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मसीहियों की अंत्येष्टि—जिससे गरिमा और सादगी झलके और जो परमेश्‍वर को भाए

मसीहियों की अंत्येष्टि—जिससे गरिमा और सादगी झलके और जो परमेश्‍वर को भाए

मसीहियों की अंत्येष्टि—जिससे गरिमा और सादगी झलके और जो परमेश्‍वर को भाए

पूरा माहौल रोने की आवाज़ों से गूँज रहा है। काले रंग के कपड़े पहने हुए मातम मनानेवाले, ज़मीन पर माथा पटक-पटककर और छाती पीट-पीटकर कलप रहे हैं। नाचनेवाले संगीत की ताल पर झूम-झूमकर नाच रहे हैं। दूसरी तरफ लोग खूब खा-पीकर और ठहाके लगा-लगाकर जश्‍न मना रहे हैं। कुछ लोग तो ताड़ी और बियर के नशे में मदमस्त पड़े हैं। आखिर हम किस मौके की बात कर रहे हैं? दुनिया के कुछ देशों में अकसर अंत्येष्टि के मौके पर ऐसा नज़ारा देखा जाता है, जब सैंकड़ों लोग जमा होकर अपने मरे हुए अज़ीज़ को अलविदा कहते हैं।

बहुत-से यहोवा के साक्षी ऐसे समाज में रहते हैं, जहाँ उनके नाते-रिश्‍तेदार और पड़ोसी बड़े अंधविश्‍वासी होते हैं और मौत से बहुत डरते हैं। लाखों लोगों का मानना है कि मरने पर एक इंसान की आत्मा पूर्वजों की आत्मा के पास चली जाती है। फिर उसमें ज़िंदा लोगों की मदद करने या उन्हें नुकसान पहुँचाने की ताकत आ जाती है। यही वजह है कि कई लोग मरहूम व्यक्‍ति के नाम पर तरह-तरह के रीति-रिवाज़ मनाते हैं। बेशक, किसी की मौत पर रोना लाज़िमी है। यीशु और उसके चेलों ने भी अपने अज़ीज़ों की मौत पर आँसू बहाए थे। (यूह. 11:33-35, 38; प्रेरि. 8:2; 9:39) लेकिन उन्होंने कभी-भी अपने ज़माने के लोगों की तरह बेकाबू होकर मातम नहीं मनाया। (लूका 23:27, 28; 1 थिस्स. 4:13) क्यों? एक वजह यह थी कि उन्हें अच्छी तरह मालूम था कि मरने पर इंसान का क्या होता है।

इस बारे में बाइबल साफ बताती है: “जीवते तो इतना जानते हैं कि वे मरेंगे, परन्तु मरे हुए कुछ भी नहीं जानते, . . . उनका प्रेम और उनका बैर और उनकी डाह नाश हो चुकी, . . . अधोलोक [इंसान की कब्र] में जहां तू जानेवाला है, न काम न युक्‍ति न ज्ञान और न बुद्धि है।” (सभो. 9:5, 6, 10) परमेश्‍वर की प्रेरणा से लिखे ये वचन साफ दिखाते हैं कि जब इंसान मर जाता है, तो उसे किसी बात का होश नहीं रहता। उसके सोचने-समझने, बोलने और महसूस करने की ताकत खत्म हो जाती है। यह अहम सच्चाई जानने के बाद मसीहियों को अंत्येष्टि कार्यक्रम कैसे चलाना चाहिए?

“अशुद्ध वस्तु को मत छूओ”

यहोवा के साक्षी चाहे किसी भी संस्कृति या जाति से हों, वे ऐसे हर रिवाज़ से दूर रहते हैं, जो इस विश्‍वास को बढ़ावा देता है कि मरे हुए किसी-न-किसी रूप में ज़िंदा हैं और जीवित लोगों की मदद कर सकते हैं या उन्हें नुकसान पहुँचा सकते हैं। शव के पास पूरी-पूरी रात जागना, अंत्येष्टि के बाद जश्‍न मनाना, बरसी मनाना, मरे हुओं के लिए भेंट चढ़ाना, विधवा या विधुर होने की रस्म निभाना, वगैरह, ये सारे रिवाज़ अशुद्ध हैं और परमेश्‍वर को नाखुश करते हैं। क्योंकि इन रिवाज़ों का ताल्लुक दुष्ट स्वर्गदूतों की इस झूठी शिक्षा से है कि आत्मा अमर है। सच्चे मसीही “प्रभु के कटोरे, और दुष्टात्माओं के कटोरे दोनों में से नहीं पी सकते!” इसलिए वे ऐसे रीति-रिवाज़ों में हिस्सा नहीं लेते। (1 कुरि. 10:21) वे इस आज्ञा को मानते हैं: “अलग रहो; और अशुद्ध वस्तु को मत छूओ।” (2 कुरि. 6:17) लेकिन ऐसा करना हमेशा आसान नहीं होता।

अफ्रीका और दूसरी जगहों में कई लोग विश्‍वास करते हैं कि एक इंसान की मौत पर अगर कुछ तरह की रस्में नहीं निभायी गयीं, तो पूर्वजों की आत्माएँ भड़क सकती हैं। वे मानते हैं कि इन रिवाज़ों पर न चलना एक गंभीर पाप है और इससे पूरा समाज शापित होगा या कोई मुसीबत आन पड़ेगी। इसलिए जब यहोवा के साक्षियों ने इन रीति-रिवाज़ों में हिस्सा लेने से इनकार कर दिया, तो गाँववालों और रिश्‍तेदारों ने उनकी कड़ी निंदा की, उन्हें ज़लील किया और उनके साथ सारे रिश्‍ते-नाते तोड़ दिए। कुछ साक्षियों पर समाज के दुश्‍मन होने का, साथ ही मरे हुओं का अपमान करने का इलज़ाम भी लगाया गया है। कभी-कभी तो अविश्‍वासी लोगों ने मसीहियों के अंत्येष्टि कार्यक्रम में जबरन घुसकर उसे अपने तरीके से मनाने की कोशिश की। ऐसा हमारे साथ न हो, इसके लिए हम क्या कर सकते हैं? इससे भी अहम बात यह है कि हम ऐसे अशुद्ध रीति-रिवाज़ों से अपने आपको कैसे अलग रख सकते हैं, ताकि यहोवा के साथ हमारा रिश्‍ता खराब न हो?

अपना फैसला साफ-साफ बताना

कुछ देशों में यह रिवाज़ आम है कि जिस परिवार में मौत होती है, उसके नाते-रिश्‍तेदार और कबीले के बड़े-बूढ़े यह फैसला करते हैं कि मरहूम व्यक्‍ति को कैसे दफनाया जाएगा। इसलिए एक वफादार मसीही को चाहिए कि वह अपने नाते-रिश्‍तेदारों को पहले ही साफ-साफ बता दे कि अंत्येष्टि कार्यक्रम बाइबल के उसूलों के मुताबिक होगा और इसे यहोवा के साक्षी चलाएँगे। (2 कुरि. 6:14-16) कार्यक्रम के दौरान ऐसा कुछ नहीं होना चाहिए जिससे संगी विश्‍वासियों के विवेक को ठेस पहुँचे या ऐसे लोग ठोकर खाएँ, जो हालाँकि सच्चाई में नहीं हैं, मगर हमारे विश्‍वासों और शिक्षाओं से अच्छी तरह वाकिफ हैं।

जब मसीही कलीसिया के किसी प्राचीन को अंत्येष्टि कार्यक्रम चलाने के लिए कहा जाता है, तो प्राचीन अंत्येष्टि से जुड़े बाइबल सिद्धांत समझने में शोक करनेवालों की मदद कर सकते हैं और उन्हें कारगर सुझाव दे सकते हैं। इससे फायदा यह होगा कि सारा इंतज़ाम परमेश्‍वर की इच्छा के मुताबिक होगा। अगर कोई अविश्‍वासी रिश्‍तेदार अपने अशुद्ध रीति-रिवाज़ मनाने की बात कहे, तो निडरता से मगर प्यार और आदर के साथ, उसे अपने मसीही विश्‍वासों के बारे में समझाइए। (1 पत. 3:15) अगर इसके बाद भी वह अपनी ज़िद पर अड़ा रहे, तब क्या? तब साक्षी परिवार वहाँ से चले जाने का फैसला कर सकता है। (1 कुरि. 10:20) ऐसे में राज्य घर या दूसरी मुनासिब जगह पर एक छोटा-सा अंत्येष्टि भाषण रखा जा सकता है, ताकि साक्षी परिवार को ‘पवित्र शास्त्र से शान्ति’ या सांत्वना दी जा सके। (रोमि. 15:4) हालाँकि वहाँ मृत व्यक्‍ति का शव मौजूद नहीं होगा, मगर यह इंतज़ाम मौके की गरिमा बढ़ाएगा और इस पर परमेश्‍वर की मंज़ूरी होगी। (व्यव. 34:5, 6, 8) यह सच है कि अंत्येष्टि कार्यक्रम में अविश्‍वासियों की दखलअंदाज़ी की वजह से दुख और तनाव और भी बढ़ सकता है। लेकिन हमें इस बात से तसल्ली मिलती है कि परमेश्‍वर सही काम करने के हमारे अटल इरादे को देख रहा है और वह हमें हर तकलीफ सहने की “असीम सामर्थ” दे सकता है।—2 कुरि. 4:7.

अपना फैसला लिखकर दें

जब एक इंसान अपनी अंत्येष्टि के मामले में सारी हिदायतें लिख देता है, तब परिवार के अविश्‍वासी सदस्यों को समझाना आसान हो जाता है, क्योंकि मुमकिन है कि वे मृत व्यक्‍ति की इच्छा का आदर करें। अंत्येष्टि कार्यक्रम कहाँ और कैसे चलाया जाना चाहिए और यह कार्यक्रम चलाने का अधिकार किसे दिया जाना चाहिए, यह सब साफ-साफ लिखना बहुत ज़रूरी है। (उत्प. 50:5) अच्छा होगा अगर इन बातों को एक कागज़ पर लिख लिया जाए और गवाहों के सामने उस पर हस्ताक्षर किए जाएँ। जो लोग समझ और बुद्धि से काम लेते हैं और बाइबल सिद्धांतों को ध्यान में रखकर दूर की सोचते हैं, वे ये हिदायतें लिखने के लिए बुढ़ापे या फिर गंभीर तौर पर बीमार होने का इंतज़ार नहीं करेंगे।—नीति. 22:3; सभो. 9:12.

अपनी अंत्येष्टि के बारे में हिदायतें लिखना कुछ लोगों को शायद अजीब लगे। लेकिन ऐसा करना मसीही प्रौढ़ता की निशानी है और दूसरों के लिए प्यार और परवाह दिखाना है। (फिलि. 2:4) एक इंसान के मरने पर परिवार के सदस्य वैसे ही बहुत दुखी होते हैं, ऊपर से उन पर ऐसे रीति-रिवाज़ मनाने का दबाव आ सकता है, जिनमें उस मरहूम व्यक्‍ति ने न तो कभी विश्‍वास किया था, ना ही उसे मंज़ूर था। इसलिए बाद में परिवार को इस तरह मुश्‍किल में छोड़कर जाने से बेहतर होगा कि पहले से ही खुद इस मामले को सुलझा दें।

अंत्येष्टि को सादा रखिए

अफ्रीका के कई हिस्सों में यह धारणा आम है कि अंत्येष्टि कार्यक्रम धूमधाम और ज़ोर-शोर से मनाया जाना चाहिए, ताकि पूर्वजों की आत्माएँ नाराज़ न हों। कुछ लोगों को ऐसे समय पर अपनी “जीविका का घमण्ड” यानी समाज में अपनी हैसियत और धन-दौलत का दिखावा करने का मौका मिलता है। (1 यूह. 2:16) लोग अपने मरे हुओं को “सही ढंग” से विदा करने के लिए उनकी अंत्येष्टि पर बहुत समय, पैसा और ताकत खर्च करते हैं। अंत्येष्टि पर ज़्यादा-से-ज़्यादा लोग आएँ, इसके लिए अलग-अलग जगहों पर मरहूम व्यक्‍ति के बड़े-बड़े पोस्टर लगाए जाते हैं। टी-शर्ट पर उसकी तसवीर छपवाकर मातम मनानेवालों को पहनने के लिए दी जाती है। महँगे और शानदार कॉफिन खरीदे जाते हैं, ताकि लोग देखते रह जाएँ। अफ्रीका के एक देश में कुछ लोग कार, हवाई-जहाज़, नाव या दूसरी चीज़ों के आकार में कॉफिन बनवाते हैं और इस तरह अपना पैसा, रुतबा और शानो-शौकत दूसरों पर ज़ाहिर करते हैं। लोगों को दिखाने के लिए शव को कॉफिन से निकालकर सजे हुए बिस्तर पर लिटाया जाता है। मृत स्त्री को शादी का सफेद जोड़ा पहनाया जाता है। यहाँ तक कि उसे सिर से पाँव तक गहनों से सजाया जाता है। क्या परमेश्‍वर के लोगों को इस तरह के रिवाज़ो में हिस्सा लेना शोभा देगा?

प्रौढ़ मसीही ऐसे लोगों की देखा-देखी करने से दूर रहते हैं, जो न तो परमेश्‍वर के सिद्धांतों को जानते हैं, ना ही उनकी कदर करते हैं। हम अच्छी तरह जानते हैं कि ऐसे रीति-रिवाज़, जिनमें दिखावे पर ज़्यादा ज़ोर दिया जाता है और जो बाइबल से मेल नहीं खाते, ‘परमेश्‍वर की ओर से नहीं, परन्तु मिटनेवाले संसार ही की ओर से हैं।’ (1 यूह. 2:15-17) इसलिए हमें बहुत सावधानी बरतनी चाहिए कि दूसरों से बेहतर करने के चक्कर में कहीं ऐसा न हो कि हम गैर-मसीहियों की तरह होड़ लगाने लगें। (गल. 5:26) अनुभव दिखाते हैं कि जिस संस्कृति और समाज में मरे हुओं का डर समाया हो, वहाँ अकसर अंत्येष्टि समारोह बहुत बड़ा होता है। ऐसे समारोह पर निगरानी रखना मुश्‍किल हो जाता है और देखते-ही-देखते ये काबू से बाहर हो जाते हैं। मरे हुओं का आदर-सम्मान करने में अविश्‍वासी इस कदर अपनी भावनाओं में बह जाते हैं कि वे बड़ी आसानी से अशुद्ध काम कर बैठते हैं। इस तरह की अंत्येष्टि पर ज़ोर-ज़ोर से रोना-धोना, शव को गले लगाना, उससे इस तरह बातें करना मानो वह ज़िंदा हो और उसके शरीर पर पैसा या कुछ और चीज़ें रखना आम होता है। अगर किसी मसीही की अंत्येष्टि पर ऐसा हो, तो यहोवा के नाम और उसके लोगों की कितनी बदनामी होगी।—1 पत. 1:14-16.

हम मरे हुओं की असली दशा से वाकिफ हैं। इससे हमें हिम्मत मिलती है कि हम इस तरह के अंत्येष्टि कार्यक्रम चलाएँ, जिनमें झूठे रीति-रिवाज़ शामिल न हों। (इफि. 4:17-19) यीशु इस धरती पर जीनेवाला सबसे महान और सबसे खास इंसान था। इसके बावजूद उसे सीधे-सादे तरीके से और बिना किसी तड़क-भड़क और गाजे-बाजे के साथ दफनाया गया। (यूह. 19:40-42) जिनमें “मसीह का मन” होता है, वे इस तरह की सीधी-सादी अंत्येष्टि में कोई अपमान नहीं देखते, बल्कि इसे आदर के योग्य समझते हैं। (1 कुरि. 2:16) इसमें कोई शक नहीं कि मसीही अंत्येष्टि में अशुद्ध कामों से बचने का सबसे बेहतरीन तरीका है, उसे सादा रखना। इससे माहौल भी शांत बना रहता है, जिससे गरिमा झलकती है और परमेश्‍वर से प्यार करनेवालों के विवेक को किसी तरह से ठेस भी नहीं पहुँचती।

क्या खुशियाँ मनायी जानी चाहिए?

कुछ जगहों पर यह रिवाज़ है कि अंत्येष्टि के बाद, बड़ी तादाद में नाते-रिश्‍तेदार और आस-पड़ोस के लोग इकट्ठे होकर खाते-पीते हैं और तेज़ संगीत की धुन पर झूमते-नाचते हैं। इस तरह के जश्‍न में अकसर खूब शराब पी जाती है और अनैतिक काम भी किए जाते हैं। कुछ लोग यह तर्क करते हैं कि इस तरह की मौज-मस्ती से वे अपना गम भुला पाते हैं। कुछ औरों को लगता है कि यह तो उनकी संस्कृति का एक हिस्सा है। और कई लोग मानते हैं कि इस तरह की रंगरलियाँ मनाना ज़रूरी है, क्योंकि इससे मरे हुए व्यक्‍ति का आदर होता है और सिर्फ ऐसा करने से ही उसकी आत्मा मुक्‍ति पाकर अपने पूर्वजों से जा मिलती है।

सच्चे मसीही बाइबल की इस सलाह को मानना बुद्धिमानी समझते हैं: “हंसी से खेद उत्तम है, क्योंकि मुंह पर के शोक से मन सुधरता है।” (सभो. 7:3) इसके अलावा, वे जानते हैं कि अपनी छोटी-सी ज़िंदगी और पुनरुत्थान की आशा पर मनन करना कितना फायदेमंद है। बेशक जिनका परमेश्‍वर के साथ मज़बूत रिश्‍ता है, वे “मृत्यु का दिन जन्म के दिन से उत्तम” समझते हैं। (सभो. 7:1) आखिर सच्चे मसीही जानते हैं कि अंत्येष्टि के बाद होनेवाले जश्‍न का ताल्लुक आत्मा की झूठी शिक्षा से है और इनमें अनैतिक काम भी होते हैं। इसलिए उनके लिए ऐसे जश्‍न का इंतज़ाम करना तो दूर, उसमें हाज़िर होना भी नागवार है। ऐसे मौकों पर मौज-मस्ती करनेवालों की संगति करने से परमेश्‍वर का अनादर होता है, साथ ही इससे हमारे मसीही भाई-बहनों के विवेक को भी ठेस पहुँचती है।

दूसरों को फर्क देखने दीजिए

सच्चाई न जाननेवालों के दिल में मरे हुओं का खौफ समाया है, लेकिन हमें कितना खुश होना चाहिए कि हम ऐसे खौफ से आज़ाद हैं। (यूह. 8:32) “ज्योति की सन्तान” होने के नाते हम पुनरुत्थान की आशा पर यकीन करते हुए पूरी गरिमा और सादगी के साथ अपना दुख ज़ाहिर करते हैं। (इफि. 5:8; यूह. 5:28, 29) हमारी पक्की आशा हमें उन लोगों की तरह बेकाबू होकर रोने-धोने या शोक मनाने से दूर रखेगी, जिनके पास कोई “आशा नहीं” है। (1 थिस्स. 4:13) यह आशा हमें इंसानों से डरने के बजाय सच्ची उपासना के लिए मज़बूती से खड़े होने की हिम्मत देगी।—1 पत. 3:13, 14.

अगर हम हर हाल में बाइबल के सिद्धांतों पर डटे रहें, तो लोग ‘परमेश्‍वर की सेवा करनेवालों और उसकी सेवा न करनेवालों’ के बीच “भेद” कर सकेंगे। (मला. 3:18) एक वक्‍त आएगा जब मौत का नामो-निशान मिट जाएगा। (प्रका. 21:4) हम इस शानदार वादे को सच होते देखने का इंतज़ार कर रहे हैं। लेकिन तब तक ऐसा हो कि हम इस दुष्ट संसार से और परमेश्‍वर का अनादर करनेवाले रीति-रिवाज़ों से खुद को पूरी तरह अलग रखें और यहोवा की नज़रों में निष्कलंक और बेदाग बने रहें।—2 पत. 3:14.

[पेज 30 पर तसवीर]

अपनी अंत्येष्टि के बारे में सारी हिदायतें लिखकर रखना बुद्धिमानी है

[पेज 31 पर तसवीर]

मसीहियों के अंत्येष्टि कार्यक्रम से सादगी और गरिमा झलकनी चाहिए