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क्या आप अपनी प्रार्थनाओं में यीशु की कही बातें लागू करते हैं?

क्या आप अपनी प्रार्थनाओं में यीशु की कही बातें लागू करते हैं?

क्या आप अपनी प्रार्थनाओं में यीशु की कही बातें लागू करते हैं?

“जब यीशु ये बातें कह चुका, तो ऐसा हुआ कि भीड़ उसके उपदेश से चकित हुई।”—मत्ती 7:28.

1, 2. यीशु ने जिस तरह सिखाया उससे लोग दंग क्यों रह गए?

 हमें परमेश्‍वर के इकलौते बेटे यीशु मसीह की सिखायी बातों पर यकीन करना और उन्हें अपनी ज़िंदगी में लागू करना चाहिए। इसमें कोई शक नहीं कि यीशु एक लाजवाब वक्‍ता था। उसने जिस तरह पहाड़ी उपदेश दिया, उससे लोग दंग रह गए थे!—मत्ती 7:28, 29 पढ़िए।

2 यहोवा के बेटे और शास्त्रियों के सिखाने में ज़मीन-आसमान का फर्क था। उस ज़माने के शास्त्री लच्छेदार भाषण तो देते थे, मगर वह इंसानों की शिक्षा पर आधारित होता था। जबकि यीशु “अधिकार के साथ” (बुल्के बाइबिल) उपदेश देता था, क्योंकि उसने वही बातें कहीं, जो उसने परमेश्‍वर से सीखी थीं। (यूह. 12:50) आइए देखें कि यीशु ने पहाड़ी उपदेश में आगे जो बताया, उसका हमारी प्रार्थनाओं पर क्या असर होना चाहिए।

कपटियों की तरह प्रार्थना मत कीजिए

3. मत्ती 6:5 में दर्ज़ यीशु की बातों का निचोड़ दीजिए।

3 प्रार्थना सच्ची उपासना का एक अहम हिस्सा है और हमें यहोवा से हर दिन प्रार्थना करनी चाहिए। लेकिन गौर कीजिए कि यीशु ने पहाड़ी उपदेश में प्रार्थना के बारे में क्या बताया और हम इसे कैसे लागू कर सकते हैं। उसने कहा: “जब तू प्रार्थना करे, तो कपटियों के समान न हो क्योंकि लोगों को दिखाने के लिये सभाओं [“आराधनालयों,” NHT] में और सड़कों की मोड़ों पर खड़े होकर प्रार्थना करना उन को अच्छा लगता है; मैं तुम से सच कहता हूं, कि वे अपना प्रतिफल पा चुके।”मत्ती 6:5.

4-6. (क) फरीसियों को ‘आराधनालयों में और सड़कों की मोड़ों पर खड़े होकर प्रार्थना करना’ क्यों अच्छा लगता था? (ख) ये कपटी किस तरह “अपना प्रतिफल पा चुके”?

4 यीशु के चेलों को उन “कपटियों” यानी फरीसियों की तरह प्रार्थना नहीं करनी थी, जिनकी भक्‍ति महज़ एक ढकोसला थी। (मत्ती 23:13-32) उन कपटियों को “सभाओं में और सड़कों की मोड़ों पर खड़े होकर प्रार्थना करना” अच्छा लगता था। वे सिर्फ “लोगों को दिखाने” के लिए ऐसा करते थे। पहली सदी में यह दस्तूर था कि मंदिर में होमबलि चढ़ाने के समय (सुबह के करीब 9 बजे और दोपहर के 3 बजे) यहूदी एक समूह के तौर पर इकट्ठे होकर प्रार्थना करते थे। यरूशलेम के बहुत-से निवासी मंदिर के अहाते में दूसरे उपासकों के साथ मिलकर प्रार्थना करते थे। दूसरे शहरों में रहनेवाले यहूदी अकसर ‘आराधनालयों में खड़े होकर’ दिन में दो बार प्रार्थना करते थे।—लूका 18:11, 13 से तुलना कीजिए।

5 ज़्यादातर यहूदियों के लिए ऊपर बतायी प्रार्थनाओं के वक्‍त मंदिर या आराधनालय में हाज़िर होना मुमकिन नहीं होता था। इसलिए वे उस समय जहाँ कहीं होते, वहीं खड़े होकर प्रार्थना कर सकते थे। कुछ यहूदी ठीक प्रार्थना के वक्‍त ही “सड़कों की मोड़ों” पर पहुँच जाते थे, जिससे आने-जानेवाले लोग उन्हें प्रार्थना करते ‘देख’ सकें। ये यहूदी “दिखावे के लिए लम्बी-लम्बी प्रार्थनाएँ करते” थे, ताकि दूसरों की नज़र में उनकी इज़्ज़त बढ़ जाए। (लूका 20:47, बुल्के बाइबिल) लेकिन हममें ऐसा रवैया नहीं होना चाहिए।

6 यीशु ने बताया कि ऐसे कपटी लोग “अपना प्रतिफल पा चुके।” उनकी ख्वाहिश पूरी हुई, लोग उन्हें सिर आँखों पर बिठाते और उनकी तारीफ करते नहीं थकते। लेकिन यहोवा से उन्हें कोई प्रतिफल नहीं मिलता, क्योंकि वह उनकी दिखावटी प्रार्थनाओं पर कान नहीं देता। दूसरी तरफ परमेश्‍वर, मसीह के सच्चे चेलों की प्रार्थनाओं का जवाब देता है, जैसा कि यीशु के आगे के शब्दों से पता चलता है।

7. “कोठरी में” जाकर प्रार्थना करने का क्या मतलब है?

7 “परन्तु जब तू प्रार्थना करे, तो अपनी कोठरी में जा; और द्वार बन्द कर के अपने पिता से जो गुप्त में है प्रार्थना कर; और तब तेरा पिता जो गुप्त में देखता है, तुझे प्रतिफल देगा।” (मत्ती 6:6) यीशु की इस सलाह का यह मतलब नहीं था कि एक व्यक्‍ति कलीसिया की तरफ से प्रार्थना नहीं कर सकता। वह तो दरअसल कह रहा था कि एक व्यक्‍ति को इस तरह प्रार्थना नहीं करनी चाहिए, जिससे वह लोगों का ध्यान अपनी तरफ खींचे और वे उसकी तारीफ करें। यह सलाह खास उन्हें याद रखनी चाहिए, जिन्हें सबके सामने परमेश्‍वर के लोगों की तरफ से प्रार्थना करने का सम्मान मिलता है। आइए हम प्रार्थना के सिलसिले में यीशु की आगे बतायी सलाह पर ध्यान दें।

8. मत्ती 6:7 में यीशु ने हमें किस बात से खबरदार किया?

8 ‘जब तुम प्रार्थना करते हो तो विधर्मियों की तरह यूँ ही निरर्थक बातों को बार-बार मत दुहराते रहो। वे तो यह सोचते हैं कि उनके बहुत बोलने से उनकी सुन ली जायेगी।’ (मत्ती 6:7, ईज़ी-टू-रीड वर्शन) इस आयत में यीशु ने हमें प्रार्थना में बातों को बार-बार दोहराने से खबरदार किया। तो क्या इसका मतलब है कि यहोवा को बार-बार अपनी फरियाद सुनाना और उसका धन्यवाद करते रहना गलत है? नहीं, क्योंकि यीशु ने भी अपनी ज़िंदगी की आखिरी रात प्रार्थना में “वही बात” बार-बार दोहरायी, जो उसे खाए जा रही थी।—मर. 14:32-39.

9, 10. प्रार्थना में बातों को दोहराना कब गलत होता है?

9 दरअसल हमें “विधर्मियों” की तरह रटी-रटायी प्रार्थनाओं को ‘बार-बार दुहराते’ नहीं रहना चाहिए। उनकी प्रार्थनाओं में बहुत सारे शब्द तो होते हैं, लेकिन वे दिल से नहीं निकलते। एक बार बाल देवता के उपासक “भोर से लेकर दोपहर तक यह कहकर बाल से प्रार्थना करते रहे, कि हे बाल हमारी सुन, हे बाल हमारी सुन!” लेकिन उनकी प्रार्थनाएँ नहीं सुनी गयीं। (1 राजा 18:26) आज लाखों लोग लंबी-चौड़ी प्रार्थनाएँ बार-बार दोहराते हैं। वे सोचते हैं कि ‘उनके बहुत बोलने से उनकी सुन ली जायेगी।’ लेकिन यीशु हमें यह समझने में मदद देता है कि यहोवा की नज़र में ऐसी प्रार्थनाओं का कोई मोल नहीं। उसने आगे कहा:

10 “सो तुम उन की नाईं न बनो, क्योंकि तुम्हारा पिता तुम्हारे मांगने से पहिले ही जानता है, कि तुम्हारी क्या क्या आवश्‍यकता है।” (मत्ती 6:8) बहुत-से यहूदी धर्म-गुरु, विधर्मियों की तरह अपनी प्रार्थनाओं में ढेर सारे शब्दों का इस्तेमाल करते थे। दिल से की जानेवाली प्रार्थना सच्ची उपासना का एक हिस्सा है और इसमें यहोवा की स्तुति करना, उसे धन्यवाद देना और उससे बिनती करना शामिल है। (फिलि 4:6) लेकिन बातों को दोहराना तब गलत होता है, जब हम यह सोचकर प्रार्थना करते हैं कि परमेश्‍वर को हमारी ज़रूरतों का ध्यान नहीं और उनके बारे में उसे बार-बार याद दिलाया जाना ज़रूरी है। प्रार्थना करते समय हमें याद रखना चाहिए कि हम उस शख्स से बात कर रहे हैं, जो ‘हमारे माँगने से पहले ही जानता है कि हमारी क्या क्या आवश्‍यकता है।’

11. अगर हमें लोगों के सामने प्रार्थना करने का मौका मिलता है, तो हमें क्या याद रखना चाहिए?

11 यीशु की इन बातों से साफ पता चलता है कि प्रार्थना में बड़े-बड़े शब्दों और लच्छेदार भाषा का इस्तेमाल करके हम परमेश्‍वर को प्रभावित नहीं कर सकते। हमें यह भी याद रखना चाहिए कि अगर हमें लोगों के सामने प्रार्थना करने का मौका मिलता है, तो हम उन पर धाक जमाने की कोशिश न करें। ना ही हमारी प्रार्थना इतनी लंबी हो कि लोग सोचने लगें कि कब यह प्रार्थना खत्म होगी। प्रार्थना में किसी तरह की घोषणा करना या हाज़िर लोगों को सलाह देना मुनासिब नहीं। ऐसा करके हम यीशु की बातों के मुताबिक काम नहीं कर रहे होंगे।

यीशु हमें प्रार्थना करना सिखाता है

12. “तेरा नाम पवित्र माना जाए,” इस बिनती का क्या मतलब है?

12 हालाँकि यीशु ने प्रार्थना के सुअवसर का गलत इस्तेमाल करने से आगाह किया, मगर अपने चेलों को प्रार्थना करने का सही तरीका भी सिखाया। (मत्ती 6:9-13 पढ़िए।) उसने जो आदर्श प्रार्थना सिखायी, उसे उन्हें मुँहज़बानी याद करके रटते नहीं रहना था। यह प्रार्थना तो बस एक नमूना थी। गौर कीजिए कि यीशु ने सबसे पहले क्या बिनती की: “हे हमारे पिता, तू जो स्वर्ग में है; तेरा नाम पवित्र माना जाए।” (मत्ती 6:9) हम यहोवा को इसलिए “हमारे पिता” कहते हैं, क्योंकि वह “स्वर्ग में” रहनेवाला हमारा सिरजनहार है। (व्यव. 32:6; 2 इति. 6:21; प्रेरि. 17:24, 28) यहाँ बहुवचन शब्द “हमारे” से पता चलता है कि हमारे मसीही भाई-बहनों का भी परमेश्‍वर के साथ एक करीबी रिश्‍ता है। “तेरा नाम पवित्र माना जाए,” यह कहकर हम यहोवा से बिनती करते हैं कि अदन में हुई बगावत से लेकर अब तक उसके नाम पर जो कलंक लगा है, उसे मिटाने के लिए वह कदम उठाए। इस बिनती के जवाब में यहोवा धरती पर से बुराई का सफाया कर डालेगा और इस तरह अपना नाम पवित्र करेगा।—यहे. 36:23.

13. (क) “तेरा राज्य आए,” यह बिनती कैसे पूरी होगी? (ख) धरती पर परमेश्‍वर की इच्छा पूरी होने का क्या मतलब है?

13 “तेरा राज्य आए; तेरी इच्छा जैसी स्वर्ग में पूरी होती है, वैसे पृथ्वी पर भी हो।” (मत्ती 6:10) हमें याद रखना चाहिए कि यह “राज्य” मसीहाई राज है, जो स्वर्ग में है और जिसकी बागडोर यीशु मसीह और पुनरुत्थान पाए ‘पवित्र लोगों’ के हाथ में है। (दानि. 7:13, 14, 18; यशा. 9:6, 7) इस राज्य के ‘आने’ की बिनती करने का मतलब है कि हम चाहते हैं कि यह राज्य उन सभी के खिलाफ कार्रवाई करे, जो परमेश्‍वर की हुकूमत के दुश्‍मन हैं। परमेश्‍वर बहुत जल्द ऐसा करेगा और तब पूरी धरती एक फिरदौस बन जाएगी जहाँ अच्छाई, शांति और खुशहाली का बोलबाला होगा। (भज. 72:1-15; दानि. 2:44; 2 पत. 3:13) आज यहोवा की इच्छा स्वर्ग में पूरी हो रही है। उसकी इच्छा धरती पर भी पूरी हो, यह कहकर हम परमेश्‍वर से बिनती करते हैं कि वह धरती के लिए अपना मकसद पूरा करे। इसमें परमेश्‍वर के दुश्‍मनों का खात्मा करना शामिल है, ठीक जैसा प्राचीन समय में उसने किया था।—भजन 83:1, 2, 13-18 पढ़िए।

14. “हमारी दिन भर की रोटी” के लिए प्रार्थना करना क्यों सही है?

14 “हमारी दिन भर की रोटी आज हमें दे।” (मत्ती 6:11; लूका 11:3) इस बिनती में हम यहोवा से बहुतायत में भोजन की माँग नहीं करते, बल्कि “दिन भर” के लिए जितना ज़रूरी है उतने की ही गुज़ारिश करते हैं। इस तरह हम दिखाते हैं कि हमें यहोवा पर पूरा भरोसा है कि वह हमारे हर दिन की ज़रूरत पूरी कर सकता है। इस बिनती से हमें वह वाकया याद आता है, जब परमेश्‍वर ने इसराएलियों को “प्रतिदिन” के हिसाब से मन्‍ना इकट्ठा करने की आज्ञा दी थी।—निर्ग. 16:4.

15. यहोवा से माफी पाने के लिए हमें क्या करना चाहिए?

15 अगली बिनती इस बात की ओर हमारा ध्यान खींचती है कि हमें भी कुछ करने की ज़रूरत है। यीशु ने कहा: “जिस प्रकार हम ने अपने अपराधियों को क्षमा किया है, वैसे ही तू भी हमारे अपराधों को क्षमा कर।” (मत्ती 6:12) हम यहोवा से तभी माफी की उम्मीद कर सकते हैं, जब हमने अपने खिलाफ अपराध करनेवालों को “क्षमा किया” हो। (मत्ती 6:14, 15 पढ़िए।) इसलिए दिल खोलकर दूसरों को माफ करना बेहद ज़रूरी है।—इफि. 4:32; कुलु. 3:13.

16. “हमें परीक्षा में न ला” और “उस दुष्ट से बचा,” इन बिनतियों का क्या मतलब है?

16 “हमें परीक्षा में न ला परन्तु उस दुष्ट से बचा।” (मत्ती 6:13, NHT, फुटनोट) “हमें परीक्षा में न ला” और “उस दुष्ट से बचा,” इन बिनतियों का क्या मतलब है? सबसे पहले हम इस बात का पक्का यकीन रख सकते हैं कि यहोवा हमसे पाप करवाने के लिए हमें परीक्षा में नहीं डालता। (याकूब 1:13 पढ़िए।) असली ‘परखनेवाला’ तो वह “दुष्ट” शैतान है। (मत्ती 4:3) हालाँकि बाइबल में कई जगह कहा गया है कि यहोवा ने फलाँ-फलाँ काम किया। लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि यहोवा उसके लिए ज़िम्मेदार है। उसने तो सिर्फ ऐसा होने की इजाज़त दी थी। (रूत 1:20, 21; सभो. 11:5) इसलिए “हमें परीक्षा में न ला” कहकर हम दरअसल यहोवा से गुज़ारिश कर रहे हैं कि जब हमें उसकी आज्ञा तोड़ने के लिए बहकाया जाता है, तो वह हमें गिरने न दे। “हमें उस दुष्ट से बचा,” इस आखिरी बिनती के ज़रिए हम यहोवा से प्रार्थना करते हैं कि वह हमें शैतान के जाल में फँसने न दे। हम इस बात का भरोसा रख सकते हैं कि ‘परमेश्‍वर हमें ऐसी परीक्षा में पड़ने नहीं देगा,’ जो हमारी “सामर्थ से बाहर” हो।—1 कुरिन्थियों 10:13 पढ़िए।

मांगते, ढूँढ़ते, खटखटाते रहो’

17, 18. ‘माँगते, ढूँढ़ते और खटखटाते रहने’ का क्या मतलब है?

17 प्रेरित पौलुस ने संगी विश्‍वासियों को बढ़ावा दिया: “प्रार्थना में नित्य लगे रहो।” (रोमि. 12:12) यीशु ने भी कुछ ऐसी ही सलाह दी थी। उसने कहा: “मांगो, तो तुम्हें दिया जाएगा; ढ़ूंढ़ो, तो तुम पाओगे; खटखटाओ, तो तुम्हारे लिये खोला जाएगा। क्योंकि जो कोई मांगता है, उसे मिलता है; और जो ढ़ूंढ़ता है, वह पाता है। और जो खटखटाता है, उसके लिये खोला जाएगा।” (मत्ती 7:7, 8) परमेश्‍वर से कोई भी चीज़ ‘माँगते रहना’ गलत नहीं, बशर्ते वह उसकी मरज़ी के मुताबिक हो। यीशु के इन्हीं शब्दों को ध्यान में रखकर प्रेरित यूहन्‍ना ने लिखा: “हमें उसके साम्हने जो हियाव होता है, वह यह है; कि यदि हम उस की इच्छा के अनुसार कुछ मांगते हैं, तो वह हमारी सुनता है।”—1 यूह. 5:14.

18 ‘माँगते और ढूँढ़ते रहो’ से यीशु का मतलब था कि हमें सच्चे दिल से प्रार्थना करते रहना चाहिए, तब भी जब हमें लगे कि हमारी प्रार्थनाओं का जवाब नहीं मिल रहा है। इसके अलावा हमें ‘खटखटाते’ भी रहना चाहिए, ताकि परमेश्‍वर के राज का दरवाज़ा खोला जाए और हम उसमें राजा या प्रजा के तौर पर दाखिल होकर उसकी आशीषें पा सकें। अगर हम यहोवा के वफादार रहें, तो हम पूरा भरोसा रख सकते हैं कि वह हमारी प्रार्थनाओं का जवाब ज़रूर देगा। क्योंकि यीशु ने कहा था: “जो कोई मांगता है, उसे मिलता है; और जो ढ़ूंढ़ता है, वह पाता है। और जो खटखटाता है, उसके लिये खोला जाएगा।” यहोवा के सेवकों के साथ हुए कई अनुभव साबित करते हैं कि परमेश्‍वर ‘प्रार्थना का सुननेवाला’ है।—भज. 65:2.

19, 20. मत्ती 7:9-11 के मुताबिक यहोवा कैसे एक प्यार करनेवाले पिता की तरह है?

19 यीशु ने परमेश्‍वर की तुलना एक प्यार करनेवाले पिता से की जो अपने बच्चों को अच्छी-अच्छी चीज़ें देता है। कल्पना कीजिए कि आप पहाड़ी उपदेश के वक्‍त वहाँ मौजूद हैं और यीशु की ये बातें सुन रहे हैं: “तुम में से ऐसा कौन मनुष्य है, कि यदि उसका पुत्र उस से रोटी मांगे, तो वह उसे पत्थर दे? वा मछली मांगे, तो उसे सांप दे? सो जब तुम बुरे होकर, अपने बच्चों को अच्छी वस्तुएं देना जानते हो, तो तुम्हारा स्वर्गीय पिता अपने मांगनेवालों को अच्छी वस्तुएं क्यों न देगा?”मत्ती 7:9-11.

20 भले ही एक पिता विरासत में मिले पाप की वजह से ‘बुरा’ हो, लेकिन वह अपने बच्चों पर जान छिड़कता है। वह अपने बच्चों को “अच्छी वस्तुएं” देने का सिर्फ खोखला वादा नहीं करता, बल्कि उन्हें वह चीज़ें देने की पूरी-पूरी कोशिश करता है। यहोवा भी एक प्यार करनेवाले पिता की तरह हमें “अच्छी वस्तुएं” देता है। उनमें से एक है, उसकी पवित्र शक्‍ति। (लूका 11:13) इसकी बदौलत हम अपनी सेवा से ‘हर एक अच्छे वरदान और हर एक उत्तम दान’ के दाता, यहोवा को खुश कर सकते हैं।—याकू. 1:17.

यीशु की बातों से फायदा लेते रहिए

21, 22. पहाड़ी उपदेश के बारे में क्या बात गौरतलब है? यीशु की कही बातों के बारे में आप कैसा महसूस करते हैं?

21 पहाड़ी उपदेश अब तक का सबसे लाजवाब भाषण है। इसमें यीशु ने हमें परमेश्‍वर और दूसरी बातों के बारे में बहुत ही साफ और सरल तरीके से सिखाया और जैसा कि हमने इन लेखों में देखा, पहाड़ी उपदेश में दी सलाह को मानने से हमें बड़ा फायदा हो सकता है। इससे हम आज अपनी ज़िंदगी बेहतर बना सकते हैं और एक खुशहाल भविष्य की आस भी लगा सकते हैं।

22 इन लेखों में, हमने पहाड़ी उपदेश के चंद अनमोल रत्नों के बारे में चर्चा की। इसमें कोई ताज्जुब नहीं कि यीशु के सुननेवाले “उसके उपदेश से चकित” थे। (मत्ती 7:28) हम पर भी यही असर होगा, अगर हम महान शिक्षक यीशु के पहाड़ी उपदेश को और उसकी कही दूसरी बातों को अपने दिलो-दिमाग में उतारेंगे।

आप क्या जवाब देंगे?

• यीशु ने दिखावे के लिए की जानेवाली प्रार्थनाओं के बारे में क्या कहा?

• प्रार्थना करते वक्‍त हमें क्यों बार-बार शब्दों को नहीं दोहराना चाहिए?

• यीशु ने आदर्श प्रार्थना में किन बातों के लिए बिनती की?

• हम किस तरह ‘माँगते, ढूँढ़ते और खटखटाते’ रह सकते हैं?

[अध्ययन के लिए सवाल]

[पेज 15 पर तसवीर]

यीशु ने उन कपटियों को फटकारा जो सिर्फ दूसरों को दिखाने-सुनाने के लिए प्रार्थना करते थे

[पेज 17 पर तसवीर]

क्या आप जानते हैं कि अपनी दिन भर की रोटी के लिए प्रार्थना करना क्यों सही है?