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अपने विवेक के मुताबिक काम कीजिए

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अपने विवेक के मुताबिक काम कीजिए

“शुद्ध लोगों के लिये सब वस्तु[एँ] शुद्ध हैं, पर अशुद्ध और अविश्‍वासियों के लिये कुछ भी शुद्ध नहीं।”—तीतुस 1:15.

1. क्रेते की कलीसियाओं से पौलुस के क्या ताल्लुकात रहे थे?

 प्रेरित पौलुस की तीन मिशनरी यात्राएँ पूरी हो जाने के बाद, उसे गिरफ्तार कर लिया गया था। आखिरकार उसे रोम भेजा गया, जहाँ उसने कैद में दो साल काटे। वहाँ से रिहा होने के कुछ समय बाद, वह तीतुस के साथ क्रेते द्वीप गया। बाद में उसने तीतुस को लिखा: “मैं इसलिये तुझे क्रेते में छोड़ आया था, कि तू शेष रही हुई [“बिगड़ी,” NW] बातों को सुधारे, और . . . प्राचीनों को नियुक्‍त करे।” (तीतुस 1:5) यह ज़िम्मेदारी निभाते वक्‍त तीतुस का ऐसे लोगों से वास्ता पड़ता, जिनका विवेक या तो काम कर रहा था या नहीं।

2. क्रेते द्वीप पर तीतुस को किस समस्या से निपटना पड़ा था?

2 पौलुस ने तीतुस को सलाह दी कि कलीसिया में प्राचीनों को नियुक्‍त करते वक्‍त उसे क्या-क्या बातें देखनी चाहिए। इसके बाद पौलुस ने उसे बताया कि कलीसिया में “बहुत से लोग निरंकुश, बकवादी और धोखा देनेवाले” हैं। ये लोग, ‘जो बातें नहीं सिखानी चाहिए थीं, उन्हें सिखाते हुए घर के घर बिगाड़ रहे थे।’ (ईज़ी-टू-रीड वर्शन) तीतुस को चाहिए था कि वह “उन्हें कड़ाई से चितौनी दिया” करे। (तीतुस 1:10-14; 1 तीमुथियुस 4:7) पौलुस ने कहा कि उनका मन और विवेक “अशुद्ध” हो गया है। (तीतुस 1:15) इसके लिए उसने एक ऐसे शब्द का इस्तेमाल किया, जो साफ कपड़े पर लगे स्याही के धब्बों के लिए इस्तेमाल किया जाता है। उन लोगों का ज़मीर भी मानो उस कपड़े की तरह दागदार हो गया था। मुमकिन है कि इनमें से कुछ लोग यहूदी थे, क्योंकि वे ‘खतना करवाने पर अड़े हुए थे।’ (NW) यह सच है कि आज कलीसिया में ऐसे लोग नहीं हैं जो खतना करवाने की ज़िद करते हैं। मगर फिर भी, पौलुस ने तीतुस को जो सलाह दी, उससे हम विवेक के सिलसिले में बहुत कुछ सीख सकते हैं।

जिनका विवेक अशुद्ध था

3. विवेक के सिलसिले में पौलुस ने तीतुस को क्या लिखा?

3 गौर कीजिए कि पौलुस ने किस वजह से विवेक की बात छेड़ी थी। “शुद्ध लोगों के लिये सब वस्तु[एँ] शुद्ध हैं, पर अशुद्ध और अविश्‍वासियों के लिये कुछ भी शुद्ध नहीं: बरन उन की बुद्धि और विवेक दोनों अशुद्ध हैं। वे कहते हैं, कि हम परमेश्‍वर को जानते हैं: पर अपने कामों से उसका इन्कार करते हैं।” इन शब्दों से पता चलता है कि उस ज़माने के कुछ लोगों को अपने अंदर तबदीली लानी थी, ताकि वे ‘विश्‍वास में पक्के हो’ सकें। (तीतुस 1:13, 15, 16) उन्होंने अपने विवेक को सही से तालीम नहीं दी थी और इसलिए वे शुद्ध और अशुद्ध में फर्क नहीं कर पा रहे थे।

4, 5. क्रेते के कुछ मसीहियों में क्या खोट थी, और इसका उन पर क्या असर हुआ?

4 मसीही शासी निकाय ने दस से भी ज़्यादा साल पहले यह फैसला किया था कि यहोवा का सच्चा उपासक बनने के लिए खतना करवाना ज़रूरी नहीं। और उन्होंने सारी कलीसियाओं को इस बारे में इत्तला की। (प्रेरितों 15:1, 2, 19-29) इसके बावजूद, क्रेते के कुछ मसीही ‘खतना करवाने पर अड़े’ रहे। उन्होंने खुलेआम शासी निकाय का विरोध किया और जो ‘बातें नहीं सिखानी चाहिए, उन्हें सिखाने’ लगे। (तीतुस 1:10, 11) अपनी बिगड़ी हुई सोच की वजह से वे शायद व्यवस्था से ऐसे नियमों को मानने का बढ़ावा दे रहे थे, जिनमें खाने-पीने और खुद को शुद्ध करने के बारे में कहा गया था। वे शायद उन बातों को भी सिखा रहे थे, जो व्यवस्था में नहीं लिखी थीं, ठीक जैसे उनके पूर्वज यीशु के दिनों में किया करते थे। इतना ही नहीं, वे यहूदी कथा-कहानियों पर यकीन करने और इंसानों की आज्ञाओं को मानने का बढ़ावा दे रहे थे।—मरकुस 7:2, 3, 5, 15; 1 तीमुथियुस 4:3.

5 इस तरह की सोच का उनके अच्छे-बुरे की समझ, यानी उनके विवेक पर बुरा असर पड़ा। पौलुस ने लिखा: “अशुद्ध और अविश्‍वासियों के लिये कुछ भी शुद्ध नहीं।” उनका ज़मीर इस कदर भ्रष्ट हो चुका था कि यह उनके कामों और उनकी सोच को सही राह नहीं दिखा पा रहा था। और-तो-और वे उन मामलों में अपने मसीही भाइयों पर दोष लगा रहे थे, जिनमें हर मसीही शायद एक जैसा फैसला न करे। ऐसा करके क्रेते के मसीही उन बातों को अशुद्ध ठहरा रहे थे, जो हकीकत में अशुद्ध नहीं थीं। (रोमियों 14:17, 18क; कुलुस्सियों 2:16) वे दावा तो कर रहे थे कि वे परमेश्‍वर को जानते हैं, मगर उनके काम इस दावे को खोखला साबित कर रहे थे।—तीतुस 1:16.

“शुद्ध लोगों के लिये सब वस्तु[एँ] शुद्ध हैं”

6. पौलुस ने किन दो किस्म के लोगों की बात कही?

6 पौलुस ने तीतुस को जो बातें लिखीं, उनसे हम कैसे फायदा पा सकते हैं? गौर कीजिए कि यहाँ क्या फर्क बताया गया है: “शुद्ध लोगों के लिये सब वस्तु[एँ] शुद्ध हैं, पर अशुद्ध और अविश्‍वासियों के लिये कुछ भी शुद्ध नहीं: बरन उन की बुद्धि और विवेक दोनों अशुद्ध हैं।” (तीतुस 1:15) पौलुस के कहने का यह मतलब बिलकुल नहीं था कि नैतिक रूप से शुद्ध मसीही के लिए सबकुछ शुद्ध और जायज़ है। हम यह बात इतने यकीन के साथ इसलिए कह सकते हैं, क्योंकि एक दूसरी पत्री में पौलुस ने साफ कहा था कि व्यभिचार, मूर्तिपूजा, टोना वगैरह करनेवाले “परमेश्‍वर के राज्य के वारिस न होंगे।” (गलतियों 5:19-21) तो फिर, पौलुस के कहने का मतलब क्या था? पौलुस दरअसल दो किस्म के लोगों के बारे में एक आम सच्चाई बयान कर रहा था। एक वे जो नैतिक और आध्यात्मिक रूप से शुद्ध हैं और दूसरे जो इन मायनों में अशुद्ध हैं।

7. इब्रानियों 13:4 में किस बात की मनाही की गयी है, मगर इससे क्या सवाल उठ सकता है?

7 ऐसा नहीं कि एक नेकदिल मसीही को सिर्फ उन बातों से दूर रहना चाहिए, जिन्हें बाइबल साफ शब्दों में गलत कहती है। मिसाल के लिए, ध्यान दीजिए कि बाइबल में सीधे-सीधे क्या कहा गया है: “विवाह सब में आदर की बात समझी जाए, और बिछौना निष्कलंक रहे; क्योंकि परमेश्‍वर व्यभिचारियों, और परस्त्रीगामियों का न्याय करेगा।” (इब्रानियों 13:4) यह तो कोई भी गैर-मसीही या बाइबल की जानकारी न रखनेवाला भी बता पाएगा कि इस आयत में परस्त्रीगमन या परगमन की मनाही की गयी है। इस आयत और बाइबल की दूसरी आयतों से साफ पता चलता है कि परमेश्‍वर, शादीशुदा पुरुष या स्त्री का किसी पराए पुरुष या स्त्री के साथ शारीरिक संबंध रखने को पाप मानता है। लेकिन अगर दो अविवाहित लोग मुख मैथुन करते हैं, तब क्या? कई नौजवानों का कहना है कि यह गलत नहीं, क्योंकि इसमें शारीरिक संबंध रखे ही नहीं जाते। मगर क्या एक मसीही मुख मैथुन को शुद्ध मान सकता है?

8. मुख मैथुन के बारे में मसीहियों की सोच दुनिया के ज़्यादातर लोगों से किस तरह अलग है?

8 इब्रानियों 13:4 और 1 कुरिन्थियों 6:9 पुख्ता करते हैं कि परमेश्‍वर परगमन और व्यभिचार (यूनानी में पोरनिया) से घृणा करता है। पोरनिया में क्या-क्या शामिल है? इसमें स्वाभाविक या विकृत रूप से जननांगों से खेलना शामिल है। इसमें ऐसे दो लोगों के बीच हर किस्म के अशुद्ध लैंगिक काम शामिल है, जो पति-पत्नी नहीं हैं। तो ज़ाहिर-सी बात है कि इसमें मुख मैथुन भी शामिल है, फिर चाहे दुनिया-भर में बहुत-से नौजवानों को यह क्यों न बताया गया हो या वे खुद इस नतीजे पर क्यों न पहुँचे हों कि मुख मैथुन करना पाप नहीं है। सच्चे मसीही, “बकवादी और धोखा देनेवाले” लोगों के खयालात के मुताबिक काम नहीं करते और ना ही उनके मुताबिक अपनी सोच ढालते हैं। (तीतुस 1:10) इसके बजाय, वे पवित्र शास्त्र में बताए ऊँचे स्तरों का सख्ती से पालन करते हैं। वे मुख मैथुन को सही ठहराने की कोशिश नहीं करते, बल्कि वे मानते हैं कि बाइबल के मुताबिक मुख मैथुन व्यभिचार या पोरनिया है। और वे अपने ज़मीर को उसी हिसाब से तालीम देते हैं। *प्रेरितों 21:25; 1 कुरिन्थियों 6:18; इफिसियों 5:3.

अलग-अलग विवेक के मुताबिक अलग-अलग फैसले

9. हालाँकि पौलुस ने कहा था कि “सब वस्तु[एँ] शुद्ध हैं,” मगर हमें यह क्यों उम्मीद करनी चाहिए कि कुछ मामलों में मसीही अलग-अलग नज़रिया रखेंगे?

9 मगर जब पौलुस ने कहा कि “शुद्ध लोगों के लिये सब वस्तु[एँ] शुद्ध हैं,” तो उसका मतलब क्या था? वह उन मसीहियों की बात कर रहा था, जिन्होंने अपनी सोच और अच्छे-बुरे की समझ को परमेश्‍वर के स्तरों के मुताबिक ढाला है। ये स्तर परमेश्‍वर के प्रेरित वचन, बाइबल में दिए गए हैं। ऐसे मसीही कबूल करते हैं कि जिन मामलों को परमेश्‍वर सीधे तौर पर गलत नहीं ठहराता, उनमें कलीसिया के भाई-बहन शायद अलग-अलग नज़रिया रखें और उनका विवेक उन्हें अलग-अलग फैसले करने को उभारे। ऐसे में, ये मसीही दूसरों की नुक्‍ताचीनी करने के बजाय, उन बातों को “शुद्ध” मानते हैं जिन्हें परमेश्‍वर गलत नहीं ठहराता। वे यह उम्मीद नहीं करते कि ज़िंदगी के जिन पहलुओं के बारे में बाइबल कोई साफ हिदायत नहीं देती, उनके बारे में दूसरे उनके जैसी सोच रखेंगे। आइए इस बात को समझने के लिए कुछ मिसालों पर गौर करें।

10. किसी रिश्‍तेदार की शादी (या अंत्येष्टि) के वक्‍त, क्या चुनौती खड़ी हो सकती है?

10 आज ऐसे कई परिवार हैं, जिनमें पति-पत्नी में से कोई एक मसीही बना है। (1 पतरस 3:1; 4:3) इन मसीहियों के आगे तरह-तरह की चुनौतियाँ खड़ी हो सकती हैं। जैसे उस वक्‍त, जब किसी रिश्‍तेदार के यहाँ शादी या अंत्येष्टि होती है। मान लीजिए, पत्नी एक मसीही है लेकिन उसका पति किसी और धर्म को मानता है। पति के किसी रिश्‍तेदार की शादी है, जो उसके धार्मिक रीति-रिवाज़ों के मुताबिक होगी। (या किसी रिश्‍तेदार जैसे पति की माँ या उसके पिता की मौत हो गयी है और अंत्येष्टि धार्मिक रीति-रिवाज़ों के मुताबिक होगी।) इस मौके पर जोड़े को बुलाया जाता है और पति चाहता है कि उसकी पत्नी भी उसके साथ चले। इस मामले में पत्नी का विवेक क्या कहता है? क्या वह अपने पति के साथ जाने का फैसला करेगी? आइए दो गुंजाइशों पर गौर करें।

11. बताइए कि शादी में जाने के बारे में एक मसीही पत्नी कैसे तर्क कर सकती है और किस नतीजे पर पहुँच सकती है?

11 लीना बाइबल की इस गंभीर आज्ञा पर मनन करती है: ‘बड़े बाबुल से निकल आओ।’ (प्रकाशितवाक्य 18:2, 4) यह बड़ा बाबुल दुनिया-भर में साम्राज्य की तरह फैला झूठा धर्म है। लीना जानती है कि शादी के दौरान, उसके पिछले धर्म की सारी रस्में निभायी जाएँगी और हाज़िर सभी लोगों को उनमें शरीक होने के लिए कहा जाएगा। लीना ठान लेती है कि वह इन रस्मों में हिस्सा नहीं लेगी। और-तो-और, वह वहाँ मौजूद भी नहीं होना चाहती, जहाँ उस पर अपनी खराई तोड़ने का दबाव आ सकता है। वह अपने पति का, जो बाइबल के मुताबिक उसका मुखिया है, आदर करती है और उसे सहयोग देना चाहती है। मगर वह बाइबल के सिद्धांतों से समझौता नहीं करना चाहती। (प्रेरितों 5:29) इसलिए वह प्यार से अपने पति को समझाती है कि वह उसके साथ शादी में नहीं जा सकती। वह शायद यह समझाए कि अगर वह शादी में जाकर किसी रस्म में हिस्सा लेने से इनकार करेगी, तो इससे पति को शर्मिंदा होना पड़ सकता है। इसलिए उसका वहाँ न जाना ही पति के लिए अच्छा होगा। इस फैसले से लीना अपना विवेक शुद्ध बनाए रख पाती है।

12. शादी का न्यौता पाकर एक मसीही क्या तर्क कर सकता है और किस नतीजे पर पहुँच सकता है?

12 रश्‍मी भी कुछ ऐसी ही कशमकश में है। वह अपने पति का आदर करती है, हर हाल में परमेश्‍वर की वफादार रहना चाहती है और बाइबल से तालीम पाए अपने विवेक की आवाज़ भी सुनती है। जिन बातों पर लीना ने गहराई से सोचा था, उन बातों पर रश्‍मी भी सोचती है। फिर वह प्रार्थना करके 15 मई, 2002 की प्रहरीदुर्ग में “पाठकों के प्रश्‍न” लेख में दी जानकारी पर गौर करती है। वह उस घटना को याद करती है जब तीन इब्रियों ने उस जगह इकट्ठा होने का हुक्म माना था, जहाँ एक बड़ी मूरत को पूजा जाता। मगर वहाँ हाज़िर होकर भी उन्होंने मूरत की पूजा नहीं की और अपनी खराई बनाए रखी। (दानिय्येल 3:15-18) इसलिए रश्‍मी अपने पति के साथ शादी में जाने का फैसला करती है, मगर वह ठान लेती है कि वह किसी भी रस्म में शरीक नहीं होगी। इस तरह, वह अपने विवेक के मुताबिक काम करती है। वह प्यार से मगर साफ शब्दों में अपने पति को समझाती है कि उसका विवेक उसे क्या करने और क्या न करने की इजाज़त देता है। रश्‍मी उम्मीद करती है कि उसका पति सच्ची और झूठी उपासना के बीच फर्क समझ पाएगा।—प्रेरितों 24:16.

13. जब दो मसीही एक ही मामले को लेकर अलग-अलग फैसले करते हैं, तो हमें परेशान क्यों नहीं होना चाहिए?

13 अभी हमने देखा कि कैसे दो मसीही एक ही मामले को लेकर अलग-अलग फैसले करते हैं। तो क्या इसका यह मतलब है कि एक मसीही चाहे जो भी फैसला करे, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, या उनमें से किसी एक मसीही का विवेक कमज़ोर है? जी नहीं। लीना की बात लीजिए। साक्षी बनने से पहले वह अपने धर्म के रीति-रिवाज़ों में पूरे ज़ोर-शोर से हिस्सा लेती थी, इसलिए उसे शायद एहसास हो कि खासकर उसके लिए वहाँ मौजूद होना खतरनाक होगा। और हो सकता है, उसके पति ने पहले भी धार्मिक मामलों को लेकर उस पर दबाव डाला हो और इसीलिए उसका विवेक नहीं मानता कि वह उस शादी में जाए। उसे यकीन है कि उसने जो फैसला किया वह उसके लिए बिलकुल सही है।

14. जिन मामलों का फैसला हरेक पर छोड़ा जाता है, उस बारे में मसीहियों को क्या याद रखना चाहिए?

14 तो क्या इसका मतलब रश्‍मी ने जो फैसला किया वह गलत है? यह तय करने का हक दूसरों को नहीं है, और ना ही उन्हें रश्‍मी के फैसले की निंदा करनी चाहिए। याद कीजिए कि पौलुस ने कुछ किस्म के भोजन खाने या न खाने के बारे में क्या सलाह दी थी। यह एक ऐसा मामला था जिसका फैसला हरेक पर छोड़ा जाता है। उसने कहा: “खानेवाला न-खानेवाले को तुच्छ न जाने, और न-खानेवाला खानेवाले पर दोष न लगाए . . . उसका स्थिर रहना या गिर जाना उसके स्वामी ही से सम्बन्ध रखता है, बरन वह स्थिर ही कर दिया जाएगा; क्योंकि प्रभु उसे स्थिर रख सकता है।” (रोमियों 14:3, 4) बेशक, कोई भी सच्चा मसीही किसी पर यह दबाव डालना नहीं चाहेगा कि वह अपने तालीम पाए विवेक की आवाज़ को अनसुना कर दे। क्योंकि ऐसा करके वह मसीही शायद उस आवाज़ को दबा रहा होगा, जो उस व्यक्‍ति की जान बचा सकती है।

15. दूसरों के विवेक और भावनाओं का लिहाज़ करना क्यों ज़रूरी है?

15 लीना और रश्‍मी को फैसला लेने से पहले कुछ और भी बातों पर ध्यान देने की ज़रूरत है। जैसे कि उनके फैसले का दूसरों पर क्या असर होगा। पौलुस ने हमें सलाह दी थी: “तुम यही ठान लो कि कोई अपने भाई के साम्हने ठेस या ठोकर खाने का कारण न रखे।” (रोमियों 14:13) लीना जानती है कि ऐसे ही कुछ हालात से उसके परिवार या कलीसिया के कुछ लोगों को ठेस पहुँची है। और उसे यह भी एहसास है कि वह जो फैसला करेगी, उसका उसके बच्चों पर गहरा असर होगा। इसके उलट, रश्‍मी को पता है कि इस तरह के फैसलों से न तो उसकी कलीसिया में और ना ही उसकी बिरादरी में किसी को कोई दिक्कत हुई है। इन दोनों स्त्रियों को और हम सबको भी यह समझना चाहिए कि एक तालीम पाया हुआ विवेक हमेशा दूसरों का लिहाज़ करता है। यीशु ने कहा था: “जो कोई इन छोटों में से जो मुझ पर विश्‍वास करते हैं एक को ठोकर खिलाए, उसके लिये भला होता, कि बड़ी चक्की का पाट उसके गले में लटकाया जाता, और वह गहिरे समुद्र में डुबाया जाता।” (मत्ती 18:6) अगर एक इंसान इस बात को नज़रअंदाज़ करता है कि उसके कामों से कोई ठोकर खा सकता है, तो उसका विवेक भी क्रेते के कुछ मसीहियों की तरह अशुद्ध हो सकता है।

16. समय के गुज़रते एक मसीही में क्या बदलाव आने चाहिए?

16 एक मसीही को लगातार आध्यात्मिक तरक्की करते रहनी चाहिए। साथ ही, उसे अपने ज़मीर की आवाज़ सुनने और उसके मुताबिक काम करने में भी उन्‍नति करते रहनी चाहिए। मान लीजिए मोहित नाम के एक व्यक्‍ति का हाल ही में बपतिस्मा हुआ है। अब उसका विवेक उसे उन कामों को ठुकराने के लिए कहता है जो पहले वह किया करता था और जो परमेश्‍वर के मुताबिक गलत हैं। जैसे कि लहू का इस्तेमाल या मूर्तिपूजा करना वगैरह। (प्रेरितों 21:25) यहाँ तक कि अब अगर उसे कोई काम उन कामों से थोड़ा भी मिलता-जुलता लगता है, तो वह उससे कोसों दूर भागता है। लेकिन दूसरी तरफ, वह यह समझ नहीं पाता कि कुछ चीज़ें, जैसे कि कुछ टी.वी. कार्यक्रम जो उसे सही लगते हैं, वे औरों को गलत क्यों लगते हैं।

17. मिसाल देकर समझाइए कि कैसे वक्‍त और एक मसीही की आध्यात्मिक तरक्की का उसके विवेक और फैसलों पर असर हो सकता है।

17 जैसे-जैसे समय बीतता है, मोहित परमेश्‍वर के बारे में और भी ज्ञान लेता है और उसके करीब आता है। (कुलुस्सियों 1:9, 10) इस वजह से उसके अंदर की आवाज़ को काफी तालीम मिलती है। अब मोहित फैसला लेते वक्‍त अपने विवेक की सुनता है और बाइबल में दिए सिद्धांतों की गहराई से जाँच करता है। दरअसल उसे एहसास होता है कि जो काम पहले उसे गलत कामों से ‘थोड़े भी मिलते-जुलते’ लगते थे और वह उन्हें ठुकरा देता था, वे असल में परमेश्‍वर के मुताबिक गलत नहीं हैं। इसके अलावा, अब मोहित पहले से ज़्यादा बाइबल के सिद्धांतों और अपने तालीम पाए विवेक के मुताबिक काम करता है। इसलिए उसका विवेक उसे उन कार्यक्रमों को देखने से रोकता है, जो पहले उसे ठीक लगते थे। जी हाँ, उसके विवेक को सचमुच अच्छी तालीम मिली है।—भजन 37:31.

18. हमें किस बात से खुशी मिलती है?

18 ज़्यादातर कलीसियाओं में, भाई-बहन अपनी आध्यात्मिक बढ़ोतरी के अलग-अलग मुकाम पर हैं। इनमें से कुछ सच्चाई में नए हैं। हो सकता है कुछ मुद्दों पर वे जो फैसले करते हैं, उनसे उनके विवेक को कोई परेशानी न हो, मगर कुछ मुद्दों पर किए फैसलों से शायद उनका विवेक उन्हें कचोटने लगे। इन नए लोगों को वक्‍त और मदद की ज़रूरत है, ताकि वे यहोवा की दिखायी राह पर चल सकें और अपने तालीम पाए विवेक की बात मान सकें। (इफिसियों 4:14, 15) इन्हीं कलीसियाओं में शायद ऐसे भाई-बहन भी हैं, जिन्हें बाइबल का अच्छा ज्ञान है, बाइबल सिद्धांतों को लागू करने का तजुरबा है और जिनका विवेक परमेश्‍वर की सोच से बिलकुल मेल खाता है। ऐसे “शुद्ध लोगों” के साथ मिलने-जुलने से हमें क्या ही खुशी मिलती है, जो उन बातों को नैतिक और आध्यात्मिक रूप से “शुद्ध” मानते हैं, जो प्रभु को भाती हैं! (इफिसियों 5:10) आइए हम सब यह लक्ष्य रखें कि हम भी आध्यात्मिक रूप से बढ़ते हुए इस मुकाम तक पहुँचेंगे। और अपने विवेक को ऐसा बनाए रखेंगे कि वह सत्य की पहचान और ईश्‍वरीय भक्‍ति के मुताबिक हो।—तीतुस 1:1. (w07 10/15)

[फुटनोट]

^ 15 मार्च, 1983 की अँग्रेज़ी प्रहरीदुर्ग के पेज 30-1 पर शादीशुदा जोड़ों के लिए कुछ बातें बतायी गयी हैं। इनमें से कुछ हैं: “उन्हें ऐसे हर काम के लिए अपने दिल में घृणा पैदा करनी चाहिए जो यहोवा के सामने अशुद्ध है। ज़ाहिर है कि इनमें विकृत लैंगिक काम भी शामिल हैं। शादीशुदा जोड़ों को ऐसे काम करने चाहिए जिससे उनका विवेक शुद्ध रहे . . . और उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि पति-पत्नी के बीच का लैंगिक संबंध साफ-सुथरा होना चाहिए, इससे उन्हें सुख मिलना चाहिए और उन्हें एक-दूसरे के लिए कोमल प्यार दिखाना चाहिए। इसमें ऐसा कोई भी काम शामिल नहीं होना चाहिए जिससे पति या पत्नी को किसी तरह का नुकसान हो या उसके ज़मीर को ठेस पहुँचे।—इफिसियों 5:28-30; 1 पतरस 3:1, 7.”

आप क्या जवाब देंगे?

• क्रेते के कुछ मसीहियों का विवेक अशुद्ध क्यों हो गया था?

• यह कैसे हो सकता है कि दो मसीहियों का तालीम पाया विवेक उन्हें अलग-अलग फैसले करने के लिए उकसाए?

• समय के गुज़रते हमारा विवेक कैसा हो जाना चाहिए?

[अध्ययन के लिए सवाल]

[पेज 13 पर नक्शा]

(भाग को असल रूप में देखने के लिए प्रकाशन देखिए)

सिसिली

यूनान

क्रेते

एशिया माइनर

कुप्रुस

भूमध्य सागर