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हमेशा तक जीने के लिए आप क्या कुरबानी देंगे?

हमेशा तक जीने के लिए आप क्या कुरबानी देंगे?

हमेशा तक जीने के लिए आप क्या कुरबानी देंगे?

“मनुष्य अपने प्राण के बदले में क्या देगा?”—मत्ती 16:26.

1. यीशु ने पतरस की सलाह को क्यों ठुकरा दिया?

 प्रेरित पतरस को अपने कानों पर विश्‍वास नहीं हो रहा था। अभी-अभी उसके प्यारे गुरू, यीशु मसीह ने ‘साफ साफ कहा’ था कि वह दुःख उठाएगा और मार डाला जाएगा। इस पर पतरस ने यीशु को नेक इरादे से झिड़का: “हे प्रभु, परमेश्‍वर न करे [‘खुद पर इतना ज़ुल्म न ढा,’ NW]; तुझ पर ऐसा कभी न होगा।” यीशु ने पतरस से मुँह फेर लिया और दूसरे चेलों की ओर देखा। शायद उनकी सोच भी पतरस की तरह गलत थी। तब यीशु ने पतरस से कहा: “हे शैतान, मेरे साम्हने से दूर हो: तू मेरे लिये ठोकर का कारण है; क्योंकि तू परमेश्‍वर की बातें नहीं, पर मनुष्यों की बातों पर मन लगाता है।”—मर. 8:32, 33; मत्ती 16:21-23.

2. एक सच्चे चेले से क्या उम्मीद की जाती है, इस बारे में यीशु ने क्या बताया?

2 यीशु ने आगे जो कहा, उससे शायद पतरस समझ गया होगा कि यीशु ने उसकी सलाह सीधे-सीधे क्यों ठुकरा दी। यीशु ने “भीड़ को अपने चेलों समेत पास बुलाकर” कहा: “जो कोई मेरे पीछे आना चाहे, वह अपने [आप] से इन्कार करे और अपना क्रूस उठाकर, मेरे पीछे हो ले। क्योंकि जो कोई अपना प्राण बचाना चाहे वह उसे खोएगा, पर जो कोई मेरे और सुसमाचार के लिये अपना प्राण खोएगा, वह उसे बचाएगा।” (मर. 8:34, 35) इससे ज़ाहिर है कि यीशु अपनी जान कुरबान करनेवाला था। साथ ही, वह अपने चेलों से उम्मीद करता था कि वे भी परमेश्‍वर की सेवा में अपनी जान कुरबान करने के लिए तैयार रहें। अगर वे ऐसा करते, तो उन्हें बढ़िया इनाम मिलता।—मत्ती 16:27 पढ़िए।

3. (क) यीशु ने अपने सुननेवालों से क्या सवाल किए? (ख) यीशु के दूसरे सवाल से उसके सुननेवालों को क्या याद आया होगा?

3 इसी मौके पर यीशु ने दो बड़े ही दिलचस्प सवाल किए। पहला, “यदि मनुष्य सारे जगत को प्राप्त करे और अपने प्राण खोए तो उसे क्या लाभ?” दूसरा, “मनुष्य अपने प्राण के बदले क्या देगा?” (मर. 8:36, 37, NHT) पहले सवाल का जवाब तो साफ है। एक इंसान दुनिया-जहान पाकर अपनी जान से हाथ धो बैठे, तो बेशक उसे कोई फायदा नहीं होगा। क्योंकि वह अपनी दौलत और साज़ो-सामान का लुत्फ तभी उठा सकता है, जब वह ज़िंदा हो। यीशु के दूसरे सवाल से उसके सुननेवालों को शायद शैतान का वह दावा याद आया होगा, जो उसने अय्यूब के दिनों में किया था: “प्राण के बदले मनुष्य अपना सब कुछ दे देता है।” (अय्यू. 2:4) जो लोग यहोवा की उपासना नहीं करते, उनके मामले में शैतान का यह दावा शायद सच हो। कई लोग तो ज़िंदा रहने के लिए कुछ भी कर सकते हैं, अगर उन्हें नैतिक मूल्यों से समझौता करना पड़े, तो उससे भी नहीं कतराते। लेकिन मसीही उनके जैसे नहीं।

4. मसीहियों के लिए यीशु के सवाल क्यों गहरा अर्थ रखते हैं?

4 यीशु इसलिए नहीं आया था कि हमें इस दुनिया में अच्छी सेहत, दौलत और लंबी उम्र दे। इसके बजाय, वह इसलिए आया था कि हमें नयी दुनिया में हमेशा की ज़िंदगी जीने की आशा दे। और यह आशा हमारे लिए बड़ी अनमोल है। (यूह. 3:16) तो फिर एक मसीही, यीशु के पहले सवाल का मतलब इस तरह समझेगा: “यदि मनुष्य सारे जगत को प्राप्त करे और अनंत जीवन की अपनी आशा खो दे तो उसे क्या लाभ?” जवाब है उसे कोई लाभ नहीं। (1 यूह. 2:15-17) यीशु के दूसरे सवाल का मतलब इस तरह समझा जा सकता है: ‘नयी दुनिया में जीने की अपनी आशा पक्की करने के लिए मैं आज किस हद तक त्याग करने को तैयार हूँ?’ हमारे जीने का तरीका इस सवाल का जवाब देगा और यह ज़ाहिर करेगा कि हम इस आशा को कितनी मज़बूती से थामे हुए हैं।—यूहन्‍ना 12:25 से तुलना कीजिए।

5. हम हमेशा की ज़िंदगी का तोहफा कैसे पा सकते हैं?

5 बेशक यीशु यह नहीं कह रहा था कि हम अपने बलबूते हमेशा की ज़िंदगी पा सकते हैं। दरअसल हमेशा की ज़िंदगी तो यहोवा की तरफ से एक तोहफा है। यहाँ तक कि हमारी पल-दो-पल की ज़िंदगी भी उसी की देन है। यह तोहफा न तो खरीदा जा सकता है और ना ही हम इसके हकदार बन सकते हैं। इसे पाने का सिर्फ एक ही रास्ता है। और वह है, “मसीह यीशु” पर और यहोवा पर “विश्‍वास” करना, जो “अपने खोजनेवालों को प्रतिफल देता है।” (गल. 2:16; इब्रा. 11:6) मगर हमारा विश्‍वास कामों से ज़ाहिर होना चाहिए क्योंकि ‘विश्‍वास कर्म बिना मरा हुआ है।’ (याकू. 2:26) इसलिए यीशु के सवाल पर मनन करते वक्‍त हमें खुद की जाँच करनी चाहिए। हमें गंभीरता से सोचना चाहिए कि हम इस दुनिया में किस हद तक त्याग करने और अपनी सेवा बढ़ाने के लिए तैयार हैं, जिससे यह ज़ाहिर हो कि हमारा विश्‍वास सचमुच ज़िंदा है।

“मसीह ने अपने आप को प्रसन्‍न नहीं किया”

6. यीशु के लिए क्या बात सबसे ज़रूरी थी?

6 यीशु चाहता तो अपने लिए दुनिया की तमाम दौलत और ऐशो-आराम की चीज़ें बटोर सकता था। मगर उसने दुनिया की चमक-दमक ठुकराकर अपना ध्यान ज़रूरी बातों पर लगाया। उसने अपनी ज़िंदगी में कई त्याग किए और परमेश्‍वर की हर आज्ञा मानी। यीशु ने कभी अपना स्वार्थ पूरा नहीं किया। उसने बताया कि उसकी ज़िंदगी में क्या बात सबसे ज़रूरी थी: “मैं सर्वदा वही काम करता हूं, जिस से [परमेश्‍वर] प्रसन्‍न होता है।” (यूह. 8:29) लेकिन परमेश्‍वर को खुश करने के लिए वह किस हद तक जाने को तैयार था?

7, 8. (क) यीशु ने क्या कुरबानी दी और उसे क्या इनाम मिला? (ख) हमें खुद से क्या सवाल पूछना चाहिए?

7 एक मौके पर यीशु ने अपने चेलों से कहा: ‘मनुष्य का पुत्र, इसलिये नहीं आया कि उस की सेवा टहल की जाए, परन्तु इसलिये आया कि आप सेवा टहल करे, और बहुतों की छुड़ौती के लिये अपने प्राण दे।’ (मत्ती 20:28) इससे पहले जब यीशु ने अपने चेलों को चिताया कि उसे बहुत जल्द ‘अपना प्राण देना’ होगा, तो पतरस ने उससे कहा था कि वह खुद पर इतना ज़ुल्म न ढाए। लेकिन यीशु अपने इरादे पर अटल था। उसने इंसानों के लिए अपनी सिद्ध ज़िंदगी खुशी-खुशी कुरबान कर दी। अपने इस निःस्वार्थ बलिदान की वजह से उसका भविष्य परमेश्‍वर के हाथों में सुरक्षित था। परमेश्‍वर ने उसे मरे हुओं में से जिलाया और अपने “दाहिने हाथ पर सर्वोच्च पद” देकर उसे सम्मानित किया। (प्रेरि. 2:32, 33, NHT) इस तरह यीशु ने हमारे आगे एक उम्दा मिसाल रखी।

8 प्रेरित पौलुस ने रोम के मसीहियों को याद दिलाया कि “मसीह ने अपने आप को प्रसन्‍न नहीं किया” और उन्हें नसीहत दी कि वे भी ‘अपने आप को प्रसन्‍न न करें।’ (रोमि. 15:1-3) लेकिन सवाल यह है कि हम किस हद तक पौलुस की इस नसीहत को मानेंगे और मसीह की तरह खुद को दे देने के लिए तैयार होंगे?

यहोवा चाहता है कि हम उसे उत्तम-से-उत्तम दें

9. परमेश्‍वर को समर्पण करने का क्या मतलब है?

9 प्राचीन इस्राएल में मूसा की कानून-व्यवस्था के तहत, इब्री दासों को अपनी गुलामी के सातवें वर्ष में या जुबली वर्ष के दौरान आज़ाद किया जाना होता था। लेकिन अगर एक दास को अपने मालिक से गहरा लगाव हो जाता, तो वह उम्र-भर उसका दास बने रहने का चुनाव कर सकता था। (व्यवस्थाविवरण 15:12, 16, 17 पढ़िए।) जब हम अपने आपको परमेश्‍वर को समर्पित करते हैं, तो हम भी कुछ ऐसा ही चुनाव करते हैं। हम अपनी इच्छाओं को दरकिनार कर खुशी-खुशी परमेश्‍वर की मरज़ी पूरी करने को राज़ी होते हैं। ऐसा करके हम दिखाते हैं कि हम यहोवा से बेइंतिहा प्यार करते हैं और हमेशा तक उसकी सेवा करना चाहते हैं।

10. (क) हम किस मायने में परमेश्‍वर की मिल्कियत हैं? (ख) इस बात का हमारी सोच और हमारे कामों पर क्या असर होना चाहिए?

10 अगर आप फिलहाल यहोवा के साक्षियों के साथ अध्ययन कर रहे हैं, प्रचार में हिस्सा ले रहे हैं और मसीही सभाओं में हाज़िर हो रहे हैं, तो यह वाकई काबिले-तारीफ है। हम उम्मीद करते हैं कि आप बहुत जल्द यहोवा को अपना समर्पण करेंगे और वही सवाल पूछेंगे जो एक कूशी ने फिलिप्पुस से पूछा था: “अब मुझे बपतिसमा लेने से कौन सी चीज़ रोकती है?” (प्रेरि. 8:35, 36, हिन्दुस्तानी बाइबल) इसके बाद परमेश्‍वर के साथ आपका रिश्‍ता उन मसीहियों की तरह हो जाएगा जिनके बारे में पौलुस ने लिखा: ‘तुम अपने नहीं, क्योंकि तुम दाम देकर मोल लिये गए हो।’ (1 कुरि. 6:19, 20) जब हम यहोवा को अपना जीवन समर्पित करते हैं, तब वह हमारा मालिक बन जाता है और हम उसकी मिल्कियत, फिर चाहे हमारी आशा स्वर्ग में जीने की हो या धरती पर। इसलिए यह ज़रूरी है कि हम अपनी स्वार्थी इच्छाओं को काबू में रखें और ‘मनुष्यों के दास न बनें।’ (1 कुरि. 7:23) वाकई यह हमारे लिए बड़े सम्मान की बात है कि हम यहोवा के ऐसे सेवक बन सकते हैं, जिन्हें यहोवा जैसे चाहे इस्तेमाल कर सकता है!

11. (क) मसीहियों को किस तरह का बलिदान चढ़ाने के लिए उकसाया जाता है? (ख) इस बलिदान का क्या मतलब है, यह आप व्यवस्था के तहत चढ़ाए जानेवाले बलिदानों से कैसे समझा सकते हैं?

11 पौलुस ने अपने भाइयों को उकसाया: “अपने शरीरों को जीवित, और पवित्र, और परमेश्‍वर को भावता हुआ बलिदान करके चढ़ाओ: यही तुम्हारी आत्मिक सेवा है।” (रोमि. 12:1) इन शब्दों से यहूदी मसीहियों को शायद वे बलिदान याद आए होंगे जो मसीह के चेले बनने से पहले वे चढ़ाया करते थे। उन्हें मालूम था कि मूसा की व्यवस्था के मुताबिक यहोवा की वेदी पर चढ़ाए जानेवाले जानवर सबसे उत्तम होने चाहिए थे। यहोवा लंगड़े या बीमार जानवरों की बलि हरगिज़ कबूल नहीं करता। (मला. 1:8, 13) जब हम अपना शरीर ‘जीवित बलिदान’ के तौर पर यहोवा को अर्पित करते हैं, तो यही बात हम पर भी लागू होती है। हम यहोवा को अपना उत्तम-से-उत्तम देते हैं, ना कि अपनी इच्छाओं को पूरा करने के बाद उसे बचा-खुचा देते हैं। समर्पण करते वक्‍त हम अपनी “ज़िंदगी,” ताकत, काबिलीयतें, साधन, सबकुछ यहोवा के हवाले कर देते हैं। (कुलु. 3:23) हम रोज़मर्रा की ज़िंदगी में यहोवा को अपना उत्तम-से-उत्तम कैसे दे सकते हैं?

समय का सोच-समझकर इस्तेमाल कीजिए

12, 13. यहोवा को अपना उत्तम-से-उत्तम देने का एक तरीका क्या है?

12 यहोवा को अपना उत्तम-से-उत्तम देने का एक तरीका है, अपने समय का सोच-समझकर इस्तेमाल करना। (इफिसियों 5:15, 16 पढ़िए। *) इसके लिए संयम बरतना ज़रूरी है। क्योंकि यह दुनिया और खुद हमारी असिद्धता हमें उकसाती है कि हम अपना सारा समय अपने फायदे के लिए या मौज-मस्ती करने में लगा दें। माना कि ‘हर एक बात का एक अवसर होता है।’ मन-बहलाने या नौकरी करने का भी एक समय होता है, जिससे हम अपनी मसीही ज़िम्मेदारियाँ पूरी कर पाते हैं। (सभो. 3:1) लेकिन एक समर्पित मसीही के लिए ज़रूरी है कि वह इस मामले में सही तालमेल बिठाए और अपने समय का सोच-समझकर इस्तेमाल करे।

13 जब पौलुस अथेने गया तो उसने देखा कि “सब अथेनवी और परदेशी जो वहां रहते थे नई नई बातें कहने और सुनने के सिवाय और किसी काम में समय नहीं बिताते थे।” (प्रेरि. 17:21) आज भी कई लोग इसी तरह अपना समय बरबाद करते हैं। वे अपना सारा वक्‍त टी.वी. देखने, वीडियो गेम खेलने और इंटरनेट का इस्तेमाल करने में ज़ाया कर देते हैं। और आजकल तो पहले से कहीं ज़्यादा ऐसी ध्यान बँटानेवाली और समय बरबाद करनेवाली चीज़ों की भरमार है। अगर यही चीज़ें हमारा सारा वक्‍त खा जाएँ, तो हम यहोवा के बारे में ज्ञान लेने में लापरवाह हो सकते हैं। शायद हमें यह भी लगे कि हमारे पास “उत्तम से उत्तम बातों” यानी यहोवा की सेवा से जुड़ी बातों के लिए समय ही नहीं है।—फिलि. 1:9, 10.

14. हमें किन सवालों पर गहराई से सोचना चाहिए?

14 इसलिए यहोवा के समर्पित सेवक होने के नाते अपने आपसे पूछिए: ‘क्या मैं रोज़ बाइबल पढ़ने, मनन और प्रार्थना करने के लिए वक्‍त निकालता हूँ?’ (भज. 77:12; 119:97; 1 थिस्स. 5:17) ‘क्या मैं मसीही सभाओं की तैयारी के लिए एक समय तय करता हूँ? क्या मैं सभाओं में जवाब देकर दूसरों का हौसला बढ़ाता हूँ?’ (भज. 122:1; इब्रा. 2:12) परमेश्‍वर का वचन बताता है कि पौलुस और बरनबास ने “बहुत दिन तक . . . प्रभु के भरोसे पर हियाव से बातें” की थीं। (प्रेरि. 14:3) क्या आप प्रचार में “बहुत दिन” यानी ज़्यादा-से-ज़्यादा समय बिताने के लिए अपने हालात में फेरबदल कर सकते हैं? और अगर हो सके, तो क्या आप एक पायनियर के नाते सेवा कर सकते हैं?—इब्रानियों 13:15 पढ़िए।

15. प्राचीन अपने समय का कैसे सोच-समझकर इस्तेमाल करते हैं?

15 अन्ताकिया की मसीही कलीसिया का दौरा करते वक्‍त, प्रेरित पौलुस और बरनबास, “चेलों के साथ बहुत दिन तक रहे” ताकि उनकी हौसला-अफज़ाई कर सकें। (प्रेरि. 14:28) आज, प्यार करनेवाले प्राचीन भी अपना ज़्यादातर समय भाइयों की हिम्मत बँधाने में लगाते हैं। वे प्रचार में समय बिताने के साथ-साथ, झुंड की रखवाली करने, खोयी हुई भेड़ों को ढूँढ़ने, बीमारों की मदद करने और कलीसिया के दूसरे कामों में जी-जान लगाकर मेहनत करते हैं। अगर आप एक बपतिस्मा-शुदा भाई हैं, तो क्या आप इन ज़िम्मेदारियों के काबिल बनने की कोशिश कर रहे हैं?

16. ‘विश्‍वासी भाइयों के साथ भलाई’ करने के कुछ तरीके बताइए।

16 बहुत-से मसीहियों ने उन लोगों को राहत देने में हाथ बँटाया है, जो कुदरत के कहर या इंसान की वजह से आयी मुसीबतों के शिकार हुए हैं। इस तरह मदद देने से उन्हें बहुत खुशी मिली है। बेथेल में सेवा करनेवाली एक बहन की मिसाल लीजिए जिसकी उम्र 65 के आस-पास है। उसने राहत काम में हिस्सा लेने के लिए कई बार छुट्टी ली और लंबा सफर भी तय किया। उसने अपनी छुट्टियाँ इस तरह क्यों इस्तेमाल कीं? वह कहती है: “हालाँकि मेरे पास कोई खास हुनर नहीं है, लेकिन मैं अपने भाई-बहनों के लिए जो भी कर पायी, उसे बड़े सम्मान की बात समझती हूँ। सच कहूँ तो उनका मज़बूत विश्‍वास देखकर उलटा मुझे ही हौसला मिला है। उनका सबकुछ लुट गया, लेकिन उनके चेहरे पर शिकन तक नहीं आयी!” इसके अलावा, दुनिया-भर में हज़ारों भाई-बहन राज्य घर और सम्मेलन भवन बनाने में हाथ बँटाते हैं। इन कामों में हिस्सा लेकर हम निःस्वार्थ भाव से ‘विश्‍वासी भाइयों के साथ भलाई’ करते हैं।—गल. 6:10.

“मैं . . . सदैव तुम्हारे संग हूं”

17. अनंत जीवन के बदले आप क्या देने को तैयार है?

17 परमेश्‍वर से दूर जा चुके इंसानी समाज का बहुत जल्द नाश होनेवाला है। हमें यह तो नहीं मालूम कि यह ठीक-ठीक कब होगा। लेकिन हम इतना ज़रूर जानते हैं कि “समय कम किया गया है” और “इस संसार का दृश्‍य बदल रहा है।” (NW) (1 कुरिन्थियों 7:29-31 पढ़िए।) इसे मद्देनज़र रखते हुए यीशु का यह सवाल आज हमारे लिए और भी मायने रखता है: “मनुष्य अपने प्राण के बदले क्या देगा?” “सच्ची ज़िन्दगी” पाने के लिए हम ऐसा हर त्याग करने को तैयार हैं, जो यहोवा हमसे चाहता है। (1 तीमु. 6:19, हिन्दुस्तानी बाइबल) तो यह निहायत ज़रूरी है कि हम यीशु की सलाह मानकर लगातार ‘उसके पीछे हो लें’ और ‘पहिले राज्य की खोज करें।’—मत्ती 6:31-33; 24:13.

18. हमें किस बात का भरोसा है और इस बारे में यीशु ने हमें क्या यकीन दिलाया?

18 यीशु के पीछे हो लेना आसान नहीं। और जैसा उसने बताया, कइयों को उसके चेले होने की कीमत अपनी जान से चुकानी पड़ी है। इसके बावजूद, हम भी यीशु की तरह इस सलाह को ठुकराते हैं कि हम ‘खुद पर इतना ज़ुल्म न ढाएँ।’ हम यीशु के उस वादे पर यकीन करते हैं, जो उसने पहली सदी के अपने अभिषिक्‍त चेलों से किया था: “मैं जगत के अन्त तक सदैव तुम्हारे संग हूं।” (मत्ती 28:20) आइए हम यहोवा की पवित्र सेवा में अपना समय और अपनी काबिलीयतों का इस्तेमाल करने में कोई कसर न छोड़ें! ऐसा करके हम दिखाएँगे कि हमें यहोवा पर भरोसा है कि वह या तो हमें बड़े क्लेश से बचाएगा या नयी दुनिया में हमें दोबारा ज़िंदगी देगा। (इब्रा. 6:10) जी हाँ, यहोवा की सेवा में अपना सबकुछ लगाने से हम दिखा रहे होंगे कि हम ज़िंदगी के तोहफे को वाकई अनमोल समझते हैं।

[फुटनोट]

^ इफिसियों 5:15, 16 (NHT): “इसलिए सावधान रहो कि तुम कैसी चाल चलते हो-निर्बुद्धि मनुष्यों के सदृश नहीं वरन्‌ बुद्धिमानों के सदृश चलो। समय का पूरा-पूरा उपयोग करो, क्योंकि दिन बुरे हैं।”

आपका जवाब क्या है?

• परमेश्‍वर और इंसान की सेवा करने के लिए यीशु किस हद तक गया?

• एक इंसान को अपने आप से इनकार क्यों करना चाहिए और यह कैसे किया जा सकता है?

• प्राचीन इस्राएल में, किस तरह के बलिदान यहोवा को मंज़ूर थे और इस बात से हम क्या सीख सकते हैं?

• हम किन तरीकों से अपने समय का सोच-समझकर इस्तेमाल कर सकते हैं?

[अध्ययन के लिए सवाल]

[पेज 26 पर तसवीरें]

यीशु ने हमेशा वही काम किए जिनसे उसका पिता खुश हुआ

[पेज 28 पर तसवीर]

सच्ची उपासना के लिए अपनी कदर दिखाने के लिए इस्राएलियों ने उत्तम-से-उत्तम बलिदान दिए

[पेज 29 पर तसवीरें]

हम अपने समय का सोच-समझकर इस्तेमाल करके परमेश्‍वर को खुश करते हैं