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“कौन है जो यहोवा का मन जान सका है?”

“कौन है जो यहोवा का मन जान सका है?”

“कौन है जो यहोवा का मन जान सका है?”

“‘कौन है जो यहोवा का मन जान सका है कि वह उसे हिदायत दे सके?’ मगर हमारे पास मसीह का मन है।”—1 कुरिं. 2:16.

1, 2. (क) कई लोगों को क्या बात मुश्‍किल लगती है? (ख) हमें अपनी सोच और यहोवा की सोच के बारे में क्या याद रखना चाहिए?

 एक इंसान जिस तरीके से सोचता है, क्या उसे समझना कभी-कभी आपको मुश्‍किल लगता है? शायद आपकी नयी-नयी शादी हुई हो और आपको लगता हो कि आप अपने साथी को पूरी तरह कभी नहीं समझ पाएँगे। वाकई, स्त्री और पुरुष के सोचने का तरीका, यहाँ तक कि बोलने का तरीका भी अलग होता है। कई संस्कृतियों में तो स्त्री और पुरुष एक ही भाषा की अलग-अलग बोलियों में एक-दूसरे से बात करते हैं। कभी-कभी उनकी संस्कृति और भाषा अलग होने की वजह से उनके सोचने और व्यवहार करने का तरीका भी अलग होता है। लेकिन एक इंसान जितना ज़्यादा दूसरे के बारे में जानेगा, वह उतना ही उसके सोचने के तरीके को समझेगा।

2 उसी तरह हमारे लिए यहोवा के सोचने के तरीके को समझना मुश्‍किल हो सकता है क्योंकि उसकी और हमारी सोच में बहुत अंतर है। भविष्यवक्‍ता यशायाह के ज़रिए यहोवा ने इसराएलियों से कहा: “मेरे विचार और तुम्हारे विचार एक समान नहीं हैं, न तुम्हारी गति और मेरी गति एक सी है।” फिर यहोवा ने एक मिसाल देकर अपनी बात यूँ समझायी: “मेरी और तुम्हारी गति में और मेरे और तुम्हारे सोच विचारों में, आकाश और पृथ्वी का अन्तर है।”—यशा. 55:8, 9.

3. हम किन दो तरीकों से यहोवा के करीब आने की कोशिश कर सकते हैं?

3 अगर ऐसी बात है तो क्या हमें यहोवा के सोचने के तरीका को समझने की कोशिश भी नहीं करनी चाहिए? नहीं ऐसा नहीं है। बेशक हम उसके सारे सोच-विचार पूरी तरह कभी नहीं समझ सकते, मगर बाइबल हमें यहोवा को करीब से जानने का बढ़ावा देती है। यहोवा के कामों की कदर करने, जिनका ज़िक्र उसके वचन बाइबल में किया गया है और उन पर गहराई से सोचने से हम उसके करीब आ सकते हैं। (भज. 28:5) उसके करीब आने का एक और तरीका है, “मसीह का मन” जानना जो “अदृश्‍य परमेश्‍वर की छवि है।” (1 कुरिं. 2:16; कुलु. 1:15) समय निकालकर बाइबल में दर्ज़ वाकयों को पढ़ने और उन पर मनन करने से हम यहोवा के गुणों और उसके सोचने के तरीके को धीरे-धीरे समझ पाएँगे।

गलत रवैए से खबरदार

4, 5. (क) हमें किस रवैए से दूर रहने की ज़रूरत है? समझाइए। (ख) इसराएली किस गलत सोच के फंदे में फँस गए?

4 जब हम यहोवा के कामों पर मनन करते हैं तब हमें उसे अपने स्तरों के मुताबिक जाँचने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। भजन 50:21 में यहोवा ने ऐसी इंसानी फितरत के बारे में यूँ कहा: “तू ने समझ लिया कि परमेश्‍वर बिलकुल मेरे समान है।” कुछ ऐसी ही बात बाइबल के एक विद्वान ने करीब 175 साल पहले कही थी: “इंसान की फितरत होती है कि वह परमेश्‍वर को अपने स्तरों की कसौटी पर परखता है और सोचता है कि परमेश्‍वर भी इंसानी नियमों में बँधा है।”

5 हमें ध्यान रखना है कि हम अपने स्तरों और मरज़ी के मुताबिक यहोवा को समझने की कोशिश न करें। यह क्यों ज़रूरी है? हो सकता है बाइबल का अध्ययन करते वक्‍त यहोवा के कुछ काम हम असिद्ध इंसानों को ठीक न लगे क्योंकि हमारे सोचने का दायरा सीमित है। प्राचीन समय के इसराएली अपने असिद्ध नज़रिए से यहोवा को परखने लगे थे, जिस वजह से उन्होंने उसके व्यवहार के बारे में गलत नतीजा निकाला। ध्यान दीजिए कि यहोवा ने उनसे क्या कहा: “तुम लोग कहते हो, कि प्रभु की गति एक सी नहीं। हे इस्राएल के घराने, देख, क्या मेरी गति एक सी नहीं? क्या तुम्हारी ही गति अनुचित नहीं है?”—यहे. 18:25.

6. अय्यूब ने क्या सबक सीखा और उसके उदाहरण से हम क्या सीख सकते हैं?

6 अगर हम यह समझ लेंगे कि यहोवा के मुकाबले हमारी सोच बहुत सीमित है और कई बार तो हम बिलकुल गलत होते हैं, तब हम यहोवा को अपने स्तरों पर नहीं परखेंगे। अय्यूब को यही सबक सीखने की ज़रूरत थी। मुसीबत के दौर में अय्यूब बहुत निराश हो गया था। वह अपने ही बारे में सोचने लगा और ज़्यादा ज़रूरी बातों पर गौर करने से चूक गया। लेकिन यहोवा ने बड़े प्यार से उसकी सोच सुधारी। उसने अय्यूब से 70 से भी ज़्यादा सवाल पूछे, जिनमें से अय्यूब एक का भी जवाब नहीं दे पाया। इस तरह यहोवा ने अय्यूब पर यह ज़ाहिर किया कि उसकी सोच बहुत सीमित है। अय्यूब ने अपनी इस कमी को नम्रता से कबूल किया और अपनी सोच सुधारी।अय्यूब 42:1-6 पढ़िए।

“मसीह का मन” जानना

7. यीशु के कामों को जाँचने से कैसे हमें यहोवा की सोच को समझने में मदद मिलेगी?

7 यीशु अपनी बातों और कामों में अपने पिता की मिसाल पर चला। (यूह. 14:9) इसलिए उसके कामों को परखने से हम यहोवा के सोचने के तरीके को समझ पाएँगे। (रोमि. 15:5; फिलि. 2:5) आइए हम खुशखबरी की किताबों के दो उदाहरणों पर गौर करें।

8, 9. जैसा कि यूहन्‍ना 6:1-5 में दर्ज़ है, किन हालात में यीशु ने फिलिप्पुस से सवाल पूछा और क्यों?

8 इस दृश्‍य की कल्पना कीजिए। ईसवी सन्‌ 32 के फसह के पर्व से कुछ समय पहले की बात है। यीशु के प्रेषित अभी-अभी पूरे गलील में ज़बरदस्त प्रचार करके लौटे हैं। थके-माँदे होने की वजह से यीशु उन्हें गलील सागर के उत्तर पूर्वी तट पर एकांत में ले जाता है। मगर हज़ारों लोग उसके पीछे-पीछे चले आते हैं। यीशु इस भीड़ को चंगा करता है और उन्हें बहुत-सी बातें सिखाता है। अब एक परेशानी खड़ी होती है। वह यह कि इस सुनसान जगह पर इतनी बड़ी भीड़ को खाना कैसे खिलाया जाए? यीशु ने इस ज़रूरत को समझते हुए, उसी इलाके के रहनेवाले एक चेले फिलिप्पुस से पूछा: “हम इनके खाने के लिए रोटियाँ कहाँ से खरीदें?”—यूह. 6:1-5.

9 यीशु ने फिलिप्पुस से यह क्यों पूछा? क्या यीशु को यह चिंता हो रही थी कि इतनी बड़ी भीड़ के लिए खाना कहाँ से आएगा? नहीं, यह बात नहीं है। तो फिर वह असल में क्या सोच रहा था? उस वक्‍त प्रेषित यूहन्‍ना भी वहीं मौजूद था, वह बताता है: “[यीशु] उसे परखने के लिए यह बात कह रहा था, क्योंकि वह जानता था कि वह खुद क्या करने जा रहा है।” (यूह. 6:6) यहाँ यीशु अपने चेलों के विश्‍वास को परख रहा था। यह सवाल पूछकर वह उनका ध्यान उस वक्‍त खड़ी हुई समस्या की तरफ खींच रहा था और उन्हें अपने विश्‍वास को ज़ाहिर करने का मौका दे रहा था कि यीशु में क्या करने की ताकत है। लेकिन विश्‍वास ज़ाहिर करने के बजाय उन्होंने दिखाया कि उनका नज़रिया कितना सीमित है। (यूहन्‍ना 6:7-9 पढ़िए।) फिर यीशु ने कुछ ऐसा कर दिखाया जिसकी उन्होंने कल्पना तक नहीं की थी। उसने चमत्कार करके हज़ारों लोगों को खाना खिलाया।—यूह. 6:10-13.

10-12. (क) यीशु ने शायद क्यों उस यूनानी स्त्री की इच्छा तुरंत पूरी नहीं की? समझाइए। (ख) हम अब किस बात पर चर्चा करेंगे?

10 इस वाकए को समझने से हमें एक और घटना पर यीशु की सोच को समझने में मदद मिलती है। भीड़ को खाना खिलाने के कुछ ही समय बाद यीशु और उसके प्रेषित, इसराएल की सीमा पार उत्तर की तरफ, सोर और सीदोन के इलाके के पास गए। वहाँ वे एक यूनानी स्त्री से मिले। स्त्री ने यीशु से बिनती की कि वह उसकी बेटी को ठीक कर दे। पहले तो यीशु ने उसकी बात पर गौर नहीं किया। पर जब वह बिनती करती रही तो यीशु ने उससे कहा: “पहले बच्चों को जी भर के खा लेने दो, क्योंकि बच्चों की रोटी लेकर पिल्लों के आगे फेंकना सही नहीं है।”—मर. 7:24-27.

11 यीशु ने पहले इस स्त्री की मदद करने से इनकार क्यों किया? क्या यीशु फिलिप्पुस की तरह इस स्त्री के विश्‍वास को भी परख रहा था कि वह इसे कैसे ज़ाहिर करेगी? हालाँकि बाइबल यह नहीं बताती कि यीशु ने किस लहज़े में बात की मगर इतना ज़रूर है कि वह यीशु की बात से निराश नहीं हुई। यीशु ने उसके लोगों की तुलना “पिल्लों” से की ताकि उसके मन को ठेस न पहुँचे। शायद यीशु ऐसे माँ-बाप की तरह व्यवहार कर रहा था जो अपने बच्चे की ख्वाहिश पूरी तो करना चाहते हैं, मगर बाहर से नहीं दिखाते क्योंकि वे परखना चाहते हैं कि बच्चा उस चीज़ को पाने के लिए कितना बेचैन है। बात चाहे जो रही हो, उस स्त्री ने यीशु पर अपना विश्‍वास ज़ाहिर किया और यीशु ने खुशी-खुशी उसकी इच्छा पूरी की।मरकुस 7:28-30 पढ़िए।

12 खुशखबरी की किताबों में लिखी ये दो घटनाएँ हमें और भी गहराई से “मसीह का मन” समझने में मदद देती हैं। आइए देखें कि इन घटनाओं से हम कैसे यहोवा के मन को और अच्छी तरह समझ सकते हैं?

मूसा के साथ यहोवा का व्यवहार

13. यीशु के सोचने के तरीके को जान लेने से हमें क्या मदद मिलती है?

13 हमने अभी यीशु के सोचने के तरीके को और अच्छी तरह जाना है। इससे हमें बाइबल की उन घटनाओं को समझने में मदद मिलेगी जिन्हें समझना शायद हमें मुश्‍किल लगा हो। उदाहरण के लिए ज़रा उस बात पर गौर कीजिए जो यहोवा ने मूसा से उस वक्‍त कही थी, जब इसराएलियों ने उपासना के लिए सोने का बछड़ा बनाया था। परमेश्‍वर ने कहा: “मैं ने इन लोगों को देखा, और सुन, वे हठीले हैं। अब मुझे मत रोक, मेरा कोप उन पर भड़क उठा है जिस से मैं उन्हें भस्म करूं; परन्तु तुझ से एक बड़ी जाति उपजाऊंगा।”—निर्ग. 32:9, 10.

14. यहोवा की बात का मूसा ने क्या जवाब दिया?

14 घटना आगे बताती है: “तब मूसा अपने परमेश्‍वर यहोवा को यह कहके मनाने लगा, कि हे यहोवा, तेरा कोप अपनी प्रजा पर क्यों भड़का है, जिसे तू बड़े सामर्थ्य और बलवन्त हाथ के द्वारा मिस्र देश से निकाल लाया है? मिस्री लोग यह क्यों कहने पाएं, कि वह उनको बुरे अभिप्राय से, अर्थात्‌ पहाड़ों में घात करके धरती पर से मिटा डालने की मनसा से निकाल ले गया? तू अपने भड़के हुए कोप को शांत कर, और अपनी प्रजा को ऐसी हानि पहुंचाने से फिर जा। अपने दास इब्राहीम, इसहाक, और याक़ूब को स्मरण कर, जिन से तू ने अपनी ही किरिया खाकर यह कहा था, कि मैं तुम्हारे वंश को आकाश के तारों के तुल्य बहुत करूंगा, और यह सारा देश जिसकी मैं ने चर्चा की है तुम्हारे वंश को दूंगा, कि वह उसके अधिकारी सदैव बने रहें। तब यहोवा अपनी प्रजा की हानि करने से जो उस ने कहा था पछताया।”—निर्ग. 32:11-14. *

15, 16. (क) यहोवा ने जो कहा उससे मूसा को क्या मौका मिला? (ख) किस मायने में यहोवा “पछताया”?

15 क्या मूसा को वाकई यहोवा की सोच सुधारने की ज़रूरत थी? बेशक नहीं! हालाँकि यहोवा ने बताया कि वह क्या करना चाहता है, मगर यह उसका आखिरी फैसला नहीं था। यहोवा दरअसल मूसा को परख रहा था, ठीक जैसे यीशु ने फिलिप्पुस और यूनानी स्त्री को परखा था। मूसा को अपनी बात इज़हार करने का मौका दिया गया। * यहोवा ने मूसा को अपने और इसराएलियों के बीच बिचवई ठहराया और उसकी इस भूमिका की इज़्ज़त की। उस वक्‍त क्या मूसा खीज उठता? क्या वह मौके का फायदा उठाकर यहोवा से कहता कि वह इसराएलियों को भूल जाए और उसके ही वंश से एक शक्‍तिशाली जाति बनाए?

16 मूसा के जवाब से ज़ाहिर हुआ कि उसे यहोवा के न्याय पर पूरा भरोसा और विश्‍वास था। उसने अपना स्वार्थ नहीं बल्कि यहोवा के नाम के लिए चिंता ज़ाहिर की। वह नहीं चाहता था कि यहोवा का नाम बदनाम हो। इस तरह मूसा ने दिखाया कि इस मामले में वह “यहोवा का मन” समझ गया है। (1 कुरिं. 2:16) इसका क्या नतीजा हुआ? यहोवा का फैसला उसका आखिरी फैसला नहीं था इसलिए जैसा कि बाइबल कहती है, यहोवा “पछताया।” इब्रानी भाषा में शब्द “पछताया” का मतलब सिर्फ इतना है कि यहोवा पूरे राष्ट्र पर जो विपत्ति लाना चाहता था अब उसके बारे में उसने अपना फैसला बदल दिया।

अब्राहम के साथ यहोवा का व्यवहार

17. जब अब्राहम अपनी चिंता ज़ाहिर कर रहा था तब यहोवा ने कैसे धीरज दिखाया?

17 हम एक और वाकया देखेंगे जिसमें अब्राहम सदोम के मामले में यहोवा से बिनती करता है। उससे भी हमें यह पता चलता है कि यहोवा अपने सेवकों को उस पर भरोसा और विश्‍वास ज़ाहिर करने का मौका देता है। उस वाकए में अब्राहम यहोवा से आठ बार सवाल पूछता है, जिससे यहोवा का धीरज साफ दिखायी देता है। एक मुकाम ऐसा आता है, जब अब्राहम दिल की गहराई से यहोवा को गुहार लगाता है: “इस प्रकार का काम करना तुझ से दूर रहे कि दुष्ट के संग धर्मी को भी मार डाले और धर्मी और दुष्ट दोनों की एक ही दशा हो। यह तुझ से दूर रहे: क्या सारी पृथ्वी का न्यायी न्याय न करे?”—उत्प. 18:22-33.

18. जिस तरह यहोवा अब्राहम के साथ पेश आया, उससे हम क्या सीखते हैं?

18 इस वाकए से हम यहोवा की सोच के बारे में क्या सीखते हैं? क्या यहोवा को ज़रूरत थी कि अब्राहम उससे तर्क करे ताकि वह सही नतीजे पर पहुँच सके? नहीं। यहोवा शुरू में ही अपने फैसले की वजह बता सकता था। लेकिन अब्राहम को सवाल पूछने की इज़ाज़त देकर यहोवा ने अब्राहम को उसका फैसला कबूल करने और उसकी सोच को समझने का वक्‍त दिया। इससे अब्राहम यहोवा के प्यार और न्याय को और भी गहराई से समझ सका। जी हाँ, यहोवा अब्राहम के साथ एक दोस्त की तरह पेश आया।—यशा. 41:8; याकू. 2:23.

हमारे लिए सबक

19. हम अय्यूब की मिसाल पर कैसे चल सकते हैं?

19 हमने ‘यहोवा के मन’ के बारे में क्या सीखा? अगर हम उसके मन को सही-सही समझना चाहते हैं तो हमें अपने विचारों को उसके वचन के मुताबिक ढालना ज़रूरी है। हमें न तो यह सोचना चाहिए कि यहोवा हमारी तरह सीमाओं में बँधा है और न ही उसे अपने स्तरों और सोच के मुताबिक परखना चाहिए। अय्यूब ने कहा: “[परमेश्‍वर] मेरे तुल्य मनुष्य नहीं है कि मैं उस से वादविवाद कर सकूं, और हम दोनों एक दूसरे से मुक़द्दमा लड़ सकें।” (अय्यू. 9:32) जब अय्यूब की तरह हम यहोवा के मन को समझने लगते हैं तो हम यह कहे बिना नहीं रह पाते कि “देखो, ये तो उसकी गति के किनारे ही हैं; और उसकी आहट फुसफुसाहट ही सी तो सुन पड़ती है, फिर उसके पराक्रम के गरजने का भेद कौन समझ सकता है?”—अय्यू. 26:14.

20. बाइबल पढ़ते वक्‍त जब हमें कोई वाकया समझना मुश्‍किल लगता है, तब हमें क्या करना चाहिए?

20 बाइबल पढ़ते वक्‍त जब हमें कोई वाकया समझना मुश्‍किल लगता है, खासकर यहोवा की सोच के बारे में, तब क्या करना चाहिए? अगर खोजबीन करने के बाद भी हमें संतोषजनक जवाब नहीं मिलता तो यह यहोवा पर हमारे विश्‍वास की परीक्षा हो सकती है। याद रखिए कि कई बार बाइबल में कुछ ऐसी बातें हो सकती हैं जो हमें यहोवा के गुणों पर अपना विश्‍वास ज़ाहिर करने का मौका दें। आइए हम इस बात को नम्रता से कबूल करें कि हम यहोवा के हर काम को नहीं समझ सकते। (सभो. 11:5) इसलिए हम प्रेषित पौलुस के इन शब्दों से सहमत होंगे: “वाह! परमेश्‍वर की दौलत और बुद्धि और ज्ञान की गहराई क्या ही अथाह है! उसके फैसले हमारी सोच से कितने परे और उसके मार्ग कैसे अगम हैं! इसलिए कि ‘कौन यहोवा के मन को जान सका है या कौन उसे सलाह देनेवाला हुआ?’ या ‘कौन है जिसने उसे पहले कुछ दिया हो जो उसे लौटाया जाए?’ क्योंकि सबकुछ उसी की तरफ से, उसी के ज़रिए और उसी के लिए है। उसकी महिमा हमेशा-हमेशा होती रहे। आमीन।”—रोमि. 11:33-36.

[फुटनोट]

^ इसी तरह की घटना का ज़िक्र गिनतियों 14:11-20 में भी किया गया है।

^ कुछ विद्वान कहते हैं कि निर्गमन 32:10 में यहोवा की यह बात “मुझे मत रोक” दरअसल मूल इब्रानी भाषा में एक मुहावरा है, जिसका मतलब न्यौता देना हो सकता है। यह असल में मूसा को यहोवा और इसराएलियों के बीच “खड़े” होने या बिचवई बनने का एक न्यौता था। (भज. 106:23; यहे. 22:30) बात चाहे जो भी हो, हम देखते हैं कि मूसा ने यहोवा के सामने बेझिझक अपने दिल की बात कह दी।

क्या आपको याद है?

• क्या बात हमारी मदद करेगी कि हम यहोवा को अपने स्तरों पर न परखें?

• यीशु के कामों की समझ मिलने से हमें यहोवा के करीब आने में कैसे मदद मिलती है?

• मूसा और अब्राहम के साथ यहोवा की बातचीत से आपने क्या सीखा?

[अध्ययन के लिए सवाल]

[पेज 5 पर तसवीरें]

यहोवा ने मूसा और अब्राहम से जिस तरह व्यवहार किया, उससे हम यहोवा के सोचने के तरीके के बारे में क्या सीखते हैं?