क्या आप दूसरों के बारे में यहोवा के जैसा नज़रिया रखते हैं?
क्या आप दूसरों के बारे में यहोवा के जैसा नज़रिया रखते हैं?
“देह में फूट न पड़े, परन्तु अंग एक दूसरे की बराबर चिन्ता करें।”—1 कुरि. 12:25.
1. जब आपने पहली बार आध्यात्मिक फिरदौस में कदम रखा, तब आपको कैसा महसूस हुआ?
जब आपने इस दुष्ट दुनिया से नाता तोड़कर यहोवा के लोगों के साथ संगति करना शुरू किया, तब आपको कैसा महसूस हुआ? आप उनका आपसी प्यार और अपनापन देखकर ज़रूर खुशी से भर गए होंगे। आपने यह फर्क साफ देखा होगा कि कहाँ शैतान की दुनिया में लोग झगड़नेवाले, नफरत और बेरुखी से पेश आनेवाले हैं और कहाँ यहोवा के लोग प्यार से पेश आनेवाले हैं। वाकई, उस आध्यात्मिक फिरदौस में कदम रखकर आपने शांति और एकता का जीता-जागता सबूत देखा होगा।—यशा. 48:17, 18; 60:18; 65:25.
2. (क) किस वजह से दूसरों के लिए हमारा नज़रिया बदल सकता है? (ख) और ऐसे में हमें क्या करने की ज़रूरत है?
2 लेकिन वक्त के गुज़रते भाइयों के लिए हमारा नज़रिया बदल सकता है। असिद्धता की वजह से हम उनके अच्छे आध्यात्मिक गुणों को देखने के बजाय उनकी खामियों को बढ़ा-चढ़ाकर बताने लगते हैं। दूसरे शब्दों में कहें, तो हम उन्हें यहोवा के नज़रिए से देखना बंद कर देते हैं। अगर हम ऐसा करने लगे हैं, तो हमें अपने नज़रिए को जाँचने और एक बार फिर यहोवा के जैसा नज़रिया अपनाने की ज़रूरत है।—निर्ग. 33:13.
यहोवा हमारे भाइयों को किस नज़र से देखता है
3. बाइबल में मसीही कलीसिया की तुलना किससे की गयी है?
3 प्रेरित पौलुस ने 1 कुरिन्थियों 12:2-26 में अभिषिक्त मसीहियों की कलीसिया की तुलना एक देह से की, जिसके ‘बहुत से अंग’ हैं। जिस तरह शरीर के सभी अंग एक-जैसे नहीं होते, उसी तरह कलीसिया के सदस्यों में भी एक-जैसे गुण और काबिलीयतें नहीं होतीं। लेकिन यहोवा उन सभी को अपना सेवक कबूल करता है। वह हरेक से प्यार करता और उन्हें अनमोल समझता है। इसलिए, पौलुस ने सलाह दी कि हमें भी कलीसिया में “एक दूसरे की बराबर चिन्ता” करनी चाहिए। शायद ऐसा करना हमारे लिए मुश्किल हो, क्योंकि दूसरों का स्वभाव हमारे स्वभाव से अलग हो सकता है।
4. हम अपने भाइयों को जिस नज़र से देखते हैं, उसमें हमें सुधार करने की ज़रूरत क्यों पड़ सकती है?
4 यह भी हो सकता है कि हम अपने भाइयों की कमज़ोरियों पर हद-से-ज़्यादा ध्यान देने लगें। यह ऐसा है मानो हम कैमरे के एक ऐसे लैंस के ज़रिए देख रहे हों, जो सिर्फ एक छोटे हिस्से पर फोकस करता है। लेकिन, यहोवा मानो उस लैंस के ज़रिए देखता है, जो न सिर्फ एक छोटे हिस्से पर बल्कि उसके आस-पास की चीज़ों पर भी फोकस करता है। आम तौर पर जब हमें किसी व्यक्ति में कोई बात अच्छी नहीं लगती, तो हम उसी पर ज़्यादा ध्यान देते हैं। लेकिन यहोवा ऐसा नहीं करता। वह एक इंसान में सबकुछ देखता है, उसके अच्छे गुण भी। इसलिए हम जितना ज़्यादा यहोवा के जैसा बनने की कोशिश करेंगे, उतना ज़्यादा हम कलीसिया में प्यार और एकता की भावना बढ़ा पाएँगे।—इफि. 4:1-3; 5:1, 2.
5. हमें दूसरों पर दोष क्यों नहीं लगाना चाहिए?
5 यीशु अच्छी तरह जानता था कि दूसरों में नुक्स निकालना असिद्ध इंसानों की फितरत होती है। इसलिए उसने सलाह दी: “दोष मत लगाओ, कि तुम पर भी दोष न लगाया जाए।” (मत्ती 7:1) गौर कीजिए कि मूल भाषा में यीशु ने यह नहीं कहा: “दोष मत लगाओ,” बल्कि उसने कहा: “दोष लगाना बंद करो।” यीशु ने ऐसा इसलिए कहा, क्योंकि वह जानता था कि उसके सुननेवालों में से बहुतों की यह आदत थी कि वे दूसरों में दोष निकालते थे। क्या हममें भी यह आदत है? अगर हाँ, तो हमें अपनी आदत सुधारने के लिए ठोस कदम उठाने चाहिए, ताकि हम पर भी दोष न लगाया जाए। यहोवा ने जिसे ज़िम्मेदारी के पद पर ठहराया है, उस पर दोष लगानेवाले हम कौन होते हैं? या यह कहनेवाले हम कौन होते हैं कि उसे कलीसिया में नहीं होना चाहिए? भले ही एक भाई में कुछ कमज़ोरियाँ हों, लेकिन जब यहोवा उसे इस्तेमाल कर रहा है, तो क्या उसे ठुकराना सही होगा? (यूह. 6:44) क्या हमें पूरा यकीन है कि यहोवा अपने संगठन को चला रहा है? और अगर कुछ बदलाव किया जाना है, तो वह अपने ठहराए वक्त पर ऐसा ज़रूर करेगा?—रोमियों 14:1-4 पढ़िए।
6. यहोवा अपने सेवकों में क्या देखता है?
6 यहोवा की एक खासियत पर ध्यान दीजिए। वह यह देखता है कि जब हमें नयी दुनिया में सिद्ध किया जाएगा, तो हममें क्या बनने की गुंजाइश है। वह यह भी जानता है कि हमने अपनी ज़िंदगी में कितनी आध्यात्मिक तरक्की की है। इसलिए, वह हमारी हर छोटी-मोटी कमज़ोरी पर ध्यान देना ज़रूरी नहीं समझता। भजन 103:12 में हम पढ़ते हैं: “उदयाचल अस्ताचल से जितनी दूर है, उस ने हमारे अपराधों को हम से उतनी ही दूर कर दिया है।” सच, हम इस बात के लिए यहोवा के कितने एहसानमंद हो सकते हैं!—भज. 130:3.
7. दाऊद के बारे में यहोवा के नज़रिए से हम क्या सीख सकते हैं?
7 बाइबल में हमें इस बात का सबूत मिलता है कि यहोवा इंसानों में अच्छाई देखता है। परमेश्वर ने दाऊद के बारे में कहा: ‘मेरा दास दाऊद जो मेरी आज्ञाओं को मानता, और अपने पूर्ण मन से मेरे पीछे पीछे चलता, और केवल वही करता था जो मेरी दृष्टि में ठीक है।’ (1 राजा 14:8) बेशक, हम जानते हैं कि दाऊद ने अपने जीवन में कुछ गलत काम किए थे। लेकिन, यहोवा ने दाऊद की उन गलतियों पर नहीं, बल्कि उसकी अच्छाइयों पर ध्यान दिया, क्योंकि वह जानता था कि दाऊद का दिल साफ है।—1 इति. 29:17.
अपने भाइयों के लिए यहोवा के जैसा नज़रिया रखिए
8, 9. (क) हम किस मायने में यहोवा के जैसे बन सकते हैं? (ख) इस बात को समझाने के लिए क्या उदाहरण दिया गया है और इससे हम किस नतीजे पर पहुँचते हैं?
8 यहोवा इंसानों का दिल पढ़ सकता है, जबकि हम ऐसा नहीं कर सकते। यह अपने आपमें एक अच्छी वजह है कि हमें क्यों दूसरों में दोष नहीं निकालना चाहिए। हम दूसरों के इरादे पूरी तरह से जान नहीं सकते। इसलिए हमें यहोवा की मिसाल पर चलते हुए इंसान की खामियों पर ध्यान नहीं देना चाहिए, जो बहुत जल्द मिट जाएँगी। क्या हमें भी यहोवा के जैसा नज़रिया अपनाने का बेहतरीन लक्ष्य नहीं रखना चाहिए? अगर हम ऐसा करें, तो हम अपने भाई-बहनों के साथ शांति बनाए रख पाएँगे।—इफि. 4:23, 24.
9 इस बात को समझने के लिए आइए हम एक उदाहरण लें। एक मकान की हालत बहुत खस्ता है। छत की मोरी टूटी हुई है और छत से पानी चू रहा है। खिड़कियाँ भी पूरी तरह टूट-फूट चुकी हैं। ज़्यादातर लोग मकान को देखकर शायद कहें, कितना बेकार-सा घर है, इसे तो गिरा देना चाहिए। मगर उसी मकान के बारे में एक दूसरे व्यक्ति का नज़रिया बिलकुल अलग हो सकता है। वह मकान की इन छोटी-मोटी खराबियों पर हद-से-ज़्यादा ध्यान नहीं देता, बल्कि वह देखता है कि मकान मज़बूत है और उसे बस यहाँ-वहाँ थोड़ी मरम्मत की ज़रूरत है। इसलिए वह मकान खरीद लेता है और मरम्मत करके उसका नक्शा ही बदल देता है। उसके बाद, जो भी उस मकान के सामने से गुज़रता है, वह यही कहता है वाह! क्या खूबसूरत मकान है। क्या हम उस आदमी की तरह बन सकते हैं, जिसने मकान की मरम्मत करवायी? अपने भाइयों की खामियों पर ध्यान देने के बजाय, क्या हम उनके अच्छे गुणों को देखते हैं? क्या हम यह मानकर चलते हैं कि उनमें आध्यात्मिक तरक्की करने की गुंजाइश है? अगर हम ऐसा करें, तो हम अपने भाइयों के अच्छे गुणों की वजह से उनसे प्यार कर पाएँगे, ठीक जैसा यहोवा करता है।—इब्रानियों 6:10 पढ़िए।
10. फिलिप्पियों 2:3, 4 में दी सलाह कैसे हमारी मदद कर सकती है?
10 कलीसिया में सभी के साथ अच्छा रिश्ता कायम करने के लिए प्रेरित पौलुस ने बढ़िया सलाह दी। उसने मसीहियों से गुज़ारिश की: “विरोध या झूठी बड़ाई के लिये कुछ न करो पर दीनता से एक दूसरे को अपने से अच्छा समझो। हर एक अपनी ही हित की नहीं, बरन दूसरों की हित की भी चिन्ता करे।” (फिलि. 2:3, 4) जी हाँ, नम्रता का गुण दूसरों के लिए सही नज़रिया रखने में हमारी मदद करेगा। इसके अलावा, दूसरों के हित की चिन्ता करने और उनमें अच्छाइयाँ ढूँढ़ने से भी हम उनके बारे में यहोवा के जैसा नज़रिया रख पाएँगे।
11. दुनिया-भर में होनेवाले बदलावों का कुछ कलीसियाओं पर क्या असर हुआ है?
11 हाल के सालों में दुनिया-भर में होनेवाले बदलावों की वजह से बड़ी तादाद में लोग दूसरे देशों में जा बसे हैं। इसलिए आजकल कुछ शहरों में अलग-अलग देशों के लोग पाए जाते हैं। हमारे इलाके में भी कुछ ऐसे ही लोगों ने बाइबल की सच्चाई में दिलचस्पी दिखायी है और यहोवा की उपासना में हमारे साथ हो लिए हैं। ये सभी “हर एक जाति, और कुल, और लोग और भाषा” से हैं। (प्रका. 7:9) इसलिए, हमारी कई कलीसियाएँ एक मायने में अंतर्राष्ट्रीय कलीसियाएँ बन गयी हैं।
12. हमें एक-दूसरे के बारे में कैसा नज़रिया रखना चाहिए और कभी-कभी ऐसा करना क्यों मुश्किल हो सकता है?
12 शायद हमें अपनी कलीसिया में एक-दूसरे के लिए सही नज़रिया रखने की ज़रूरत हो। इसके लिए हमें प्रेरित पतरस की इस सलाह को ध्यान में रखना चाहिए कि हम “भाईचारे की निष्कपट प्रीति” रखें और “तन मन लगाकर एक दूसरे से अधिक प्रेम” करें। (1 पत. 1:22) कलीसिया में उन सदस्यों के लिए सच्चा प्यार बढ़ाना हमारे लिए मुश्किल हो सकता है, जो दूसरे देशों से आए हैं। क्योंकि उनका रहन-सहन, उनकी जाति, तालीम और माली हालत हमसे बहुत अलग हो सकती है। क्या उनमें से कुछ लोगों के सोच-विचार या तौर-तरीके को समझना आपको मुश्किल लगता है? क्या पता, वे भी आपके बारे में ऐसा ही महसूस करते हो। फिर भी हममें से हरेक को सलाह दी गयी है: “भाइयों की पूरी बिरादरी से प्रेम रखो।”—1 पत. 2:17, NW.
13. हमें अपनी सोच में क्या बदलाव करना ज़रूरी हो सकता है?
13 हो सकता है, हमें अपनी सोच में कुछ बदलाव करना पड़े, ताकि हम तमाम भाइयों के लिए दिल खोलकर प्यार दिखा सकें। (2 कुरिन्थियों 6:12, 13 पढ़िए।) क्या हम कभी ऐसा कहते हैं कि “मैं जाति-भेद तो नहीं मानता, लेकिन . . . ” और फिर हम किसी भाई की खामियाँ गिनाते हैं, जो हमें लगता है कि उसकी जाति के लोगों में आम तौर पर पायी जाती हैं? इससे ज़ाहिर होता है कि हमारे दिल की गहराइयों में भेदभाव की भावना अभी-भी जड़ पकड़े हुए है और इसे मिटाना ज़रूरी है। हम खुद से पूछ सकते हैं, ‘क्या मैं ऐसे लोगों को करीबी से जानने की कोशिश करता हूँ, जो दूसरी संस्कृति के हैं?’ इस तरह खुद को जाँचने से हम अपनी सोच को सुधार सकेंगे और भेदभाव किए बगैर सभी भाइयों के लिए प्यार बढ़ा सकेंगे।
14, 15. (क) ऐसे लोगों की मिसालें दीजिए जिन्होंने अपनी सोच को सुधारा था। (ख) हम उनकी मिसाल पर कैसे चल सकते हैं?
14 बाइबल हमें ऐसे लोगों की बेहतरीन मिसालें देती हैं, जिन्होंने अपनी सोच को सुधारा था। उनमें से एक था, प्रेरित पतरस। एक यहूदी होने के नाते, पतरस किसी गैर-यहूदी के घर में कदम रखने की सोच भी नहीं सकता था। तो क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि तब उसे कैसा लगा होगा, जब उसे कुरनेलियुस नाम के एक खतनारहित के घर जाने को कहा गया? पतरस ने अपनी सोच में बदलाव किया, क्योंकि उसने समझा कि परमेश्वर की यही मरज़ी है कि सब जाति के लोग मसीही कलीसिया के सदस्य बनें। (प्रेरि. 10:9-35) उसी तरह शाऊल, जो बाद में प्रेरित पौलुस कहलाया, उसने भी अपनी सोच को सुधारा और अपने दिल से भेदभाव को मिटाया। उसने कबूल किया कि मसीहियों के लिए उसके दिल में इतनी नफरत भरी हुई थी कि वह “परमेश्वर की कलीसिया को बहुत ही सताता और नाश करता था।” फिर जब प्रभु यीशु ने उसकी सोच सुधारी, तो उसने अपनी ज़िंदगी में बड़े-बड़े बदलाव किए। यहाँ तक कि वह उन्हीं लोगों से निर्देशन लेने लगा, जिन्हें वह पहले सताता था।—गल. 1:13-20.
15 इसमें कोई शक नहीं कि हम यहोवा की आत्मा की मदद से अपनी सोच में सुधार कर सकते हैं। अगर हममें ज़रा-भी भेदभाव की भावना है, तो आइए इसे जड़ से मिटा डालें। और ‘शान्ति के बन्धन में बंधकर उस एकता को बनाए रखें जो पवित्र आत्मा देती है।’ (इफि. 4:3-6 नयी हिन्दी बाइबल) बाइबल हमें उकसाती है कि “प्रेम को जो सिद्धता का कटिबन्ध है बान्ध लो।”—कुलु. 3:14.
प्रचार में यहोवा के जैसा नज़रिया अपनाइए
16. लोगों के सिलसिले में परमेश्वर का क्या मकसद है?
16 प्रेरित पौलुस ने लिखा: “परमेश्वर किसी का पक्ष नहीं करता।” (रोमि. 2:11) यहोवा का मकसद है कि सभी जाति के लोग उसकी उपासना करें। (1 तीमुथियुस 2:3, 4 पढ़िए।) इस मकसद को अंजाम देने के लिए उसने “हर एक जाति, और कुल, और भाषा, और लोगों” को “सनातन सुसमाचार” सुनाने का इंतज़ाम किया है। (प्रका. 14:6) यीशु ने कहा था: “खेत संसार है।” (मत्ती 13:38) ये शब्द आपके और आपके परिवार के लिए क्या मायने रखते हैं?
17. हम हर तरह के लोगों की कैसे मदद कर सकते हैं?
17 शायद हमारे लिए दुनिया के कोने-कोने में जाकर राज्य का संदेश सुनाना मुमकिन न हो। मगर हम अपने ही इलाके में उन लोगों को संदेश सुना सकते हैं, जो अलग-अलग देशों से आकर बस गए हैं। क्या हम हर तरह के लोगों को गवाही देने की ताक में रहते हैं या सिर्फ उन्हीं लोगों के पास जाते हैं, जिन्हें हम बरसों से सुसमाचार सुनाते आए हैं? आइए ठान लें कि हम उन लोगों को सुसमाचार सुनाएँगे, जिन्हें सुनने का मौका न मिला हो।—रोमि. 15:20, 21.
18. यीशु ने किस तरह लोगों के लिए परवाह दिखायी?
18 यीशु अच्छी तरह जानता था कि सभी लोगों को मदद की ज़रूरत है। इसलिए उसने सिर्फ एक ही इलाके में प्रचार नहीं किया। बाइबल में दिया एक ब्यौरा बताता है कि सुसमाचार सुनाने के लिए वह “सब नगरों और गांवों में फिरता रहा।” यही ब्यौरा आगे बताता है कि “जब उस ने भीड़ को देखा तो उस को लोगों पर तरस आया।” और उसने ज़ाहिर किया कि उनकी मदद के लिए कुछ करना ज़रूरी है।—मत्ती 9:35-37.
19, 20. हम किन तरीकों से हर किस्म के लोगों के लिए परवाह दिखा सकते हैं, जैसा यहोवा और यीशु दिखाते हैं?
19 आप किन तरीकों से यीशु के जैसा नज़रिया दिखा सकते हैं? कुछ लोगों ने ऐसी जगहों पर प्रचार करने की खास कोशिश की है, जहाँ नियमित तौर पर प्रचार नहीं किया जाता। जैसे बिज़नेस के इलाके, पार्क, रेल्वे या बस स्टेशन या ऐसे अपार्टमेंट के सामने, जहाँ ज़्यादातर घरों पर ताले लगे होते हैं। कुछ औरों ने एक नयी भाषा सीखने में मेहनत की है, ताकि दूसरी जाति या संस्कृति के लोगों को प्रचार कर सकें या ऐसे समूह के लोगों को सुसमाचार सुना सकें, जिन्हें पहले नियमित तौर पर गवाही नहीं दी गयी थी। अगर हम लोगों को उनकी मातृ-भाषा में नमस्ते कहेंगे और उनका हाल-चाल पूछेंगे, तो वे महसूस करेंगे कि हमें वाकई उनमें दिलचस्पी है। अगर हम किसी वजह से दूसरी भाषा नहीं सीख सकते, तो क्या हम उन लोगों का हौसला बढ़ा सकते हैं, जो सीख रहे हैं? बेशक, हम दूसरों का हौसला नहीं तोड़ना चाहेंगे। और न ही उनके इरादों पर शक करेंगे कि वे नयी भाषा सीखने में क्यों इतनी मेहनत कर रहे हैं। परमेश्वर की नज़रों में हर इंसान की ज़िंदगी अनमोल है, और हम भी यही नज़रिया अपनाना चाहते हैं।—कुलु. 3:10, 11.
20 परमेश्वर के जैसा नज़रिया रखने में हर किस्म के लोगों को प्रचार करना भी शामिल है, फिर चाहे वे बेघरबार हों, साफ-सुथरे न हों या बदचलन हों। इसके अलावा, जब कोई हमसे बेरुखी से पेश आता है, तो हमें यह नहीं सोचना चाहिए कि उसकी जाति या देश के सभी लोग उसी की तरह बेरुखे होते हैं। पौलुस की मिसाल लीजिए, जिसके साथ कुछ लोगों ने बुरा सलूक किया था। लेकिन इस वजह से वह उनकी जाति के लोगों को प्रचार करने से पीछे नहीं हटा। (प्रेरि. 14:5-7, 19-22) उसे यकीन था कि कुछ लोग सुसमाचार के लिए ज़रूर कदर दिखाएँगे और उसके मुताबिक कदम उठाएँगे।
21. दूसरों के बारे में यहोवा के जैसा नज़रिया रखने से आपको क्या फायदा होगा?
21 अब हम अच्छी तरह जान गए हैं कि अपनी कलीसिया के भाई-बहनों, दूसरे देश से आनेवाले भाइयों और प्रचार में मिलनेवाले लोगों के बारे में हमें कैसा नज़रिया रखना चाहिए। हमें यहोवा के जैसा नज़रिया रखना चाहिए। हम जितना ज़्यादा यहोवा के जैसा नज़रिया रखेंगे, उतनी ही हम कलीसिया में शांति और एकता को बढ़ा पाएँगे। हम दूसरों को भी यहोवा से प्यार करने में मदद दे पाएँगे। जी हाँ, एक ऐसे परमेश्वर से जो “पक्षपात नहीं करता,” मगर जो सभी में प्यार-भरी दिलचस्पी लेता है, “क्योंकि वे सब उसी के हाथ की कारीगरी हैं।”—अय्यू. 34:19, NHT.
आप क्या जवाब देंगे?
• भाइयों के लिए हममें कैसा नज़रिया नहीं होना चाहिए?
• हम अपने भाइयों के लिए यहोवा के जैसा नज़रिया कैसे दिखा सकते हैं?
• कलीसिया में दूसरे देशों से आए भाइयों के लिए हमारा कैसा नज़रिया होना चाहिए, इस बारे में आपने क्या सीखा?
• प्रचार में मिलनेवाले लोगों के लिए हम यहोवा के जैसा नज़रिया कैसे रख सकते हैं?
[अध्ययन के लिए सवाल]
[पेज 26 पर तसवीर]
आप दूसरी संस्कृति के लोगों से कैसे अपनी जान-पहचान बढ़ा सकते हैं?
[पेज 28 पर तसवीरें]
किन तरीकों से आप ज़्यादा-से-ज़्यादा लोगों तक सुसमाचार पहुँचा सकते हैं?