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इस दुनिया का सबसे महान मिशनरी यीशु मसीह

इस दुनिया का सबसे महान मिशनरी यीशु मसीह

इस दुनिया का सबसे महान मिशनरी यीशु मसीह

“मैं उस की ओर से हूं और उसी ने मुझे भेजा है।”—यूह. 7:29.

1, 2. मिशनरी किसे कहा जाता है, और सबसे महान मिशनरी कौन है?

 “मिशनरी।” यह शब्द सुनते ही आपके मन में क्या खयाल आता है? कुछ लोगों को ईसाईजगत के मिशनरियों का खयाल आता है, जो आम तौर पर उन देशों के राजनैतिक और आर्थिक मामलों में दखल देते हैं, जहाँ वे सेवा करते हैं। मगर यहोवा का एक साक्षी होने के नाते आपके मन में शायद उन मिशनरियों का खयाल आए, जिन्हें शासी निकाय अलग-अलग देशों में सुसमाचार का प्रचार करने के लिए भेजता है। (मत्ती 24:14) ये मिशनरी, लोगों को यहोवा परमेश्‍वर के करीब आने और उसके साथ एक अनमोल रिश्‍ता बनाने में मदद देते हैं। और इस नेक काम में वे निःस्वार्थ भावना से अपना समय और अपनी ताकत लगाते हैं।—याकू. 4:8.

2 हमारी हिंदी बाइबल में शब्द “मिशनरी” और “मिशनरियों,” कहीं भी नहीं पाया जाता। लेकिन इफिसियों 4:11 में जिस यूनानी शब्द का अनुवाद “सुसमाचार सुनानेवाले” किया गया है, उसका अनुवाद “मिशनरियों” भी किया जा सकता है। यहोवा सुसमाचार का सबसे महान प्रचारक है, लेकिन उसे सबसे महान “मिशनरी” नहीं कहा जा सकता, क्योंकि उसे किसी ने नहीं भेजा। लेकिन यीशु मसीह ने अपने पिता यहोवा के बारे में कहा: “मैं उस की ओर से हूं और उसी ने मुझे भेजा है।” (यूह. 7:29) यहोवा ने इंसानों के लिए अपने प्यार का सबूत देते हुए अपने एकलौते बेटे को इस धरती पर भेजा। (यूह. 3:16) यीशु को सबसे महान और सबसे बड़ा मिशनरी कहा जा सकता है, क्योंकि उसे धरती पर भेजने की एक वजह यह थी कि वह “सत्य पर गवाही” दे। (यूह. 18:37) वह राज्य का सुसमाचार सुनाने में बहुत कामयाब रहा और उसकी सेवा से आज हम भी फायदा उठा सकते हैं। मिसाल के लिए, हम अपनी सेवा में उसके सिखाने का तरीका अपना सकते हैं, फिर चाहे हम मिशनरी हों या न हों।

3. हम किन सवालों पर चर्चा करने जा रहे हैं?

3 यीशु ने राज्य प्रचारक के नाते जो भूमिका निभायी, उस सिलसिले में कुछ सवाल उठते हैं। जैसे, यीशु ने अपनी सेवा के दौरान क्या-क्या अनुभव किया? उसके सिखाने का तरीका क्यों असरदार था? और किस वजह से उसे अपनी सेवा में कामयाबी मिली?

नए माहौल में खुशी-खुशी काम करने का जज़्बा

4-6. धरती पर भेजे जाने पर यीशु ने किन-किन बदलावों का सामना किया?

4 आज, मिशनरियों को शायद ऐसे देश में रहने की आदत डालनी पड़े, जहाँ उन्हें ज़्यादा सुख-सुविधाएँ न मिलें। और यह बात उन मसीहियों के बारे में भी सच हो सकती है, जो ऐसी जगहों में जाकर सेवा करते हैं जहाँ प्रचारकों की ज़्यादा ज़रूरत है। लेकिन यीशु धरती पर जिन हालात में रहा, उनमें और स्वर्ग के माहौल में ज़मीन-आसमान का फर्क था। स्वर्ग में वह अपने पिता और उन आत्मिक प्राणियों के साथ रहता था, जो नेक इरादे से यहोवा की सेवा करते हैं। (अय्यू. 38:7) लेकिन जब वह इस भ्रष्ट दुनिया में आया, तो उसे पापी इंसानों के बीच रहना पड़ा। (मर. 7:20-23) यहाँ तक कि उसे उन हालात से भी निपटना पड़ा, जब उसके करीबी चेले आपस में लड़ रहे थे कि उनमें कौन बड़ा है। (लूका 20:46; 22:24) बेशक, यीशु ने धरती पर जिन-जिन हालात का सामना किया, उन सबसे वह बहुत अच्छी तरह निपटा।

5 यीशु किसी चमत्कार से इंसानों की भाषा नहीं बोलने लगा। उसने यह भाषा तब से सीखनी शुरू की, जब वह एक बच्चा ही था। यह भी उसके लिए क्या ही बड़ा बदलाव था! कहाँ वह स्वर्ग में स्वर्गदूतों को हुक्म देता था और कहाँ धरती पर उसे एक बच्चा बनकर इंसानों की भाषा सीखनी पड़ी। धरती पर वह ‘मनुष्यों की बोलियों’ में से कम-से-कम एक बोली जानता था। यह ‘स्वर्गदूतों की बोलियों’ से बिलकुल अलग थी। (1 कुरि. 13:1) लेकिन मनोहर शब्दों का इस्तेमाल करने में कोई भी इंसान, यीशु की बराबरी नहीं कर सकता था।—लूका 4:22, बुल्के बाइबिल।

6 ध्यान दीजिए कि धरती पर आने के बाद, परमेश्‍वर के बेटे को और किन बदलावों का सामना करना पड़ा। हालाँकि यीशु को आदम से विरासत में पाप नहीं मिला था, मगर उसने एक इंसान के रूप में जन्म लिया और वह उन लोगों के समान बना, जो आगे चलकर उसके ‘भाई’ या अभिषिक्‍त चेले बनते। (इब्रानियों 2:17, 18 पढ़िए।) यीशु स्वर्ग में प्रधान स्वर्गदूत मीकाएल की हैसियत से स्वर्गदूतों पर अधिकार रखता था। फिर भी, धरती पर अपनी ज़िंदगी की आखिरी रात को उसने अपने पिता से ‘स्वर्गदूतों की बारह से अधिक पलटन’ की मदद नहीं माँगी। (मत्ती 26:53; यहू. 9) यह सच है कि धरती पर रहते वक्‍त यीशु ने कई चमत्कार किए। लेकिन स्वर्ग में रहकर वह जितने बड़े-बड़े और अद्‌भुत काम कर सकता था, उनके मुकाबले ये चमत्कार तो कुछ भी नहीं थे।

7. यहूदियों ने व्यवस्था के साथ क्या किया था?

7 धरती पर आने से पहले यीशु “वचन,” यानी परमेश्‍वर की तरफ से बोलनेवाला था। और शायद उसी ने वीराने में इस्राएलियों के आगे-आगे चलकर उन्हें रास्ता दिखाया था। (यूह. 1:1; निर्ग. 23:20-23) हालाँकि इस्राएलियों ने “स्वर्गदूतों के द्वारा ठहराई हुई व्यवस्था तो पाई, परन्तु उसका पालन नहीं किया।” (प्रेरि. 7:53; इब्रा. 2:2, 3) दरअसल, पहली सदी के यहूदी धर्म-गुरु, व्यवस्था का असली मतलब समझने से चूक गए थे। उदाहरण के लिए, सब्त के नियम पर गौर कीजिए। (मरकुस 3:4-6 पढ़िए।) शास्त्रियों और फरीसियों ने “व्यवस्था की गम्भीर बातों को अर्थात्‌ न्याय, और दया, और विश्‍वास को छोड़ दिया” था। (मत्ती 23:23) यह हाल देखकर यीशु ने हिम्मत नहीं हारी, बल्कि सच्चाई का ऐलान करता रहा।

8. यीशु हमारी सहायता क्यों कर सकता है?

8 यीशु में खुशी-खुशी सेवा करने का जज़्बा था। उसमें यह जज़्बा इसलिए था, क्योंकि वह लोगों से बेहद प्यार करता था और उनकी सचमुच मदद करना चाहता था। प्रचार करने का उसका जोश कभी ठंडा नहीं हुआ। धरती पर रहते वक्‍त वह यहोवा का वफादार बना रहा, इसलिए वह “अपने सब आज्ञा माननेवालों के लिये सदा काल के उद्धार का कारण हो गया।” इतना ही नहीं, “जब उस ने परीक्षा की दशा में दुख उठाया, तो वह उन की [यानी हमारी] भी सहायता कर सकता है, जिन की परीक्षा होती है।”—इब्रा. 2:18; 5:8, 9.

एक शिक्षक बनने के लिए उसे अच्छी तालीम दी गयी

9, 10. धरती पर भेजे जाने से पहले, यीशु को किस तरह की तालीम मिली थी?

9 आज, मसीहियों को मिशनरी के तौर पर भेजने से पहले, शासी निकाय उन्हें ज़रूरी तालीम देने का इंतज़ाम करता है। क्या यीशु मसीह को कोई तालीम दी गयी थी? जी हाँ, दी गयी थी। मगर मसीहा के तौर पर उसका अभिषेक होने से पहले, उसने रब्बियों के स्कूल से तालीम हासिल नहीं की और ना ही उसने किसी नामी धर्म-गुरु से शिक्षा ली। (यूह. 7:15. प्रेरितों 22:3 से तुलना कीजिए।) तो फिर, यीशु एक काबिल शिक्षक कैसे बना?

10 यीशु ने अपनी माँ मरियम और दत्तक पिता यूसुफ से चाहे जो भी सीखा हो, लेकिन सेवा के लिए उसे सबसे अहम तालीम यहोवा से मिली, जो इस विश्‍व का सबसे काबिल शिक्षक है। इस बारे में यीशु ने कहा: “मैं ने अपनी ओर से बातें नहीं कीं, परन्तु पिता जिस ने मुझे भेजा है उसी ने मुझे आज्ञा दी है, कि क्या क्या कहूं? और क्या क्या बोलूं?” (यूह. 12:49) गौर कीजिए कि इस बेटे को खास हिदायतें मिली थीं कि उसे क्या सिखाना है। इसमें कोई शक नहीं कि धरती पर आने से पहले, यीशु ने अपना ज़्यादातर वक्‍त अपने पिता की हिदायतों को सुनने में बिताया होगा। भला इससे बढ़िया तालीम उसे और कहाँ मिल सकती थी?

11. यीशु ने किस हद तक दिखाया कि वह इंसानों के लिए बिलकुल अपने पिता की तरह महसूस करता है?

11 जब से यीशु को सिरजा गया, तब से उसका अपने पिता के साथ बहुत ही करीबी रिश्‍ता था। स्वर्ग में रहते वक्‍त, यीशु ने गौर किया कि यहोवा किस तरह इंसानों के साथ पेश आता है और उसने बखूबी समझा कि परमेश्‍वर इंसानों के लिए कैसा महसूस करता है। यीशु ने इंसानों के लिए हू-ब-हू अपने पिता जैसा प्यार दिखाया और वह भी इस हद तक कि वह कह सका: ‘मुझे मानवजाति से लगाव है।’ (NW)—नीति. 8:22, 31.

12, 13. (क) इस्राएलियों के साथ अपने पिता का व्यवहार देखकर यीशु ने क्या सीखा? (ख) यीशु ने कैसे अपनी तालीम के मुताबिक काम किया?

12 तालीम लेते वक्‍त, यीशु ने यह भी गौर किया कि उसका पिता मुश्‍किल हालात से कैसे निपटा। मिसाल के लिए, यहोवा आज्ञा तोड़नेवाले इस्राएलियों के साथ कैसे पेश आया, उस पर ज़रा ध्यान दीजिए। नहेमायाह 9:28 बताता है: “जब जब उनको चैन मिला, तब तब वे फिर तेरे [यानी यहोवा के] साम्हने बुराई करते थे, इस कारण तू उनको शत्रुओं के हाथ में कर देता था, और वे उन पर प्रभुता करते थे; तौभी जब वे फिरकर तेरी दोहाई देते, तब तू स्वर्ग से उनकी सुनता और तू जो दयालु है, इसलिये बार बार उनको छुड़ाता।” यहोवा को देखकर और उसके साथ काम करने से यीशु ने अपने इलाके, यानी इस्राएल देश के लोगों को करुणा दिखाना सीखा।—यूह. 5:19.

13 यीशु को जो तालीम मिली थी, उसके मुताबिक उसने काम किया। वह कैसे? अपने चेलों के साथ प्यार और करुणा से पेश आकर। धरती पर अपनी ज़िंदगी की आखिरी रात को उसके सारे प्रेरित, जिनसे वह बेहद प्यार करता था, “उसे छोड़कर भाग गए।” (मत्ती 26:56; यूह. 13:1) प्रेरित पतरस ने तो तीन बार मसीह को जानने से साफ इनकार कर दिया। इसके बावजूद, यीशु ने उसके प्रेरितों के वापस लौटने के लिए रास्ता खुला रखा। उसने पतरस से कहा: “मैं ने तेरे लिये बिनती की, कि तेरा विश्‍वास जाता न रहे: और जब तू फिरे, तो अपने भाइयों को स्थिर करना।” (लूका 22:32) आत्मिक इस्राएल की शुरूआत “प्रेरितों” से हुई और नए यरूशलेम की शहरपनाह की नींव के पत्थरों पर, मेम्ने यीशु मसीह के 12 वफादार प्रेरितों के नाम लिखे हुए हैं। आज भी, अभिषिक्‍त मसीही अपने समर्पित साथी यानी ‘अन्य भेड़ों’ के साथ परमेश्‍वर के बलवन्त हाथ के नीचे और उसके अज़ीज़ बेटे की अगुवाई में राज्य का प्रचार कर रहे हैं। और इस काम में उन्हें अच्छी कामयाबी मिल रही है।—इफि. 2:20; यूह. 10:16, NW; प्रका. 21:14.

यीशु ने कैसे सिखाया

14, 15. किन मायनों में यीशु के सिखाने का तरीका शास्त्रियों और फरीसियों से बिलकुल अलग था?

14 यीशु ने अपने चेलों को सिखाते वक्‍त कैसे अपनी तालीम के मुताबिक काम किया? जब हम यीशु और यहूदी धर्म-गुरुओं के सिखाने के तरीकों की तुलना करते हैं, तो हम साफ देख सकते हैं कि यीशु के सिखाने का तरीका उनसे कहीं ज़्यादा उम्दा था। शास्त्रियों और फरीसियों ने “अपनी परम्परा के लिए परमेश्‍वर के वचन को व्यर्थ कर दिया।” इसके बिलकुल उलट, यीशु ने अपनी ओर से कुछ नहीं सिखाया। बल्कि उसने हमेशा परमेश्‍वर का वचन यानी उसका संदेश सुनाया। (मत्ती 15:6, NHT; यूह. 14:10) हमें भी ऐसा ही करना चाहिए।

15 एक और वजह से यीशु, धर्म-गुरुओं से बिलकुल अलग था। शास्त्रियों और फरीसियों के बारे में उसने कहा: “वे तुम से जो कुछ कहें वह करना, और मानना; परन्तु उन के से काम मत करना; क्योंकि वे कहते तो हैं पर करते नहीं।” (मत्ती 23:3) मगर यीशु ने जो सिखाया, वैसा करके भी दिखाया। आइए एक मिसाल पर ध्यान दें, जो इस बात को सच साबित करती है।

16. आप किस बिना पर कह सकते हैं कि यीशु, मत्ती 6:19-21 में कहे अपने शब्दों के मुताबिक जीया था?

16 यीशु ने अपने चेलों को उकसाया: “स्वर्ग में धन इकट्ठा करो।” (मत्ती 6:19-21 पढ़िए।) क्या यीशु खुद इस सलाह के मुताबिक जीया था? जी हाँ, और इसलिए वह अपने बारे में पूरी ईमानदारी से कह सका: “लोमड़ियों के भट और आकाश के पक्षियों के बसेरे होते हैं, पर मनुष्य के पुत्र को सिर धरने की भी जगह नहीं।” (लूका 9:58) यीशु ने एक सादगी-भरी ज़िंदगी बितायी। वह सबसे बढ़कर राज्य का सुसमाचार सुनाने में लगा रहा। उसने दिखाया कि धरती पर धन इकट्ठा करने से जो चिंताएँ आती हैं, उनसे मुक्‍त होने का क्या मतलब है। यीशु ने बताया कि स्वर्ग में धन इकट्ठा करना कहीं ज़्यादा फायदेमंद है, “जहां न तो कीड़ा, और न काई बिगाड़ते हैं, और जहां चोर न सेंध लगाते और न चुराते हैं।” क्या आप स्वर्ग में धन इकट्ठा करने की यीशु की सलाह पर चल रहे हैं?

यीशु के ऐसे गुण जिनसे उसने लोगों का मन मोह लिया

17. किन गुणों की वजह से यीशु एक बेजोड़ प्रचारक बना?

17 यीशु किन गुणों की वजह से एक बेजोड़ प्रचारक बना? यीशु ने यहोवा की मिसाल पर चलते हुए नम्रता, प्यार और करुणा जैसे बढ़िया गुण दिखाए। और उसने जिस तरह लोगों की मदद की, उससे उसके ये गुण साफ नज़र आए। ध्यान दीजिए कि ये गुण किस तरह लोगों को यीशु की ओर खींच लाए।

18. यह क्यों कहा जा सकता है कि यीशु नम्र था?

18 यीशु ने इस धरती पर आने की ज़िम्मेदारी कबूल की और उसने “अपने आप को . . . शून्य कर दिया, और दास का स्वरूप धारण किया, और मनुष्य की समानता में हो गया।” (फिलि. 2:7) यह सचमुच नम्रता का एक सबूत था। इसके अलावा, उसने कभी लोगों को तुच्छ नहीं समझा। उसने यह कभी नहीं जताया कि ‘मैं स्वर्ग से आया हूँ, इसलिए तुम्हें मेरी बात माननी चाहिए।’ यीशु, मसीहा होने का दावा करनेवाले फरेबियों से बिलकुल अलग था। उसने अपने मसीहा होने का ढिंढोरा नहीं पीटा। कई मौकों पर तो उसने लोगों को यह बताने से भी मना किया कि वह कौन है या उसने क्या-क्या काम किए। (मत्ती 12:15-21) यीशु चाहता था कि लोग सनसनीखेज़ खबरों के आधार पर नहीं, बल्कि खुद अपनी आँखों से उसके कामों को देखकर उसके चेले बनने का फैसला करें। यीशु के चेलों को इस बात से क्या ही ढाढ़स मिला होगा कि उनका प्रभु उनसे सिद्धता की उम्मीद नहीं करता, जो उसके स्वर्ग के साथियों यानी स्वर्गदूतों में थी!

19, 20. प्यार और करुणा ने कैसे यीशु को लोगों की मदद करने के लिए उकसाया?

19 यीशु मसीह ने प्यार भी दिखाया, जो स्वर्ग में रहनेवाले उसके पिता का सबसे खास गुण है। (1 यूह. 4:8) इसी प्यार से उकसाए जाने पर यीशु ने लोगों को सिखाया। मिसाल के लिए, गौर कीजिए कि एक जवान शासक के लिए उसके दिल में कैसी भावनाएँ उठीं। (मरकुस 10:17-22 पढ़िए।) यीशु को उस पर “प्यार आया” (NHT) और वह उसकी मदद करना चाहता था। लेकिन उस जवान शासक ने मसीह का चेला बनने के लिए अपनी बेशुमार दौलत नहीं छोड़ी।

20 यीशु के मनभावने गुणों में से एक है, उसकी करुणा। यीशु की शिक्षाओं में दिलचस्पी लेनेवाले भी बाकी असिद्ध इंसानों की तरह, समस्याओं के बोझ तले दबे हुए थे। यीशु यह बात अच्छी तरह जानता था, इसलिए उन्हें सिखाते वक्‍त वह उनके साथ करुणा और दया से पेश आया। यह बात समझने के लिए, एक मिसाल पर ध्यान दीजिए। एक मौके पर, यीशु और उसके प्रेरित दिन-भर इतने व्यस्त थे कि उन्हें खाने तक की भी फुरसत नहीं मिली। लेकिन, जब यीशु ने एक भीड़ को इकट्ठा होते देखा, तब उसने क्या किया? “उस ने . . . उन पर तरस खाया, क्योंकि वे उन भेड़ों के समान थे, जिन का कोई रखवाला न हो; और वह उन्हें बहुत सी बातें सिखाने लगा।” (मर. 6:34) यीशु ने अपने इलाके के लोगों की लाचार हालत देखी और उन्हें सिखाने में अपनी ताकत लगा दी। साथ ही, उन्हें फायदा पहुँचाने के लिए उसने कई चमत्कार किए। यीशु के अच्छे गुणों की वजह से कुछ लोग उसकी तरफ खिंचे चले आए, उसके शब्दों का उन पर गहरा असर हुआ और वे उसके चेले बन गए।

21. अगले लेख में हम किस बात पर चर्चा करेंगे?

21 धरती पर यीशु की सेवा से हम और भी कुछ सीख सकते हैं और यह हम अगले लेख में देखेंगे। हम और किन तरीकों से सबसे महान मिशनरी, यीशु मसीह की मिसाल पर चल सकते हैं?

आप क्या जवाब देंगे?

• धरती पर आने से पहले यीशु को क्या तालीम दी गयी थी?

• यीशु के सिखाने का तरीका किन मायनों में शास्त्रियों और फरीसियों से उम्दा था?

• यीशु के किन गुणों ने लोगों का मन मोह लिया?

[अध्ययन के लिए सवाल]

[पेज 15 पर तसवीर]

यीशु ने भीड़ को कैसे सिखाया?