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यहोवा हमारी दुहाई सुनता है

यहोवा हमारी दुहाई सुनता है

यहोवा हमारी दुहाई सुनता है

“यहोवा की आंखें धर्मियों पर लगी रहती हैं, और उसके कान भी उनकी दोहाई की ओर लगे रहते हैं।”—भज. 34:15.

1, 2. (क) आज बहुत-से लोग कैसा महसूस करते हैं? (ख) यह हमारे लिए कोई हैरानी की बात क्यों नहीं?

 क्या आप ज़िंदगी की भारी परेशानियों की वजह से मायूस हैं? अगर हाँ, तो आप अकेले नहीं। लाखों लोग हैं, जिन्हें हर दिन इस दुष्ट संसार से आनेवाले दबावों का सामना करना पड़ता है। किसी-किसी के लिए तो यह बरदाश्‍त से बाहर है। वे बिलकुल वैसा ही महसूस करते हैं, जैसा भजनहार दाऊद ने महसूस किया था। उसने लिखा: “मैं निर्बल और बहुत ही चूर हो गया हूं; मैं अपने मन की घबराहट से कराहता हूं। मेरा हृदय धड़कता है, मेरा बल घटता जाता है; और मेरी आंखों की ज्योति भी मुझ से जाती रही।”—भज. 38:8, 10.

2 लेकिन हम मसीहियों के लिए ज़िंदगी में आनेवाली परेशानियाँ कोई हैरानी की बात नहीं। क्योंकि हम जानते हैं कि “पीड़ाओं” का होना, यीशु की उपस्थिति के चिन्ह का एक पहलू है। (मर. 13:8; मत्ती 24:3) यहाँ जिस यूनानी शब्द का अनुवाद “पीड़ाओं” किया गया है, वह शब्द स्त्री को होनेवाली प्रसव-पीड़ा के लिए इस्तेमाल किया जाता है। यह शब्द क्या ही सही तरीके से दिखाता है कि आज इन “कठिन” समयों में लोगों को किस हद तक तकलीफों से गुज़रना पड़ रहा है!—2 तीमु. 3:1.

यहोवा हमारा दर्द समझता है

3. परमेश्‍वर के लोग किस बात को बखूबी जानते हैं?

3 यहोवा के लोग बखूबी जानते हैं कि वे दुनिया की पीड़ाओं के असर से अछूते नहीं हैं और आज के बुरे हालात आगे चलकर और भी बदतर हो जाएँगे। इसके अलावा, परमेश्‍वर के सेवक होने के नाते हमें अपने “विरोधी शैतान” का भी मुकाबला करना पड़ता है, जो हमारे विश्‍वास को कमज़ोर करने पर तुला हुआ है। (1 पत. 5:8) ऐसे में हमारे लिए दाऊद की तरह महसूस करना कितना आसान है: “मेरा हृदय नामधराई के कारण फट गया, और मैं बहुत उदास हूं। मैं ने किसी तरस खानेवाले की आशा तो की, परन्तु किसी को न पाया, और शान्ति देनेवाले को ढूंढ़ता तो रहा, परन्तु कोई न मिला”!—भज. 69:20.

4. जब हम पीड़ाओं से जूझते हैं, तब हमें किस बात से दिलासा मिल सकता है?

4 क्या दाऊद के कहने का यह मतलब था कि उसके साथ हमदर्दी जतानेवाला कोई न था? जी नहीं, उसके कहने का यह मतलब नहीं था। गौर कीजिए कि उसने आगे क्या कहा: “यहोवा दरिद्रों की ओर कान लगाता, और अपने लोगों को जो बन्धुए हैं तुच्छ नहीं जानता।” (भज. 69:33) कभी-कभी हमें लग सकता है कि हमारे दुःखों या पीड़ाओं ने मानो हमें बंदी बना रखा हो। ऐसे में, हमें शायद लगे कि दूसरे हमारे हालात को नहीं समझते। और हो सकता है, यह सच भी हो। मगर दाऊद की तरह, हमें भी इस बात से दिलासा मिल सकता है कि दूसरे चाहे समझें या न समझें, यहोवा हमारा दर्द अच्छी तरह समझता है।—भज. 34:15.

5. राजा सुलैमान को किस बात का यकीन था?

5 दाऊद के बेटे, सुलैमान ने मंदिर के समर्पण के वक्‍त इस सच्चाई पर ज़ोर दिया था कि यहोवा हमारा दर्द समझता है। (2 इतिहास 6:29-31 पढ़िए।) उसने गिड़गिड़ाकर यहोवा से बिनती की कि वह उन सभी नेकदिल लोगों की पुकार सुने, जो ‘अपना अपना दुःख और खेद’ लेकर उसके पास आते हैं। क्या परमेश्‍वर इन सभी दुखियारों की प्रार्थनाएँ सुनता? सुलैमान ने अपना यकीन ज़ाहिर करते हुए कहा कि परमेश्‍वर न सिर्फ उनकी प्रार्थनाओं को सुनेगा, बल्कि उनकी मदद करने के लिए कदम भी उठाएगा। परमेश्‍वर ऐसा क्यों करेगा? क्योंकि वह अच्छी तरह जानता है कि “मनुष्यों के मनों” (NHT) में क्या है।

6. हम अपनी पीड़ाओं का कैसे सामना कर सकते हैं, और क्यों?

6 आज हम भी ‘अपने दुःख और खेद’ के, यानी अपनी पीड़ाओं के बारे में यहोवा से प्रार्थना कर सकते हैं। यह जानकर हमें दिलासा मिलना चाहिए कि वह हमारा दर्द समझता है और उसे हमारी परवाह है। प्रेरित पतरस ने इस बात को पुख्ता करते हुए कहा: “अपनी सारी चिन्ता उसी पर डाल दो, क्योंकि उस को तुम्हारा ध्यान है।” (1 पत. 5:7) जी हाँ, हम पर जो बीतती है, उससे यहोवा को फर्क पड़ता है। यहोवा के इसी प्यार और परवाह पर ज़ोर देते हुए यीशु ने कहा: “क्या पैसे में दो गौरैये नहीं बिकतीं? तौभी तुम्हारे पिता की इच्छा के बिना उन में से एक भी भूमि पर नहीं गिर सकती। तुम्हारे सिर के बाल भी सब गिने हुए हैं। इसलिये, डरो नहीं; तुम बहुत गौरैयों से बढ़कर हो।”—मत्ती 10:29-31.

यहोवा से मिलनेवाली मदद पर भरोसा रखिए

7. हम किससे मदद पाने का भरोसा रख सकते हैं?

7 हम बेशक इस बात का भरोसा रख सकते हैं कि जब हम किसी तकलीफ में होते हैं, तो यहोवा हमें मदद देने की न सिर्फ इच्छा रखता है, बल्कि ताकत भी रखता है। “परमेश्‍वर हमारा शरणस्थान और बल है, संकट में अति सहज से मिलनेवाला सहायक” या मददगार। (भज. 34:15-18; 46:1) परमेश्‍वर हमारा मददगार कैसे साबित होता है? गौर कीजिए कि 1 कुरिन्थियों 10:13 क्या कहता है: “परमेश्‍वर सच्चा है: वह तुम्हें सामर्थ से बाहर परीक्षा में न पड़ने देगा, बरन परीक्षा के साथ निकास भी करेगा; कि तुम सह सको।” यहोवा हमारी मुश्‍किलों को दूर करने के लिए घटनाओं का रुख मोड़ सकता है, या फिर हमें मुश्‍किल हालात में धीरज धरने की ताकत दे सकता है। यहोवा चाहे कोई भी तरीका अपनाए, एक बात तय है कि वह हमारी मदद ज़रूर करेगा।

8. अगर हम चाहते हैं कि यहोवा हमारी मदद करे, तो हमें क्या करने की ज़रूरत है?

8 अगर हम चाहते हैं कि यहोवा हमारी मदद करे, तो हमें क्या करने की ज़रूरत है? हमें सलाह दी गयी है: “अपनी सारी चिन्ता उसी पर डाल दो।” इस सलाह का मतलब है कि एक बार जब हम अपनी सारी चिंताएँ यहोवा के हाथों में सौंप देते हैं, तो उसके बाद से हमारी यही कोशिश रहनी चाहिए कि हम उनके बारे में फिक्र करना छोड़ दें। साथ ही, हमें धीरज धरते हुए यहोवा पर भरोसा रखना चाहिए कि वह हमारी ज़रूरतें पूरी करेगा। (मत्ती 6:25-32) ऐसा भरोसा पैदा करने के लिए हमें नम्र होने की ज़रूरत है। हमें यह नहीं सोचना चाहिए कि हम खुद की ताकत और बुद्धि से अपनी समस्याओं को सुलझा सकते हैं। इसके बजाय, हमें “परमेश्‍वर के बलवन्त हाथ के नीचे” खुद को नम्र बनाना चाहिए। ऐसा करके हम कबूल करते हैं कि यहोवा के आगे हम कुछ भी नहीं हैं। (1 पतरस 5:6 पढ़िए।) इससे हमें उन तकलीफों को सहने में मदद मिलती है, जो परमेश्‍वर हम पर आने देता है। हम शायद चाहें कि हमें परेशानियों से फौरन राहत मिल जाए। मगर साथ ही, हमें यहोवा पर पूरा भरोसा है कि वह ठीक-ठीक जानता है कि उसे कब और कैसे हमारी खातिर कार्रवाई करनी है।—भज. 54:7; यशा. 41:10.

9. दाऊद को किस तरह का बोझ यहोवा पर डाल देना पड़ा था?

9 भजन 55:22 में दर्ज़, दाऊद के शब्दों को याद कीजिए: “अपना बोझ यहोवा पर डाल दे वह तुझे सम्भालेगा; वह धर्मी को कभी टलने न देगा।” जब दाऊद ने ये शब्द लिखे, तब वह अंदर-ही-अंदर बहुत मायूस था। (भज. 55:4) दाऊद ने यह भजन उस वक्‍त रचा, जब उसके बेटे, अबशालोम ने उसकी राजगद्दी हड़पने की साज़िश रची थी। इस साज़िश में दाऊद का सबसे भरोसेमंद सलाहकार, अहीतोपेल भी शामिल था। इसलिए दाऊद को अपनी जान बचाकर यरूशलेम से भागना पड़ा। (2 शमू. 15:12-14) ऐसे मुश्‍किल हालात में भी दाऊद ने लगातार परमेश्‍वर पर भरोसा रखा और परमेश्‍वर ने उसका भरोसा नहीं तोड़ा।

10. जब हम पीड़ाओं से गुज़रते हैं, तब हमें क्या करना चाहिए?

10 आज हम चाहे कोई भी पीड़ा से क्यों न गुज़रते हों, दाऊद की तरह, उस बारे में यहोवा से प्रार्थना करना हमारे लिए निहायत ज़रूरी है। इसी सिलसिले में पौलुस ने हमें जो करने को कहा, आइए उस पर गौर करें। (फिलिप्पियों 4:67 पढ़िए।) इस तरह सच्चे दिल से प्रार्थना करने का क्या नतीजा होगा? ‘परमेश्‍वर की शान्ति, जो समझ से बिलकुल परे है, हमारे हृदय और विचारों को मसीह यीशु में सुरक्षित रखेगी।’

11. “परमेश्‍वर की शान्ति” हमारे हृदय और विचारों को कैसे सुरक्षित रखती है?

11 क्या प्रार्थना करने से हमारे हालात बदल जाएँगे? शायद। फिर भी, हमें एक बात याद रखनी चाहिए कि यहोवा हमेशा उस तरीके से हमारी प्रार्थनाओं का जवाब नहीं देता, जैसा हम उम्मीद करते हैं। मगर हाँ, प्रार्थना से हम सोचने-समझने की अपनी काबिलीयत बनाए रख पाते हैं और इस तरह, हम अपनी सुध-बुध नहीं खोते। “परमेश्‍वर की शान्ति” हमें ऐसे वक्‍त पर मज़बूत और स्थिर कर सकती है, जब हम चिंताओं के बोझ तले दबे होते हैं। जिस तरह सेना की एक टुकड़ी हमला करनेवाले दुश्‍मनों से नगर की हिफाज़त करती है, उसी तरह “परमेश्‍वर की शान्ति” हमारे हृदय और विचारों को सुरक्षित रखती है। इतना ही नहीं, यह शांति हमारे दिल से शक, डर और बुरे खयालातों को निकाल फेंकती है। साथ ही, यह हमें जल्दबाज़ी में कदम उठाने या बेवकूफी का काम करने से रोकती है।—भज. 145:18.

12. उदाहरण देकर समझाइए कि एक इंसान मन की शांति कैसे पा सकता है।

12 पीड़ाओं से गुज़रते वक्‍त, हम मन की शांति कैसे पा सकते हैं? एक कर्मचारी के उदाहरण पर गौर कीजिए, जिसके हालात कुछ हद तक हमारे जैसे हैं। वह जिस कंपनी में काम करता है, उसका मैनेजर बहुत ही कठोर है और बात-बात पर गाली-गलौज करता है। जबकि कंपनी का मालिक बहुत ही कृपालु और समझदार इंसान है। एक दिन जब उस कर्मचारी को अपने मालिक से बात करने का मौका मिलता है, तो वह उसके सामने खुलकर अपनी भावनाएँ ज़ाहिर करता है। इस पर मालिक, कर्मचारी से कहता है कि वह उसकी परेशानी समझ सकता है और उसे भरोसा दिलाता है कि जल्द ही, वह मैनेजर को बरखास्त कर देगा। यह सुनकर कर्मचारी को कैसा लगता है? मालिक की बात पर यकीन करने और आगे जो होनेवाला है, यह जानने से उसे अपने काम पर टिके रहने की हिम्मत मिलती है; फिर चाहे उस दौरान उसे मैनेजर की और भी बेरुखी का सामना क्यों न करना पड़े। वैसे ही आज हमें पता है कि यहोवा हमारे हालात समझता है और हमें भरोसा दिलाता है कि बहुत जल्द “इस जगत का सरदार निकाल दिया जाएगा।” (यूह. 12:31) यह जानकर हमें क्या ही दिलासा मिलता है!

13. प्रार्थना के अलावा, हमें और क्या करना चाहिए?

13 तो क्या अपनी समस्याओं के बारे में यहोवा से सिर्फ प्रार्थना करना काफी है? जी नहीं, हमें और भी कुछ करने की ज़रूरत है। हमें अपनी प्रार्थनाओं के मुताबिक काम भी करना चाहिए। जब राजा शाऊल ने दाऊद को मारने के लिए उसके घर आदमी भेजे, तब दाऊद ने यहोवा से यह बिनती की: “हे मेरे परमेश्‍वर, मुझ को शत्रुओं से बचा, मुझे ऊंचे स्थान पर रखकर मेरे विरोधियों से बचा, मुझ को बुराई करनेवालों के हाथ से बचा, और हत्यारों से मेरा उद्धार कर।” (भज. 59:1, 2) प्रार्थना करने के अलावा, दाऊद ने अपनी पत्नी की बात मानी और वहाँ से भाग खड़ा हुआ। (1 शमू. 19:11, 12) उसी तरह, हम व्यावहारिक बुद्धि के लिए यहोवा से प्रार्थना कर सकते हैं, ताकि हम अपनी पीड़ाओं से जूझने या फिर अपने हालात को सुधारने के लिए कदम उठा सकें।—याकू. 1:5.

हम धीरज धरने की ताकत कैसे पा सकते हैं

14. मुश्‍किलों से जूझते वक्‍त, क्या बात हमें धीरज धरने में मदद दे सकती है?

14 हो सकता है हमारी दुःख-तकलीफें फौरन दूर न हों, बल्कि कुछ समय तक बनी रहें। ऐसे में कौन-सी बातें हमें धीरज धरने में मदद देंगी? पहली बात: याद रखिए कि जब हम मुश्‍किलों के बावजूद वफादारी से यहोवा की सेवा करते रहते हैं, तो हम उसके लिए अपने प्यार का सबूत देते हैं। (प्रेरि. 14:22) गौर कीजिए कि शैतान ने अय्यूब पर क्या लांछन लगाया: “क्या अय्यूब परमेश्‍वर का भय बिना लाभ के मानता है? क्या तू ने उसकी, और उसके घर की, और जो कुछ उसका है उसके चारों ओर बाड़ा नहीं बान्धा? तू ने तो उसके काम पर आशीष दी है, और उसकी सम्पत्ति देश भर में फैल गई है। परन्तु अब अपना हाथ बढ़ाकर जो कुछ उसका है, उसे छू; तब वह तेरे मुंह पर तेरी निन्दा करेगा।” (अय्यू. 1:9-11) अय्यूब ने अपनी खराई बनाए रखने के ज़रिए, यह साबित किया कि शैतान का इलज़ाम सरासर गलत है। उसी तरह, जब हम मुश्‍किल-से-मुश्‍किल हालात में भी धीरज धरते हैं, तो हम भी शैतान को झूठा साबित करते हैं। इसके अलावा, धीरज धरने से हमारी आशा और हमारा विश्‍वास भी मज़बूत होता है।—याकू. 1:4.

15. किन लोगों की मिसालों से हमें ताकत मिल सकती है?

15 दूसरी बात: हमें हमेशा याद रखना चाहिए कि हमारे “भाई जो संसार में हैं, ऐसे ही दुख भुगत रहे हैं।” (1 पत. 5:9) जी हाँ, “[हम] किसी ऐसी परीक्षा में नहीं पड़े, जो मनुष्य के सहने से बाहर है।” (1 कुरि. 10:13) इसलिए अपनी ही मुश्‍किलों पर ध्यान देने के बजाय, अगर हम दूसरों की मिसालों पर मनन करें, तो इससे हमें हिम्मत और ताकत मिल सकती है। (1 थिस्स. 1:5-7; इब्रा. 12:1) वक्‍त निकालकर उन लोगों की मिसालों के बारे में गहराई से सोचिए, जिन्हें आप जानते हैं और जो पहाड़ जैसी मुश्‍किलों का सामना करते हुए भी वफादार बने रहे। क्या आपने कभी हमारे साहित्य से खोजबीन करके ऐसे भाई या बहन की जीवनी पढ़ी है, जो उसी पीड़ा से गुज़रा है, जिससे आप गुज़र रहे हैं? यकीन मानिए ऐसा करने से आपको बहुत हिम्मत मिलेगी।

16. जब हम तरह-तरह की आज़माइशों से गुज़रते हैं, तब परमेश्‍वर हमें कैसे ताकत देता है?

16 तीसरी बात: यह कभी मत भूलिए कि यहोवा “दया का पिता, और सब प्रकार की शान्ति का परमेश्‍वर है। वह हमारे सब क्लेशों में शान्ति देता है; ताकि हम उस शान्ति के कारण जो परमेश्‍वर हमें देता है, उन्हें भी शान्ति दे सकें, जो किसी प्रकार के क्लेश में हों।” (2 कुरि. 1:3, 4) यह ऐसा है मानो परमेश्‍वर हमारे पास खड़ा हमें हिम्मत और ताकत देता है। वह न सिर्फ अभी के क्लेशों में, बल्कि “हमारे सब क्लेशों में” ऐसा करता है। और इस तरह, परमेश्‍वर से मिलनेवाली ताकत की बदौलत हम दूसरों को दिलासा दे पाते हैं, फिर चाहे वे ‘किसी भी प्रकार के क्लेश’ में क्यों न हों। पौलुस ने खुद अपनी ज़िंदगी में इन बातों को सच साबित होते देखा था।—2 कुरि. 4:8, 9; 11:23-27.

17. ज़िंदगी की पीड़ाओं का सामना करने में बाइबल हमारी मदद कैसे कर सकती है?

17 चौथी बात: हमारे पास परमेश्‍वर का वचन, बाइबल है जो “उपदेश, और समझाने, और सुधारने, और धर्म की शिक्षा के लिये लाभदायक है। ताकि परमेश्‍वर का जन सिद्ध बने, और हर एक भले काम के लिये तत्पर हो जाए।” (2 तीमु. 3:16, 17) परमेश्‍वर का वचन हमें सिर्फ “हर एक भले काम के लिये” ही नहीं, बल्कि जीवन की पीड़ाओं का सामना करने के लिए भी “सिद्ध” और “तत्पर” बनाता है। मूल भाषा के जिस शब्द का अनुवाद “तत्पर” किया गया है, उसका शाब्दिक अर्थ है, “पूरी तरह से लैस।” यह शब्द पुराने ज़माने के एक ऐसे जहाज़ के लिए इस्तेमाल किया जाता था, जो एक लंबी यात्रा के लिए ज़रूरी सामानों से पूरी तरह लैस होता था। या फिर यह शब्द एक ऐसे यंत्र के लिए इस्तेमाल किया जाता था, जो उस काम को अच्छी तरह पूरा करता था, जिस काम के लिए उसे बनाया गया था। उसी तरह, यहोवा अपने वचन के ज़रिए हमें हर ज़रूरी मदद देता है, ताकि हम ज़िंदगी में आनेवाली परेशानियों का सामना करने के काबिल बन सकें। इसलिए हम कह सकते हैं: “अगर परमेश्‍वर हम पर कोई आज़माइश आने देता है, तो उसकी मदद से हम उसमें धीरज भी धर सकते हैं।”

हमारी सभी पीड़ाओं से छुटकारा

18. वफादारी से धीरज धरने में हमें और किस बात से मदद मिलेगी?

18 पाँचवीं बात: हमेशा इस शानदार सच्चाई को अपने मन में रखिए कि यहोवा बहुत जल्द इंसानों की सारी दुःख-तकलीफों को जड़ से उखाड़ फेंकेगा। (भज. 34:19; 37:9-11; 2 पत. 2:9) जब परमेश्‍वर का यह वादा पूरा होगा, तब हमें न सिर्फ अपनी पीड़ाओं से छुटकारा मिलेगा, बल्कि हमेशा की ज़िंदगी की हमारी आशा भी पूरी होगी; फिर चाहे वह स्वर्ग में यीशु के साथ जीने की हो या इसी धरती पर फिरदौस में जीने की।

19. वफादारी से मुश्‍किलों का सामना करने के लिए हमें क्या करने की ज़रूरत है?

19 हमें उस समय का बेसब्री से इंतज़ार है, जब इस दुष्ट संसार की दर्दनाक पीड़ाएँ नहीं रहेंगी! (भज. 55:6-8) लेकिन तब तक हमें इन हालात से लगातार जूझना पड़ेगा। ऐसे में हमें हमेशा याद रखना चाहिए कि पूरी वफादारी के साथ धीरज धरने से हम इब्‌लीस को झूठा साबित करते हैं। हमें ताकत पाने के लिए यहोवा से प्रार्थना करनी चाहिए। अगर हम यह बात अपने मन में रखें कि हमारे भाई-बहन भी हमारी जैसी ही मुश्‍किलों से लड़ रहे हैं, तो हमें भाइयों की बिरादरी से भी ताकत मिल सकती है। हमें लगातार परमेश्‍वर के वचन का अच्छा इस्तेमाल करना चाहिए, ताकि हम सिद्ध और तत्पर बनते जाएँ। इसके अलावा, “सब प्रकार की शान्ति का परमेश्‍वर” हमें जो प्यार और परवाह दिखाता है, उस पर से हमें अपना विश्‍वास कभी डगमगाने नहीं देना चाहिए। याद रखिए कि “यहोवा की आंखें धर्मियों पर लगी रहती हैं, और उसके कान भी उनकी दोहाई की ओर लगे रहते हैं।”—भज. 34:15.

क्या आप जवाब दे सकते हैं?

• पीड़ाओं से गुज़रते वक्‍त, दाऊद ने कैसा महसूस किया?

• राजा सुलैमान को किस बात का यकीन था?

• यहोवा हम पर जो मुसीबतें आने देता है, उनका सामना करने में कौन-सी बातें हमारी मदद कर सकती हैं?

[अध्ययन के लिए सवाल]

[पेज 13 पर तसवीर]

सुलैमान को पूरा यकीन था कि यहोवा अपने उन लोगों की मदद करने के लिए ज़रूर कदम उठाएगा, जो पीड़ाओं में पड़े तड़प रहे हैं

[पेज 15 पर तसवीर]

दाऊद ने प्रार्थना के ज़रिए अपना बोझ यहोवा पर डाल दिया और फिर, उस प्रार्थना के मुताबिक काम किया