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तीन अधिवेशनों ने बदल दी मेरी ज़िंदगी

तीन अधिवेशनों ने बदल दी मेरी ज़िंदगी

तीन अधिवेशनों ने बदल दी मेरी ज़िंदगी

जॉर्ज वॉरेनचेक की ज़ुबानी

क्या कभी ऐसा हुआ है कि किसी ज़िला अधिवेशन की बात आपके दिल को इस कदर छू गयी कि आपने अपनी ज़िंदगी में बड़े-बड़े बदलाव किए? मेरे साथ ऐसा हुआ है। जब मैं पीछे मुड़कर देखता हूँ तो मुझे ऐसे तीन ज़िला अधिवेशन याद आते हैं जिनसे मेरी ज़िंदगी को एक नयी दिशा मिली। एक अधिवेशन ने मुझे मेरे डर पर काबू पाने में; दूसरे ने मुझे जितना है उतने में संतोष करने में; और तीसरे ने मुझे परमेश्‍वर की सेवा में ज़्यादा-से-ज़्यादा करने में मदद दी। लेकिन इसके बारे में बताने से पहले आइए मैं आपको अपने बचपन की कुछ घटनाओं के बारे में बताऊँ।

मेरा जन्म सन्‌ 1928 में हुआ। हम तीन भाई-बहनों में मैं सबसे छोटा था। मेरी बड़ी बहनों के नाम हैं मार्जी और ओल्गा। हमारी परवरिश अमरीका के न्यू जर्सी राज्य के साउथ बाउंड ब्रुक नगर में हुई। उस वक्‍त वहाँ की आबादी करीब 2,000 थी। हालाँकि हम गरीब थे मगर मेरी माँ दिल खोलकर दूसरों को दिया करती थी। जब कभी उसके पास पैसे होते और वह कुछ खास खाना बनाती तो वह पड़ोसियों को ज़रूर देती थी। जब मैं नौ साल का था तब हमारे घर यहोवा की एक साक्षी आयी जिसने माँ को बाइबल का संदेश सुनाया। वह माँ की मातृ-भाषा हंगेरियन में बात कर रही थी इसलिए माँ ने बड़ी दिलचस्पी से उसकी बात सुनी। उसके बाद बार्था नाम की एक साक्षी, जो करीब 20-22 साल की थी, माँ के साथ बाइबल अध्ययन करने लगी। कुछ समय बाद मेरी माँ यहोवा की एक सेवक बन गयी।

माँ बहुत हिम्मतवाली थी मगर मेरा स्वभाव उससे बिलकुल उलट था। मैं बहुत डरपोक था और मुझमें आत्म-विश्‍वास की कमी थी। ऊपर से माँ भी मुझे बात-बात पर टोकती रहती थी। एक बार रोते-रोते मैंने माँ से पूछा: “क्यों हमेशा मुझमें खोट निकालती रहती हो?” माँ ने कहा कि वह मुझसे प्यार करती है और नहीं चाहती कि मैं बिगड़ जाऊँ। माँ नेक इरादे से मुझे टोकती थी। मगर वह कभी मेरी तारीफ नहीं करती थी, जिस वजह से मुझमें हीन भावना आ गयी।

मेरे पड़ोस में रहनेवाली एक स्त्री मुझसे अच्छी तरह बात करती थी। एक दिन उसने मुझसे पूछा कि क्या मैं उसके बेटों के साथ चर्च के संडे स्कूल जाना पसंद करूँगा। मैं जानता था कि ऐसा करने से यहोवा को बहुत दुख होगा, लेकिन मैं उस भली स्त्री को नाराज़ नहीं करना चाहता था। इसलिए मैं कई महीनों तक चर्च जाता रहा, हालाँकि मुझे खुद पर बहुत शर्म आती थी। स्कूल में भी मैंने अपने ज़मीर के खिलाफ काम किया और वजह थी इंसान का डर। मेरे स्कूल का प्रिंसिपल बड़ा रौबदार आदमी था। उसने टीचरों को सख्त हिदायत दे रखी थी कि हर बच्चा झंडे को सलामी दे। मैं भी डर के मारे झंडे को सलामी देता था। ऐसा लगभग एक साल तक चलता रहा, फिर मेरी ज़िंदगी ने एक नया मोड़ लिया।

हिम्मत का सबक

सन्‌ 1939 में हमारे घर पर पुस्तक अध्ययन होने लगा। यह अध्ययन बेन मिस्काल्स्‌की नाम का एक जवान पायनियर भाई चलाता था। उसकी कद-काठी इतनी लंबी-चौड़ी थी कि हम उसे बिग बेन बुलाते थे। मुझे तो वह हमारे घर के दरवाज़े के जितना लंबा-चौड़ा लगता था। लेकिन इतने लंबे डील-डौल के पीछे एक प्यार-भरा दिल था। उसकी मुस्कान इतनी प्यारी थी कि मैं जल्द ही उससे घुल-मिल गया। इसलिए जब बेन ने मुझसे अपने साथ प्रचार में आने के लिए पूछा तो मैं खुशी-खुशी तैयार हो गया। फिर हम दोस्त बन गए। जब कभी मैं उदास होता तो वह मुझसे एक परवाह करनेवाले बड़े भाई की तरह बात करता और यह मेरे लिए बहुत मायने रखता था। धीरे-धीरे मैं उससे बहुत प्यार करने लगा।

सन्‌ 1941 में अमरीका के मिज़ूरी राज्य के सेंट लुई शहर में एक ज़िला अधिवेशन होनेवाला था। बेन अपनी कार से वहाँ जानेवाला था, उसने हमसे पूछा कि क्या हमारा परिवार उसके साथ आना चाहेगा। यह सुनकर मैं खुशी से उछल पड़ा! आज तक मैं अपने घर से 80 किलोमीटर से ज़्यादा दूर कभी नहीं गया था, और अब मैं करीब 1,500 किलोमीटर का सफर तय करनेवाला था! लेकिन सेंट लुई पहुँचकर साक्षियों के लिए एक परेशानी खड़ी हो गयी। वहाँ के पादरियों ने अपने चर्च के लोगों को आदेश दिया कि अगर उनके घर पर साक्षियों के रहने का इंतज़ाम किया गया है तो उसे फौरन रद्द कर दिया जाए। बहुत-से लोगों ने ऐसा ही किया। हमें जिनके यहाँ रुकना था उन्हें भी डराया-धमकाया गया था। लेकिन फिर भी उन्होंने हमें खुशी-खुशी ठहराया। उन्होंने कहा कि वे अपना वादा नहीं तोड़ेंगे। उनकी हिम्मत की मैं दाद देता हूँ।

उस अधिवेशन में मेरी बहनों ने बपतिस्मा लिया। ब्रुकलिन बेथेल से आए भाई रदरफोर्ड ने उस दिन एक बहुत ही दमदार भाषण दिया, जिसमें उन्होंने उन सभी बच्चों से खड़े होने को कहा जो यहोवा की मरज़ी पूरी करना चाहते हैं। करीब 15,000 बच्चे खड़े हो गए। मैं भी खड़ा हो गया। फिर वे हमसे बोले कि जो भी प्रचार में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेना चाहता है वह “हाँ” कहे। दूसरे बच्चों के साथ मैंने भी ज़ोरदार आवाज़ में “हाँ” कहा। तालियों की गड़गड़ाहट से पूरा समाँ गूँज उठा। मैं पूरी तरह जोश से भर गया।

अधिवेशन के बाद हम पश्‍चिम वर्जिनीया में एक भाई से मिलने गए। उन्होंने बताया कि एक बार प्रचार में गुस्से से भरी भीड़ ने उन्हें बहुत पीटा और उनके ऊपर तारकोल डालकर चिड़ियों के पंख चिपका दिए। उनकी बातें सुनकर मेरा मुँह खुला-का-खुला रह गया। भाई ने कहा, “कुछ भी हो जाए, लेकिन मैं प्रचार करना बंद नहीं करूँगा।” जब हम भाई के घर से निकले, तो मैं दाविद के जैसा महसूस करने लगा। मैं गोलियत यानी अपने स्कूल के प्रिंसिपल का सामना करने के लिए तैयार था।

वापस पहुँचने पर जब मैं अपने स्कूल के प्रिंसिपल के पास गया तो वह मुझे गुस्से से घूरने लगा। मैंने मदद के लिए मन-ही-मन यहोवा से प्रार्थना की। फिर मैं एक ही साँस में बोल गया: “मैं यहोवा के साक्षियों के ज़िला अधिवेशन में गया था। अब से मैं झंडे को सलामी नहीं दूँगा!” बहुत देर तक खामोशी छायी रही। प्रिंसिपल धीरे से उठा और मेरी तरफ आया। गुस्से से उसका चेहरा तमतमा रहा था। वह चिल्लाया: “तुम्हें झंडे को सलामी देनी पड़ेगी, नहीं तो स्कूल से निकाल दिए जाओगे!” इस बार मैंने कोई समझौता नहीं किया। इतनी खुशी मुझे पहले कभी नहीं हुई थी।

स्कूल में जो कुछ भी हुआ, उसे बेन को बताने के लिए मैं बेचैन हो रहा था। उसे राज्य घर में देखकर मैं चिल्लाया: “मुझे स्कूल से निकाल दिया गया है! मैंने झंडे को सलामी देने से साफ मना कर दिया!” बेन ने अपनी बाँह मेरे गले में डाली, मुस्कराया और बोला: “सचमुच यहोवा तुमसे बहुत प्यार करता है।” (व्यव. 31:6) इन शब्दों से मुझे बड़ा हौसला मिला! 15 जून सन्‌ 1942 को मैंने बपतिस्मा ले लिया।

संतोष-भरी ज़िंदगी जीने का राज़ सीखा

द्वितीय विश्‍वयुद्ध के बाद देश की आर्थिक व्यवस्था में अचानक काफी उछाल आया और देश में ऐशो-आराम की चीज़ें खरीदने की होड़-सी लग गयी। मेरे पास अच्छी तनख्वाहवाली नौकरी थी और मैं हर वह चीज़ खरीद सकता था जो पहले मेरे लिए सिर्फ एक सपना थी। मेरे कुछ दोस्तों ने मोटरसाइकलें खरीदीं, तो कुछ ने अपने घरों की मरम्मत करवायी। मैंने भी एक नयी कार खरीद ली। ऐशो-आराम की चीज़ें पाने की चाह ने जल्द ही मेरा ध्यान राज के कामों से हटा दिया। मैं जानता था कि मैं गलत दिशा में जा रहा हूँ। लेकिन फिर 1950 में न्यू यॉर्क में एक अधिवेशन हुआ, जिसने मुझे अपनी सोच सुधारने में काफी मदद दी।

उस अधिवेशन में हर वक्‍ता ने हाज़िर लोगों को प्रचार काम में आगे बढ़ने का बढ़ावा दिया। एक वक्‍ता ने कहा: “गैर-ज़रूरी चीज़ों को ज़िंदगी से निकाल फेंको, और अपनी दौड़ पूरी करो।” मुझे ऐसा लग रहा था कि वह सिर्फ मुझसे बात कर रहा है। वहाँ मैं गिलियड क्लास के ग्रेजुएशन में भी हाज़िर हुआ। इसके बाद मैं सोचने पर मजबूर हो गया, ‘अगर मेरी उम्र के ये साक्षी ऐशो-आराम की चीज़ें ताक पर रखकर दूसरे देशों में जाकर सेवा कर सकते हैं, तो क्या मैं अपने ही देश में ऐसी सेवा नहीं कर सकता?’ अधिवेशन के खत्म होते-होते मैंने ठान लिया कि मैं पायनियर सेवा करूँगा।

इस बीच मेरा झुकाव अपनी मंडली की एक जोशीली बहन एवलीन मॉनडाक की तरफ हो गया। उसकी माँ ने एवलीन और उसके पाँच भाई-बहनों की परवरिश की थी। एवलीन की माँ एक निडर स्त्री थी। उसे एक बड़े रोमन कैथोलिक चर्च के सामने सड़क गवाही देना बहुत अच्छा लगता था। हालाँकि चर्च का पादरी कई बार उसे वहाँ से दफा होने के लिए कह चुका था, मगर वह टस-से-मस नहीं होती थी। अपनी माँ की तरह एवलीन को भी इंसानों का डर बिलकुल नहीं था।—नीति 29:25.

सन्‌ 1951 में एवलीन और मेरी शादी हो गयी। हमने अपनी-अपनी नौकरी छोड़ दी और पायनियर सेवा शुरू कर दी। एक सर्किट अध्यक्ष ने हमें बढ़ावा दिया कि हम न्यू यॉर्क शहर से करीब 160 किलोमीटर दूर अटलांटिक महासागर पर बसे गाँव अमागनसेट में जाकर सेवा करें। जब वहाँ की मंडली ने हमें बताया कि हमारे रहने के लिए वहाँ कोई जगह नहीं है तो हम एक ट्रेलर की तलाश करने लगे। मगर हमें ऐसा कोई भी ट्रेलर नहीं मिला, जिसे हम अपने बजट के मुताबिक खरीद सकते थे। फिर हमें एक ट्रेलर मिला जो बहुत पुराना और खस्ताहाल था। उसके मालिक ने हमसे 900 डॉलर माँगे, यह उतनी ही रकम थी जितनी हमें हमारी शादी के तोहफे में मिली थी। हमने वह ट्रेलर खरीद लिया, उसकी मरम्मत करवायी और अपने प्रचार के नए इलाके के लिए निकल पड़े। लेकिन जब हम वहाँ पहुँचे तो हमारे पास फूटी कौड़ी भी नहीं थी। हमारे दिमाग में एक ही सवाल घूम रहा था कि हम यहाँ कैसे अपनी पायनियर सेवा जारी रख पाएँगे।

एवलीन वहाँ घरों में साफ-सफाई करने का काम करने लगी और मुझे एक इटेलियन होटल में देर रात को सफाई करने का काम मिल गया। मेरे मालिक ने मुझसे कहा: “तुम चाहो तो बचा हुआ खाना अपनी पत्नी के लिए घर ले जा सकते हो।” मैंने ऐसा ही किया। जब मैं सुबह के दो बजे घर पहुँचा और पित्ज़ा और पास्ता को दोबारा गरम किया, ट्रेलर उसकी खुशबू से महक उठा। वह खाना हमारे लिए किसी दावत से कम नहीं था। और इस तरह की दावत खासकर तब और भी अच्छी लगती थी, जब कड़ाके की ठंड में हम ट्रेलर के अंदर ठिठुर रहे होते थे। इसके अलावा, मंडली के भाई भी कभी-कभी हमारे ट्रेलर के बाहर एक बड़ी मछली छोड़ जाते थे। अमागनसेट में उन प्यारे भाइयों के साथ सेवा करके हमने सीखा कि बुनियादी चीज़ों में खुश रहने से बड़ा संतोष मिलता है। हम कभी नहीं भूल सकते कि उन दिनों हम कितने खुश थे।

ज़्यादा सेवा करने का बढ़ावा मिला

सन्‌ 1953 में न्यू यॉर्क शहर में एक अंतर्राष्ट्रीय अधिवेशन हुआ, जिसमें विदेश से आए सैंकड़ों मिशनरियों का हमने स्वागत किया। उन्होंने हमें दिल छू लेनेवाले अपने बहुत-से अनुभव बताए। उनका जोश देखकर हम सब भी जोश से भर गए। इसके अलावा जब अधिवेशन के एक वक्‍ता ने बताया कि अभी बहुत-से देशों में राज का संदेश नहीं पहुँचा है, तो हम समझ गए कि हमें आगे क्या करना है। हमें अपनी सेवा बढ़ाने के ज़रिए खुद को परमेश्‍वर की सेवा में लगा देना है। वहीं, अधिवेशन में हमने मिशनरी ट्रेनिंग के लिए अर्ज़ी दे दी। उसी साल हमें गिलियड की 23वीं क्लास में हाज़िर होने का न्यौता मिला। यह क्लास फरवरी 1954 में शुरू हुई। उसमें हाज़िर होना हमारे लिए बहुत बड़े सम्मान की बात थी!

जब हमें पता चला कि हमें ब्राज़ील में सेवा करने के लिए भेजा जा रहा है, तो हम खुशी से झूम उठे। वहाँ पहुँचने के लिए हमें जहाज़ से 14 दिन का सफर तय करना था। सफर पर निकलने से पहले बेथेल के एक भाई ने मुझसे कहा: “आप दोनों के साथ नौ अविवाहित मिशनरी बहनें भी आ रही हैं। उनका खयाल रखना!” आप अंदाज़ा भी नहीं लगा सकते कि जब नाविकों ने मुझे दस लड़कियों के साथ आते देखा तो वे मुझ पर कितना हँसने लगे। लेकिन बहनों ने इस हालात को बड़ी अच्छी तरह सँभाल लिया। फिर भी मैंने राहत की साँस तब ली जब हम सब सही-सलामत ब्राज़ील पहुँच गए।

पुर्तगाली भाषा सीखने के बाद मुझे दक्षिण ब्राज़ील के रीओ ग्रैन्डी ड सूल राज्य में सर्किट काम करने के लिए कहा गया। हमसे पहले वहाँ जो सर्किट अध्यक्ष था उसकी शादी नहीं हुई थी। उसने मुझसे और मेरी पत्नी से कहा: “मुझे बहुत ताज्जुब हो रहा है कि एक शादीशुदा जोड़े को यहाँ सर्किट काम के लिए भेजा गया है। यह जगह बड़ी ऊबड़-खाबड़ है।” मंडलियाँ बहुत दूर-दूर पूरे देहात में फैली हुई थीं और कुछ तो ऐसी जगह पर थीं, जहाँ सिर्फ ट्रक से ही पहुँचा जा सकता था। ट्रक में चढ़ने के लिए हमें ड्राइवर के लिए खाना खरीदकर देना पड़ता था, नहीं तो वह हमें अपने ट्रक पर नहीं चढ़ने देता। ट्रक पूरा सामान से लदा होता था और जिस तरह एक सवार घोड़े पर बैठता है, हमें भी सामान पर कुछ वैसे ही बैठना पड़ता था। हम सामान पर बँधी रस्सी को कसकर पकड़ लेते थे। जब भी रास्ते में कोई घुमावदार मोड़ आता, तो हमें नीचे की गहरी खाइयाँ नज़र आतीं और हम रस्सियों को और भी कसकर थाम लेते थे। लेकिन जब हम अपनी मंज़िल पर पहुँचकर बेसब्री से हमारा इंतज़ार कर रहे भाइयों के हँसते-मुस्कराते चेहरे देखते, तो हमें लगता कि हमारा जोखिम-भरा सफर बेकार नहीं गया।

हम भाइयों के यहाँ ही ठहरते थे। हालाँकि वे बड़े गरीब थे मगर उनके दिल बहुत बड़े थे। एक अलग-थलग इलाके में सभी भाई मीट पैक करनेवाली कंपनी में काम करते थे। उन्हें इतनी कम तनख्वाह मिलती थी कि वे सिर्फ एक वक्‍त की रोटी ही जुटा पाते थे। अगर वे एक दिन काम नहीं करते तो उन्हें उस दिन की तनख्वाह नहीं मिलती थी। फिर भी वे भाई हमारे सर्किट दौरे के दौरान मंडली के प्रचार काम में हाथ बँटाने के लिए दो दिन की छुट्टी लेते थे। वे यहोवा पर भरोसा रखते थे। उन नम्र भाइयों ने हमें परमेश्‍वर के राज की खातिर बलिदान करने के बारे में ऐसे-ऐसे सबक सिखाए, जिन्हें हम कभी नहीं भूल सकते। उनके बीच रहकर हमें वह शिक्षा मिली जो दुनिया के किसी स्कूल में नहीं मिल सकती। जब मैं पुराने दिनों को याद करता हूँ तो उन भाइयों का खयाल आते ही मेरी आँखों में खुशी के आँसू छलक पड़ते हैं।

सन्‌ 1976 में मुझे अपनी बीमार माँ की देखभाल करने के लिए अमरीका लौटना पड़ा। ब्राज़ील छोड़ना हमारे लिए आसान नहीं था। लेकिन हमें इस बात की खुशी है कि हमने उस देश में हुई बेशुमार बढ़ोतरी को अपनी आँखों से देखा। जब भी कोई भाई-बहन ब्राज़ील से हमें खत लिखता है तो उन बेहतरीन दिनों की सुनहरी यादें फिर से ताज़ा हो जाती हैं।

फिर से मिलना

माँ की देखभाल करते वक्‍त भी हमने पायनियर सेवा जारी रखी और अपना गुज़ारा चलाने के लिए साफ-सफाई का काम करने लगे। सन्‌ 1980 में मेरी माँ की मौत हो गयी। वह आखिरी साँस तक यहोवा की वफादार रही। उसके बाद मुझे अमरीका में सर्किट अध्यक्ष के तौर पर सेवा करने के लिए बुलाया गया। सन्‌ 1990 में हम कनेटीकट मंडली के दौरे के लिए गए और वहाँ हमारी मुलाकात एक ऐसे इंसान से हुई जो मेरे दिल के बहुत करीब है। जी हाँ, वहाँ मेरी मुलाकात उस मंडली के प्राचीन बेन से हुई। वही बेन जिसने 50 साल पहले यहोवा की सेवा करने का फैसला लेने में मेरी मदद की थी। एक-दूसरे के गले लगकर हमें जो खुशी मिली, उसे शब्दों में बयान करना मुश्‍किल है।

सन्‌ 1996 से मैं और एवलीन न्यू जर्सी के एलीज़बेथ शहर में पुर्तगाली भाषा की मंडली में इनफर्म स्पेशल पायनियर के तौर पर सेवा कर रहे हैं। मेरी सेहत अब ठीक नहीं रहती, लेकिन अपनी प्यारी पत्नी की मदद से मैं प्रचार में जितना हो सकता है उतना करता हूँ। एवलीन पड़ोस में रहनेवाली एक कमज़ोर बुज़ुर्ग स्त्री की मदद भी करती है। वह और कोई नहीं बल्कि बार्था है। जी हाँ वही बार्था जिसने करीब 70 साल पहले मेरी माँ को सच्चाई सिखाई थी! हमें इस बात की खुशी है कि उसने सच्चाई सीखने में हमारे परिवार की जो मदद की उसके लिए हमें कदरदानी दिखाने का एक मौका मिला है।

मैं यहोवा का बहुत शुक्रगुज़ार हूँ कि मेरी ज़िंदगी के उन ज़िला अधिवेशनों ने मुझे सच्ची उपासना के लिए फैसला लेने में, सादगी भरी ज़िंदगी जीने में और प्रचार में ज़्यादा-से-ज़्यादा हिस्सा लेने के लिए उकसाया। जी हाँ उन अधिवेशनों ने मेरी ज़िंदगी का रुख बदल दिया।

[पेज 23 पर तसवीर]

एवलीन की माँ (बाएँ) और मेरी माँ

[पेज 23 पर तसवीर]

मेरा दोस्त बेन

[पेज 24 पर तसवीर]

ब्राज़ील में

[पेज 25 पर तसवीर]

एवलीन के साथ