इस जानकारी को छोड़ दें

विषय-सूची को छोड़ दें

‘उन बातों की कोशिश कीजिए जिनसे मेल मिलाप हो’

‘उन बातों की कोशिश कीजिए जिनसे मेल मिलाप हो’

‘उन बातों की कोशिश कीजिए जिनसे मेल मिलाप हो’

जब एक सड़क नयी-नयी बनती है तो बड़ी मज़बूत और टिकाऊ नज़र आती है। लेकिन वक्‍त के गुज़रते उसमें दरारें पड़ने लगती हैं और जगह-जगह गड्ढे हो जाते हैं। लिहाज़ा, समय-समय पर उसकी मरम्मत करना ज़रूरी होता है ताकि सड़क सही-सलामत रहे और राहगीरों को कोई नुकसान न पहुँचे।

ऐसा ही कुछ हमारे रिश्‍तों के साथ भी होता है। कभी-कभी दूसरों के साथ हमारे रिश्‍तों में तनाव आ सकता है और उसमें दरारें भी पड़ सकती हैं। रोम के मसीहियों में कुछ आपसी मतभेद थे, इसलिए प्रेरित पौलुस ने उन्हें सलाह दी: “हम उन बातों की कोशिश करें जिन से मेल मिलाप और आपस की तरक्की होती है।” (रोमि. 14:13, 19; हिन्दुस्तानी बाइबल) लेकिन ‘मेल मिलाप की कोशिश’ करना ज़रूरी क्यों है? हम कैसे हिम्मत जुटाकर और असरदार तरीके से मेल मिलाप करने की कोशिश कर सकते हैं?

मेल मिलाप की कोशिश क्यों करें?

अगर सड़क पर पड़ी दरारें भरी न जाएँ, तो आगे चलकर वे बड़े-बड़े गड्ढों में तबदील हो सकती हैं। उसी तरह अगर आपसी मतभेद जल्द-से-जल्द मिटाए न जाएँ, तो इसके अंजाम भयानक हो सकते हैं। प्रेरित यूहन्‍ना ने कहा: “यदि कोई कहे, कि मैं परमेश्‍वर से प्रेम रखता हूं; और अपने भाई से बैर रखे; तो वह झूठा है: क्योंकि जो अपने भाई से, जिसे उस ने देखा है, प्रेम नहीं रखता, तो वह परमेश्‍वर से भी जिसे उस ने नहीं देखा, प्रेम नहीं रख सकता।” (1 यूह. 4:20) अगर आपसी मतभेद सुलझाए न जाएँ, तो नतीजा यह भी हो सकता है कि एक मसीही अपने ही भाई से बैर या नफरत करने लगे।

यीशु मसीह ने बताया था कि अगर हम दूसरों के साथ सुलह न करें, तो यहोवा हमारी उपासना कबूल नहीं करेगा। इस बारे में उसने अपने चेलों को यह हिदायत दी: “यदि तू अपनी भेंट बेदी पर लाए, और वहां तू स्मरण करे, कि मेरे भाई के मन में मेरी ओर से कुछ विरोध है, तो अपनी भेंट वहीं बेदी के साम्हने छोड़ दे। और जाकर पहिले अपने भाई से मेल मिलाप कर; तब आकर अपनी भेंट चढ़ा।” (मत्ती 5:23, 24) इससे हम समझ पाते हैं कि दूसरों के साथ मेल मिलाप करना क्यों ज़रूरी है। इसकी एक अहम वजह यह है कि हम यहोवा परमेश्‍वर को खुश करना चाहते हैं। *

फिलिप्पी की कलीसिया पर गौर करने से हमें मेल मिलाप करने की एक और वजह मिलती है। उस कलीसिया में यूओदिया और सुन्तुखे नाम की दो मसीही बहनों के बीच किसी बात को लेकर अनबन थी और इसकी वजह से पूरी कलीसिया की शांति खतरे में थी। (फिलि. 4:2, 3) सच, अगर आपसी झगड़े सुलझाए न जाएँ, तो यह बात सिर्फ दो लोगों तक न रहकर पूरी कलीसिया में फैल सकती है और इसका असर सब पर हो सकता है। तो अपने भाई-बहनों के साथ मेल मिलाप करने की एक और वजह यह है कि हम कलीसिया के प्रेम और एकता को बरकरार रखना चाहते हैं।

यीशु ने कहा: “खुश हैं वे, जो शांति कायम करते हैं।” (मत्ती 5:9, NW) जी हाँ, सुलह करने से सच्ची खुशी और संतुष्टी मिलती है। यही नहीं, इससे सेहत भी अच्छी बनी रहती है। बाइबल कहती है, “शान्त मन, तन का जीवन है।” (नीति. 14:30) दूसरी तरफ, नाराज़गी पालने से एक इंसान आसानी से बीमारी का शिकार हो सकता है।

हालाँकि ज़्यादातर मसीही यह मानते हैं कि मेल मिलाप करना ज़रूरी है, मगर वे यह समझ नहीं पाते कि आखिर मेल मिलाप किया कैसे जाए। तो आइए, बाइबल के कुछ ऐसे सिद्धांतों पर गौर करें, जो हमें इस मामले में मदद कर सकते हैं।

इतमीनान से बात करने से मेल मिलाप होता है

अकसर छोटी-छोटी दरारें भरकर सड़क ठीक की जाती है। उसी तरह, क्या हम भाइयों की छोटी-मोटी गलतियों को ढाँपकर उन्हें माफ कर सकते हैं? ऐसा करने से ज़्यादातर मामलों में मन-मुटाव दूर किया जा सकता है। जैसा कि प्रेरित पतरस ने लिखा, “प्रेम अनेक पापों को ढांप देता है।”—1 पत. 4:8.

लेकिन कभी-कभी समस्या इतनी बड़ी लगती है कि उसे नज़रअंदाज़ कर देना मुश्‍किल हो सकता है। ध्यान दीजिए कि इस्राएलियों के वादा किए गए देश में कदम रखने के कुछ ही वक्‍त बाद क्या हुआ। “रूबेनी, गादी, और मनश्‍शे के आधे” गोत्रों ने यरदन की तराई के पास पहुँचकर, “देखने के योग्य एक बड़ी वेदी” खड़ी की। इस पर इस्राएल के बाकी गोत्रों ने समझा कि उन्होंने यह वेदी झूठी उपासना के लिए बनायी है। यह बात उन्हें बरदाश्‍त नहीं हुई। और वे उनसे लड़ने के लिए तैयार हो गए।—यहो. 22:9-12.

कुछ इस्राएलियों को शायद लगा हो कि रूबेनी, गादी, और मनश्‍शे के गोत्र यकीनन गुनहगार हैं, इसलिए उन पर अचानक हमला बोल देने में कोई हर्ज़ नहीं। इस तरह, लड़ाई में उनके अपने लोग भी कम मरते। लेकिन जल्दबाज़ी में कदम उठाने के बजाय, उन्होंने पहले अपने भाइयों से बातचीत करने के लिए कुछ आदमी भेजे। इन आदमियों ने उनसे कहा: ‘तुम ने इस्राएल के परमेश्‍वर यहोवा का यह कैसा विश्‍वासघात किया कि आज तुम ने उसके पीछे चलना छोड़ दिया?’ दरअसल इस्राएल के इन गोत्रों ने वेदी खड़ी करके कोई विश्‍वासघात नहीं किया था। तो फिर, यह गलत इलज़ाम सुनकर उन्हें कैसा लगा? क्या वे इलज़ाम लगानेवालों पर बरस पड़े या फिर उनसे बात करना बंद कर दिया? जी नहीं। उन्होंने नरमी से जवाब दिया और बताया कि उन्होंने यह वेदी एक साक्षी के तौर पर बनायी थी, ताकि परमेश्‍वर की उपासना करने का रास्ता उनके और उनकी संतानों के लिए हमेशा खुला रहे। इस तरह नरमी से जवाब देने से परमेश्‍वर के साथ उनका रिश्‍ता बरकरार रहा और कई बेगुनाहों की जान बच गयी। जी हाँ, शांत होकर बात करने से मसला हल हुआ और उनका आपस में मेल मिलाप हो गया।—यहो. 22:13-34.

इस्राएलियों ने गुस्से में आकर कोई कदम उठाने के बजाय बुद्धिमानी से काम लिया। उन्होंने रूबेनी, गादी और मनश्‍शे के आधे गोत्र के लोगों के साथ पहले जाकर बातचीत की। परमेश्‍वर का वचन कहता है: “अपने मन में उतावली से क्रोधित न हो, क्योंकि क्रोध मूर्खों ही के हृदय में रहता है।” (सभो. 7:9) तो बाइबल के मुताबिक किसी भी गंभीर मतभेद को इतमीनान से और खुलकर बातचीत करने के ज़रिए सुलझाया जाना चाहिए। अगर हम ठेस पहुँचानेवाले से सुलह करने के बजाय, मन में नाराज़गी पाले रखें तो क्या हम यहोवा से आशीषों की उम्मीद कर सकते हैं?

दूसरी तरफ, अगर कोई भाई या बहन पहल करके हमसे बात करने आए और शायद कोई ऐसा इलज़ाम लगाए जो सरासर गलत हो, तो हम क्या करेंगे? बाइबल कहती है: “कोमल उत्तर सुनने से जलजलाहट ठण्डी होती है।” (नीति. 15:1) जिन इस्राएली गोत्रों पर इलज़ाम लगाया गया था, उन्होंने बहुत नरमी से पेश आकर अपनी बात साफ-साफ बतायी। इस तरह उन्होंने गुस्से से भड़के हुए अपने इस्राएली भाइयों को शांत किया। किसी मामले को लेकर चाहे हम अपने भाइयों से बात करने की पहल करें या फिर हमारा भाई हमसे बात करने आए, हमें अपने आप से यह पूछना चाहिए, ‘अपने भाई के साथ बात करते वक्‍त मैं किस तरह के शब्दों का इस्तेमाल करूँगा, किस लहज़े में बात करूँगा और मेरे हाव-भाव कैसे होंगे ताकि हमारे बीच सुलह हो जाए?

सोच-समझकर ज़बान का इस्तेमाल कीजिए

हम इंसानों की फितरत है कि जब हमें कोई बात परेशान करती है, तो हम उस बारे में दूसरों को ज़रूर बताते हैं और यहोवा यह बात बखूबी समझता है। इसलिए अगर किसी से अनबन हो जाने पर हम सुलह न करें, तो यह मुमकिन है कि हम उस बारे में दूसरों से ज़िक्र करेंगे। सच, नाराज़गी बनाए रखने का नतीजा यह हो सकता है कि हम दूसरों की बुराई करने लगें। ज़बान के गलत इस्तेमाल के बारे में नीतिवचन 11:11 कहता है, “दुष्टों के मुंह की बात से [नगर] ढाया जाता है।” उसी तरह अगर हम एक मसीही भाई या बहन के बारे में बिना सोचे-समझे बात करें, तो इससे नगर समान कलीसिया की शांति भंग हो सकती है।

तो क्या इसका मतलब यह है कि शांति बनाए रखने के लिए हम अपने भाइयों के बारे में बिलकुल बात ही न करें? यह सच है कि प्रेरित पौलुस ने संगी मसीहियों को सलाह दी थी कि “कोई गन्दी बात तुम्हारे मुंह से न निकले।” लेकिन उसने यह भी कहा था कि “आवश्‍यकता के अनुसार वही [कहो] जो उन्‍नति के लिये उत्तम हो, ताकि उस से सुननेवालों पर अनुग्रह हो। . . . एक दूसरे पर कृपाल, और करुणामय हो, और . . . एक दूसरे के अपराध क्षमा करो।” (इफि. 4:29-32) मान लीजिए कि एक भाई को आपकी बातों या व्यवहार से ठेस पहुँची है और वह इस बारे में आपसे बात करने आता है। अगर उस भाई ने पहले आपके बारे में दूसरों से अच्छी बातें कही हैं, तो क्या आपके लिए उस भाई से माफी माँगकर सुलह कर लेना ज़्यादा आसान नहीं होगा? अगर अपने मसीही भाई-बहनों के बारे में अच्छी बातें कहने की हमारी आदत है, तो मतभेद होने पर हमारे लिए सुलह करना आसान होगा।—लूका 6:31.

“कन्धे से कन्धा” मिलाकर सेवा कीजिए

यह हम इंसानों की कमज़ोरी है कि हम उन लोगों से दूर-दूर रहने लगते हैं, जो हमें ठेस पहुँचाते हैं। लेकिन ऐसा करना बुद्धिमानी नहीं है। (नीति. 18:1) यहोवा की उपासना में एक होने के नाते, हमें ठान लेना चाहिए कि हम ‘कन्धे से कन्धा मिलाकर उसकी सेवा करेंगे।’—सप. 3:9.

दूसरे चाहे हमारे बारे में बुरा-भला कहें या हमारे साथ ठीक से पेश न आएँ, हमें कभी सच्ची उपासना में ढीले नहीं पड़ना चाहिए। अपनी मौत से कुछ दिन पहले यीशु ने शास्त्रियों के बुरे कामों के लिए उनकी निंदा की थी। और जल्द ही उसकी मौत के बाद मंदिर में बलिदान चढ़ाने का इंतज़ाम भी खारिज होनेवाला था। ऐसे में, जब यीशु ने देखा कि एक कंगाल विधवा “अपनी सारी जीविका” उसी मंदिर के भंडार में डाल रही है, तो क्या उसने विधवा को रोकने की कोशिश की? नहीं। इसके बजाय, उसने उस विधवा की तारीफ की क्योंकि वह सच्चे दिल से यहोवा की उपासना को बढ़ावा दे रही थी। (लूका 21:1-4) हालाँकि मंदिर में बहुत-से लोग गलत काम कर रहे थे, लेकिन इससे विधवा को यहोवा की उपासना को बढ़ावा देने के अपने फर्ज़ से छूट नहीं मिली थी।

हमें शायद लगे कि एक मसीही भाई या बहन ने हमारे साथ कुछ बुरा सलूक किया है, यहाँ तक कि नाइंसाफी की है। ऐसे में हम कैसा रवैया दिखाएँगे? क्या हम यहोवा की सेवा में ढीले पड़ जाएँगे? या फिर हम हिम्मत जुटाकर आपसी मतभेद मिटाने की कोशिश करेंगे ताकि परमेश्‍वर की कलीसिया की अनमोल शांति बनी रहे?

बाइबल सलाह देती है: “जहां तक हो सके, तुम अपने भरसक सब मनुष्यों के साथ मेल मिलाप रखो।” (रोमि. 12:18) आइए हम यह ठान लें कि हम सबके साथ मेल मिलाप रखेंगे और ज़िंदगी की राह पर चलते रहेंगे।

[फुटनोट]

^ मत्ती 18:15-17 में दी गयी यीशु की सलाह के बारे में जानने के लिए 15 अक्टूबर, 1999 की प्रहरीदुर्ग के पेज 17-22 देखिए।

[पेज 17 पर तसवीर]

यूओदिया और सुन्तुखे के लिए मेल मिलाप करना ज़रूरी था

[पेज 18 पर तसवीर]

किस तरह के शब्द, बातचीत का अंदाज़ और हाव-भाव शांति कायम करने के लिए मददगार हो सकते हैं?