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पहले मौत का खौफ—अब ‘बहुतायत में जीवन’ की आस

पहले मौत का खौफ—अब ‘बहुतायत में जीवन’ की आस

पहले मौत का खौफ—अब ‘बहुतायत में जीवन’ की आस

पेरो गॉट्टी की ज़ुबानी

लड़ाकू ज़हाज़ों की आवाज़ धीरे-धीरे तेज़ होती गयी। फिर खतरे की चेतावनी देनेवाले साइरन ज़ोर-ज़ोर से बजने लगे ताकि लोग अपनी जान बचाने के लिए तुरंत छिप सकें। इसके बाद बम बरसने लगे और खूब तबाही मची। और धमाके के ज़बरदस्त शोरगुल से कान के परदे फट गए।

सन्‌ 1943-1944 के दौरान इटली के मिलान शहर का यही हाल था। मैं वहाँ एक सिपाही था। ऐसी बमबारी के वक्‍त लोग तहखाने में छिप जाते थे। और जब कभी तहखाने बम से उड़ जाते तो लोगों के चिथड़े उड़ जाते थे, जिन्हें पहचानना नामुमकिन होता था। उन्हीं लाशों के चिथड़े उठाने का काम मुझे दिया गया था। मैंने सिर्फ दूसरों की मौत ही करीब से नहीं देखी बल्कि कई बार खुद भी मौत के मुँह से बाल-बाल बचा। ऐसे मौकों पर मैं परमेश्‍वर से प्रार्थना करता और वादा करता कि अगर मैं इस खूनी युद्ध से बच निकला तो मैं उसकी इच्छा पूरी करूँगा।

मौत का खौफ काफूर

मेरी परवरिश इटली के कोमो नाम के कसबे में हुई जो स्विट्‌ज़रलैंड की सरहद से करीब दस किलोमीटर की दूरी पर था। छोटी-सी उम्र में मैंने बहुत दुख देखे जिससे मेरे अंदर मौत का डर बैठ गया। स्पैनिश फ्लू ने मेरी दो बहनों की जान ले ली। उसके बाद सन्‌ 1930 में, जब मैं सिर्फ छः साल का था, तब मेरी माँ, लूईजॉ की मौत हो गयी। मेरा परिवार कैथोलिक था और मैं इसके रीति-रिवाज़ों को मानता और हर हफ्ते चर्च जाता। फिर भी मौत का डर मुझे सताता रहता। आखिरकार चर्च में नहीं, बल्कि सालों बाद एक नाई की दुकान में यह डर काफूर हो गया।

सन्‌ 1944 में दूसरे विश्‍व युद्ध के दौरान खून की नदियाँ बहायी जा रही थीं। मगर स्विट्‌ज़रलैंड युद्ध नहीं लड़ रहा था इसलिए इटली के हज़ारों सैनिक युद्ध का मैदान छोड़कर स्विट्‌ज़रलैंड भाग गए, जिनमें मैं भी एक था। वहाँ पहुँचने पर हमें शरणार्थी शिविर में ले जाया गया। मुझे उस देश के उत्तर-पूर्वी इलाके के एक कसबे, श्‍टाइनॉक भेजा गया। वहाँ हमें थोड़ी-बहुत आज़ादी दी गयी। उस गाँव के एक नाई को अपनी दुकान में कुछ समय के लिए मदद की ज़रूरत थी। मैंने एक महीने तक उसकी दुकान पर काम किया और उसके साथ रहा। उन्हीं दिनों मेरी मुलाकात एक ऐसे शख्स से हुई जिससे मिलकर मेरी ज़िंदगी ही बदल गयी।

उस नाई की दुकान में अकसर ऑडॉल्फो टेलीनी नाम का एक ग्राहक आया करता था। हालाँकि वह स्विट्‌ज़रलैंड में रहता था, पर वह था इटली का। वह यहोवा का साक्षी था। मैंने कभी साक्षियों के बारे में नहीं सुना था और यह ताज्जुब की बात नहीं क्योंकि उस वक्‍त पूरे इटली में सिर्फ 150 साक्षी थे। ऑडॉल्फो ने मुझे शानदार बाइबल सच्चाइयाँ बतायीं। उसने मुझे शांति और ‘बहुतायत में जीवन’ के वादे के बारे में बताया। (यूह. 10:10; प्रका. 21:3, 4) एक ऐसे भविष्य के बारे में सुनकर मेरी खुशी का ठिकाना न रहा कि जल्द ही युद्ध और मौत नहीं रहेगी। शरणार्थी शिविर में मैंने इटली के रहनेवाले जूज़ेप्पे टूबीनी नाम के एक व्यक्‍ति को यह शानदार आशा बतायी। उसे भी यह सुनकर बहुत अच्छा लगा। ऑडॉल्फो और दूसरे साक्षी हमसे मिलने शिविर में आया करते थे।

एक बार ऑडॉल्फो मुझे अपने साथ आरबोन नाम के कसबे में साक्षियों की सभा में ले गया, जो श्‍टाइनॉक से करीब 10 किलोमीटर की दूरी पर था। वहाँ साक्षियों का एक छोटा-सा समूह इटैलियन भाषा में सभाएँ चलाता था। उनकी बातें सुनकर मुझमें इतना जोश भर गया कि अगले हफ्ते मैं वहाँ पैदल गया। बाद में, मैं ज़ूरिक शहर के एक अधिवेशन भवन में साक्षियों के सम्मेलन में हाज़िर हुआ। खास तौर पर एक स्लाइड शो का मुझ पर गहरा असर हुआ। इसमें कुछ ऐसे यातना शिविर दिखाए गए थे जिनमें लाशों के ढेर लगे थे। मुझे पता चला कि जर्मनी के बहुत-से साक्षी अपने विश्‍वास की खातिर शहीद हो गए थे। उस सम्मेलन में मैं मॉरीऑ पीटसॉटो नाम की एक बहन से मिला, जिसे साक्षी होने की वजह से इटली की फासिस्टवादी हुकूमत ने 11 साल की सज़ा दी थी।

युद्ध खत्म होने पर मैं इटली लौट गया और कोमो की छोटी-सी मंडली के साथ जुड़ गया। हालाँकि मेरा बाइबल अध्ययन सिलसिलेवार ढंग से नहीं हुआ था, मगर बाइबल की बुनियादी शिक्षाओं को मैं अच्छी तरह समझ गया था। मॉरीऑ पीटसॉटो भी उसी मंडली में थी। उसने मुझे मसीही बपतिस्मे की अहमियत समझायी और कहा कि मैं मॉरचेल्लो मॉरटीनेल्ली नाम के भाई से मिलूँ, जो इटली के सॉन्ड्रीओ प्रांत में कॉस्टयोने ऑन्डेवेनो नाम के शहर में रहता था। मॉरचेल्लो एक वफादार अभिषिक्‍त भाई थे, जिन्हें तानाशाह सरकार ने 11 साल कैद की सज़ा सुनाई थी। उनसे मिलने के लिए मुझे 80 किलोमीटर साइकिल चलाकर जाना पड़ा।

मॉरचेल्लो ने बाइबल से समझाया कि बपतिस्मे के लिए कौन-सी माँगें पूरी करनी होंगी, जिसके बाद हमने प्रार्थना की और फिर ऑड्डॉ नदी पर गए, जहाँ मेरा बपतिस्मा हुआ। यह सितंबर 1946 की बात है, वह दिन मैं कभी नहीं भूल सकता! यहोवा की सेवा करने के अपने फैसले और भविष्य की शानदार आशा से मैं इतना खुश था कि शाम को जाकर मुझे एहसास हुआ कि उस दिन मैंने 160 किलोमीटर साइकिल चलायी थी!

युद्ध खत्म होने के बाद, मई 1947 में पहली बार इटली के मिलान शहर में सम्मेलन हुआ। उसमें करीब 700 लोग हाज़िर हुए, जिनमें बहुत-से ऐसे लोग थे जिन पर फासिस्टवादियों ने ज़ुल्म ढाए थे। इस सम्मेलन में एक अनोखी घटना हुई। जूज़ेप्पे टूबीनी, जिसे मैंने शरणार्थी शिविर में गवाही दी थी, उसने बपतिस्मे का भाषण दिया जिसके बाद खुद उसका बपतिस्मा हुआ!

उस सम्मेलन में मुझे ब्रुकलिन के भाई नेथन नॉर से मिलने का सुअवसर मिला। उन्होंने मुझे और जूज़ेप्पे को पूरे समय की सेवा करने का बढ़ावा दिया और मैंने एक महीने के अंदर ऐसा करने का फैसला कर लिया। घर पहुँचकर जब मैंने अपना फैसला सुनाया तो सब मुझे मना करने लगे। लेकिन मैं तो ठान चुका था। इसलिए एक महीने बाद मैंने मिलान बेथेल में सेवा शुरू कर दी। वहाँ पर चार मिशनरी थे: जूज़ेप्पे (जोसफ) रोमानो और उसकी पत्नी ऐनजेलीनॉ; कॉरलो बेनॉनटी और उसकी पत्नी कोस्टॉन्टसॉ। बेथेल परिवार का पाँचवाँ सदस्य था जूज़ेप्पे टूबीनी जो हाल ही में वहाँ आया था और छठा था मैं।

बेथेल में सेवा करने के एक महीने बाद मुझे सर्किट निगरान के तौर पर नियुक्‍त किया गया। मैं इटली का ऐसा पहला सर्किट निगरान था, जिसका जन्म वहीं हुआ था। मुझसे पहले, 1946 में अमरीका से आए पहले मिशनरी भाई जॉर्ज फ्रेडयॉनेली, सर्किट निगरान थे और उन्होंने मुझे कुछ हफ्ते इस काम की तालीम दी। इसके बाद मैं अकेले अपने सर्किट काम पर निकल पड़ा। मेरा सबसे पहला दौरा फेएन्ज़ा मंडली में था जो मुझे आज तक याद है। ज़रा सोचिए, उससे पहले मैंने किसी मंडली में भाषण तक नहीं दिया था! फिर भी, मैंने हाज़िर लोगों को पूरे समय की सेवा करने का बढ़ावा दिया जिनमें कई जवान थे और आगे चलकर उन्हीं में से कुछ जवानों ने इटली में परमेश्‍वर की सेवा में बड़ी-बड़ी ज़िम्मेदारियाँ निभायीं।

सर्किट निगरान के तौर पर मेरी ज़िंदगी बड़ी दिलचस्प और खुशहाल रही। कई बार मुझे हैरानी भरे अनुभव होते तो कभी चुनौतियों का सामना करना पड़ता। कई बार मुझे बदलाव करने पड़ते तो कभी ढेर सारी खुशियाँ मिल जातीं साथ ही, भाई-बहनों का ढेर सारा प्यार भी मिलता।

युद्ध के बाद इटली में धार्मिक माहौल

चलिए मैं आपको उस समय के इटली के धार्मिक माहौल के बारे में कुछ बताऊँ। वहाँ कैथोलिक चर्च का बोलबाला था। हालाँकि सन्‌ 1948 से नया संविधान लागू किया जाने लगा था, लेकिन फासिस्टवादी कानून का असर तब भी खत्म नहीं हुआ था और साक्षियों को खुले-आम प्रचार करने की आज़ादी नहीं थी। यह आज़ादी 1956 में कहीं जाकर मिली जब फासिस्टवादी कानून रद्द कर दिया गया। चर्च के पादरियों का इतना दबदबा था कि अकसर हमारे सर्किट सम्मेलन बीच में ही रोक दिए जाते थे। मगर कई बार उन्हें मुँह की खानी पड़ती थी जैसा कि सन्‌ 1948 में मध्य इटली के एक छोटे-से नगर, सूल्मोनॉ में हुआ।

यह सम्मेलन एक थिएटर में हो रहा था। रविवार सुबह को मैं चेयरमैन था और जूज़ेप्पे रोमानो ने जन भाषण दिया। लोग बड़ी तादाद में जमा हुए थे। हालाँकि उन दिनों पूरे देश में 500 से भी कम प्रचारक थे मगर फिर भी 2000 लोग थिएटर में खचाखच भरे हुए थे। उस भाषण के बाद, एक आदमी मंच पर आ धमका। सम्मेलन में बैठे दो पादरियों ने उसे भड़काया था। वहाँ पर गड़बड़ी पैदा करने के लिए वह गला फाड़कर चिल्लाने लगा। मैंने तुरंत उससे कहा, “अगर तुम्हें कुछ कहना ही है तो एक हॉल किराए पर लेकर जो जी चाहे कहो।” मगर उसे भगाने के इरादे से हाज़िर लोग ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने लगे, इस तरह उन्होंने दिखा दिया कि उन्हें उस आदमी में कोई दिलचस्पी नहीं। और वह आदमी मंच पर से छलाँग लगाकर नौ-दो-ग्यारह हो गया।

उन दिनों सफर करना इतना आसान नहीं था। कभी-कभी मैं एक मंडली से दूसरी मंडली पैदल जाता था, तो कभी साइकिल पर, कभी लोगों से खचाखच भरी टूटी-फूटी बसों में, तो कभी रेलगाड़ी से। कुछ मौकों पर भाई-बहन मेरे रहने का इंतज़ाम अस्तबल में या ऐसी जगह करते जहाँ औज़ार रखे जाते हैं। हाल ही में युद्ध खत्म हुआ था और इटली के ज़्यादातर लोग गरीब थे। उस वक्‍त साक्षियों की गिनती बहुत कम थी और वे बड़ी मुश्‍किल से गुज़र-बसर करते थे। फिर भी, यहोवा की सेवा में बहुत खुशी मिलती थी।

गिलियड में तालीम

सन्‌ 1950 में जूज़ेप्पे टूबीनी और मुझे गिलियड मिशनरी स्कूल की 16वीं क्लास में हाज़िर होने का निमंत्रण मिला। मुझे पता था कि अँग्रेज़ी सीखना मेरे लिए लोहे के चने चबाने जैसा होगा। मैंने इसे सीखने में अपनी जान लगा दी फिर भी यह मेरे लिए मुश्‍किल रहा। हमें पूरी बाइबल अँग्रेज़ी में पढ़नी थी। इसके अभ्यास के लिए मैं कभी-कभी दोपहर का खाना खाने नहीं जाता और ज़ोर-ज़ोर से पढ़ता था। आखिरकार, भाषण देने की मेरी बारी आयी। मुझे आज भी याद है, हमारे शिक्षक ने मुझसे कहा था: “तुम्हारा जोश और हाव-भाव कमाल के हैं, पर तुम्हारी अँग्रेज़ी हमें ज़रा भी समझ नहीं आयी!” इसके बावजूद, मैंने पूरा कोर्स खत्म किया। उसके बाद, जूज़ेप्पे और मुझे दोबारा इटली भेजा गया। इस तालीम के बाद हम दोनों, अपने भाइयों की सेवा करने के लिए और भी योग्य हो गए।

सन्‌ 1955 में मैंने लीडिया से शादी की, जिसके बपतिस्मे का भाषण मैंने सात साल पहले दिया था। उसके पिता, डोमेनीको, एक प्यारे भाई थे। फासिस्टवादी सरकार ने उन पर ज़ुल्म ढाए थे और उन्हें तीन साल के लिए देशनिकाला दिया था, फिर भी उन्होंने बड़ी मेहनत के साथ सच्चाई में अपने सात बच्चों की परवरिश की। लीडिया को भी सच्चाई के लिए काफी संघर्ष करना पड़ा। इससे पहले कि घर-घर जाकर प्रचार करने की मान्यता मिलती, उसे सच्चाई की खातिर तीन मुकद्दमों का सामना करना पड़ा। शादी के छ: साल बाद, हमारा पहला बेटा, बेन्यॉमीनो पैदा हुआ। सन्‌ 1972 में हमारे दूसरे बेटे, मॉरको ने जन्म लिया। मुझे खुशी है कि वह दोनों और उनके परिवार जोश के साथ यहोवा की सेवा कर रहे हैं।

आज भी यहोवा की सेवा जोश के साथ

दूसरों की सेवा में मुझे बहुत खुशी मिली है, और ऐसे अनुभव हुए हैं जिन्हें मैं कभी नहीं भूल सकता। मिसाल के लिए फासिस्टवादी तानाशाह हुकूमत के दौरान मेरे ससुर और सॉन्ड्रो पेरटीनी को देशनिकाला देकर उन्हें वेनटॉटेने द्वीप भेज दिया गया, जहाँ सरकार के दुश्‍मनों को भेजा जाता था। लेकिन सालों बाद 1980 के शुरूआती दशक में मेरे ससुर ने सॉन्ड्रो पेरटीनी को एक खत लिखा जो उस समय इटली के राष्ट्रपति बन गए थे। और गवाही देने के इरादे से उनका इंटरव्यू लेने की इजाज़त माँगी। जब इजाज़त मिल गयी, तो मैं अपने सुसर के साथ गया और वहाँ हमारा बड़ी गर्मजोशी के साथ स्वागत किया गया, जिसके हम आदी नहीं थे। राष्ट्रपति ने मेरे ससुर को गले लगाया। फिर हमने अपने विश्‍वास की गवाही दी और कुछ साहित्य दिए।

सन्‌ 1991 में, 44 साल तक सफरी निगरान के तौर पर सेवा करने के बाद, मैंने सर्किट काम छोड़ दिया। उन सालों के दौरान मैंने इटली की हर मंडली का दौरा किया। अगले चार साल तक मैंने सम्मेलन भवन निगरान के तौर पर सेवा की। फिर एक गंभीर बीमारी की वजह से मुझे अपने काम में कटौती करनी पड़ी। लेकिन, यहोवा की महा-कृपा की वजह से मैं अब तक पूरे समय की सेवा में लगा हुआ हूँ। मैं खुशखबरी का प्रचार करने और दूसरों को सिखाने की पूरी कोशिश करता हूँ और कुछ बाइबल अध्ययन भी चला रहा हूँ। भाई अब भी कहते हैं कि मैं भाषण “धमाकेदार” देता हूँ। मैं यहोवा का शुक्रगुज़ार हूँ कि उम्र के साथ मेरा जोश कम नहीं हुआ है।

जब मैं जवान था तो मौत के खौफ ने मुझे जकड़ रखा था। लेकिन बाइबल का सही ज्ञान लेने से मुझे हमेशा तक जीने, या जैसे यीशु ने कहा “बहुतायत में” जिंदगी जीने की पक्की आशा मिली है। (यूह. 10:10) मैं अब उस जीवन की आस देख रहा हूँ जहाँ सच्ची शांति, सुरक्षा और खुशी होगी और यहोवा ढेरों आशीषें बरसाएगा। ऐसा हो कि सारा श्रेय हमारे प्यारे सृष्टिकर्ता यहोवा को मिले, जिसका नाम धारण करने का सम्मान हमें मिला है।—भज. 83:18.

[पेज 22, 23 पर नक्शा]

(भाग को असल रूप में देखने के लिए प्रकाशन देखिए)

स्विट्‌ज़रलैंड

बर्न

ज़ूरिक

आरबोन

श्‍टाइनॉक

इटली

रोम

कोमो

मिलान

ऑड्डॉ नदी

कॉस्टयोने ऑन्डेवेनो

फेएन्ज़ा

सूल्मोनॉ

वेनटॉटेने

[पेज 22 पर तसवीर]

गिलियड के लिए जाते वक्‍त

[पेज 22 पर तसवीर]

जूज़ेप्पे के साथ गिलियड में

[पेज 23 पर तसवीर]

हमारी शादी के दिन

[पेज 23 पर तसवीर]

मेरी प्यारी पत्नी 55 सालों से मेरा साथ दे रही है