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यीशु की बातें कैसे हमारी खुशी बढ़ाती हैं

यीशु की बातें कैसे हमारी खुशी बढ़ाती हैं

यीशु की बातें कैसे हमारी खुशी बढ़ाती हैं

‘यीशु पहाड़ पर चढ़ गया; और उसके चेले उसके पास आए। और वह उन्हें उपदेश देने लगा।’—मत्ती 5:1, 2.

1, 2. (क) यीशु ने किन घटनाओं के चलते पहाड़ी उपदेश दिया? (ख) यीशु ने अपने उपदेश की शुरूआत में क्या बताया?

 ईसवी सन्‌ 31 की बात है। यीशु पूरे गलील में प्रचार कर रहा था। इस बीच वह फसह का पर्व मनाने यरूशलेम गया। (यूह. 5:1) गलील लौटने पर उसने 12 प्रेरितों को चुनने के लिए सारी रात परमेश्‍वर से प्रार्थना की। अगले दिन यीशु के पास एक भीड़ जमा हो गयी और वह बीमारों को चंगा करने लगा। इसके बाद वह अपने चेलों और बाकी लोगों के साथ एक पहाड़ पर गया और वहाँ बैठकर उन्हें सिखाने लगा।—मत्ती 4:23–5:2; लूका 6:12-19.

2 यीशु ने पहाड़ी उपदेश देना शुरू किया। इसकी शुरूआत में उसने बताया कि परमेश्‍वर के साथ एक अच्छा रिश्‍ता होने से ही सच्ची खुशी मिलती है। (मत्ती 5:1-12 पढ़िए।) * खुशी ‘एक ऐसी दशा है, जिसमें एक इंसान संतोष से लेकर हर्ष जैसी गहरी भावना महसूस करता है।’ यीशु ने जिन नौ खुशियों की चर्चा की, उनसे पता चलता है कि मसीही क्यों खुश रहते हैं। यीशु की ये बातें आज भी उतनी ही फायदेमंद हैं, जितनी कि 2,000 साल पहले थीं। आइए इन पर एक-एक करके गौर करें।

‘जो अपनी आध्यात्मिक ज़रूरत के प्रति सचेत हैं’

3. अपनी आध्यात्मिक ज़रूरत के प्रति सचेत रहने का क्या मतलब है?

3 “धन्य हैं वे, जो मन के दीन हैं, [‘अपनी आध्यात्मिक ज़रूरत के प्रति सचेत हैं,’ NW] क्योंकि स्वर्ग का राज्य उन्हीं का है।” (मत्ती 5:3) ‘अपनी आध्यात्मिक ज़रूरत के प्रति सचेत’ रहनेवालों को यह एहसास रहता है कि उन्हें लगातार परमेश्‍वर के मार्गदर्शन और दया की ज़रूरत है।

4, 5. (क) अपनी आध्यात्मिक ज़रूरत के प्रति सचेत रहनेवाले क्यों खुश हैं? (ख) हम किन तरीकों से अपनी आध्यात्मिक ज़रूरत पूरी कर सकते हैं?

4 जो अपनी आध्यात्मिक ज़रूरत के प्रति सचेत रहते हैं, वे इसलिए खुश हैं, “क्योंकि स्वर्ग का राज्य उन्हीं का है।” यीशु के शुरूआती चेलों ने उसे मसीहा कबूल किया, जिस वजह से उन्हें उसके साथ स्वर्ग में राज करने की आशा है। (लूका 22:28-30) हमारे बारे में क्या? चाहे हमारी आशा स्वर्ग में यीशु के संगी राजा बनने की हो या धरती पर उसकी प्रजा बनने की, हम एक बात का पक्का यकीन रख सकते हैं। वह यह कि अगर हम अपनी आध्यात्मिक ज़रूरत के प्रति सचेत हैं, तो हम ज़रूर खुश रहेंगे।

5 कई लोग अपनी आध्यात्मिक ज़रूरत के प्रति सचेत नहीं होते, क्योंकि उनमें विश्‍वास की कमी होती है और वे पवित्र चीज़ों की कदर नहीं करते। (2 थिस्स. 3:1, 2; इब्रा. 12:16) लेकिन हम जो सचेत हैं, हम किन तरीकों से अपनी आध्यात्मिक ज़रूरत पूरी कर सकते हैं? मन लगाकर बाइबल अध्ययन करने, जोश के साथ चेला बनाने के काम में हिस्सा लेने और बिना नागा मसीही सभाओं में हाज़िर होने के ज़रिए।—मत्ती 28:19, 20; इब्रा. 10:23-25.

शोक करनेवाले “धन्य” हैं

6. वे लोग कौन हैं, “जो शोक करते हैं”? और वे “धन्य” क्यों हैं?

6 “धन्य हैं वे, जो शोक करते हैं, क्योंकि वे शांति पाएंगे।” (मत्ती 5:4) “जो शोक करते हैं,” ये वही लोग हैं ‘जो अपनी आध्यात्मिक ज़रूरत के प्रति सचेत हैं।’ लेकिन वे शोक क्यों करते हैं? क्या वे अपनी ज़िंदगी से खुश नहीं? ऐसी बात नहीं। दरअसल वे इसलिए शोक करते हैं, क्योंकि उन्हें एहसास है कि वे पापी हैं। वे यह देखकर भी दुखी होते हैं कि इंसान की असिद्धता की वजह से दुनिया की क्या गत हो गयी है। लेकिन शोक करनेवाले ये लोग “धन्य” क्यों हैं? क्योंकि वे परमेश्‍वर और मसीह में विश्‍वास करते हैं और उन्हें इस बात से सांत्वना मिलती है कि यहोवा के साथ उनका एक अच्छा रिश्‍ता है।—यूह. 3:36.

7. शैतान की दुनिया के बारे में हमारा कैसा नज़रिया होना चाहिए?

7 क्या हम भी शैतान की दुनिया में फैली बुराई को देखकर शोक करते हैं? यह दुनिया हमें जिन चीज़ों से लुभाने की कोशिश करती है, उनके बारे में हमारा नज़रिया कैसा होना चाहिए? प्रेरित यूहन्‍ना ने लिखा: “जो कुछ संसार में है, अर्थात्‌ शरीर की अभिलाषा, और आंखों की अभिलाषा और जीविका का घमण्ड, वह पिता की ओर से नहीं।” (1 यूह. 2:16) लेकिन तब क्या, अगर हमें लगे कि ‘दुनिया की फितरत’ धीरे-धीरे हम पर हावी हो रही है और इसका बुरा असर हमारी उपासना पर पड़ रहा है? ऐसे में हमें सच्चे दिल से प्रार्थना करनी चाहिए, बाइबल का अध्ययन करना चाहिए और प्राचीनों से मदद माँगनी चाहिए। इस तरह जब हम यहोवा के करीब आएँगे, तो हमें “शांति” या सांत्वना मिलेगी, फिर चाहे हमें कोई भी बात दुख क्यों न पहुँचा रही हो।—1 कुरि. 2:12, NW; भज. 119:52; याकू. 5:14, 15.

‘नर्मदिल’ लोग क्या ही खुश हैं!

8, 9. नर्मदिल होने का क्या मतलब है? नर्मदिल लोग खुश क्यों हैं?

8 “धन्य हैं वे, जो नम्र [‘नर्मदिल,’ NW] हैं, क्योंकि वे पृथ्वी के अधिकारी होंगे।” (मत्ती 5:5) नर्मदिली या “नम्रता” न तो कमज़ोरी की निशानी है और ना ही इसका मतलब है, कोमल होने का दिखावा करना। (1 तीमु. 6:11) अगर हम सचमुच में नर्मदिल हैं, तो हम यहोवा की मरज़ी पूरी करने और उसके मार्गदर्शन कबूल करने में नम्रता दिखाएँगे। हमारी नर्मदिली इससे भी ज़ाहिर होगी कि हम मसीही भाई-बहनों और दूसरों के साथ किस तरह व्यवहार करते हैं। प्रेरित पौलुस ने भी ऐसी नर्मदिली दिखाने की सलाह दी थी।रोमियों 12:17-19 पढ़िए।

9 नर्मदिल लोग खुश क्यों हैं? यीशु ने, जो खुद एक नर्मदिल इंसान था, कहा कि ऐसे लोग “पृथ्वी के अधिकारी” या वारिस होंगे। जो धरती के वारिस होंगे, उनमें यीशु सबसे प्रमुख है। (भज. 2:8; मत्ती 11:29; इब्रा. 2:8, 9) “मसीह के संगी वारिस” भी नर्मदिल होने की वजह से इस विरासत में हिस्सेदार होंगे। (रोमि. 8:16, 17) और जब धरती पर यीशु का राज होगा, तब बहुत-से नर्मदिल इंसानों को हमेशा की ज़िंदगी मिलेगी।—भज. 37:10, 11.

10. नर्मदिल न होने की वजह से दूसरों के साथ हमारे रिश्‍ते पर क्या असर पड़ सकता है? भाइयों को क्यों झगड़ालू स्वभाव से खबरदार रहना चाहिए?

10 यीशु की तरह हमें भी नर्मदिल बनने की ज़रूरत है। लेकिन अगर हम गुस्सैल या झगड़ालू स्वभाव के हों, तब क्या? ऐसे में लोग शायद हमसे दूर रहना पसंद करें। अगर किसी भाई में ऐसा स्वभाव है, तो वह कलीसिया में ज़िम्मेदारियाँ उठाने के अयोग्य ठहरता है। (1 तीमु. 3:1, 3) पौलुस ने तीतुस से कहा कि वह क्रेते के मसीहियों को याद दिलाता रहे कि वे “झगड़ालू न हों; पर कोमल स्वभाव के हों, और सब मनुष्यों के साथ बड़ी नम्रता के साथ रहें।” (तीतु. 3:1, 2) वाकई, ऐसी नम्रता दूसरों के लिए कितनी बड़ी आशीष साबित होती है!

वे “धार्मिकता” के भूखे हैं

11-13. (क) धार्मिकता के भूखे और प्यासे होने का क्या मतलब है? (ख) जो लोग धार्मिकता के भूखे और प्यासे हैं, वे कैसे “तृप्त” किए जाएँगे?

11 “धन्य हैं वे जो धार्मिकता के भूखे और प्यासे हैं, क्योंकि वे तृप्त किए जाएंगे।” (मत्ती 5:6, NHT) “धार्मिकता” से यीशु का मतलब था, परमेश्‍वर की मरज़ी और आज्ञाओं के अधीन रहकर सही काम करना। भजनहार ने कहा कि वह परमेश्‍वर के धर्मी नियमों के लिए ‘तरसता है।’ (भज. 119:20, बुल्के बाइबिल) क्या हम भी भजनहार की तरह धार्मिकता को इतना अनमोल समझते हैं, मानो हमें उसकी भूख और प्यास रहती हो?

12 यीशु ने कहा कि जो धार्मिकता के भूखे और प्यासे हैं, वे खुश रहेंगे क्योंकि उन्हें “तृप्त” किया जाएगा। यह ईसवी सन्‌ 33 में पिन्तेकुस्त के बाद मुमकिन हुआ, क्योंकि तब यहोवा की पवित्र शक्‍ति ने ‘दुनिया को साफ-साफ दिखाया कि परमेश्‍वर के स्तर के मुताबिक सही क्या है।’ (यूह. 16:8, NW) इसी पवित्र शक्‍ति के ज़रिए परमेश्‍वर ने मसीही यूनानी शास्त्र लिखवाया, जो “धार्मिकता की शिक्षा” के लिए बेहद फायदेमंद है। (2 तीमु. 3:16, NHT) पवित्र शक्‍ति हमें ‘नया मनुष्यत्व’ धारण करने में भी मदद देती है, ‘जो परमेश्‍वर के अनुसार सत्य की धार्मिकता में सृजा गया है।’ (इफि. 4:24) जी हाँ, जो लोग सच्चे दिल से पश्‍चाताप करते और यीशु के छुड़ौती बलिदान के आधार पर अपने पापों की माफी माँगते हैं, वे परमेश्‍वर की नज़र में शुद्ध ठहरते हैं। क्या इस बात से हमें ढाढ़स नहीं मिलता?—रोमियों 3:23, 24 पढ़िए।

13 अगर हमारी आशा धरती पर जीने की है, तो धार्मिकता के लिए हमारी भूख और प्यास तब तृप्त होगी, जब हमें हमेशा की ज़िंदगी मिलेगी। लेकिन उस वक्‍त के आने तक, आइए हम यहोवा के स्तरों के मुताबिक जीने की ठान लें। यीशु ने कहा: “तुम पहले परमेश्‍वर के राज्य और उसकी धार्मिकता की खोज में लगे रहो।” (मत्ती 6:33, NHT) ऐसा करने से हम हमेशा राज्य के कामों में लगे रहेंगे और हमें सच्ची खुशी मिलेगी।—1 कुरि. 15:58.

“दयावन्त” क्यों धन्य हैं

14, 15. हम दया कैसे दिखा सकते हैं? जो लोग “दयावन्त” हैं, वे धन्य क्यों हैं?

14 “धन्य हैं वे, जो दयावन्त हैं, क्योंकि उन पर दया की जाएगी।” (मत्ती 5:7) “दयावन्त” वह होता है, जिसमें करुणा की भावना होती है और जिससे दूसरों का दुख देखा नहीं जाता। यीशु ने जब लोगों को तकलीफ में देखा तो उसका दिल पसीज गया और उसने चमत्कार करके उनकी बीमारियाँ ठीक की। (मत्ती 14:14) हम दया कैसे दिखा सकते हैं? अगर कोई हमारे खिलाफ अपराध करता है, तो हम उसे माफ कर सकते हैं, ठीक जैसे परमेश्‍वर दया दिखाते हुए पश्‍चाताप करनेवालों को माफ करता है। (निर्ग. 34:6, 7; भज. 103:10) हम तब भी दया दिखाते हैं, जब हम दीन-दुखियों से दो मीठे बोल बोलते हैं और उनकी मदद करते हैं। दया दिखाने का एक बढ़िया तरीका है, दूसरों को बाइबल से सच्चाइयाँ सिखाना। यीशु ने भी यही किया। बाइबल कहती है कि उसे लोगों पर तरस आया और वह “उन्हें बहुत सी बातें सिखाने लगा।”—मर. 6:34.

15 यीशु ने कहा था: “धन्य हैं वे, जो दयावन्त हैं, क्योंकि उन पर दया की जाएगी।” यह बात सोलह आने सच है। जब हम दूसरों को दया दिखाते हैं, तो बदले में वे भी हमें दया दिखाते हैं। दूसरों को दया दिखाने से शायद परमेश्‍वर भी न्याय के दिन हम पर दया दिखाए। (याकू. 2:13) सिर्फ दयालु लोगों को ही अपने पापों की माफी और हमेशा की ज़िंदगी मिलेगी।—मत्ती 6:15.

‘शुद्ध मन’ के लोग क्यों धन्य हैं

16. ‘शुद्ध मन’ के होने का क्या मतलब है? जो लोग शुद्ध मन के हैं, वे कैसे “परमेश्‍वर को देखेंगे”?

16 “धन्य हैं वे, जिन के मन शुद्ध हैं, क्योंकि वे परमेश्‍वर को देखेंगे।” (मत्ती 5:8) अगर हमारा “मन शुद्ध” है, तो यह हमारे इरादों, ख्वाहिशों और दूसरों के साथ हमारे रिश्‍ते में साफ झलकेगा। हम ‘शुद्ध मन से प्रेम’ दिखा पाएँगे। (1 तीमु. 1:5) जिनका दिल साफ है, वे “परमेश्‍वर को देखेंगे।” इसका मतलब यह नहीं कि वे सचमुच यहोवा को देखेंगे, क्योंकि “मनुष्य [परमेश्‍वर को] देखकर जीवित नहीं रह सकता।” (निर्ग. 33:20) लेकिन जब यीशु ने कहा: “जिस ने मुझे देखा है उस ने पिता को देखा है,” तो उसका मतलब था कि उस पर ध्यान देना एक तरीका है जिससे लोग परमेश्‍वर को देख सकते हैं। क्योंकि यीशु हू-ब-हू अपने पिता की शख्सियत ज़ाहिर करता था। (यूह. 14:7-9) इसके अलावा, धरती पर रहनेवाले उसके उपासक तब भी ‘परमेश्‍वर को देखते’ हैं, जब वे उसे उनकी खातिर कदम उठाते देखते हैं। (अय्यू. 42:5) और जहाँ तक अभिषिक्‍त मसीहियों की बात है, वे यहोवा को तब साक्षात्‌ देख पाएँगे जब उन्हें स्वर्ग में आत्मिक शरीर देकर दोबारा ज़िंदा किया जाएगा।—1 यूह. 3:2.

17. अगर हम शुद्ध मन के हैं, तो इसका हम पर क्या असर होगा?

17 एक साफ दिल इंसान नैतिक रूप से और यहोवा की नज़र में शुद्ध बने रहने के लिए मेहनत करता है। इसलिए वह उन बातों पर मन नहीं लगाता, जो यहोवा के मुताबिक अशुद्ध हैं। (1 इति. 28:9; यशा. 52:11) अगर हमारा मन शुद्ध और पवित्र है, तो हमारी बातें और हमारे काम भी शुद्ध होंगे और यहोवा की उपासना हमारे लिए महज़ एक ढकोसला नहीं होगी।

‘शांति कायम करनेवाले’ परमेश्‍वर के पुत्र बनते हैं

18, 19. ‘शांति कायम करनेवालों’ का व्यवहार कैसा होता है?

18 “धन्य हैं वे, जो मेल करवानेवाले [‘शांति कायम करनेवाले,’ NW] हैं, क्योंकि वे परमेश्‍वर के पुत्र कहलाएंगे।” (मत्ती 5:9) ‘शांति कायम करनेवाले’ अपने कामों से पहचाने जाते हैं। वे ‘किसी से बुराई के बदले बुराई नहीं करते,’ बल्कि हमेशा ‘सब से भलाई करने की चेष्टा करते हैं।’ (1 थिस्स. 5:15) अगर हम ऐसा करते हैं, तो हम यीशु के शब्दों के मुताबिक शांति कायम करनेवाले हैं।

19 शांति कायम करनेवाले दूसरों के साथ शांति बढ़ाने की अपनी तरफ से पूरी कोशिश करते हैं। हम ऐसा कोई भी काम नहीं करते, जो ‘मित्रों में फूट करा दे।’ (नीति. 16:28) शांति कायम करनेवालों के नाते हम “सब से मेल मिलाप रखने” के लिए पहल करते हैं।—इब्रा. 12:14.

20. आज कौन “परमेश्‍वर के पुत्र” हैं? आगे चलकर और कौन परमेश्‍वर की संतान बनेंगे?

20 शांति कायम करनेवाले इसलिए खुश हैं, क्योंकि “वे परमेश्‍वर के पुत्र कहलाएंगे।” यहोवा ने वफादार अभिषिक्‍त मसीहियों को गोद लिया है, इस नाते वे “परमेश्‍वर के पुत्र” हैं। उनका यहोवा के साथ इतना करीबी रिश्‍ता इसलिए है, क्योंकि वे मसीह पर विश्‍वास करते और ‘प्रेम और शान्ति के दाता परमेश्‍वर’ की तन-मन से उपासना करते हैं। (2 कुरि. 13:11; यूह. 1:12) शांति कायम करनेवाले यीशु की ‘अन्य भेड़ों’ के बारे में क्या? यीशु के हज़ार साल के राज के दौरान वह उनका “अनन्तकाल का पिता” होगा। लेकिन उसके बाद जब यीशु खुद को यहोवा के अधीन करेगा, तब अन्य भेड़ें भी पूरी तरह से परमेश्‍वर की संतान बन जाएँगी।—यूह. 10:16, NW; यशा. 9:6; रोमि. 8:21; 1 कुरि. 15:27, 28.

21. अगर ‘हमारे जीने का तरीका पवित्र शक्‍ति के मुताबिक है,’ तो हम क्या करेंगे और क्या नहीं?

21 अगर ‘हमारे जीने का तरीका पवित्र शक्‍ति के मुताबिक है,’ (NW) तो लोग यह साफ देख पाएँगे कि हम स्वभाव से शांति कायम करनेवाले हैं। हम “एक दूसरे को छेड़ेंगे” नहीं, यानी “एक-दूसरे को क्रोध नहीं दिलाएँगे।” (न्यू इंटरनैशनल वर्शन) (गल. 5:22-26) इसके बजाय, हम “सब मनुष्यों के साथ मेल मिलाप” रखने की भरसक कोशिश करेंगे।—रोमि. 12:18.

सताए गए, फिर भी खुश हैं

22-24. (क) जिन्हें धार्मिकता की खातिर सताया जाता है, वे खुश क्यों हैं? (ख) अगले दो अध्ययन लेखों में हम किन बातों पर चर्चा करेंगे?

22 “धन्य हैं वे जो धार्मिकता के कारण सताए जाते हैं, क्योंकि स्वर्ग का राज्य उन्हीं का है।” (मत्ती 5:10, NHT) इसी बात को आगे बढ़ाते हुए यीशु ने कहा: “धन्य हो तुम, जब मनुष्य मेरे कारण तुम्हारी निन्दा करें, और सताएं और झूठ बोल बोलकर तुम्हारे विरोध में सब प्रकार की बुरी बात कहें। आनन्दित और मगन होना क्योंकि तुम्हारे लिये स्वर्ग में बड़ा फल है इसलिये कि उन्हों ने उन भविष्यद्वक्‍ताओं को जो तुम से पहिले थे इसी रीति से सताया था।”मत्ती 5:11, 12.

23 मसीही जानते हैं कि प्राचीन समय के नबियों की तरह उन्हें भी “धार्मिकता के कारण” निंदा, ज़ुल्म और झूठी बातें सहनी पड़ेंगी। ऐसी परीक्षाओं में धीरज धरने और यहोवा के वफादार रहने से हमें इस बात की तसल्ली होगी कि हम यहोवा को खुश कर रहे हैं और उसका आदर कर रहे हैं। (1 पत. 2:19-21) हमें चाहे जो भी दुख उठाना पड़े, लेकिन यहोवा की सेवा में हमारी खुशी कभी कम नहीं होगी। और ना ही यह दुख हमसे वह खुशी छीन सकता है, जो हमें अपनी आशा से मिलती है। फिर चाहे यह आशा स्वर्ग में मसीह के साथ राज करने की हो या धरती पर उस राज की प्रजा बनकर अनंत जीवन पाने की। ये खुशियाँ इस बात का सबूत हैं कि यहोवा का अनुग्रह हम पर है। साथ ही, इससे यह भी पता चलता है कि यहोवा कितना दयालु और उदार है।

24 यीशु के पहाड़ी उपदेश से हम और भी बहुत कुछ सीख सकते हैं। अगले दो अध्ययन लेखों में इस पर चर्चा की जाएगी। आइए देखें कि हम यीशु की बातों को अपनी ज़िंदगी में कैसे उतार सकते हैं।

[फुटनोट]

^ मत्ती 5:3-12 में इस्तेमाल किए गए यूनानी शब्द मेकारी का अनुवाद हिंदी बाइबलों में “धन्य” किया गया है, जबकि इसका सही मतलब “खुशी” है। इसलिए इस लेख में जहाँ-जहाँ “धन्य” शब्द आया है, उसका मतलब खुशी है।

आप क्या जवाब देंगे?

• ‘अपनी आध्यात्मिक ज़रूरत के प्रति सचेत’ रहनेवाले क्यों खुश हैं?

• ‘नर्मदिल’ लोग किस वजह से खुश हैं?

• सताए जाने के बावजूद भी मसीही खुश क्यों हैं?

• यीशु ने जिन नौ खुशियों के बारे में बताया, उनमें से आपको सबसे अच्छी कौन-सी लगी?

[अध्ययन के लिए सवाल]

[पेज 7 पर तसवीर]

यीशु ने जिन नौ खुशियों के बारे में बताया, वे आज भी उतनी ही फायदेमंद हैं, जितनी उसके ज़माने में थी

[पेज 8 पर तसवीर]

दया दिखाने का एक बढ़िया तरीका है, दूसरों को बाइबल से सच्चाइयाँ सिखाना