क्या आपको याद है?
क्या आपको याद है?
क्या आपने हाल की प्रहरीदुर्ग पत्रिकाएँ पढ़ने का आनंद लिया है? देखिए कि क्या आप नीचे दिए गए सवालों के जवाब दे पाते हैं या नहीं:
• मसीहा का मरना क्यों ज़रूरी था?
यीशु की मौत ने साबित कर दिया कि कड़ी-से-कड़ी परीक्षा में भी एक सिद्ध इंसान परमेश्वर के लिए अपनी भक्ति कायम रख सकता है। साथ ही उसने आदम की संतान को विरासत में मिले पाप का जुर्माना भरा, जिस वजह से हमेशा की ज़िंदगी पाने का रास्ता खुल गया।—12/15, पेज 22-23.
• बच्चों के साथ अच्छी बातचीत करने में क्या शामिल है?
अच्छी बातचीत करने का मतलब सिर्फ उनसे बात करना नहीं है, इसमें सवाल पूछना और सब्र से उनका जवाब सुनना भी शामिल है। कई परिवारों ने पाया है कि अच्छी बातचीत करने का बढ़िया समय है, खाने का समय।—1/15, पेज 18-19.
• किन हालात में शायद एक मसीही फिर से बपतिस्मा लेने की सोचे?
ऐसा तब मुमकिन है जब एक व्यक्ति शायद अपने बपतिस्मे के वक्त चोरी-छिपे कुछ ऐसा काम कर रहा था या ऐसी ज़िंदगी जी रहा था कि अगर वह बपतिस्मा-शुदा होता, तो उसे बहिष्कृत किया जाता।—2/15, पेज 22.
• यीशु ने गेहूँ और जंगली पौधों की जो मिसाल दी उसमें बढ़िया बीज का बोना क्या दर्शाता है?
इंसान के बेटे यीशु ने धरती पर सेवा के दौरान बीज बोने के लिए खेत तैयार किए। ईसवी सन् 33 में पिन्तेकुस्त त्योहार के दिन से बढ़िया बीज बोना शुरू हुआ, जब मसीहियों का अभिषेक परमेश्वर के बेटों यानी राज के बेटों के तौर पर किया गया।—3/15, पेज 20.
• यीशु की मिसाल में बताए लाक्षणिक गेहूँ को कैसे यहोवा के गोदाम में लाया जा रहा है? (मत्ती 13:30)
इसकी पूर्ति व्यवस्था के आखिरी दिनों के दौरान भी चल रही है। जब राज के अभिषिक्त बेटे यानी लाक्षणिक गेहूँ उस मसीही मंडली में लाए जाते हैं जिसे शुद्ध करके बहाल किया गया है या जब उन्हें स्वर्गीय जीवन का इनाम मिलता है तो वे यहोवा के गोदाम में लाए जाते हैं।—3/15, पेज 22.
• किसने यह तय किया कि मसीही यूनानी शास्त्र में कौन-सी किताबें शामिल की जाएँगी?
यह किसी चर्च की सभा ने या किसी धर्म-गुरु ने तय नहीं किया। इसके बजाय सच्चे मसीहियों ने परमेश्वर की पवित्र शक्ति के मार्गदर्शन से यह पहचाना कि कौन-सी किताबें वाकई में परमेश्वर की प्रेरणा से लिखी गयी हैं। यह इस बात से भी मेल खाता है कि मसीही मंडली के शुरुआती दशकों में मसीहियों को पवित्र शक्ति की मदद से कई चमत्कारिक वरदान मिले थे जिनमें से एक था “प्रेरित वचनों को परखने का” वरदान। (1 कुरिं. 12:4, 10)—4/1, पेज 28.