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परीक्षाओं में भी मैं यहोवा की सेवा खुशी-खुशी कर सकी

परीक्षाओं में भी मैं यहोवा की सेवा खुशी-खुशी कर सकी

परीक्षाओं में भी मैं यहोवा की सेवा खुशी-खुशी कर सकी

मार्ची डी यॉन्ग-वॉन डेन हॉवल की ज़ुबानी

मेरी उम्र 98 साल है और मैं पिछले 70 साल से खुशी-खुशी यहोवा की सेवा कर रही हूँ। लेकिन बेशक इस दौरान मेरा विश्‍वास परखा गया। दूसरे विश्‍व युद्ध के दौरान मुझे यातना शिविर में डाला गया था। उस समय मैं इतनी निराश हो गयी थी कि मैंने एक ऐसा फैसला ले लिया, जिसके लिए मुझे बहुत पछताना पड़ा। कुछ सालों बाद मुझे एक और दर्दनाक परीक्षा से गुज़रना पड़ा। मगर मैं यहोवा की बहुत शुक्रगुज़ार हूँ कि मुसीबतों के दौर में भी मुझे उसकी सेवा करने का सम्मान मिला।

बात सन्‌ 1940 के अक्टूबर महीने की है, जब मेरी ज़िंदगी में एक बदलाव आया। मैं नेदरलैंडस के हिलवरसम कसबे में रहती थी, जो ऐमस्टरडैम से करीब 24 किलोमीटर दूर दक्षिण-पूर्व में है। उस वक्‍त नेदरलैंडस नात्ज़ी हुकूमत के अधीन था। मेरे पति का नाम याप डी यॉन्ग था और वे मेरा बहुत खयाल रखते थे। हमारी शादी को पाँच साल हो चुके थे और हमारी तीन साल की प्यारी-सी बिटिया थी, जिसका नाम था विली। हमारे पड़ोस में एक गरीब परिवार रहता था। अपने आठ बच्चों का पालन-पोषण करना ही उनके लिए मुश्‍किल था, ऊपर से उन्होंने एक और जवान आदमी को अपने घर में पनाह दे रखी थी और वे उसके खाने-पीने का खयाल भी रखते थे। मैं सोचा करती, ‘आखिर उन्होंने एक और बोझ क्यों अपने ऊपर लाद लिया है?’ एक बार जब मैं उन्हें कुछ खाना देने गयी तो मुझे पता चला कि वह जवान एक पायनियर है। उसने मुझे परमेश्‍वर के राज और उसके ज़रिए मिलनेवाली आशीषों के बारे में बताया, जिसने मेरी ज़िंदगी बदल दी। उसकी बातें मेरे दिल को इस कदर छू गयीं कि जल्द-ही मैंने सच्चाई अपना ली। फिर उसी साल मैंने यहोवा को अपना समर्पण करके बपतिस्मा लिया और साल भर बाद मेरे पति ने भी सच्चाई अपना ली।

हालाँकि मुझे बाइबल का ज़्यादा ज्ञान नहीं था, लेकिन मैं यह अच्छी तरह समझ चुकी थी कि साक्षी बनकर मैं एक ऐसे संगठन का हिस्सा बन गयी हूँ, जिसके काम पर रोक लगी है। मैं यह भी जानती थी कि प्रचार काम की वजह से बहुत-से साक्षियों को जेल में डाला गया है। फिर भी मैंने तुरंत घर-घर की प्रचार सेवा शुरू की। साथ ही, हमने अपने घर के दरवाज़े पायनियरों और सर्किट निगरानों के लिए खोल दिए। हम अपने घर में बाइबल साहित्य भी छिपाकर रखते थे, जो ऐमस्टरडैम के भाई-बहन हमारे घर पहुँचा जाते थे। वे मोटर साइकिल पर ढेर सारी किताबें तिरपाल से ढककर लाते थे। उनका यह काम खतरे से खाली नहीं था, फिर भी भाइयों की खातिर वे ज़िंदगी दाँव पर लगा रहे थे। वाकई, उनके प्यार और हिम्मत की दाद देनी पड़ेगी!—1 यूह. 3:16.

“माँ तुम जल्दी आओगी न?”

मेरे बपतिस्मे के करीब छः महीने बाद एक दिन अचानक तीन पुलिस अफसर आए और मेरे घर में घुसकर ढूँढ़-ढाँढ़ करने लगे। हालाँकि वे उस अलमारी को नहीं देख सके जिसमें हमारा साहित्य भरा पड़ा था, मगर हमारे बिस्तर के नीचे छिपी कुछ किताबें उनके हाथ लग गयीं। उन्होंने उसी वक्‍त मुझे हिलवरसम पुलिस थाने चलने का आदेश दिया। जाने से पहले जब मैंने अपनी बच्ची को गले लगाया, तब उसने पूछा: “माँ तुम जल्दी आओगी न?” मैंने कहा: “हाँ बेटा, माँ जल्दी आएगी।” लेकिन अपनी बच्ची को सीने से लगाने के लिए मुझे 18 महीने इंतज़ार करना पड़ा, जो बड़ी ही मुश्‍किल से कटे।

पुलिस अफसर मुझे रेलगाड़ी से ऐमस्टरडैम ले गए। वहाँ मुझसे सवाल-जवाब किए गए। पुलिस ने मुझ पर बहुत ज़ोर-ज़बरदस्ती की कि मैं हिलवरसम के तीन भाइयों को पहचानूँ कि वे यहोवा के साक्षी हैं या नहीं। मैंने कहा: “मैं सिर्फ एक को जानती हूँ। वह हमारा दूधवाला है।” मैंने झूठ नहीं कहा था, वह भाई हमारे लिए दूध लाया करता था। फिर मैंने कहा: “लेकिन वह यहोवा का साक्षी है कि नहीं यह तो आप उसी से पूछिए।” जब मैंने कुछ भी कहने से मना कर दिया तो उन्होंने मुझे ज़ोर-से तमाचा मारा और 2 महीने के लिए जेल में बंद कर दिया। काफी समय बाद मेरे पति को पता चला कि मैं कहाँ हूँ, तब जाकर वे मेरे लिए कपड़े और खाना ला सके। उसके बाद अगस्त 1941 में मुझे रावन्सब्रूक यातना शिविर भेज दिया गया जो औरतों पर ज़ुल्म ढाने के लिए बदनाम था। यह जर्मनी के बर्लिन शहर से 80 किलोमीटर दूर उत्तर में था।

“दुखी मत हो”

वहाँ पहुँचने पर मुझसे कहा गया कि अगर मैं उस घोषणा-पत्र पर हस्ताक्षर कर दूँ जिसमें मेरे विश्‍वास से मुकरने की बात लिखी है, तो मैं घर जा सकती हूँ। लेकिन मैंने इनकार कर दिया। इसलिए मुझे अपनी सारी चीज़ें कैंप के अधिकारियों के हवाले करनी पड़ीं और मुझे बाथरूम में ले जाया गया जहाँ मुझे अपने सारे कपड़े उतारने पड़े। वहाँ मैं नेदरलैंडस की और भी मसीही बहनों से मिली। हमें शिविर के कपड़े दिए गए जिन पर बैंजनी त्रिकोण सिला हुआ था, साथ ही हमें एक तश्‍तरी, प्याला और चम्मच दी गयी। पहली रात हमें एक बैरक में रखा गया। उस वक्‍त पहली बार मेरी रुलाई छूट पड़ी। और सोचने लगी “पता नहीं क्या होगा? कब तक मुझे यहाँ रहना पड़ेगा?” सच बताऊँ तो तब तक यहोवा के साथ मेरा रिश्‍ता इतना मज़बूत नहीं हुआ था, क्योंकि मुझे सच्चाई सीखे कुछ ही महीने हुए थे। मुझे बहुत कुछ सीखना बाकी था। अगले दिन जब हमें हाज़िरी के लिए बुलाया गया तब नेदरलैंडस की एक बहन ने गौर किया कि मैं उदास हूँ। उसने कहा: “दुखी मत हो। ये हमारा कुछ नहीं बिगाड़ पाएँगे।”

हमारी हाज़िरी लेने के बाद हमें दूसरे बैरक ले जाया गया, जहाँ जर्मनी और नेदरलैंडस की सैकड़ों बहनों ने हमारा स्वागत किया। जर्मनी की कुछ बहनें उस बैरक में एक साल से भी ज़्यादा समय से थीं। उनका साथ पाकर न सिर्फ मुझे हौसला मिला, बल्कि बड़ी खुशी भी हुई। मैं यह देखकर दंग रह गयी कि बहनें जहाँ रहती थीं, वह जगह शिविर की दूसरी जगहों के मुकाबले कितनी साफ सुथरी थी! साफ-सफाई के अलावा हमारा बैरक इसलिए भी मशहूर था कि वहाँ चोरी नहीं होती थी, कोई गाली-गलौज और लड़ाई-झगड़ा नहीं करता था। शिविर में बहुत अत्याचार होते थे, इसके बावजूद हमारा बैरक गंदे सागर में एक साफ द्वीप की तरह था।

शिविर में हमारी दिनचर्या

शिविर में हमें कमर-तोड़ मेहनत करनी पड़ती थी और खाना बहुत कम मिलता था। हमें सुबह पाँच बजे उठना पड़ता था और उसके थोड़ी देर बाद हाज़िरी के लिए बुलाया जाता था। पहरेदार करीब एक घंटा हमें बाहर खड़ा रखते थे, फिर चाहे बारिश हो या धूप। पूरे दिन मेहनत करने के बाद पाँच बजे दोबारा हाज़िरी ली जाती थी। उसके बाद हमें थोड़ा-सा सूप और ब्रेड दी जाती, जिसे खाकर हम सोने चले जाते, क्योंकि तब तक हम थककर चूर हो जाते थे।

रविवार को छोड़, मुझे रोज़ाना खेतों में काम करना होता था। वहाँ मैं दराँती से गेहूँ काटती, नालियाँ खोदती और सुअरों के रहने की जगह साफ करती। हालाँकि काम बहुत मुश्‍किल और गंदा था, फिर भी मैं हर रोज़ उसे कर लेती थी क्योंकि मैं जवान थी और मुझमें ताकत थी। इसके अलावा बाइबल वचनों पर आधारित गीत गाने से भी मैं अपना हौसला बनाए रख पाती थी। लेकिन रह-रहकर मुझे अपने पति और बच्ची की याद सताती और मैं उन्हें देखने के लिए तड़प उठती थी!

हालाँकि खाना बहुत कम मिलता था, फिर भी हम बहनें कोशिश करतीं कि उसमें से कुछ बचा लें, ताकि रविवार के दिन जब हम बाइबल विषयों पर चर्चा करने के लिए इकट्ठा हों, तब साथ मिलकर खा सकें। हमारे पास बाइबल साहित्य नहीं थे मगर मैं उन बुज़ुर्ग जर्मन बहनों की बात ध्यान से सुनती जो आध्यात्मिक बातों पर चर्चा करती थीं। हमने मसीह की मौत का स्मारक भी मनाया।

दुख, पछतावा और हिम्मत

कई बार हमें ऐसा काम करने को कहा जाता, जिसे करने का मतलब होता कि हम युद्ध में नात्ज़ी सरकार का साथ दे रहे हैं। राजनैतिक मामलों में अपनी निष्पक्षता बनाए रखने के लिए सभी बहनों ने बड़ी हिम्मत के साथ उन कामों को करने से इनकार कर दिया था। मैं भी उन्हीं के उदाहरण पर चली। सज़ा के तौर पर हमें कई दिनों तक खाना नहीं दिया गया और हाज़िरी के लिए हमें घंटों खड़े रहना पड़ा। एक बार ठंड के मौसम में हम सबको एक बैरक में 40 दिन के लिए बंद कर दिया गया, वहाँ खुद को गरम रखने के लिए हमारे पास कुछ नहीं था।

हम साक्षियों से बार-बार कहा जाता कि अगर हम घोषणा-पत्र पर हस्ताक्षर कर दें, जिसमें लिखा है कि हम अपने विश्‍वास से मुकर रहे हैं तो हमें आज़ाद कर दिया जाएगा और हम अपने घर जा सकेंगे। रावन्सब्रूक में एक साल काटने के बाद मैं बहुत ज़्यादा निराश हो गयी थी। अपने पति और बच्ची से मिलने के लिए मैं इतनी तड़प रही थी कि पहरेदार के पास जाकर मैंने वह घोषणा-पत्र माँगा और उस पर हस्ताक्षर कर दिए, जिस पर लिखा था कि मैं अब से बाइबल विद्यार्थी नहीं हूँ।

जब शिविर की बाकी बहनों को इसका पता चला तो वे मुझसे कन्‍नी काटने लगीं। लेकिन दो बुज़ुर्ग जर्मन बहनें हेटविक और गेरट्रूट मुझे ढूँढ़ते हुए आयीं और मुझे भरोसा दिलाया कि वे अब भी मुझसे प्यार करती हैं। जब हम साथ मिलकर सुअरों की जगह साफ कर रहे थे, तब उन्होंने बड़े प्यार से मुझे समझाया कि यहोवा के प्रति खराई बनाए रखना बहुत ज़रूरी है। और अगर हमें यहोवा से सच्चा प्यार है, तो हम किसी भी हाल में समझौता नहीं करेंगे। उन्होंने एक माँ की तरह मेरे लिए जो चिंता दिखायी, उससे मेरा दिल भर आया। * मैं जान गयी कि मैंने गलत किया है और अब मैं अपनी घोषणा रद्द करना चाहती थी। एक शाम मैंने एक बहन को अपने फैसले के बारे में बताया कि मैं अपनी घोषणा रद्द करनेवाली हूँ। हमारी बात शायद शिविर के एक अधिकारी ने सुन ली, क्योंकि उसी शाम बिना कुछ कहे मुझे अचानक रेलगाड़ी से नेदरलैंडस भेज दिया गया। एक सुपरवाइज़र का चेहरा मुझे अभी तक याद है, उसने मुझसे कहा था, “तुम अब भी बिबलफोरशर (बाइबल विद्यार्थी) हो और हमेशा रहोगी।” मैंने कहा, “जी हाँ, यहोवा की यही इच्छा है।” फिर भी मैं सोचती रही, ‘मैं कैसे उस घोषणा को रद्द करूँ?’

उस घोषणा-पत्र में एक बात लिखी थी: “मैं आपको यकीन दिलाती हूँ कि मैं कभी भी अंतर्राष्ट्रीय बाइबल विद्यार्थी संस्था के लिए काम नहीं करूँगी।” लेकिन मुझे पता था कि मुझे क्या करना है। जनवरी 1943 में जैसे ही मैं अपने घर पहुँची, मैंने दोबारा प्रचार काम शुरू किया। मैं जानती थी कि अगर नात्ज़ी अधिकारियों ने मुझे फिर से परमेश्‍वर के राज का प्रचार करते पकड़ लिया, तो मेरी खैर नहीं!

मैं यहोवा को दिखाना चाहती थी कि मैं उसकी वफादार सेवक हूँ, इसलिए मैंने और मेरे पति ने एक बार फिर अपने घर के दरवाज़े बाइबल साहित्य रखने और सर्किट निगरानों के रहने के लिए खोल दिए। मैं यहोवा की बहुत आभारी हूँ कि उसने मुझे उसके और उसके लोगों के लिए अपना प्यार दिखाने का एक और मौका दिया।

दर्दनाक परीक्षा

युद्ध खत्म होने के कुछ महीने पहले मुझे और मेरे पति को एक बहुत-ही दर्दनाक परीक्षा से गुज़रना पड़ा। अक्टूबर 1944 में हमारी बेटी विली अचानक बीमार पड़ गयी। उसे डिफ्थीरिया हो गया था। उसकी हालत तेज़ी से बिगड़ने लगी और तीन दिन बाद वह चल बसी। वह सिर्फ सात साल की थी।

अपनी इकलौती संतान खोकर हम पूरी तरह टूट चुके थे। रावन्सब्रूक शिविर में मैंने बहुत कुछ सहा था, लेकिन अपनी बच्ची को खोने के दुख के आगे, वह कुछ भी नहीं था। इस मुश्‍किल घड़ी में हमें भजन 16:8 के शब्दों से बहुत दिलासा मिला: “मैं ने यहोवा को निरन्तर अपने सम्मुख रखा है इसलिये कि वह मेरे दहिने हाथ रहता है मैं कभी न डगमगाऊंगा।” हम दोनों को यहोवा के इस वादे पर पूरा भरोसा था कि वह मरे हुओं को ज़रूर ज़िंदा करेगा। हमने सच्चाई नहीं छोड़ी और जोशीले प्रचारक के तौर पर खुशखबरी सुनाते रहे। सन्‌ 1969 में मेरे पति की मौत हो गयी। उन्होंने आखिरी दम तक मुझे यहोवा की सेवा करने का बढ़ावा दिया।

आशीषें और खुशियाँ

पिछले दशकों के दौरान मुझे इस बात से काफी खुशी मिली कि मुझे हमेशा पूरे समय के सेवकों की सेवा करने का मौका मिला। युद्ध के दौरान और बाद में भी हमारा घर उन सर्किट निगरानों और उनकी पत्नियों के लिए खुला रहा, जो हमारी मंडली का दौरा करने आते थे। एक जोड़ा, मारटन और नेल कॉपटाइन तो हमारे घर 13 साल रहे! जब नेल बहुत बीमार हो गयी तो उसके आखिरी तीन महीने मुझे उसकी देखभाल करने का सम्मान मिला। उनके और मंडली के दूसरे भाई-बहनों के साथ ने मुझे एहसास दिलाया कि हम आज भी आध्यात्मिक फिरदौस का लुत्फ उठा रहे हैं।

सन्‌ 1995 मेरे लिए यादगार साल था। उस साल रावन्सब्रूक में उन सभी लोगों को बुलाया गया जो वहाँ के यातना शिविर में सज़ा काट चुके थे। मैं उन बहनों से मिली जो मेरे साथ शिविर में थीं। हम एक-दूसरे से 50 से भी ज़्यादा सालों बाद मिल रहे थे! वाकई, उनसे मिलकर मुझे जो खुशी मिली, उसे मैं शब्दों में बयान नहीं कर सकती! वहाँ हमें एक-दूसरे की हिम्मत बढ़ाने का मौका मिला कि हम जल्द ही अपने उन अज़ीज़ों से मिलेंगे, जिन्हें मौत ने हमसे जुदा कर दिया है।

प्रेषित पौलुस ने रोमियों 15:4 में लिखा कि ‘हम धीरज धरने और शास्त्र से दिलासा पाने की वजह से आशा रख सकते हैं।’ मैं यहोवा को बहुत धन्यवाद देती हूँ कि उसने मुझे परीक्षाओं के दौर में भी आशा दी, जिस वजह मैं उसकी सेवा खुशी-खुशी कर सकी।

[फुटनोट]

^ उन दिनों मुख्यालय से कोई संपर्क न होने की वजह से भाई अपनी समझ के मुताबिक निष्पक्ष रहने की कोशिश करते थे। यही वजह थी कि इस मामले में अलग-अलग भाई-बहनों की अलग-अलग राय थी।

[पेज 10 पर तसवीर]

सन्‌ 1930 में अपने पति याप के साथ

[पेज 10 पर तसवीर]

सात साल की हमारी बेटी विली

[पेज 12 पर तसवीर]

सन्‌ 1995 मेरे लिए यादगार साल था, जब मैं दोबारा अपने पुराने साथियों से मिल सकी। मैं पहली लाइन में बाएँ से दूसरे नंबर पर हूँ