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“तुम मेरे दोस्त हो”

“तुम मेरे दोस्त हो”

“तुम मेरे दोस्त हो”

“मैं तुम्हें जो आज्ञा देता हूँ अगर तुम वह मानो तो तुम मेरे दोस्त हो।”—यूह. 15:14.

1, 2. (क) यीशु के दोस्त किन अलग-अलग माहौल से थे? (ख) यीशु के दोस्त बनना हमारे लिए क्यों मायने रखता है?

 यरूशलेम में वह रात बहुत ही खास थी। यीशु अपने प्रेषितों के साथ फसह का त्योहार मनाने के लिए ऊपरी कमरे में बैठा था। इन सभी प्रेषितों की परवरिश अलग-अलग माहौल में हुई थी और वे अलग-अलग पेशे से भी थे। मिसाल के लिए, दो भाई पतरस और अन्द्रियास मछुवारे थे। मत्ती कर-वसूली करता था और ऐसा काम करनेवालों से ज़्यादातर यहूदी नफरत करते थे। कुछ प्रेषित, जैसे याकूब और यूहन्‍ना, यीशु को बचपन से जानते थे। जबकि दूसरों की उससे जान-पहचान कुछ ही सालों पहले हुई थी, जैसे नतनएल। (यूह. 1:43-50) फिर भी, उन सभी को पक्का यकीन था कि यीशु ही वादा किया हुआ मसीहा और जीवित परमेश्‍वर का बेटा है। (यूह. 6:68, 69) उस रात यीशु ने अपने प्रेषितों से कहा: “मैंने तुम्हें अपना दोस्त कहा है, क्योंकि मैंने अपने पिता से जो कुछ सुना है वह सब तुम्हें बता दिया है।” (यूह. 15:15) यह सुनकर उनका दिल प्यार से कैसे उमड़ पड़ा होगा!

2 यीशु के ये शब्द आज खासकर सभी अभिषिक्‍त मसीहियों पर और कुछ हद तक उनके साथी, “दूसरी भेड़ों” पर लागू होते हैं। (यूह. 10:16) इसलिए चाहे हमारी परवरिश किसी भी माहौल में क्यों न हुई हो, हम यीशु के दोस्त बनने का सम्मान पा सकते हैं। यह दोस्ती हमारे लिए बहुत मायने रखती है, क्योंकि इससे हम यहोवा के भी दोस्त बन पाते हैं। दरअसल, हम परमेश्‍वर के करीब तभी आ सकते हैं, जब हम यीशु के करीब हों। (यूहन्‍ना 14:6, 21 पढ़िए।) मगर हम यीशु के दोस्त कैसे बन सकते हैं? उसके साथ अपनी दोस्ती बरकरार रखने के लिए हमें क्या करना होगा? इन सवालों के जवाब पाना हमारे लिए निहायत ज़रूरी है। मगर उससे पहले आइए यह जानें कि एक अच्छा दोस्त बनने में यीशु ने क्या मिसाल कायम की। और यह भी कि उसकी दोस्ती का उसके चेलों पर जो असर हुआ, उससे हम क्या सीख सकते हैं।

यीशु—दोस्तों का दोस्त

3. यीशु किस लिए जाना गया?

3 बुद्धिमान राजा सुलैमान ने लिखा: “धनी के बहुतेरे प्रेमी होते हैं।” (नीति. 14:20) यह आयत दिखाती है, असिद्ध इंसानों में यह फितरत होती है कि वे दोस्ती में हमेशा अपना फायदा देखते हैं। वे देने की नहीं बल्कि हमेशा पाने की सोचते हैं। मगर यीशु में ऐसी फितरत नहीं थी। वह यह देखकर लोगों से दोस्ती नहीं करता था कि वे कितने अमीर या रुतबेदार हैं। यह सच है कि यीशु ने एक धनी, जवान अधिकारी के लिए प्यार महसूस किया और उसे अपने पीछे हो लेने को कहा। मगर यीशु ने उससे यह भी कहा कि उसके पास जो कुछ है, उसे बेचकर गरीबों में बाँट दे। (मर. 10:17-22; लूका 18:18, 23) यीशु इस बात के लिए मशहूर नहीं हुआ कि उसकी पहुँच नामी-गिरामी लोगों और रईसों तक थी। इसके बजाय, यीशु इस बात के लिए जाना गया कि उसने दीन-दुखियों और तुच्छ लोगों से दोस्ती की।—मत्ती 11:19.

4. यह क्यों कहा जा सकता है कि यीशु के दोस्तों में कई खामियाँ थीं?

4 इसमें कोई शक नहीं कि यीशु के दोस्तों में कई खामियाँ थीं। मसलन, पतरस कई बार मामलों को परमेश्‍वर के नज़रिए से देखने में चूक गया। (मत्ती 16:21-23) याकूब और यूहन्‍ना पर बड़ा बनने का जुनून सवार था। इसलिए उन्होंने यीशु से कहा कि वह उन्हें अपने राज में ऊँची पदवी दे। जब इस बात की खबर दूसरे प्रेषितों के कानों में पड़ी, तो वे भड़क उठे। उनमें कौन बड़ा है, यह मसला उनके बीच लंबे समय तक गरमा-गरम बहस का मुद्दा बना रहा। इन सबके बावजूद, यीशु एक बार भी नहीं झुंझलाया। वह सब्र से काम लेते हुए उनकी गलत सोच सुधारता रहा।—मत्ती 20:20-28.

5, 6. (क) यीशु अपने ज़्यादातर प्रेषितों का दोस्त क्यों बना रहा? (ख) यीशु ने यहूदा से अपनी दोस्ती क्यों तोड़ दी?

5 यीशु इस वजह से उन असिद्ध लोगों का दोस्त नहीं बना रहा कि उसने उन्हें ढील दे रखी थी या वह उनकी गलतियों को देखकर भी अनदेखा कर रहा था। इसके बजाय, उसने उनके नेक इरादे और अच्छे गुणों पर ध्यान देने का फैसला किया। उदाहरण के लिए, यीशु की ज़िंदगी की सबसे मुश्‍किल घड़ी में उसका साथ देने के बजाय पतरस, याकूब और यूहन्‍ना सो गए। ऐसे में यीशु का निराश होना लाज़िमी था। फिर भी यीशु ने देखा कि उन्होंने ऐसा जान-बूझकर नहीं किया। उसने कहा: “दिल तो बेशक तैयार है, मगर शरीर कमज़ोर है।”—मत्ती 26:41.

6 दूसरी तरफ, यीशु ने यहूदा इस्करियोती से अपनी दोस्ती तोड़ दी। यहूदा एक वक्‍त पर यीशु का करीबी दोस्त था। मगर फिर उसने अपना मन भ्रष्ट होने दिया। उसने दुनिया से दोस्ती कर खुद को परमेश्‍वर का दुश्‍मन बना लिया। (याकू. 4:4) इसके बाद भी वह दोस्ती का नाटक करता रहा। लेकिन यीशु से उसका दिखावा छिपा न रहा। इसलिए अपने 11 वफादार प्रेषितों से अपनी दोस्ती का इकरार करने से पहले उसने यहूदा को कमरे से बाहर भेज दिया।—यूह. 13:21-35.

7, 8. यीशु ने अपने दोस्तों के लिए अपना प्यार कैसे ज़ाहिर किया?

7 यीशु ने अपने सच्चे दोस्तों में हमेशा अच्छाइयाँ ढूँढ़ीं और उनकी खातिर भलाई की। उदाहरण के लिए, यीशु ने अपने पिता से विनती की कि परीक्षाओं की घड़ी में वह उनकी हिफाज़त करे। (यूहन्‍ना 17:11 पढ़िए।) यीशु अपने दोस्तों की हद पहचानता था और उनके लिए लिहाज़ दिखाता था। (मर. 6:30-32) इसके अलावा, वह उन्हें सिर्फ अपनी राय नहीं बताता था, बल्कि उनकी राय जानने और उनकी भावनाएँ समझने में भी दिलचस्पी रखता था।—मत्ती 16:13-16; 17:24-26.

8 यीशु की ज़िंदगी और मौत, दोनों से उसके दोस्तों को फायदा पहुँचा। बेशक, उसे पता था कि अपने पिता यहोवा के न्याय की माँग को पूरा करने के लिए उसे अपनी जान कुरबान करनी होगी। (मत्ती 26:27, 28; इब्रा. 9:22, 28) मगर उसने सिर्फ इस वजह से ही अपनी जान नहीं दी, बल्कि अपना प्यार ज़ाहिर करने के लिए भी ऐसा किया। उसने कहा: “इससे बढ़कर प्यार कोई क्या करेगा कि वह अपने दोस्तों की खातिर अपनी जान दे दे।”—यूह. 15:13.

चेलों पर यीशु की दोस्ती का असर

9, 10. लोगों ने यीशु की दरियादिली का क्या सिला दिया?

9 यीशु दरियादिल था। वह लोगों से बहुत प्यार करता था और उनके साथ काफी वक्‍त बिताता था। वह ज़रूरतमंदों की भी मदद करता था। यही वजह थी कि लोग यीशु के पास खिंचे चले आते थे और बदले में वे भी उसकी मदद करने के लिए अपने साधन लगाते थे। (लूका 8:1-3) अपने अनुभव से यीशु कह पाया: “दिया करो, और लोग तुम्हें भी देंगे। वे तुम्हारी झोली में नाप भर-भरकर, दबा-दबाकर और अच्छी तरह हिला-हिलाकर और ऊपर तक भरकर डालेंगे। इसलिए कि जिस नाप से तुम नापते हो, बदले में वे भी उसी नाप से तुम्हारे लिए नापेंगे।”—लूका 6:38.

10 मगर कुछ लोग ऐसे थे, जिन्होंने सिर्फ अपने मतलब के लिए यीशु से दोस्ती की। इसलिए जब यीशु की कही कुछ बात उनकी समझ नहीं आयी, तो उन्होंने उसका साथ छोड़ दिया। उन झूठे दोस्तों ने इतना भी भरोसा नहीं दिखाया कि यीशु कभी गलत नहीं हो सकता। वे गलत नतीजे पर पहुँचे और उससे मुँह फेर लिया। इसके उलट, प्रेषित उसके वफादार बने रहे। हालाँकि मसीह के साथ उनकी दोस्ती की कई बार परख हुई, लेकिन उन्होंने यीशु के अच्छे-बुरे दोनों वक्‍त में उसका साथ निभाया। (यूहन्‍ना 6:26, 56, 60, 66-68 पढ़िए।) इसलिए यीशु उनका बहुत एहसानमंद था। इस धरती पर अपनी आखिरी रात में, उसने अपने इन अज़ीज़ दोस्तों से कहा: “तुम वे हो जो मेरी परीक्षाओं के दौरान लगातार मेरे साथ रहे।”—लूका 22:28.

11, 12. यीशु ने अपने चेलों को क्या भरोसा दिलाया? इस पर चेलों ने क्या किया?

11 यीशु ने अपने चेलों की वफादारी के लिए उनकी तारीफ की। मगर इसके फौरन बाद जब उनके ऊपर खतरा आया, तो वे उसे छोड़कर भाग खड़े हुए। कुछ पल के लिए, उन पर लोगों का डर इस कदर हावी हो गया कि यीशु के लिए उनका प्यार कमज़ोर पड़ गया। फिर भी यीशु ने उन्हें माफ किया। अपनी मौत और जी उठने के बाद जब वह उनसे मिला, तो उसने उन्हें भरोसा दिलाया कि वह हमेशा उनका दोस्त बना रहेगा। यही नहीं, उसने उन्हें यह पवित्र काम भी सौंपा, “सब राष्ट्रों के लोगों को मेरा चेला बनना सिखाओ” और “दुनिया के सबसे दूर के इलाकों में मेरे बारे में गवाही” दो। (मत्ती 28:19; प्रेषि. 1:8) इस पर चेलों ने क्या किया?

12 वे दिलो-जान से राज का संदेश सुनाने लगे। यहोवा की पवित्र शक्‍ति की मदद से उन्होंने जल्द ही सारे यरूशलेम को अपनी शिक्षाओं से भर दिया। (प्रेषि. 5:27-29) यहाँ तक कि मौत की धमकी मिलने पर भी वे चेला बनाने के काम से पीछे नहीं हटे। इसलिए कुछ ही दशकों बाद, प्रेषित पौलुस ने लिखा कि खुशखबरी का प्रचार “दुनिया के कोने-कोने में किया जा चुका है।” (कुलु. 1:23) वाकई, इन चेलों ने यह साबित कर दिखाया कि उन्हें यीशु की दोस्ती जान से भी प्यारी है!

13. यीशु के चेलों पर उसकी शिक्षाओं का कैसा असर हुआ?

13 यीशु के चेलों पर उसकी शिक्षाओं का भी बहुत गहरा असर हुआ। कइयों ने चालचलन के मामले में बड़ी-बड़ी तबदीलियाँ की और कुछ ने तो अपनी पूरी शख्सियत ही बदल डाली। क्योंकि वे समलिंगी, शादी के बाहर यौन-संबंध रखनेवाले, पियक्कड़ या चोर थे। (1 कुरिं. 6:9-11) दूसरों ने ऊँच-नीच का रवैया छोड़ा। (प्रेषि. 10:25-28) उन सभों ने यीशु की आज्ञा मानी। उन्होंने अपनी पुरानी शख्सियत उतारी और नयी शख्सियत पहनी। (इफि. 4:20-24) उन्होंने “मसीह का मन” जाना, यानी यीशु के काम करने और सोचने का तरीका समझा और उसे अपनी ज़िंदगी में लागू किया।—1 कुरिं. 2:16.

यीशु के साथ हमारी दोस्ती

14. यीशु ने “दुनिया की व्यवस्था के आखिरी वक्‍त” में क्या करने का वादा किया?

14 पहली सदी के कई मसीही, यीशु को निजी तौर पर जानते थे या फिर उसके जी उठने के बाद उसे देखा था। बेशक यह खास सम्मान आज हमें नहीं मिला है। तो फिर, हम मसीह के दोस्त कैसे बन सकते हैं? एक तरीका है, विश्‍वासयोग्य और सूझ-बूझ से काम लेनेवाला दास वर्ग हमें जो निर्देशन देता है, उसे मानना। यह दास वर्ग यीशु के उन अभिषिक्‍त भाइयों से बना है, जो आज धरती पर जिंदा हैं। यीशु ने वादा किया था कि “दुनिया की व्यवस्था के आखिरी वक्‍त” में वह इस दास को “अपनी सारी संपत्ति” पर अधिकारी ठहराएगा। (मत्ती 24:3, 45-47) आज जो लोग मसीह के दोस्त हैं, उनमें से ज़्यादातर इस दास वर्ग के सदस्य नहीं हैं। वे दास वर्ग से मिलनेवाले निर्देशन की तरफ जिस तरह का रवैया दिखाते हैं, उसका मसीह के साथ उनकी दोस्ती पर क्या असर होता है?

15. एक इंसान भेड़ सरीखा है या बकरी, यह किस बात से तय होगा?

15 मत्ती 25:31-40 पढ़िए। इन आयतों में यीशु ने भेड़ों को बकरियों से अलग करने की मिसाल दी। इस मिसाल के ज़रिए उसने साफ-साफ बताया कि हम जिस तरह उसके अभिषिक्‍त भाइयों के साथ पेश आते हैं, यह ऐसा है मानो हम यीशु के साथ पेश आ रहे हैं। यीशु ने यह भी बताया कि एक इंसान उसके “छोटे-से-छोटे भाइयों” के साथ जैसा बर्ताव करता है, उसी से तय होगा कि वह भेड़ सरीखा है या बकरी। इसलिए धरती पर जीने की आशा रखनेवालों के लिए यीशु के साथ दोस्ती करने का सबसे अहम तरीका है, विश्‍वासयोग्य दास वर्ग का साथ देना।

16, 17. हम कैसे दिखा सकते हैं कि हम मसीह के भाइयों के दोस्त हैं?

16 क्या आप उस समय धरती पर जीने की उम्मीद करते हैं, जब परमेश्‍वर का राज हुकूमत करेगा? अगर हाँ, तो आप कैसे दिखा सकते हैं कि आप मसीह के भाइयों के दोस्त हैं? आइए सिर्फ तीन तरीकों पर गौर करें। पहला, प्रचार काम में तन-मन से हिस्सा लेकर। मसीह ने अपने भाइयों को आज्ञा दी कि वे खुशखबरी का प्रचार सारे जगत में करें। (मत्ती 24:14) आज इस धरती पर मसीह के कुछ ही भाई रह गए हैं। इसलिए अगर उनके साथी, यानी दूसरी भेड़ के सदस्य उनकी मदद नहीं करते, तो यह ज़िम्मेदारी पूरी करना उनके लिए काफी मुश्‍किल होता। जी हाँ, जब कभी दूसरी भेड़ के सदस्य प्रचार काम में हिस्सा लेते हैं, वे मसीह के भाइयों को उनका पवित्र काम पूरा करने में हाथ बँटा रहे होते हैं। मसीह के साथ-साथ विश्‍वासयोग्य और सूझ-बूझ से काम लेनेवाला दास, उनकी इस दोस्ती की बहुत कदर करता है।

17 मसीह के भाइयों के साथ दोस्ती निभाने का दूसरा तरीका है, प्रचार काम में आर्थिक मदद देना। यीशु ने अपने चेलों को उकसाया कि वे “बेईमानी की दौलत” से अपने लिए दोस्त बनाएँ। (लूका 16:9) इसका मतलब यह नहीं कि हम यहोवा और यीशु की दोस्ती खरीद सकते हैं। इसके बजाय इसका मतलब है, प्रचार काम को आगे बढ़ाने के लिए अपनी संपत्ति लगाना। इस तरह, हम न सिर्फ अपनी बातों से बल्कि “अपने कामों से और सच्चे दिल से” दोस्ती और प्यार का सबूत देते हैं। (1 यूह. 3:16-18) आर्थिक मदद देने के तरीके हैं, प्रचार काम में हिस्सा लेना, उपासना की जगह के निर्माण और देखभाल के लिए, साथ ही पूरी दुनिया में किए जानेवाले प्रचार के लिए दान देना। चाहे हम थोड़ा दें या ज़्यादा, जब हम खुशी-खुशी देते हैं, तो यहोवा और यीशु उसकी बहुत कदर करते हैं।—2 कुरिं. 9:7.

18. मंडली के प्राचीन जब बाइबल पर आधारित कोई निर्देशन देते हैं, तो हमें क्यों उसे मानना चाहिए?

18 हम यीशु के भाइयों के दोस्त हैं, यह साबित करने का तीसरा तरीका है मंडली के प्राचीनों की हिदायतें मानना। इन प्राचीनों को मसीह के निर्देशन में और पवित्र शक्‍ति के ज़रिए ठहराया जाता है। (इफि. 5:23) प्रेषित पौलुस ने लिखा: “तुम्हारे बीच जो अगुवाई करते हैं उनकी आज्ञा मानो और उनके अधीन रहो।” (इब्रा. 13:17) प्राचीन हमें बाइबल पर आधारित कई निर्देशन देते हैं। पर कभी-कभी उन्हें मानना हमें मुश्‍किल लग सकता है। हम शायद उनकी कमियों से वाकिफ हों और इस वजह से हम उनकी सलाह का गलत मतलब निकाल सकते हैं। मगर ऐसे में हमें याद रखना चाहिए कि मंडली का सिर, मसीह इन असिद्ध पुरुषों का इस्तेमाल करने में खुश है। इसलिए उनके अधिकार के लिए हम जो रवैया दिखाते हैं, उसका मसीह के साथ हमारी दोस्ती पर गहरा असर पड़ता है। जब हम प्राचीनों की खामियों को नज़रअंदाज़ करते हैं और खुशी-खुशी उनके निर्देश मानते हैं, तो हम मसीह के लिए अपना प्यार ज़ाहिर कर रहे होते हैं।

हमें अच्छे दोस्त कहाँ मिल सकते हैं?

19, 20. हम मंडली में क्या पा सकते हैं? अगले लेख में हम किस बारे में चर्चा करेंगे?

19 यीशु लगातार हमारी देखभाल करता है। वह ऐसा न सिर्फ प्यार करनेवाले चरवाहों के ज़रिए बल्कि मंडली के दूसरे भाई-बहनों के ज़रिए भी करता है, जो एक तरह से हमारे माता-पिता और भाई-बहन बन जाते हैं। (मरकुस 10:29, 30 पढ़िए।) जब आपने पहली बार यहोवा के संगठन के साथ संगति करना शुरू किया, तब आपके परिवार और नाते-रिश्‍तेदारों को कैसा लगा? हमें उम्मीद है कि परमेश्‍वर और मसीह के करीब आने में उन्होंने ज़रूर आपकी मदद की होगी। मगर यीशु ने खबरदार किया था कि कभी-कभी “एक आदमी के दुश्‍मन उसके अपने ही घराने के लोग” होते हैं। (मत्ती 10:36) तो क्या यह जानकर हमें सुकून नहीं मिलता कि मंडली में हमें ऐसे दोस्त मिल सकते हैं, जो आड़े वक्‍त में सगे भाई से भी बढ़कर हमारे करीब रहेंगे?—नीति. 18:24.

20 रोम की मंडली को लिखी अपनी चिट्ठी के आखिर में, पौलुस ने कई मसीहियों का नाम लेकर उन्हें दुआ-सलाम भेजा। इससे साफ ज़ाहिर है कि उसके बहुत-से करीबी दोस्त थे। (रोमि. 16:8-16) प्रेषित यूहन्‍ना ने अपनी तीसरी चिट्ठी के आखिर में कहा: “वहाँ के सभी दोस्तों को एक-एककर मेरी तरफ से नमस्कार कहना।” (3 यूह. 14) यह दिखाता है कि उसकी भी बहुत-से लोगों के साथ पक्की दोस्ती थी। मंडली के भाई-बहनों के साथ दोस्ती करने और उसे बरकरार रखने के लिए हम यीशु और पहली सदी के उसके चेलों की मिसाल पर कैसे चल सकते हैं? इस सवाल का जवाब अगले लेख में दिया जाएगा।

आप क्या जवाब देंगे?

• एक अच्छा दोस्त बनने में यीशु ने कैसी मिसाल कायम की?

• यीशु की दोस्ती का उसके चेलों पर क्या असर हुआ?

• हम कैसे साबित कर सकते हैं कि हम मसीह के दोस्त हैं?

[अध्ययन के लिए सवाल]

[पेज 14 पर तसवीर]

यीशु अपने दोस्तों की राय जानने और उनकी भावनाएँ समझने में दिलचस्पी रखता था

[पेज 16 पर तसवीरें]

हम कैसे दिखा सकते हैं कि हम मसीह के दोस्त बनना चाहते हैं?