के बारे में क्या, जो निःस्वार्थ भाव से दूसरों का भला करने और भूख, बीमारी और अन्याय मिटाने के लिए कड़ी मेहनत करते हैं? यह सच है कि उनका काम काबिले-तारीफ है और उनके त्याग और मेहनत से कई लोगों का भला भी हुआ है। मगर अपनी लाख कोशिशों के बावजूद वे इस दुनिया को कभी बदल नहीं पाएँगे और ना ही कभी ऐसे हालात ला पाएँगे जहाँ न्याय और धार्मिकता का बोलबाला हो। आखिर क्यों? क्योंकि यह ‘सारा संसार दुष्ट [शैतान] के वश में पड़ा है’ और वह नहीं चाहता कि दुनिया में अच्छे हालात आएँ।—1 यूहन्‍ना 5:19.

10. वफादार लोग “सच्ची ज़िन्दगी” का लुत्फ कब उठा पाएँगे?

10 यह कितने दुःख की बात होगी, अगर एक इंसान के पास इस ज़िंदगी के सिवा और कोई आशा न हो। पौलुस ने लिखा: “यदि हम केवल इसी जीवन में मसीह से आशा रखते हैं तो हम सब मनुष्यों से अधिक अभागे हैं।” जो लोग सोचते हैं कि यही ज़िंदगी सबकुछ है, वे ऐसा रवैया रखते हैं: “आओ, खाएं और पिएं, क्योंकि कल तो मरना ही है।” (NHT) (1 कुरिन्थियों 15:19, 32) लेकिन हमारे पास एक सुनहरे भविष्य की आशा है। जी हाँ, “[परमेश्‍वर] की प्रतिज्ञा के अनुसार हम एक नए आकाश और नई पृथ्वी की आस देखते हैं जिन में धार्मिकता बास करेगी।” (2 पतरस 3:13) उस वक्‍त, मसीही “सच्ची ज़िन्दगी” का, यानी सिद्धता में “अनन्त जीवन” का लुत्फ उठा पाएँगे। फिर चाहे उन्हें यह ज़िंदगी स्वर्ग में मिले या परमेश्‍वर की प्यार-भरी हुकूमत के अधीन धरती पर।—1 तीमुथियुस 6:12.

11. परमेश्‍वर के राज्य को बढ़ावा देना क्यों ज़िंदगी का सबसे बेहतरीन मकसद है?

11 सिर्फ परमेश्‍वर का राज्य ही इंसान की तमाम समस्याओं को जड़ से मिटाने में कामयाब होगा। इसलिए, परमेश्‍वर के राज्य को बढ़ावा देने में कड़ी मेहनत करना ज़िंदगी का सबसे बेहतरीन मकसद है। (यूहन्‍ना 4:34) इस काम में लगे रहने से हम परमेश्‍वर के साथ एक अनमोल रिश्‍ता बनाते हैं। इसके अलावा, हमें उन लाखों आध्यात्मिक भाई-बहनों के साथ कंधे-से-कंधा मिलाकर सेवा करने में भी खुशी मिलती है, जिनकी ज़िंदगी का भी वही मकसद है।

सही किस्म के त्याग करना

12. बताइए कि इस मौजूदा ज़िंदगी में और “सच्ची ज़िन्दगी” में क्या फर्क है।

12 बाइबल कहती है कि यह “संसार और उस की अभिलाषाएं दोनों मिटते जाते हैं।” शैतान की दुनिया का कोई भी हिस्सा आनेवाले विनाश से नहीं बचेगा और ना ही इसकी दौलत और शोहरत कायम रहेगी, “पर जो परमेश्‍वर की इच्छा पर चलता है, वह सर्वदा बना रहेगा।” (1 यूहन्‍ना 2:15-17) इस दुनिया की दौलत का कोई भरोसा नहीं, उसकी शोहरत तो पल-दो-पल की है और उसके सुख-विलास भी खोखले हैं। मगर इसके बिलकुल उलट, “सच्ची ज़िन्दगी” यानी परमेश्‍वर के राज्य में मिलनेवाला अनंत जीवन हमेशा तक कायम रहेगा। और इसके लिए किया गया कोई भी त्याग व्यर्थ नहीं जाएगा, बशर्ते हम सही किस्म के त्याग करें।

13. एक जोड़े ने किस तरह सही किस्म के त्याग किए?

13 हेनरी और सूज़ैन नाम के एक मसीही जोड़े की मिसाल लीजिए। उन्हें परमेश्‍वर के इस वादे पर पूरा भरोसा था कि जो कोई अपनी ज़िंदगी में राज्य को पहली जगह देगा, परमेश्‍वर उसकी मदद ज़रूर करेगा। (मत्ती 6:33) इसलिए, उन्होंने एक छोटे और सस्ते-से मकान में रहने का फैसला किया। ऐसा उन्होंने इसलिए किया ताकि उन दोनों में से सिर्फ एक को नौकरी करनी पड़े और वे अपनी दो बेटियों के साथ आध्यात्मिक कामों के लिए ज़्यादा वक्‍त निकाल सकें। (इब्रानियों 13:15, 16) सूज़ैन की एक सहेली को समझ में नहीं आया कि उन्होंने यह फैसला क्यों किया। तभी उसने नेक इरादे से सूज़ैन को यह सलाह दी: “सूज़ैन, अगर तुम एक अच्छे-से मकान में रहना चाहती हो, तो तुम्हें कुछ-न-कुछ तो त्यागना ही पड़ेगा।” मगर हेनरी और सूज़ैन अच्छी तरह जानते थे कि यहोवा को ज़िंदगी में पहली जगह देने में ही “आज के समय और आने वाले जीवन के लिये दिया गया आशीर्वाद समाया हुआ है।” (1 तीमुथियुस 4:8, ईज़ी-टू-रीड वर्शन; तीतुस 2:12) उनकी बेटियाँ बड़ी होकर पूरे समय की जोशीली प्रचारक बनीं। एक परिवार के नाते उन्हें ऐसा नहीं लगता कि “सच्ची ज़िन्दगी” का पीछा करने को अपना मकसद बनाकर उन्होंने कुछ खोया है। इसके बजाय, उन्हें लगता है कि उन्होंने बहुत कुछ पाया है।—फिलिप्पियों 3:8; 1 तीमुथियुस 6:6-8.

“संसार ही के न हो लें”

14. ज़िंदगी के असली मकसद को भूलने के कौन-से बुरे अंजाम हो सकते हैं?

14 अगर हम ज़िंदगी के असली मकसद को भूल जाएँ और “सच्ची ज़िन्दगी” की अपनी पकड़ ढीली होने दें, तो हम बहुत बड़ा खतरा मोल ले रहे होंगे। ऐसा करके हम “चिन्ता और धन और जीवन के सुख विलास में फंस” जाएँगे। (लूका 8:14) ऐशो-आराम की चीज़ों के लिए हद-से-ज़्यादा चाहत और ‘जीवन की चिन्ताएँ’ हमें इस संसार में और भी उलझा सकती हैं। (लूका 21:34) अफसोस की बात है कि कुछ लोगों ने अमीर बनने के जुनून को अपने दिल में इस कदर बढ़ने दिया है कि उन्होंने “विश्‍वास से भटककर अपने आप को नाना प्रकार के दुखों से छलनी बना लिया है।” यहाँ तक कि उन्होंने यहोवा के साथ अपना बेशकीमती रिश्‍ता भी गँवा दिया है। ‘अनन्त जीवन को धरे’ न रखने का क्या ही बुरा अंजाम!—1 तीमुथियुस 6:9, 10, 12; नीतिवचन 28:20.

15. ‘संसार ही के न हो लेने’ की वजह से एक परिवार को कैसे फायदा हुआ है?

15 पौलुस ने ‘इस संसार के बरतनेवालों’ को सलाह दी कि वे “संसार ही के न हो लें।” (1 कुरिन्थियों 7:31) कीथ और बॉनी ने इस सलाह को माना। कीथ कहता है: “बात तब की है जब मैं दाँतों का डॉक्टर बनने की पढ़ाई पूरी करनेवाला था। तभी मैं यहोवा का एक साक्षी बना। उस वक्‍त मुझे एक चुनाव करना था। मैं चाहता तो बहुत-से मरीज़ों का इलाज करके खूब पैसा कमा सकता था। मगर ऐसा करने से हमारे पास आध्यात्मिक कामों के लिए समय नहीं बचता। इसलिए मैंने सिर्फ कुछ मरीज़ों का इलाज करने का चुनाव किया, ताकि अपने परिवार की आध्यात्मिक खैरियत और खुशहाली के लिए ज़्यादा समय निकाल सकूँ। आगे चलकर हमारी पाँच बेटियाँ हुईं। हमारे पास ज़्यादा पैसे नहीं थे, इसलिए हमने थोड़े में गुज़ारा करना सीखा। मगर फिर भी, हमें कभी किसी चीज़ की कमी महसूस नहीं हुई। हमारे परिवार में प्यार था, खुशी थी और हम एक-दूसरे के बहुत करीब थे। आगे चलकर हम सभी ने पूरे समय की सेवा की। आज हमारी बेटियों की शादी हो चुकी है और उनमें से तीन के बच्चे हैं। उनका परिवार भी सुखी है, क्योंकि वे यहोवा के मकसद को ज़िंदगी में पहली जगह देते आए हैं।”

परमेश्‍वर के मकसद को अपनी ज़िंदगी में पहली जगह देना

16, 17. बाइबल में किन हुनरमंद लोगों की मिसालें दी गयी हैं, और उन्हें किस बात के लिए याद किया जाता है?

16 बाइबल में दो तरह के लोगों की मिसालें दी गयी हैं। एक उनकी, जिन्होंने परमेश्‍वर के मकसद को अपनी ज़िंदगी में पहली जगह दी थी और दूसरी उनकी, जिन्होंने उसके मकसद को पहली जगह नहीं दी थी। इन मिसालों से हर उम्र, संस्कृति और हालात के लोग सबक सीख सकते हैं। (रोमियों 15:4; 1 कुरिन्थियों 10:6, 11) मसलन, निम्रोद ने बड़े-बड़े नगर बनवाए थे, मगर उसने यह काम यहोवा के खिलाफ किया था। (उत्पत्ति 10:8, 9, NW) इस बुरी मिसाल के उलट कुछ अच्छी मिसालें भी हैं। जैसे, मूसा की ज़िंदगी का यह मकसद नहीं था कि वह मिस्र के शाही घराने में रहकर ऊँचे रुतबे का लुत्फ उठाए। इसके बजाय, उसने परमेश्‍वर से मिली ज़िम्मेदारियों को “मिसर के भण्डार से बड़ा धन समझा।” (इब्रानियों 11:26) वैद्य लूका ने शायद पौलुस और दूसरों की दवा-दारू की होगी। मगर उसने एक वैद्य के तौर पर नहीं, बल्कि एक प्रचारक और बाइबल के एक लेखक के तौर पर लोगों की सबसे बेहतरीन मदद की। और पौलुस भी व्यवस्था के ज्ञानी के तौर पर नहीं, बल्कि एक मिशनरी और “अन्यजातियों के लिये प्रेरित” के तौर पर जाना जाता है।—रोमियों 11:13.

17 दाऊद को खासकर इसलिए याद नहीं किया जाता कि वह एक सेनापति, गीतकार और संगीतकार था, बल्कि इसलिए कि वह ‘[यहोवा] के मन के अनुसार’ था। (1 शमूएल 13:14) दानिय्येल को बाबुली सरकार के खिदमतगार के तौर पर नहीं, बल्कि यहोवा के वफादार नबी के तौर पर याद किया जाता है। एस्तेर को उसके साहस और विश्‍वास के लिए याद किया जाता है, न कि इस बात के लिए कि वह फारस की रानी थी। पतरस, अन्द्रियास, याकूब और यूहन्‍ना को हम बेहतरीन मछुवारों के तौर पर नहीं, बल्कि यीशु के प्रेरितों के तौर पर याद करते हैं। और इन सबसे उम्दा मिसाल, यीशु को हम एक “बढ़ई” के तौर पर नहीं, बल्कि “मसीह” के तौर पर याद करते हैं। (मरकुस 6:3; मत्ती 16:16) ये सब अच्छी तरह जानते थे कि चाहे उनके पास कितना ही हुनर, दौलत या रुतबा क्यों न हो, मगर उन्हें ज़िंदगी में अपने पेशे से ज़्यादा, परमेश्‍वर की सेवा को अहमियत देनी चाहिए। उन्हें मालूम था कि परमेश्‍वर का भय माननेवाले स्त्री-पुरुष बनकर ही वे ज़िंदगी के सबसे उम्दा और फायदेमंद मकसद का पीछा कर रहे होंगे।

18. एक मसीही जवान ने अपनी ज़िंदगी को किस तरह इस्तेमाल करने का फैसला किया, और उसे किस बात का एहसास हुआ?

18 संग-जिन भी, जिसका ज़िक्र लेख की शुरूआत में किया गया है, आखिरकार समझ गया कि ज़िंदगी का असली मकसद क्या है। वह बताता है: “मैंने ठान लिया कि मैं अपनी सारी ताकत डॉक्टरी या चित्रकारी करने या पढ़ाने में खर्च नहीं करूँगा। इसके बजाय, मैं अपनी ताकत परमेश्‍वर को किए अपने समर्पण के मुताबिक, उसकी सेवा करने में खर्च करूँगा। आज मैं एक ऐसी जगह सेवा कर रहा हूँ, जहाँ बाइबल सिखानेवालों की सख्त ज़रूरत है। और मैं लोगों को उस राह पर चलने में मदद दे रहा हूँ, जिस पर चलकर उन्हें हमेशा की ज़िंदगी मिल सकती है। मैं सोचता था कि पूरे समय की सेवा करना इतना चुनौती-भरा नहीं होगा। मगर आज मेरी ज़िंदगी पहले से कहीं ज़्यादा चुनौती-भरी है। क्योंकि मुझे लगातार अपनी शख्सियत में सुधार करने की कोशिश करनी होती है। साथ ही, मुझे अपनी काबिलीयत को भी निखारना होता है, ताकि अलग-अलग संस्कृति के लोगों को बाइबल सिखा सकूँ। अब मुझे एहसास हो गया कि यहोवा के मकसद को अपना मकसद बनाने से ही ज़िंदगी में सच्ची खुशी मिलती है।”

19. हमें ज़िंदगी का असली मकसद कैसे मिल सकता है?

19 मसीही होने के नाते हमें वह ज्ञान मिला है जो ज़िंदगी बचा सकता है। इसके अलावा, हमें उद्धार पाने की आशा भी मिली है। (यूहन्‍ना 17:3) तो फिर ऐसा हो कि हमें ‘परमेश्‍वर का जो अनुग्रह मिला है, उसे हम व्यर्थ न जाने दें।’ (2 कुरिन्थियों 6:1, ईज़ी-टू-रीड वर्शन) इसके बजाय, आइए हम अपनी ज़िंदगी के बेशकीमती दिन और साल यहोवा की स्तुति करने में लगाएँ। आइए हम वह ज्ञान सबके साथ बाँटें, जिससे न सिर्फ आज सच्ची खुशी मिलती है बल्कि भविष्य में हमेशा की ज़िंदगी भी मिलेगी। यह ज्ञान बाँटने से हम यीशु के इन शब्दों को सच होते पाएँगे: “लेने से देना धन्य है।” (प्रेरितों 20:35) इस तरह हमें ज़िंदगी का असली मकसद मिल जाएगा। (w07 10/1)

[फुटनोट]

^ कुछ नाम बदल दिए गए हैं।

क्या आप समझा सकते हैं?

• हमारी ज़िंदगी का सबसे बड़ा मकसद क्या हो सकता है?

• धन-दौलत और ऐशो-आराम के लिए जीना क्यों अक्लमंदी नहीं है?

• वह “सच्ची ज़िन्दगी” क्या है, जिसका परमेश्‍वर हमसे वादा करता है?

• परमेश्‍वर का मकसद पूरा करने में हम अपनी ज़िंदगी को कैसे इस्तेमाल कर सकते हैं?

[अध्ययन के लिए सवाल]

[पेज 21 पर तसवीरें]

मसीहियों को सही किस्म के त्याग करने की ज़रूरत है