भलाई करते रहिए
भलाई करते रहिए
‘भलाई करते रहो।’—लूका 6:35.
1, 2. दुनिया में भलाई करना दिन-ब-दिन मुश्किल क्यों होता जा रहा है?
आजकल दुनिया में भलाई करना दिन-ब-दिन मुश्किल होता जा रहा है। हो सकता है हम जिनका भला करें, वे बदले में हमारा भला न करें। जैसे, हम लोगों को “आनंदित परमेश्वर” (NW) और उसके बेटे “की महिमा का सुसमाचार” सुनाकर उनकी मदद करने की कोशिश करते हैं। (1 तीमु. 1:11) मगर लोग शायद हमारे संदेश में कोई दिलचस्पी न दिखाएँ या हमें दुत्कारें। कुछ ऐसे भी लोग हैं, जो दुष्ट होते हैं और इस बात से इनकार करते हैं कि यीशु ने हमें पाप और मौत से बचाने के लिए अपनी जान कुरबान की। (फिलि. 3:18) मसीही होने के नाते, हमें ऐसे लोगों के साथ कैसे पेश आना चाहिए?
2 यीशु मसीह ने अपने चेलों से कहा था: ‘अपने शत्रुओं से प्रेम और भलाई करते रहो।’ (लूका 6:35) आइए हम इस सलाह को करीबी से जाँचें। यीशु ने भलाई करने के बारे में और भी कुछ बातें कही थीं, जिन पर गौर करना हमारे लिए फायदेमंद होगा।
‘अपने बैरियों से प्रेम करो’
3. (क) मत्ती 5:43-45 में दर्ज़ यीशु की बात का सारांश अपने शब्दों में दीजिए। (ख) पहली सदी के धर्म-गुरु, यहूदियों और गैर-यहूदियों के बारे में क्या नज़रिया अपनाने लगे?
3 अपने मशहूर पहाड़ी उपदेश में, यीशु ने अपने सुननेवालों से कहा कि वे अपने दुश्मनों से प्यार करें और अपने सतानेवालों के लिए प्रार्थना करें। (मत्ती 5:43-45 पढ़िए।) उसके सुननेवाले यहूदी थे, जो परमेश्वर की इस आज्ञा से अच्छी तरह वाकिफ थे: “तुम अपने जाति-भाइयों से प्रतिशोध न लेना, और न उनके प्रति शत्रुता रखना, वरन् अपने पड़ोसी को अपने ही समान प्रेम करना।” (लैव्य. 19:18, नयी हिन्दी बाइबिल) पहली सदी के धर्म-गुरुओं का मानना था कि एक यहूदी का ‘जाति-भाई’ और ‘पड़ोसी,’ एक यहूदी ही है। मूसा की कानून-व्यवस्था में सिर्फ इतना बताया गया था कि इस्राएली दूसरी जातियों से अलग रहें। मगर धर्म-गुरु यह नज़रिया अपनाने लगे कि हर गैर-यहूदी उनका दुश्मन है और उससे सिर्फ नफरत की जानी चाहिए।
4. यीशु के चेलों को अपने दुश्मनों के साथ कैसे पेश आना था?
4 इसके बिलकुल उलट, यीशु ने कहा: ‘अपने बैरियों से प्रेम और अपने सतानेवालों के लिये प्रार्थना करते रहो।’ (मत्ती 5:44) यीशु के चेलों को उन सबके साथ प्यार से पेश आना था, जो उनसे नफरत करते थे। सुसमाचार के लेखक, लूका ने अपनी किताब में यीशु की यह बात दर्ज़ की: “मैं तुम सुननेवालों से कहता हूं, कि अपने शत्रुओं से प्रेम रखो; जो तुम से बैर करें, उन का भला करो। जो तुम्हें स्राप दें, उन को आशीष दो: जो तुम्हारा अपमान करें, उन के लिये प्रार्थना करो।” (लूका 6:27, 28) पहली सदी के उन चेलों ने यीशु की बातों को दिल से माना था। उसी तरह, आज जो लोग हमसे “बैर” रखते हैं, हम उनके साथ अच्छा बर्ताव करके “उन का भला” करते हैं। जो लोग हमें “स्राप” देते हैं, हम उनके साथ प्यार से बात करते हैं। और जब हमारे ‘सतानेवाले’ हमारा “अपमान” करते हैं या हिंसा पर उतर आते हैं, तो हम उनके लिए “प्रार्थना” करते हैं। हम यह बिनती करते हैं कि उनका मन बदल जाए और वे यहोवा की मंज़ूरी पाने के लिए कदम उठाएँ। ऐसी प्रार्थनाएँ दिखाती हैं कि हम अपने दुश्मनों से प्यार करते हैं।
5, 6. हमें अपने दुश्मनों से क्यों प्यार करना चाहिए?
5 हमें अपने दुश्मनों से क्यों प्यार करना चाहिए? यीशु ने इसकी वजह बतायी: “जिस से तुम अपने स्वर्गीय पिता की सन्तान ठहरोगे।” (मत्ती 5:45) अगर हम अपने दुश्मनों से प्यार करें तो हम यहोवा की मिसाल पर चल रहे होंगे, जो “भलों और बुरों दोनों पर अपना सूर्य उदय करता है, और धर्मियों और अधर्मियों दोनों पर मेंह बरसाता है।” इस मायने में हम यहोवा की “सन्तान” साबित होते हैं। लूका की किताब भी कहती है कि परमेश्वर ‘उन पर कृपालु है, जो धन्यवाद नहीं करते और बुरे हैं।’—लूका 6:35.
6 ‘शत्रुओं से प्रेम करते रहना’ कितना ज़रूरी है, इस बात पर ज़ोर देने के लिए यीशु ने कहा: “यदि तुम अपने प्रेम रखनेवालों ही से प्रेम रखो, तो तुम्हारे लिये क्या फल होगा? क्या महसूल लेनेवाले भी ऐसा ही नहीं करते? और यदि तुम केवल अपने भाइयों ही को नमस्कार करो, तो कौन सा बड़ा काम करते हो? क्या अन्यजाति भी ऐसा नहीं करते?” (मत्ती 5:46, 47) अगर हम सिर्फ उन लोगों से प्यार करें, जो हमसे प्यार करते हैं, तो हमें इसका कोई “फल” नहीं मिलेगा। यानी परमेश्वर हम पर अनुग्रह नहीं करेगा। ऐसा प्यार दिखाना कोई बड़ी बात नहीं, क्योंकि महसूल लेनेवाले भी जो समाज में बदनाम थे, इस तरह का प्यार दिखाते थे।—लूका 5:30; 7:34.
7. यीशु ने ऐसा क्यों कहा कि सिर्फ अपने “भाइयों” को दुआ-सलाम करना कोई बड़ा काम नहीं?
7 एक-दूसरे को दुआ-सलाम करने के लिए यहूदी जिस शब्द का इस्तेमाल करते थे, उसका अनुवाद “शान्ति” किया गया है। (यूह. 20:19; न्यायि. 19:20) इस शब्द का मतलब है कि वे सामनेवाले की अच्छी सेहत, खैरियत और खुशहाली की दुआ करते थे। अगर हम सिर्फ उन लोगों को दुआ-सलाम करें जिन्हें हम अपना ‘भाई’ समझते हैं, तो हम कोई “बड़ा काम” नहीं कर रहे होंगे। क्योंकि जैसे यीशु ने बताया, ऐसा तो “अन्यजाति” के लोग भी करते हैं।
8. “तुम सिद्ध बनो,” इन शब्दों से यीशु अपने सुननेवालों को क्या बढ़ावा दे रहा था?
8 विरासत में मिले पाप की वजह से यह नामुमकिन था कि मसीह के चेले सिद्ध होते। (रोमि. 5:12) फिर भी, यीशु ने कहा: “तुम सिद्ध बनो, जैसा तुम्हारा स्वर्गीय पिता सिद्ध है।” (मत्ती 5:48) यीशु ने ऐसा क्यों कहा? वह दरअसल अपने सुननेवालों को बढ़ावा दे रहा था कि वे अपने “स्वर्गीय पिता,” यहोवा की तरह प्यार दिखाने में सिद्ध बनें। और वे ऐसा तभी कर पाते, जब वे अपने दुश्मनों से प्यार करते। आज हमसे भी उम्मीद की जाती है कि हम ऐसा प्यार दिखाएँ।
दूसरों को माफ क्यों करें?
9. यीशु की आदर्श प्रार्थना के मुताबिक, भलाई करते रहने में क्या शामिल है?
9 भलाई करते रहने का एक और तरीका है, हमारे खिलाफ पाप करनेवालों पर दया करना और उन्हें माफ करना। यीशु की आदर्श प्रार्थना में यह बिनती भी शामिल थी: “जिस प्रकार हम ने अपने अपराधियों को क्षमा किया है, वैसे ही तू भी हमारे अपराधों को क्षमा कर।”—मत्ती 6:12.
10. माफ करने के मामले में, हम परमेश्वर की मिसाल पर कैसे चल सकते हैं?
10 हमें परमेश्वर की मिसाल पर चलना चाहिए, जो पश्चाताप करनेवालों को दिल खोलकर माफ करता है। प्रेरित पौलुस ने लिखा: “एक दूसरे पर कृपाल, और करुणामय हो, और जैसे परमेश्वर ने मसीह में तुम्हारे अपराध क्षमा किए, वैसे ही तुम भी एक दूसरे के अपराध क्षमा करो।” (इफि. 4:32) भजनहार दाऊद ने अपने एक गीत में लिखा: “यहोवा दयालु और अनुग्रहकारी, विलम्ब से कोप करनेवाला और अति करुणामय है। . . . उस ने हमारे पापों के अनुसार हम से व्यवहार नहीं किया, और न हमारे अधर्म के कामों के अनुसार हम को बदला दिया है। . . . उदयाचल अस्ताचल से जितनी दूर है, उस ने हमारे अपराधों को हम से उतनी ही दूर कर दिया है। जैसे पिता अपने बालकों पर दया करता है, वैसे ही यहोवा अपने डरवैयों पर दया करता है। क्योंकि वह हमारी सृष्टि जानता है; और उसको स्मरण रहता है कि मनुष्य मिट्टी ही हैं।”—भज. 103:8-14.
11. परमेश्वर किन लोगों को माफ करता है?
11 लोगों को परमेश्वर से माफी तभी मिल सकती है, जब वे अपने खिलाफ अपराध करनेवालों को माफ करते हैं। (मर. 11:25) इस बात पर ज़ोर देते हुए यीशु ने आगे कहा: “यदि तुम मनुष्य के अपराध क्षमा करोगे, तो तुम्हारा स्वर्गीय पिता भी तुम्हें क्षमा करेगा। और यदि तुम मनुष्यों के अपराध क्षमा न करोगे, तो तुम्हारा पिता भी तुम्हारे अपराध क्षमा न करेगा।” (मत्ती 6:14, 15) जी हाँ, परमेश्वर सिर्फ उन लोगों को माफ करता है, जो दूसरों को दिल खोलकर माफ करते हैं। और इस मामले में, भलाई करते रहने के लिए पौलुस की इस सलाह को मानना ज़रूरी है: “जैसे प्रभु ने तुम्हारे अपराध क्षमा किए, वैसे ही तुम भी करो।”—कुलु. 3:13.
“दोष लगाना बंद करो”
12. दूसरों पर दोष लगाने के बारे में यीशु ने क्या सलाह दी?
12 यीशु ने अपने पहाड़ी उपदेश में भलाई करते रहने का एक और तरीका बताया। उसने अपने सुननेवालों से कहा कि वे दूसरों पर दोष लगाना बंद करें। इस बात को समझाने के लिए उसने एक ज़बरदस्त उदाहरण दिया। (मत्ती 7:1-5 पढ़िए।) आइए गौर करें कि यीशु के इन शब्दों का क्या मतलब था: “दोष लगाना बंद करो।”—NW.
13. यीशु के सुननेवालों को क्या करना था?
13 मत्ती के सुसमाचार की किताब के मुताबिक, यीशु ने कहा: “दोष लगाना बंद करो कि तुम पर भी दोष न लगाया जाए।” (मत्ती 7:1, NW) यीशु की इसी बात को लूका ने इस तरह दर्ज़ किया: “दोष मत लगाओ; तो तुम पर भी दोष नहीं लगाया जाएगा: दोषी न ठहराओ, तो तुम भी दोषी नहीं ठहराए जाओगे: क्षमा करो, तो तुम्हारी भी क्षमा की जाएगी।” (लूका 6:37) पहली सदी के फरीसी बिना रहम खाए दूसरों पर दोष लगाते थे। और वह भी शास्त्र के आधार पर नहीं बल्कि इंसानी परंपराओं के आधार पर। यीशु के सुननेवालों में से अगर किसी में फरीसियों के जैसी आदत थी, तो उसे ‘दोष लगाना बंद करना था।’ इसके बजाय, उसे दूसरों के दोष “क्षमा” करने थे। प्रेरित पौलुस ने भी माफ करने के बारे में कुछ ऐसे ही सलाह दी थी, जिसका ज़िक्र पैराग्राफ में किया गया है।
14. लोगों को माफ करके यीशु के चेले उन्हें क्या करने के लिए उभारते?
14 अगर यीशु के चेले लोगों को माफ करते, तो लोग भी उन्हें माफ करने के लिए उभारे जाते। यीशु ने कहा: “जिस प्रकार तुम दोष लगाते हो, उसी प्रकार तुम पर भी दोष लगाया जाएगा; और जिस नाप से तुम नापते हो, उसी से तुम्हारे लिये भी नापा जाएगा।” (मत्ती 7:2) दूसरों के साथ हमारे व्यवहार में भी यह सिद्धांत लागू होता है कि हम जो बोते हैं, वही काटते हैं।—गल. 6:7.
15. यीशु ने कैसे समझाया कि बात-बात पर नुक्स निकालना गलत है?
15 बात-बात पर नुक्स निकालना कितना गलत है, इस बारे में यीशु की कही बात को याद कीजिए। उसने कहा था: “तू क्यों अपने भाई की आंख के तिनके को देखता है, और अपनी आंख का लट्ठा तुझे नहीं सूझता? और जब तेरी ही आंख में लट्ठा है, तो तू अपने भाई से क्योंकर कह सकता है, कि ला मैं तेरी आंख से तिनका निकाल दूं?” (मत्ती 7:3, 4) जिस शख्स में नुक्स निकालने की आदत होती है, वह अपने भाई की “आँख” में छोटी-से-छोटी खामी को भी ताड़ लेता है। नुक्स निकालनेवाला शायद यह दावा करे कि इस खामी की वजह से उसका भाई मामलों को अच्छी तरह नहीं देख पा रहा है, इसलिए वह सही फैसला करने से चूक रहा है। हालाँकि उसके भाई की खामी तिनके जितनी छोटी होती है, मगर वह शख्स कहता है कि “ला मैं तेरी आंख से तिनका निकाल दूं।” इस तरह, वह अपने भाई की मदद करने का ढोंग करता है।
16. किस मायने में फरीसियों की आँखों में “लट्ठा” था?
16 खासकर यहूदी धर्म-गुरु दूसरों में नुक्स निकालते थे। इस सिलसिले में आइए एक वाकये पर गौर करें। जब यीशु ने एक अंधे आदमी को चंगा किया, तो उस आदमी ने कहा कि यीशु परमेश्वर का भेजा हुआ है। इस पर फरीसियों ने उसे झिड़कते हुए कहा: “तू तो बिलकुल पापों में जन्मा है, तू हमें क्या सिखाता है?” (यूह. 9:30-34) फरीसियों में आध्यात्मिक बातों की समझ नहीं थी और न्याय करने के मामले में वे परमेश्वर के स्तरों से कोसों दूर थे। इस मायने में उनकी आँखों में “लट्ठा” था और वे पूरी तरह अंधे थे। इसलिए यीशु ने उनसे कहा: “हे कपटी, पहले अपनी आंख में से लट्ठा निकाल ले, तब तू अपने भाई की आंख का तिनका भली भांति देखकर निकाल सकेगा।” (मत्ती 7:5; लूका 6:42) आज, अगर हम ठान लें कि हम अपने भाइयों की भलाई करेंगे और उनके साथ अच्छा बर्ताव करेंगे, तो हम उनकी आँख में तिनका नहीं ढूँढ़ेंगे। दूसरे शब्दों में कहें तो हम उनमें नुक्स नहीं निकालेंगे। इसके बजाय, हम कबूल करेंगे कि हम असिद्ध हैं और नतीजा यह होगा कि हम अपने भाई-बहनों पर दोष लगाने से दूर रहेंगे।
हमें दूसरों के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए
17. मत्ती 7:12 के मुताबिक हमें दूसरों के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए?
17 पहाड़ी उपदेश में यीशु ने बताया कि परमेश्वर अपने सेवकों के साथ एक अच्छे पिता की तरह व्यवहार करता है और उनकी प्रार्थनाओं का जवाब देता है। (मत्ती 7:7-12 पढ़िए।) इसलिए परमेश्वर के सेवकों को भी दूसरों के साथ अच्छा व्यवहार करना चाहिए। यीशु ने इसी बात को मन में रखते हुए यह सिद्धांत दिया: “जो कुछ तुम चाहते हो, कि मनुष्य तुम्हारे साथ करें, तुम भी उन के साथ वैसा ही करो।” (मत्ती 7:12) अगर हम इस सिद्धांत पर चलें, तो हम यह साबित करेंगे कि हम यीशु के सच्चे चेले हैं।
18. “व्यवस्था” से कैसे पता चलता है कि हमें दूसरों के साथ वैसे ही पेश आना चाहिए, जैसे हम चाहते हैं कि वे हमारे साथ पेश आए?
18 मत्ती 7:12 में यीशु ने आगे कहा: “क्योंकि व्यवस्था और भविष्यद्वक्ताओं की शिक्षा यही है।” जब हम यीशु के दिए सिद्धांत पर चलते हैं, तो हम दरअसल उस मकसद के मुताबिक काम करते हैं जिस मकसद से “व्यवस्था” दी गयी थी। यह “व्यवस्था” बाइबल की पहली पाँच किताबों से मिलकर बनी है, यानी उत्पत्ति से लेकर व्यवस्थाविवरण तक की किताबें। इनमें यहोवा का उद्देश्य बताया गया है कि वह एक वंश उत्पन्न करेगा, जो सारी बुराइयों का अंत कर डालेगा। (उत्प. 3:15) इनमें मूसा की कानून-व्यवस्था भी शामिल है, जो परमेश्वर ने सा.यु.पू. 1513 में इस्राएल जाति को दी थी। इसमें यह साफ-साफ बताया गया था कि इस्राएलियों को अन्याय और पक्षपात नहीं करना था। साथ ही, उन्हें मुसीबत के मारों और परदेशियों की मदद करनी थी।—लैव्य. 19:9, 10, 15, 34.
19. “भविष्यद्वक्ताओं” से कैसे पता चलता है कि हमें भलाई करते रहना चाहिए?
19 जब यीशु ने “भविष्यद्वक्ताओं” का ज़िक्र किया, तो उसका मतलब था, इब्रानी शास्त्र में पायी जानेवाली भविष्यवाणियों की किताबें। इन किताबों में मसीहा के बारे में भविष्यवाणियाँ दर्ज़ थीं, जो खुद यीशु ने पूरी की थीं। इनमें यह भी बताया गया है कि परमेश्वर अपने लोगों को तब आशीषें देता है, जब वे दूसरों के साथ अच्छा बर्ताव करते हैं और वही काम करने की कोशिश करते हैं, जो परमेश्वर की नज़रों में सही है। मिसाल के लिए, यशायाह की भविष्यवाणी की किताब में इस्राएलियों को यह सलाह दी गयी थी: “यहोवा यों कहता है, न्याय का पालन करो, और, धर्म के काम करो; . . . क्या ही धन्य है वह मनुष्य जो ऐसा ही करता, और वह आदमी जो इस पर स्थिर रहता है, . . . और अपने हाथ को सब भांति की बुराई करने से रोकता है।” (यशा. 56:1, 2) इसमें कोई दो राय नहीं कि परमेश्वर अपने लोगों से भलाई करते रहने की उम्मीद करता है।
दूसरों के साथ हमेशा भलाई कीजिए
20, 21. पहाड़ी उपदेश सुनने के बाद लोगों पर क्या असर हुआ, और आपको इस उपदेश पर क्यों मनन करना चाहिए?
20 हालाँकि हमने यीशु के बेमिसाल पहाड़ी उपदेश के चंद मुद्दों पर ही गौर किया है, फिर भी यीशु के सुननेवालों पर इस उपदेश का जो असर हुआ, उसे हम समझ सकते हैं। इस बारे में बाइबल कहती है: “जब यीशु ये बातें कह चुका, तो ऐसा हुआ कि भीड़ उसके उपदेश से चकित हुई। क्योंकि वह उन के शास्त्रियों के समान नहीं परन्तु अधिकारी की नाईं उन्हें उपदेश देता था।”—मत्ती 7:28, 29.
21 वाकई, यीशु ने साबित कर दिखाया कि वही “अद्भुत् परामर्श दाता” है, जिसके बारे में भविष्यवाणी की गयी थी। (यशा. 9:6, नयी हिन्दी बाइबिल) पहाड़ी उपदेश इस बात की बेहतरीन मिसाल है कि यीशु हर मामले में अपने पिता के नज़रिए को बखूबी जानता था। इस उपदेश के जिन मुद्दों पर हमने चर्चा की, उनके अलावा इसमें और भी कई बातें बतायी गयी हैं। जैसे, सच्ची खुशी का राज़ क्या है, हम अनैतिकता से कैसे दूर रह सकते हैं, हम धार्मिकता के काम कैसे कर सकते हैं, एक खुशहाल और सुरक्षित भविष्य के लिए हमें क्या करना चाहिए। हम आपको बढ़ावा देते हैं कि आप प्रार्थना के साथ मत्ती के अध्याय 5 से 7 को ध्यान से पढ़ें। फिर इन अध्यायों में दी यीशु की बढ़िया सलाहों पर मनन करें। इसके बाद, उन्हें अपनी ज़िंदगी में लागू करें। ऐसा करने से आप यहोवा को और भी खुश कर पाएँगे, दूसरों के साथ अच्छा बर्ताव कर पाएँगे और भलाई करते रह पाएँगे।
आप क्या जवाब देंगे?
• हमें अपने दुश्मनों के साथ कैसे पेश आना चाहिए?
• हमें दूसरों को क्यों माफ करना चाहिए?
• लोगों पर दोष लगाने के बारे में यीशु ने क्या कहा था?
• मत्ती 7:12 के मुताबिक, हमें दूसरों के साथ कैसे व्यवहार करना चाहिए?
[अध्ययन के लिए सवाल]
[पेज 10 पर बड़े अक्षरों में लेख की खास बात]
क्या आपको मालूम है कि यीशु ने क्यों कहा था: “दोष लगाना बंद करो”?
[पेज 8 पर तसवीर]
हमें अपने सतानेवालों के लिए क्यों प्रार्थना करनी चाहिए?
[पेज 10 पर तसवीर]
क्या आप हमेशा दूसरों के साथ वैसे ही पेश आते हैं, जैसे आप चाहते हैं कि वे आपके साथ पेश आएँ?