आपके मन का स्वभाव वैसा ही हो जैसा मसीह का था
आपके मन का स्वभाव वैसा ही हो जैसा मसीह का था
“तुम्हारे मन का स्वभाव वैसा ही हो जैसा मसीह यीशु का था।”—रोमि. 15:5.
1. हमें क्यों अपना स्वभाव यीशु के जैसा बनाने की कोशिश करनी चाहिए?
यीशु मसीह ने कहा, “मेरे पास आओ, . . . मुझसे सीखो, क्योंकि मैं कोमल-स्वभाव का, और दिल से दीन हूँ और तुम ताज़गी पाओगे।” (मत्ती 11:28, 29) दिल छू लेनेवाला यह न्यौता साफ दिखाता है कि यीशु के मन का स्वभाव कैसा था। हालाँकि वह परमेश्वर का बेटा था और उसके पास बहुत ताकत और अधिकार था, लेकिन वह सब के साथ, खासकर ज़रूरतमंदों के साथ हमदर्दी और कोमलता से पेश आता था। वाकई यीशु से बेहतर मिसाल हमारे लिए और कोई नहीं!
2. हम यीशु के स्वभाव के किन पहलुओं पर चर्चा करेंगे?
2 इस लेख और अगले दो लेखों में हम देखेंगे कि हम कैसे यीशु के जैसा स्वभाव पैदा कर सकते हैं और उसे बनाए रख सकते हैं। हम यह भी चर्चा करेंगे कि हम अपनी ज़िंदगी में “मसीह का मन” कैसे ज़ाहिर कर सकते हैं। (1 कुरिं. 2:16) हम खासकर यीशु के स्वभाव के पाँच पहलुओं पर ध्यान देंगे: उसकी कोमलता और नम्रता, उसकी कृपा, उसका परमेश्वर का आज्ञाकारी रहना, उसकी हिम्मत, सच्चा और हमेशा कायम रहनेवाला उसका प्यार।
मसीह के कोमल-स्वभाव से सीखिए
3. (क) यीशु ने अपने चेलों को नम्रता के बारे में क्या सबक सिखाया? (ख) जब यीशु के चेले उसकी बात मानने से चूक गए, तो वह उनके साथ किस तरह पेश आया?
3 यीशु परमेश्वर का सिद्ध बेटा था, फिर भी वह असिद्ध और पापी इंसानों के बीच सेवा करने के लिए खुशी-खुशी धरती पर आया। इनमें से कुछ लोगों ने आगे चलकर उसे मौत के घाट उतार दिया। लेकिन असिद्ध लोगों के बीच रहते हुए भी यीशु ने अपनी खुशी कभी कम नहीं होने दी और न ही अपना आपा खोया। (1 पत. 2:21-23) अगर हम यीशु पर “नज़र टिकाए रहें” तो हम भी उस वक्त अपना आपा नहीं खोएँगे और न ही अपनी खुशी कम होने देंगे, जब दूसरों की खामियों और असिद्धताओं की वजह से हमें ठेस पहुँचती है। (इब्रा. 12:2) यीशु ने अपने चेलों को बुलावा दिया कि वे ‘उसके साथ उसके जूए के नीचे आएँ’ और उससे सीखें। (मत्ती 11:29, फुटनोट) वे यीशु से क्या सीख सकते थे? एक तो यह कि यीशु कोमल-स्वभाव का था और अपने चेलों की कमियों के बावजूद उनके साथ धीरज से पेश आता था। अपनी ज़िंदगी की आखिरी रात, यीशु ने अपने चेलों के पैर धोए और इस तरह उन्हें “दिल से दीन” होने का सबक सिखाया, जिसे वे कभी नहीं भूले। (यूहन्ना 13:14-17 पढ़िए।) फिर जब पतरस, याकूब और यूहन्ना ‘जागते रहने’ से चूक गए, तब उसने उनकी कमज़ोरी को समझा और प्यार से पूछा, “शमौन, क्या तू सो रहा है? . . . जागते रहो और प्रार्थना करते रहो ताकि तुम परीक्षा में न पड़ो। दिल तो बेशक तैयार है, मगर शरीर कमज़ोर है।”—मर. 14:32-38.
4, 5. यीशु की मिसाल किस तरह भाइयों की खामियों के बारे में सही रवैया रखने में हमारी मदद करती है?
4 मान लीजिए मंडली में एक भाई होड़ की भावना दिखाता है, हर बात का फौरन बुरा मान जाता है, या फिर प्राचीनों या विश्वासयोग्य दास से मिलनेवाली सलाह मानने में ढिलाई बरतता है। (मत्ती 24:45-47) ऐसे में हम उसके साथ कैसे पेश आते हैं? जब दुनिया के लोग ऐसी खामियाँ दिखाते हैं, तो हमें शायद कोई ताज्जुब न हो और हम उन्हें माफ कर दें। लेकिन अगर वही खामियाँ हमारे मसीही भाई दिखाएँ, तो उन्हें माफ करना हमें मुश्किल लगता है। दूसरों की खामियों से अगर हम बड़ी जल्दी खीज उठते हैं, तो हमें खुद से पूछना चाहिए, ‘मैं “मसीह का मन” और अच्छी तरह कैसे ज़ाहिर कर सकता हूँ?’ याद रखिए कि यीशु अपने चेलों से खीज नहीं उठता था। तब भी नहीं जब वे “मसीह का मन” दिखाने से चूक जाते थे।
5 प्रेषित पतरस की मिसाल पर गौर कीजिए। जब यीशु ने उससे कहा कि वह नाव से उतरकर पानी पर चलता हुआ उसके पास आए, तो पतरस सचमुच पानी पर चलने लगा। लेकिन फिर वह तूफान को देखकर डर गया और डूबने लगा। इस पर क्या यीशु उससे नाराज़ हुआ और कहने लगा, “तेरे साथ यही होना चाहिए था। अच्छा सबक मिला तुझे”? जी नहीं। “यीशु ने फौरन अपना हाथ बढ़ाकर उसे थाम लिया और उससे कहा, ‘अरे, कम विश्वास रखनेवाले, तू ने शक क्यों किया?’” (मत्ती 14:28-31) अगर कोई मसीही भाई विश्वास की कमी दिखाता है, तो क्या हम मदद का हाथ बढ़ा सकते हैं ताकि वह विश्वास में मज़बूत हो जाए? यीशु ने पतरस के साथ जिस तरह कोमलता दिखायी, उससे हम यही तो सबक सीखते हैं।
6. बड़ा बनने की चाहत रखने के बारे में यीशु ने अपने प्रेषितों को क्या सिखाया?
6 प्रेषितों के बीच लगातार यह बहस छिड़ी रहती थी कि उनमें बड़ा कौन है। इस झगड़े में पतरस भी शामिल था। याकूब और यूहन्ना चाहते थे कि यीशु के राज में एक उसके दाएँ और एक उसके बाएँ बैठे। जब पतरस और बाकी प्रेषितों को इस बारे में पता चला, तो वे उन दोनों से बहुत गुस्सा हुए। यीशु जानता था कि उसके प्रेषितों में बड़ा बनने की चाहत इसलिए थी, क्योंकि यहूदी समाज में इस बात को बहुत अहमियत दी जाती थी। उसने उन्हें अपने पास बुलाकर कहा, “तुम जानते हो कि दुनिया के अधिकारी उन पर हुक्म चलाते हैं और उनके बड़े लोग उन पर अधिकार जताते हैं। मगर तुम्हारे बीच ऐसा नहीं है; बल्कि तुममें जो बड़ा बनना चाहता है, उसे तुम्हारा सेवक होना चाहिए, और जो कोई तुममें पहला होना चाहता है, उसे तुम्हारा दास होना चाहिए।” फिर उसने अपनी मिसाल देते हुए कहा, “इंसान का बेटा . . . सेवा करवाने नहीं, बल्कि सेवा करने आया है और इसलिए आया है कि बहुतों की फिरौती के लिए अपनी जान बदले में दे।”—मत्ती 20:20-28.
7. मंडली की एकता बढ़ाने के लिए हममें से हरेक क्या कर सकता है?
7 अगर हम यीशु के नम्र स्वभाव पर मनन करें, तो हम ‘अपने आपको भाइयों से छोटा समझेंगे।’ (लूका 9:46-48) इससे मंडली में एकता बढ़ेगी। और यहोवा भी अपने बच्चों से यही चाहता है कि वे “आपस में मिले रहें।” (भज. 133:1) यीशु ने अपने पिता से सभी सच्चे मसीहियों के बारे में यह बिनती की, “मैं उनके साथ एकता में हूँ और तू मेरे साथ एकता में है, ताकि वे पूरी तरह से एक हों, जिससे कि दुनिया यह जाने कि तू ने मुझे भेजा है और तू ने उनसे भी वैसे ही प्यार किया है जैसे मुझसे किया है।” (यूह. 17:23) इसलिए हमारी एकता देखकर लोग पहचान जाते हैं कि हम मसीह के चेले हैं। लेकिन हमारे बीच ऐसी एकता होने के लिए ज़रूरी है कि हम दूसरों की असिद्धताओं को उसी नज़र से देखें, जिस नज़र से मसीह देखता था। वह दूसरों की गलतियों को माफ करता था और उसने सिखाया कि हमें सिर्फ तभी माफी मिल सकती है जब हम दूसरों को माफ करते हैं।—मत्ती 6:14, 15 पढ़िए।
8. हम उन भाई-बहनों से क्या सीख सकते हैं जो लंबे समय से परमेश्वर की सेवा करते आए हैं?
8 हम उन भाई-बहनों से भी बहुत कुछ सीख सकते हैं, जो सालों से मसीह की मिसाल पर चलते आए हैं। यीशु की तरह, परमेश्वर के ये सेवक दूसरों की कमज़ोरियाँ समझते हुए उनका लिहाज़ करते हैं। वे मसीह के जैसी करुणा दिखाकर न सिर्फ ‘उन लोगों की कमज़ोरियाँ सह पाते हैं, जो मज़बूत नहीं’ बल्कि मंडली की एकता भी बढ़ाते हैं। यही नहीं, वे पूरी मंडली में मसीह के जैसा स्वभाव दिखाने का जज़्बा पैदा करते हैं। वे भाइयों के लिए वही दुआ करते हैं जो प्रेषित पौलुस ने रोम के मसीहियों के लिए की थी, “धीरज और दिलासा देनेवाला परमेश्वर तुम्हें ऐसी आशीष दे कि तुम्हारे मन का स्वभाव वैसा ही हो जैसा मसीह यीशु का था, ताकि तुम सब एक मन से और एक आवाज़ में हमारे प्रभु यीशु मसीह के परमेश्वर और पिता की महिमा करो।” (रोमि. 15:1, 5, 6) जी हाँ, जब हम एक होकर यहोवा की उपासना करते हैं, तो इससे उसकी महिमा होती है।
9. यीशु के नक्शे-कदम पर चलने के लिए हमें पवित्र शक्ति की ज़रूरत क्यों है?
9 यीशु ने दिखाया कि “दिल से दीन” होने और कोमलता दिखाने का एक-दूसरे से गहरा नाता है। कोमलता उन गुणों में से एक है जो पवित्र शक्ति हमारे अंदर पैदा कर सकती है। इसलिए यीशु की मिसाल पर अध्ययन करने के साथ-साथ हमें परमेश्वर की पवित्र शक्ति की भी ज़रूरत है, ताकि हम यीशु के नक्शे-कदम पर ठीक से चल सकें। हमें पवित्र शक्ति के लिए प्रार्थना करनी चाहिए और उसका फल पैदा करने की कोशिश करनी चाहिए। वह फल है: “प्यार, खुशी, शांति, सहनशीलता, कृपा, भलाई, विश्वास, कोमलता, संयम।” (गला. 5:22, 23) यीशु की तरह नम्रता और कोमलता दिखाकर हम स्वर्ग में रहनेवाले अपने पिता यहोवा को खुश करेंगे।
यीशु लोगों के साथ कृपा से पेश आया
10. यीशु ने कृपा का गुण कैसे दिखाया?
10 कृपा भी एक और गुण है, जो पवित्र शक्ति हमारे अंदर पैदा कर सकती है। यीशु हमेशा दूसरों के साथ कृपा से पेश आता था। बाइबल कहती है कि वह ‘बड़ी कृपा दिखाते हुए उन लोगों से मिलता’ था जो सच्चे दिल से उसे ढूँढ़ते थे। (लूका 9:11 पढ़िए।) यीशु के इस गुण से हम क्या सीख सकते हैं? एक कृपालु इंसान वह होता है जो मिलनसार हो, दूसरों का दर्द समझे और उनके साथ नरमी और अदब से पेश आए। यीशु बिलकुल ऐसा ही था। वह लोगों को देखकर तड़प उठता था, “क्योंकि वे उन भेड़ों की तरह थे जिनकी खाल खींच ली गयी हो और जिन्हें बिन चरवाहे के यहाँ-वहाँ भटकने के लिए छोड़ दिया गया हो।”—मत्ती 9:35, 36.
11, 12. (क) मिसाल देकर समझाइए कि कैसे यीशु लोगों पर तरस खाने के साथ-साथ उनकी मदद के लिए कदम भी उठाता था। (ख) इस मिसाल से आप क्या सीख सकते हैं?
11 यीशु न सिर्फ लोगों पर तरस खाता था, बल्कि उनकी मदद के लिए कदम भी उठाता था। ज़रा इस मिसाल पर गौर कीजिए। एक स्त्री को 12 साल से खून बहने की बीमारी थी। उसे पता था कि मूसा के कानून के मुताबिक वह परमेश्वर के लोगों के साथ उपासना नहीं कर सकती थी क्योंकि वह अशुद्ध थी और अगर कोई उसे छू लेता तो वह भी अशुद्ध हो जाता। (लैव्य. 15:25-27) फिर भी उसने यीशु के बारे में जो सुना, उससे उसे यकीन हो गया कि यीशु उसे ठीक कर सकता है और वह ऐसा खुशी-खुशी करेगा। इसलिए वह स्त्री हिम्मत जुटाकर यीशु के पास गयी और उसका कपड़ा छुआ। वह कहती थी, “अगर मैं उसके कपड़े को ही छू लूँगी, तो अच्छी हो जाऊँगी।” ऐसा करते ही उसे महसूस हुआ कि वह ठीक हो गयी है।
12 उसी घड़ी यीशु ने जान लिया कि किसी ने उसे छुआ है और उसने पीछे मुड़कर देखा कि किसने छुआ। वह स्त्री डर गयी कि कहीं उसे झिड़क न दिया जाए, क्योंकि उसने कानून तोड़ा था। इसलिए वह डरती-काँपती हुई यीशु के पास आयी और उसके पैरों पर गिरकर सारा हाल सच-सच बता दिया। क्या यीशु ने उस दुखियारी को फटकार दिया? नहीं! उसने स्त्री को ढाढ़स देते हुए कहा, “बेटी, तेरे विश्वास ने तुझे ठीक किया है।” (मर. 5:25-34) ये शब्द सुनकर उसे कितना दिलासा मिला होगा!
13. (क) यीशु का स्वभाव फरीसियों के स्वभाव से कैसे अलग था? (ख) यीशु छोटे बच्चों के साथ कैसे पेश आता था?
13 यीशु उन पत्थरदिल फरीसियों की तरह नहीं था, जो अपने अधिकार का इस्तेमाल कर लोगों का बोझ और भी बढ़ा देते थे। (मत्ती 23:4) इसके उलट, वह बड़े प्यार और सब्र से लोगों को सिखाता था कि यहोवा उनसे क्या चाहता है। उसे अपने चेलों से लगाव था, वह हमेशा उन्हें कृपा दिखाता था और उनका सच्चा दोस्त था। (नीति. 17:17; यूह. 15:11-15) बच्चे भी उसके पास बेझिझक आते थे और उसे भी बच्चों का साथ अच्छा लगता था। वह अपने काम में इतना उलझा नहीं रहता था कि उसके पास बच्चों के लिए फुरसत न हो। एक बार की बात है, कुछ लोग अपने छोटे बच्चों को यीशु के पास ला रहे थे। मगर यीशु के चेलों ने, जो अब भी धर्म-गुरुओं की तरह खुद को बड़ा समझते थे, उन्हें रोकने की कोशिश की। इस पर यीशु अपने चेलों से नाराज़ हुआ और उनसे कहा, “बच्चों को मेरे पास आने दो। उन्हें रोकने की कोशिश मत करो, क्योंकि परमेश्वर का राज ऐसों ही का है।” फिर उसने बच्चों की मिसाल देकर अपने चेलों को एक ज़रूरी सबक सिखाया। उसने कहा, “मैं तुमसे सच कहता हूँ, जो कोई परमेश्वर के राज को एक छोटे बच्चे की तरह स्वीकार नहीं करता वह उसमें किसी भी तरह दाखिल न होगा।”—मर. 10:13-15.
14. जब मंडली में बच्चों पर ध्यान दिया जाता है, तो इससे उन्हें क्या फायदे होते हैं?
14 ज़रा सोचिए, वे बच्चे बड़े होने पर जब याद करेंगे कि ‘यीशु ने उन्हें अपनी बाँहों में लिया था और उन्हें आशीषें दी थीं,’ तो कैसा महसूस करेंगे? (मर. 10:16) उसी तरह आज जब प्राचीन और दूसरे भाई-बहन बच्चों में सच्ची दिलचस्पी लेते हैं, तो बड़े होने पर ये बच्चे भी उन्हें याद करेंगे। सबसे बड़ी बात तो यह है कि जब मंडली में बच्चों के लिए सच्ची परवाह दिखायी जाती है, तो उन्हें एहसास होता है कि यहोवा के लोगों पर उसकी पवित्र शक्ति काम कर रही है।
इस ज़ालिम दुनिया में कृपा दिखाइए
15. यह देखकर हमें क्यों हैरानी नहीं होनी चाहिए कि आज बहुत-से लोग कृपा नहीं दिखाते?
15 आज बहुत-से लोगों को लगता है कि कृपा दिखाने में बहुत वक्त ज़ाया होता है और उनके पास इतना वक्त नहीं है। इसीलिए आए दिन स्कूल में, नौकरी की जगह पर, सफर करते वक्त और प्रचार में यहोवा के सेवकों का ऐसे लोगों से पाला पड़ता है जो बहुत कठोर होते हैं। लोगों का ऐसा स्वभाव हमें निराश कर सकता है, लेकिन इससे हमें हैरानी नहीं होनी चाहिए। पौलुस ने परमेश्वर की प्रेरणा से सच्चे मसीहियों को पहले ही आगाह कर दिया था कि इन “आखिरी दिनों” में लोग ‘खुद से प्यार करनेवाले और मोह-ममता न रखनेवाले’ होंगे।—2 तीमु. 3:1-3.
16. हम मंडली में मसीह के जैसी कृपा कैसे दिखा सकते हैं?
16 लेकिन मसीही मंडली का माहौल दुनिया के माहौल से एकदम अलग है। यहाँ भाई-बहनों को सच्ची खुशी और ताज़गी मिलती है। यीशु की मिसाल पर चलने से हममें से हरेक ऐसे खुशनुमा माहौल को बढ़ावा दे सकता है। वह कैसे? एक तरीका है, मंडली में उन भाई-बहनों की मदद और हौसला-अफज़ाई करना जो सेहत से जुड़ी समस्याओं या दूसरे मुश्किल हालात का सामना कर रहे हैं। इन “आखिरी दिनों” में ये समस्याएँ दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही हैं, लेकिन यह कोई नयी बात नहीं है। पुराने ज़माने में भी मसीहियों को कुछ ऐसी समस्याओं से गुज़रना पड़ा था। उनकी कारगर तरीके से मदद की गयी। मिसाल के तौर पर पौलुस ने भाइयों से गुज़ारिश की कि वे ‘उन्हें अपनी बातों से तसल्ली दें जो मायूस हैं, कमज़ोरों को सहारा दें, और सबके साथ सहनशीलता से पेश आएँ।’ (1 थिस्स. 5:14) आज हमें भी चाहिए कि हम अपने ज़रूरतमंद भाई-बहनों की कारगर तरीके से मदद करें। इसके लिए हमें मसीह की तरह कृपा दिखानी चाहिए।
17, 18. यीशु की तरह कृपा दिखाने के कुछ तरीके बताइए।
17 मसीहियों की ज़िम्मेदारी बनती है कि वे भाइयों को ‘बड़ी कृपा दिखाएँ,’ उनसे वैसे ही पेश आएँ जैसे यीशु उनके साथ पेश आता। साथ ही, उन भाइयों के लिए सच्ची परवाह दिखाएँ जिन्हें वे बरसों से जानते हैं और उन भाइयों के लिए भी जिनसे वे पहले कभी नहीं मिले। (3 यूह. 5-8) यीशु जैसे दूसरों पर करुणा करने में पहल करता था, वैसे हमें भी करनी चाहिए। और हमें ऐसा होना चाहिए कि दूसरों को हमसे ताज़गी मिले।—यशा. 32:2; मत्ती 11:28-30.
18 हमारे दिल में भाई-बहनों के लिए सिर्फ हमदर्दी की भावना नहीं होनी चाहिए बल्कि हमें उनकी मदद भी करनी चाहिए। इस तरह हम दिखाएँगे कि हमें उनकी परवाह है और हम उनकी तकलीफों को समझते हैं। पौलुस उकसाता है, “आपस में भाइयों जैसा प्यार दिखाते हुए एक-दूसरे के लिए गहरा लगाव रखो।” वह आगे कहता है: “एक-दूसरे का आदर करने में पहल करो।” (रोमि. 12:10) पौलुस की सलाह मानने के लिए हमें मसीह की मिसाल पर चलना होगा। यानी हमें दूसरों के साथ कृपा से पेश आना होगा और “बिना कपट प्यार” दिखाना होगा। (2 कुरिं. 6:6) पौलुस ने इस प्यार के बारे में जो मसीह ने दिखाया था, कहा: “प्यार सहनशील और कृपा करनेवाला होता है। प्यार जलन नहीं रखता, यह डींगें नहीं मारता, घमंड से नहीं फूलता।” (1 कुरिं. 13:4) अपने भाई-बहनों से मन-मुटाव रखने के बजाय, आइए हम यह सलाह मानें: “एक-दूसरे के साथ कृपा से पेश आओ और कोमल-करुणा दिखाते हुए एक-दूसरे को दिल से माफ करो, ठीक जैसे परमेश्वर ने भी मसीह के ज़रिए तुम्हें दिल से माफ किया है।”—इफि. 4:32.
19. मसीह की तरह कृपा दिखाने से क्या आशीषें मिलती हैं?
19 अगर हम हर समय और हर हालात में मसीह की तरह कृपा दिखाने की कोशिश करें, तो हमें बहुत-सी आशीषें मिलेंगी। मंडली में यहोवा की पवित्र शक्ति काम करेगी जिससे सभी लोग पवित्र शक्ति का फल पैदा कर पाएँगे। इसके अलावा, जब हम यीशु के नक्शे-कदम पर चलते हैं और दूसरों को भी ऐसा करने के लिए उकसाते हैं, तो हम एक होकर खुशी-खुशी यहोवा की उपासना कर पाते हैं। और यह देखकर यहोवा का दिल बाग-बाग हो उठता है। तो फिर, आइए दूसरों के साथ अपने व्यवहार में हम यीशु की तरह कोमलता और कृपा दिखाने की हमेशा कोशिश करें।
क्या आप समझा सकते हैं?
• यीशु ने कैसे दिखाया कि वह “कोमल-स्वभाव का, और दिल से दीन” था?
• यीशु ने कृपा का गुण कैसे दिखाया?
• इस असिद्ध दुनिया में, मसीह के जैसी कोमलता और कृपा दिखाने के कुछ तरीके बताइए।
[अध्ययन के लिए सवाल]
[पेज 8 पर तसवीर]
जब एक भाई, पतरस की तरह विश्वास की कमी दिखाता है, तो क्या हम मदद का हाथ बढ़ाएँगे?
[पेज 10 पर तसवीर]
आप मंडली में कृपा दिखाने के लिए क्या कर सकते हैं?