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अपने ‘सिखाने की कला’ पर ध्यान दीजिए

अपने ‘सिखाने की कला’ पर ध्यान दीजिए

अपने ‘सिखाने की कला’ पर ध्यान दीजिए

“वचन को प्रचार कर . . . सब प्रकार की सहनशीलता, और शिक्षा [‘सिखाने की कला,’ NW] के साथ उलाहना दे, और डांट, और समझा।”—2 तीमु. 4:2.

1. यीशु ने अपने चेलों को क्या आज्ञा दी थी और उसने कौन-सी मिसाल कायम की?

 धरती पर अपनी सेवा के दौरान यीशु ने कई लोगों को हैरतअंगेज़ तरीके से चंगा किया था। फिर भी, उसे चंगाई या चमत्कार करनेवाला नहीं, बल्कि गुरू कहा जाता था। (मर. 12:19; 13:1) जी हाँ, यीशु की ज़िंदगी का सबसे अहम काम था, परमेश्‍वर के राज्य के बारे में सुसमाचार सुनाना। आज उसके चेलों का भी सबसे अहम काम वही है। मसीहियों को चेला बनाने का काम करते रहने की ज़िम्मेदारी दी गयी है। इसके लिए उन्हें लोगों को वे सारी बातें मानना सिखाना है, जिनकी यीशु ने आज्ञा दी थी।—मत्ती 28:19, 20.

2. चेला बनाने की ज़िम्मेदारी निभाने के लिए क्या करना ज़रूरी है?

2 इस ज़िम्मेदारी को निभाने के लिए ज़रूरी है कि हम बेहतर शिक्षक बनने की लगातार कोशिश करें। ऐसा करना क्यों ज़रूरी है, इसकी वजह प्रेरित पौलुस ने अपने साथी प्रचारक तीमुथियुस को अपनी पत्री में बतायी। उसने कहा: “अपने ऊपर और अपनी शिक्षा पर विशेष ध्यान दे और इन बातों पर स्थिर रह, क्योंकि ऐसा करने से तू अपने और अपने सुनने वालों के भी उद्धार का कारण होगा।” (1 तीमु. 4:16, NHT) पौलुस जिस शिक्षा की बात कर रहा था, उसका मतलब सिर्फ दूसरों को ज्ञान देना नहीं है। इसके बजाय, एक कुशल मसीही प्रचारक उसे कहते हैं जो लोगों के दिलों में बाइबल की सच्चाई बिठाता है और उन्हें ज़िंदगी में बदलाव करने के लिए उकसाता है। ऐसा करना एक कला है। अब सवाल यह है कि परमेश्‍वर के राज्य की खुशखबरी सुनाने में हम अपने ‘सिखाने की कला’ कैसे बढ़ा सकते हैं?—2 तीमु. 4:2, NW.

‘सिखाने की कला’ बढ़ाना

3, 4. (क) हम “सिखाने की कला” कैसे बढ़ा सकते हैं? (ख) कुशल शिक्षक बनने में परमेश्‍वर की सेवा स्कूल हमारी किस तरह मदद करता है?

3 एक शब्दकोश के मुताबिक “कला” का मतलब है, “एक हुनर जो अध्ययन करके, अभ्यास करके या दूसरों को देखकर सीखा जा सकता है।” अगर हम सुसमाचार सुनाने में एक कुशल शिक्षक बनना चाहते हैं, तो हमें इन तीनों मुद्दों पर ध्यान देने की ज़रूरत है। किसी विषय के बारे में पूरी-पूरी समझ हासिल करने का सिर्फ एक ही तरीका है। वह यह कि हम उस विषय के बारे में अध्ययन और प्रार्थना करें। (भजन 119:27, 34 पढ़िए।) इसके अलावा, कुशल प्रचारकों को देखकर और उनसे सीखकर हम उनके जैसे बन सकते हैं। साथ ही, सीखी हुई बातों का लगातार अभ्यास करने से हम अपनी काबिलीयतों को निखार सकते हैं।—लूका 6:40; 1 तीमु. 4:13-15.

4 यहोवा हमारा महान उपदेशक है। धरती पर अपने संगठन के ज़रिए, वह अपने सेवकों को प्रचार करने की हिदायतें देता है। (यशा. 30:20, 21) इस सिलसिले में, सभी कलीसियाओं में हर हफ्ते परमेश्‍वर की सेवा स्कूल चलाया जाता है। इस स्कूल का मकसद है, इसमें हिस्सा लेनेवालों की मदद करना ताकि वे परमेश्‍वर के राज्य का ऐलान करने में कुशल बनें। इस स्कूल की खास किताब बाइबल है। यहोवा का प्रेरित वचन बताता है कि हमें क्या प्रचार करना है। और यह भी कि सिखाने के कौन-से तरीके असरदार और मुनासिब हैं। परमेश्‍वर की सेवा स्कूल के ज़रिए हमें बार-बार याद दिलाया जाता है कि अगर हम लोगों को परमेश्‍वर के वचन से सिखाएँ, सवालों का अच्छा इस्तेमाल करें, आसान तरीके से बातें समझाएँ और दूसरों में सच्ची दिलचस्पी लें, तो हम बेहतर शिक्षक बनेंगे। आइए इनमें से एक-एक मुद्दे की जाँच करें। फिर हम इस बात पर चर्चा करेंगे कि विद्यार्थी के दिल पर गहरा असर कैसे किया जा सकता है।

परमेश्‍वर के वचन से सिखाइए

5. हमारे सिखाने का आधार क्या होना चाहिए और क्यों?

5 दुनिया का सबसे महान शिक्षक यीशु, हमेशा शास्त्र से सिखाता था। (मत्ती 21:13; यूह. 6:45; 8:17) उसने लोगों को अपनी बातें नहीं, बल्कि अपने भेजनेवाले की बातें सिखायीं। (यूह. 7:16-18) हमें भी उसकी मिसाल पर चलना चाहिए। इसलिए, घर-घर का प्रचार करते या बाइबल अध्ययन चलाते वक्‍त हम जो भी कहते हैं, उसका आधार बाइबल होना चाहिए। (2 तीमु. 3:16, 17) बाइबल लोगों पर जितना गहरा असर कर सकती है और उन्हें कदम उठाने के लिए कायल कर सकती है, उतना तो हमारी अच्छी-से-अच्छी दलीलें भी नहीं कर सकतीं। बाइबल में सचमुच कमाल की ताकत है। इसलिए हम विद्यार्थी को चाहे जो भी मुद्दा समझाने की कोशिश कर रहे हों, बेहतर यही होगा कि हम उसे सीधे बाइबल से पढ़वाएँ कि इस बारे में बाइबल क्या कहती है।—इब्रानियों 4:12 पढ़िए।

6. एक शिक्षक क्या कर सकता है, ताकि अध्ययन के दौरान पढ़ी जानेवाली जानकारी विद्यार्थी के समझ में आए?

6 बेशक इसका यह मतलब नहीं कि एक मसीही शिक्षक को बाइबल अध्ययन के लिए तैयारी करने की ज़रूरत नहीं है। इसके बजाय, उसे पहले से सोचकर रखना चाहिए कि वह अध्ययन के दौरान, लेख में दी बाइबल की किन आयतों को पढ़ेगा या उन्हें विद्यार्थी से पढ़वाएगा। आम तौर पर ऐसी आयतों को पढ़ना अच्छा होता है, जो दिखाती हैं कि हमारी शिक्षाओं की बुनियाद बाइबल है। इसके अलावा, विद्यार्थी जो-जो आयतें पढ़ता है, उन्हें समझने में उसकी मदद करना भी ज़रूरी है।—1 कुरि. 14:8, 9.

सवालों का अच्छा इस्तेमाल कीजिए

7. सवालों का इस्तेमाल करना, सिखाने का अच्छा तरीका क्यों है?

7 कुशलता से पूछे गए सवालों से विद्यार्थी को सोचने के लिए उकसाया जाता है। और इससे शिक्षक, विद्यार्थी के मन में वह बात बिठा पाता है जो वह उसे सिखाना चाहता है। इसलिए बाइबल की आयतों का मतलब खुद-ब-खुद बताने के बजाय, विद्यार्थी को समझाने के लिए कहिए। कभी-कभी किताब में दिए सवालों के अलावा, एक और सवाल या फिर कई सवाल पूछना ज़रूरी हो सकता है ताकि विद्यार्थी मुद्दे को सही-सही समझ जाए। जब आप इस तरीके से सिखाते हैं, तो आपका विद्यार्थी किसी नतीजे पर पहुँचने की न सिर्फ वजह समझ पाएगा, बल्कि उसे पूरा यकीन भी होगा कि वही नतीजा सही है।—मत्ती 17:24-26; लूका 10:36, 37.

8. विद्यार्थी के दिल में क्या है, यह हम कैसे जान सकते हैं?

8 हमारी किताबों-पत्रिकाओं में अध्ययन के लिए सवाल-जवाब का तरीका अपनाया जाता है। बेशक, आप जिनके साथ बाइबल अध्ययन करते हैं उनमें से ज़्यादातर लोग, किताब में दिए सवालों के जवाब पैराग्राफ से तुरंत दे पाते हैं। लेकिन जो शिक्षक अपने विद्यार्थी के दिल की बात जानना चाहता है, वह सही जवाब पाकर आगे नहीं बढ़ जाता। मान लीजिए, एक विद्यार्थी शायद सही-सही समझा पाए कि बाइबल व्यभिचार के बारे में क्या कहती है। (1 कुरि. 6:18) मगर व्यवहार-कुशलता से, विद्यार्थी से कुछ सवाल पूछकर यह पता किया जा सकता है कि वह बाइबल से सीखी बातों पर सचमुच यकीन करता है कि नहीं। इसलिए शिक्षक शायद उससे पूछे: “शादी के बगैर लैंगिक संबंध रखने को बाइबल पाप क्यों कहती है? परमेश्‍वर की लगायी इस पाबंदी के बारे में आप क्या सोचते हैं? क्या आपको लगता है कि परमेश्‍वर के नैतिक स्तरों के मुताबिक जीना फायदेमंद है?” इस तरह के सवालों के जवाबों से आपको पता चलेगा कि विद्यार्थी के दिल में क्या है।—मत्ती 16:13-17 पढ़िए।

आसान तरीके से समझाइए

9. जब हम बाइबल से जानकारी देते हैं, तो हमें किस बात का ध्यान रखना चाहिए?

9 परमेश्‍वर के वचन में दी ज़्यादातर सच्चाइयाँ अपने आप में सरल हैं। मगर हो सकता है, हम जिसके साथ बाइबल अध्ययन करते हैं, वह झूठे धर्मों की शिक्षाओं की वजह से उलझन में पड़ा हो। इसलिए शिक्षक होने के नाते हमें अपने विद्यार्थी के लिए बाइबल को समझना आसान बनाना चाहिए। अच्छा शिक्षक उसे कहते हैं जो जानकारी को सरल शब्दों में, साफ-साफ और ठीक-ठीक पेश करता है। अगर हम इस सिद्धांत को मानकर चलें, तो हम अपने विद्यार्थी के लिए सच्चाई को समझना और मुश्‍किल नहीं बनाएँगे। उसे गैर-ज़रूरी जानकारी मत दीजिए। पढ़ी जानेवाली हर आयत के सभी पहलू समझाने की ज़रूरत नहीं। सिर्फ उस पहलू पर ध्यान दीजिए, जो चर्चा के मुद्दे को समझने के लिए ज़रूरी हो। आध्यात्मिक बातों के बारे में जैसे-जैसे विद्यार्थी की समझ बढ़ेगी, वैसे-वैसे वह बाइबल की गूढ़ सच्चाइयों को भी समझ पाएगा।—इब्रा. 5:13, 14.

10. किन बातों से तय होता है कि अध्ययन के दौरान कितनी जानकारी पर चर्चा करना सही होगा?

10 अध्ययन के दौरान कितनी जानकारी पर चर्चा करना सही होगा? यह तय करने के लिए समझ से काम लेने की ज़रूरत है। भले ही अध्ययन चलानेवाले शिक्षक और विद्यार्थी की काबिलीयतें और हालात एक-जैसे न हों, मगर हमें ध्यान रखना चाहिए कि एक शिक्षक का मकसद होता है, अपने विद्यार्थी में मज़बूत विश्‍वास पैदा करना। इसलिए हमें विद्यार्थी को परमेश्‍वर के वचन में दी सच्चाइयों को पढ़ने, समझने और उन्हें कबूल करने के लिए काफी समय देना चाहिए। विद्यार्थी एक समय में जितनी जानकारी समझ सकता है, उससे ज़्यादा पर हम चर्चा नहीं करेंगे। मगर साथ ही, हम एक ही विषय पर ज़रूरत-से-ज़्यादा समय भी नहीं लगाएँगे। एक बार जब हमारा विद्यार्थी किसी मुद्दे को समझ लेता है, तो हम दूसरे मुद्दे पर बढ़ जाएँगे।—कुलु. 2:6, 7.

11. सिखाने के मामले में, हम प्रेरित पौलुस से क्या सबक हासिल कर सकते हैं?

11 प्रेरित पौलुस ने नए लोगों को सरल भाषा में सुसमाचार सुनाया था। हालाँकि वह बहुत पढ़ा-लिखा था, मगर उसने बड़े-बड़े शब्दों का इस्तेमाल नहीं किया। (1 कुरिन्थियों 2:1, 2 पढ़िए।) बाइबल की सच्चाई सरल होने की वजह से ही नेकदिल लोग इसकी तरफ खिंचे चले आते हैं और उन्हें अपने तमाम सवालों के जवाब मिलते हैं। सच्चाई को समझने के लिए किसी को भी बहुत पढ़ा-लिखा होने की ज़रूरत नहीं है।—मत्ती 11:25; प्रेरि. 4:13; 1 कुरि. 1:26, 27.

सीखी हुई बातों की कदर करने में विद्यार्थियों की मदद कीजिए

12, 13. एक विद्यार्थी किस वजह से सीखी हुई बातों पर अमल कर सकता है? मिसाल देकर समझाइए।

12 अगर हम चाहते हैं कि हमारे सिखाने के अच्छे नतीजे निकलें, तो यह ज़रूरी है कि हम जो सिखाते हैं वह विद्यार्थी के दिल में बैठ जाए। विद्यार्थी के समझ में आना चाहिए कि सीखी हुई जानकारी खुद उस पर कैसे लागू होती है और इससे उसे क्या फायदा हो सकता है। और यह भी कि अगर वह बाइबल की हिदायतों को माने, तो उसकी ज़िंदगी सँवर जाएगी।—यशा. 48:17, 18.

13 मिसाल के लिए, हम अध्ययन के दौरान शायद इब्रानियों 10:24, 25 पर चर्चा कर रहे हों। इन आयतों में मसीहियों को बढ़ावा दिया जाता है कि वे बाइबल से प्रोत्साहन पाने और एक-दूसरे की संगति का लुत्फ उठाने के लिए इकट्ठे हों। अगर विद्यार्थी ने अभी तक कलीसिया की सभाओं में आना शुरू नहीं किया है, तो हम चंद शब्दों में समझा सकते हैं कि सभाएँ कैसे चलायी जाती हैं और वहाँ क्या सिखाया जाता है। हम यह भी बता सकते हैं कि कलीसिया की सभाएँ हमारी उपासना का हिस्सा हैं और इनसे हमें निजी तौर पर क्या फायदा होता है। इसके बाद, हम विद्यार्थी को सभा में आने का बुलावा दे सकते हैं। मगर ध्यान रहे कि एक विद्यार्थी किस वजह से बाइबल की शिक्षाओं को मानता है। इसकी वजह अपने बाइबल शिक्षक को खुश करना नहीं, बल्कि यहोवा को खुश करना और उसकी बात मानने की इच्छा होनी चाहिए।—गल. 6:4, 5.

14, 15. (क) एक बाइबल विद्यार्थी यहोवा के बारे में क्या सीख सकता है? (ख) परमेश्‍वर की शख्सियत के बारे में जानने से एक विद्यार्थी को निजी तौर पर क्या फायदा हो सकता है?

14 जब विद्यार्थी बाइबल का अध्ययन करते हैं और उसके सिद्धांतों के मुताबिक चलते हैं, तो इसका सबसे बड़ा फायदा यह होता है कि वे यहोवा को करीबी से जानने और उससे प्यार करने लगते हैं। (यशा. 42:8) यहोवा एक प्यार करनेवाला पिता, सिरजनहार और सारे जहान का मालिक होने के अलावा, उन लोगों को अपनी शख्सियत और गुणों के बारे में बताता है जो उससे प्यार करते हैं और उसकी सेवा करते हैं। (निर्गमन 34:6, 7 पढ़िए।) जब यहोवा ने इस्राएलियों को मिस्र की गुलामी से आज़ाद कराने के लिए मूसा को भेजा, तो उसने अपनी यह पहचान दी: “मैं जो हूं सो हूं।” (निर्ग. 3:13-15) इसका मतलब यह है कि यहोवा अपने चुने हुए लोगों के मामले में, अपने उद्देश्‍यों को पूरा करने के लिए जो ज़रूरी है, वही बन जाता है। इसलिए इस्राएलियों ने जाना कि यहोवा उद्धारकर्ता है, योद्धा है, वादे का पक्का है, उनकी ज़रूरतों को पूरा करनेवाला और दूसरे तरीकों से मदद देनेवाला परमेश्‍वर है।—निर्ग. 15:2, 3; 16:2-5; यहो. 23:14.

15 यहोवा ने जिस तरह चमत्कार करके मूसा की मदद की, शायद वह हमारे विद्यार्थियों की उस तरह से मदद न करे। फिर भी, जैसे-जैसे हमारे विद्यार्थी सीखी बातों के लिए अपनी कदर और विश्‍वास बढ़ाते हैं और उन बातों को लागू करते हैं, तो बेशक वे यहोवा से हिम्मत, बुद्धि और मार्गदर्शन माँगना ज़रूरी समझेंगे। जब वे ऐसा करेंगे, तो इस्राएलियों की तरह वे भी जानेंगे कि यहोवा एक बुद्धिमान और भरोसेमंद सलाहकार है। साथ ही, वह उनका रक्षक और उनकी तमाम ज़रूरतों को पूरा करनेवाला दरियादिल परमेश्‍वर है।—भज. 55:22; 63:7; नीति. 3:5, 6.

प्यार और परवाह दिखाइए

16. एक अच्छा शिक्षक बनने के लिए बहुत ज़्यादा काबिल होना क्यों सबसे ज़रूरी नहीं है?

16 अगर आपको लगता है कि आप जैसे कुशल शिक्षक बनना चाहते हैं, वैसे आप नहीं हैं, तो निराश मत होइए। आज दुनिया-भर में इतने बड़े पैमाने पर सिखाने का जो काम हो रहा है, उसकी देखरेख खुद यहोवा और यीशु कर रहे हैं। (प्रेरि. 1:7, 8; प्रका. 14:6) वे हमारी मदद कर सकते हैं, ताकि हमारी बातों का नेकदिल इंसानों पर अच्छा असर हो। (यूह. 6:44) अगर एक शिक्षक बहुत ज़्यादा काबिल न हो, तो भी विद्यार्थी के लिए उसका सच्चा प्यार उस कमी को पूरा कर सकता है। प्रेरित पौलुस ने अपनी बातों से दिखाया कि वह विद्यार्थी से प्यार करने की अहमियत को समझता है।—1 थिस्सलुनीकियों 2:7, 8 पढ़िए।

17. हम हरेक बाइबल विद्यार्थी के लिए सच्ची परवाह कैसे दिखा सकते हैं?

17 उसी तरह, हरेक विद्यार्थी के साथ समय बिताने और उसके बारे में जानने से हम उसके लिए सच्ची परवाह दिखा सकते हैं। जैसे-जैसे हम उसके साथ बाइबल सिद्धांतों पर चर्चा करते हैं, हो सकता है हम उसके हालात से अच्छी तरह वाकिफ हों। हम शायद यह गौर करें कि वह बाइबल से सीखे कुछ मुद्दों को अपनी ज़िंदगी में लागू कर रहा है। मगर कुछ मामलों में शायद उसे अभी-भी फेरबदल करने की ज़रूरत हो। इसलिए जब हम विद्यार्थी को यह समझने में मदद देते हैं कि अध्ययन के दौरान सीखी बातों को वह खुद पर कैसे लागू कर सकता है, तो हम उसे मसीह का एक सच्चा चेला बनने में मदद दे रहे होते हैं।

18. अपने विद्यार्थी के साथ और उसके लिए प्रार्थना करना क्यों ज़रूरी है?

18 सबसे ज़रूरी बात तो यह है कि हम अपने विद्यार्थी के साथ और उसके लिए प्रार्थना कर सकते हैं। हमारी प्रार्थनाओं से विद्यार्थी को साफ-साफ समझ में आना चाहिए कि हमारे सिखाने का मकसद क्या है। वह यह कि विद्यार्थी अपने सिरजनहार को अच्छी तरह जाने, उसके करीब आए और उसकी दिखायी राह पर चलकर फायदा पाए। (भजन 25:4, 5 पढ़िए।) जब हम यहोवा से दुआ करते हैं कि वह सीखी हुई बातों को लागू करने में विद्यार्थी की मदद करे, तो विद्यार्थी “वचन पर चलनेवाले” बनने की अहमियत समझ पाएगा। (याकू. 1:22) और सच्चे दिल से की गयी हमारी प्रार्थनाओं को सुनने से वह भी प्रार्थना करना सीखता है। इससे बढ़कर खुशी की बात और क्या हो सकती है कि हम विद्यार्थी को यहोवा के साथ एक रिश्‍ता कायम करने में मदद दें!

19. किस सवाल का जवाब अगले लेख दिया जाएगा?

19 यह जानकर हमें कितना हौसला मिलता है कि दुनिया-भर में पैंसठ लाख से भी ज़्यादा साक्षी अपने “सिखाने की कला” बढ़ा रहे हैं। और उनका लक्ष्य है, नेकदिल लोगों को वे सारी बातें मानने में मदद देना, जिनकी आज्ञा यीशु ने दी थी। हमारे प्रचार काम के क्या नतीजे मिल रहे हैं? इस सवाल का जवाब अगले लेख में दिया जाएगा।

क्या आपको याद है?

• मसीहियों को “सिखाने की कला” क्यों बढ़ानी चाहिए?

• किन तरीकों से हम सिखाने में और भी असरदार हो सकते हैं?

• अगर हम सिखाने में बहुत ज़्यादा काबिल न हों, तो क्या बात उस कमी को पूरा कर सकती है?

[अध्ययन के लिए सवाल]

[पेज 9 पर तसवीर]

क्या आप परमेश्‍वर की सेवा स्कूल में हिस्सा ले रहे हैं?

[पेज 10 पर तसवीर]

अपने विद्यार्थी को बाइबल से आयतें पढ़वाना क्यों ज़रूरी है?

[पेज 12 पर तसवीर]

अपने विद्यार्थी के साथ और उसके लिए प्रार्थना कीजिए