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“अपनी समझ का सहारा न लेना”

“अपनी समझ का सहारा न लेना”

“अपनी समझ का सहारा न लेना”

“तू अपनी समझ का सहारा न लेना, वरन सम्पूर्ण मन से यहोवा पर भरोसा रखना।”—नीति. 3:5.

1, 2. (क) हमारे सामने क्या मुश्‍किलें आ सकती हैं? (ख) जब हम मुश्‍किल हालात का सामना करते हैं, ज़रूरी फैसले लेते हैं, या प्रलोभनों का विरोध करते हैं, तब हमें किसका सहारा लेना चाहिए और क्यों?

 सुषमा * जिस कंपनी में काम करती है, वहाँ कुछ विभाग बंद कर दिए गए हैं और कई लोगों को नौकरी से निकाल दिया गया है। सुषमा को डर है कि अब शायद उसकी बारी हो। अगर ऐसा हुआ तो वह सारे बिल कैसे चुकाएगी? प्रमिला नाम की एक मसीही बहन ऐसे इलाके में सेवा करना चाहती है, जहाँ प्रचारकों की ज़्यादा ज़रूरत है। पर क्या उसे वहाँ जाना चाहिए? शरद की समस्या कुछ और है। बचपन में उसने पॉरनोग्राफी देखी थी। अब वह करीब 25 साल का है और उसमें दोबारा गंदी तसवीरें देखने की इच्छा जाग रही है। वह इस प्रलोभन से कैसे लड़ेगा?

2 जब आप मुश्‍किल हालात का सामना करते हैं, या आपको ज़रूरी फैसले लेने होते हैं, या फिर प्रलोभनों का विरोध करना पड़ता है, तब आप किसका सहारा लेते हैं? क्या आप सिर्फ खुद पर भरोसा रखते हैं या आप ‘अपना बोझ यहोवा पर डालते’ हैं? (भज. 55:22) बाइबल बताती है कि “यहोवा की आंखें धर्मियों पर लगी रहती हैं, और उसके कान भी उनकी दोहाई की ओर लगे रहते हैं।” (भज. 34:15) तो फिर यह कितना ज़रूरी है कि हम पूरे दिल से यहोवा पर भरोसा रखें ना कि अपनी समझ का सहारा लें!—नीति. 3:5.

3. (क) यहोवा पर भरोसा रखने का मतलब क्या है? (ख) क्यों कुछ लोग शायद अपनी ही समझ का सहारा लें?

3 संपूर्ण मन से यहोवा पर भरोसा रखने का मतलब है, उसकी मरज़ी उसके तरीके से पूरी करना और ऐसा करने के लिए ज़रूरी है कि हम हमेशा उससे प्रार्थना करें और उसके मार्गदर्शन के लिए बिनती करें। लेकिन यहोवा पर पूरी तरह निर्भर रहना कुछ लोगों के लिए एक चुनौती होती है। उदाहरण के लिए, लीना नाम की एक मसीही बहन कहती है, “यहोवा पर पूरी तरह भरोसा रखने के लिए मुझे कड़ा संघर्ष करना पड़ता है।” क्यों? वह कहती है, “मेरे पिता के साथ मेरा कोई नाता नहीं है और मेरी माँ ने कभी मेरी भावनाओं या ज़रूरतों का खयाल नहीं रखा। इसलिए बहुत जल्द मैंने खुद ही अपनी देखभाल करना सीख लिया।” जिन हालात में लीना की परवरिश हुई उस वजह से किसी पर पूरी तरह भरोसा रखना उसके लिए बहुत मुश्‍किल होता है। एक व्यक्‍ति अपनी काबिलीयत और सफलता की वजह से भी खुद पर निर्भर रहने लग सकता है। हो सकता है, कभी-कभी एक प्राचीन अपने तजुरबे की वजह से प्रार्थना किए बगैर ही मंडली के कुछ मामलों को सुलझाने लगे।

4. इस लेख में हम किस बारे में चर्चा करेंगे?

4 यहोवा हमसे उम्मीद करता है कि हम अपनी प्रार्थना और उसके निर्देशों के मुताबिक काम करने की पूरी कोशिश करें। यह सच है कि हमें यहोवा पर अपनी सारी चिंताएँ डालनी चाहिए, लेकिन हमें मुश्‍किलों को सुलझाने के लिए अपनी पूरी कोशिश भी करनी चाहिए। तो इन दोनों के बीच ताल-मेल कैसे बिठाया जा सकता है? जब भी हमें अहम फैसले लेने होते हैं, तब हमें किस बात का ध्यान रखना चाहिए? प्रलोभनों से लड़ने की कोशिश करते वक्‍त प्रार्थना करना क्यों ज़रूरी है? हम बाइबल के कुछ उदाहरणों की मदद से इन सवालों के जवाब देखेंगे।

जब हम मुश्‍किल हालात में हों

5, 6. जब हिज़किय्याह को अश्‍शूरियों से हमले का खतरा था, तब उसने क्या किया?

5 यहूदा के राजा हिज़किय्याह के बारे में बाइबल कहती है: “वह यहोवा से लिपटा रहा और उसके पीछे चलना न छोड़ा; और जो आज्ञाएं यहोवा ने मूसा को दी थीं, उनका वह पालन करता रहा।” जी हाँ, “वह इस्राएल के परमेश्‍वर यहोवा पर भरोसा रखता था।” (2 राजा 18:5, 6) एक बार अश्‍शूर के राजा सन्हेरीब ने एक बड़ी सेना के साथ रबशाके और दूसरों को अपने प्रतिनिधि के तौर पर यरूशलेम भेजा। शक्‍तिशाली अश्‍शूरी सेना ने पहले ही यहूदा के बहुत-से गढ़वाले नगरों पर कब्ज़ा कर लिया था और अब सन्हेरीब की नज़र यरूशलेम पर थी। ऐसे में हिज़किय्याह क्या करता? वह यहोवा के भवन में गया और उसने प्रार्थना की: “हे हमारे परमेश्‍वर यहोवा तू हमें उसके हाथ से बचा, कि पृथ्वी के राज्य राज्य के लोग जान लें कि केवल तू ही यहोवा है।”—2 राजा 19:14-19.

6 हिज़किय्याह ने अपनी प्रार्थना के मुताबिक काम किया। यहोवा के भवन में जाने से पहले ही उसने लोगों को निर्देश दिया कि वे रबशाके के तानों का जवाब ना दें। इसके अलावा, हिज़किय्याह ने यशायाह भविष्यवक्‍ता की सलाह जानने के लिए कुछ लोगों को उसके पास भेजा। (2 राजा 18:36; 19:1, 2) इस तरह उसने वह सब किया, जो वह कर सकता था। उसने परमेश्‍वर की मरज़ी के खिलाफ कोई काम नहीं किया। मामले को सुलझाने के लिए उसने मिस्र या पड़ोस के राष्ट्रों से मदद नहीं माँगी। अपनी समझ का सहारा लेने के बजाय उसने यहोवा पर भरोसा रखा। जब यहोवा के स्वर्गदूत ने सन्हेरीब के 1,85,000 सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया, तब सन्हेरीब अपनी सेना लेकर वापस नीनवे “चल दिया।”—2 राजा 19:35, 36.

7. हन्‍ना और योना की प्रार्थनाओं से हमें क्या दिलासा मिलता है?

7 लेवी गोत्र के एल्काना की पत्नी हन्‍ना, बच्चा ना होने के कारण बड़ी दुखी थी लेकिन उसने यहोवा पर भरोसा रखा। (1 शमू. 1:9-11, 18) जब भविष्यवक्‍ता योना ने प्रार्थना की तब उसे बड़ी मछली के पेट से निकाला गया। उसने इस तरह प्रार्थना की: “मैं ने संकट में पड़े हुए यहोवा की दोहाई दी, और उस ने मेरी सुन ली है; अधोलोक के उदर में से मैं चिल्ला उठा, और तू ने मेरी सुन ली।” (योना 2:1, 2, 10) हमें यह जानकर कितना दिलासा मिलता है कि हमारे हालात चाहे कितने ही मुश्‍किल भरे क्यों न हों, हम यहोवा से ‘गिड़गिड़ाकर’ प्रार्थना कर सकते हैं!भजन 55:1, 16 पढ़िए।

8, 9. हिज़किय्याह, हन्‍ना और योना ने अपनी प्रार्थना में क्या चिंताएँ ज़ाहिर कीं? हम इससे क्या सीख सकते हैं?

8 हिज़किय्याह, हन्‍ना और योना की मिसाल हमें सिखाती हैं कि मुश्‍किल दौर में प्रार्थना करते वक्‍त हमें क्या बात याद रखनी चाहिए। हालाँकि तीनों ही भावनात्मक तौर पर बहुत दुखी थे, फिर भी, उनकी प्रार्थनाएँ दिखाती हैं कि वे सिर्फ खुद के बारे में और अपनी परेशानियों से छुटकारा पाने के बारे में ही नहीं सोच रहे थे। उनके लिए परमेश्‍वर का नाम, उसकी उपासना और उसकी मरज़ी पूरी करना सबसे अहम बात थी। हिज़किय्याह यह देखकर बहुत दुखी था कि यहोवा के नाम की निंदा की जा रही है। हन्‍ना ने वादा किया कि वह अपने जिगर के टुकड़े को यहोवा के तंबू में सेवा करने के लिए दे देगी। और योना ने कहा कि “जो मन्‍नत मैं ने मानी, उसको पूरी करूंगा।”—योना 2:9.

9 जब हम मुश्‍किल हालात से निकलने के लिए यहोवा से प्रार्थना करते हैं, तो अच्छा होगा कि हम अपने इरादों को जाँचें। क्या हमारी चिंता सिर्फ यही होती है कि हम अपनी परेशानियों से छुटकारा पाएँ या फिर हम यहोवा और उसके मकसद को भी मन में रखते हैं? कभी-कभी दुख-तकलीफें हम पर इस कदर हावी हो जाती हैं कि हम उनमें उलझकर आध्यात्मिक बातों को धीरे-धीरे दरकिनार करने लगते हैं। इसलिए परमेश्‍वर से मदद के लिए प्रार्थना करते वक्‍त आइए हम अपना पूरा ध्यान यहोवा पर, उसके नाम को पवित्र करने पर और उसकी हुकूमत को बुलंद करने पर लगाए रखें। अगर हम ऐसा करें तो हम उस वक्‍त भी सही नज़रिया बनाए रख पाएँगे, जब हमें अपनी प्रार्थना का जवाब हमारी उम्मीदों के मुताबिक नहीं मिलता। कई बार हो सकता है कि हमारी प्रार्थनाओं का जवाब यही हो कि हम परमेश्‍वर की मदद से धीरज धरते हुए हालात का सामना करें।यशायाह 40:29; फिलिप्पियों 4:13 पढ़िए।

फैसले लेते वक्‍त

10, 11. जब यहोशापात एक ऐसी मुश्‍किल में पड़ा, जिससे निकलने का उसे कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था, तब उसने क्या किया?

10 आप अपनी ज़िंदगी के अहम फैसले कैसे लेते हैं? क्या आप पहले फैसला ले लेते हैं और फिर यहोवा से प्रार्थना करते हैं कि वह आपके फैसले पर आशीष दे? ध्यान दीजिए कि यहूदा के राजा यहोशापात ने तब क्या किया, जब अम्मोनी और मोआबी सेना मिलकर उसके खिलाफ युद्ध लड़ने के लिए आयी। यहूदा किसी भी हाल में उनसे जीत नहीं सकता था। अब यहोशापात क्या करता?

11 बाइबल बताती है कि “यहोशापात डर गया और यहोवा की खोज में लग गया।” उसने पूरे यहूदा में उपवास का ऐलान करवा दिया और सभी लोगों को “यहोवा से सहायता मांगने के लिये” इकट्ठा किया। फिर वह यहूदा और यरूशलेम के लोगों के बीच खड़ा हुआ और उसने प्रार्थना की। उसने इस तरह बिनती की: “हे हमारे परमेश्‍वर, क्या तू उनका न्याय न करेगा? यह जो बड़ी भीड़ हम पर चढ़ाई कर रही है, उसके साम्हने हमारा तो बस नहीं चलता और हमें कुछ सूझता नहीं कि क्या करना चाहिये? परन्तु हमारी आंखें तेरी ओर लगी हैं।” सच्चे परमेश्‍वर ने यहोशापात की प्रार्थना सुनी और एक चमत्कार करके उन्हें छुटकारा दिलाया। (2 इति. 20:3-12, 17) जब हमें फैसले लेने होते हैं, खास तौर पर ऐसे फैसले जिनका यहोवा के साथ हमारे रिश्‍ते पर असर पड़ सकता है, तो हमें अपनी समझ का सहारा लेने के बजाय यहोवा पर भरोसा रखना चाहिए।

12, 13. फैसले लेने के मामले में राजा दाविद ने क्या मिसाल रखी?

12 हमें तब क्या करना चाहिए जब हम किसी ऐसी मुश्‍किल का सामना करें, जिसे सुलझाना शायद हमें बहुत आसान लगे क्योंकि हम पहले भी इस तरह की मुश्‍किल का सामना कर चुके हैं और जानते हैं कि इसे कैसे सुलझाना है? राजा दाविद की ज़िंदगी में हुई एक घटना से हम इसका जवाब पा सकते हैं। जब अमालेकियों ने सिकलग शहर पर चढ़ाई की तब वे दाविद और उसके आदमियों की पत्नियों और बच्चों को बंदी बनाकर ले गए। दाविद ने यहोवा से पूछा, “क्या मैं इस दल का पीछा करूं?” यहोवा ने उसे जवाब दिया, “पीछा कर; क्योंकि तू निश्‍चय उसको पकड़ेगा, और निःसन्देह सब कुछ छुड़ा लाएगा।” दाविद ने यहोवा का कहा माना और ‘जो कुछ अमालेकी ले गए थे वह सब उसने छुड़ा लिया।’—1 शमू. 30:7-9, 18-20.

13 इस घटना के कुछ समय बाद पलिश्‍ती, इसराएल के खिलाफ लड़ने आए। दाविद ने फिर यहोवा से पूछा और उसे साफ-साफ जवाब मिला। परमेश्‍वर ने कहा: “चढ़ाई कर; क्योंकि मैं निश्‍चय पलिश्‍तियों को तेरे हाथ कर दूंगा।” (2 शमू. 5:18, 19) लेकिन पलिश्‍ती एक बार फिर दाविद से लड़ने आ गए। इस बार वह क्या करता? क्या उसने ऐसा सोचा: ‘मैं पहले भी दो बार इस तरह के हालात का सामना कर चुका हूँ। इसलिए इस बार भी मैं परमेश्‍वर के दुश्‍मनों के खिलाफ चढ़ाई करता हूँ, जैसे मैंने पहले किया था।’ या फिर उसने यहोवा से मार्गदर्शन माँगा? दाविद ने अपने तजुरबे पर भरोसा नहीं किया। उसने एक बार फिर यहोवा से प्रार्थना की। उसे कितनी खुशी हुई होगी कि उसने ऐसा किया! जानते हैं क्यों? इस बार उसे जो निर्देश दिए गए, वे पहले से बिलकुल अलग थे। (2 शमू. 5:22, 23) जब हमारे सामने कोई ऐसी परेशानी खड़ी हो जाती है, जिसका सामना हमने पहले भी किया था, तब हमें सावधान रहना चाहिए कि कहीं हम अपने पिछले अनुभव के आधार पर ही फैसले ना ले लें।यिर्मयाह 10:23 पढ़िए।

14. यहोशू और इसराएल के बुज़ुर्गों ने गिबोनियों के मामले में जो फैसला लिया उससे हमें क्या सीख मिलती है?

14 असिद्ध होने की वजह से हम सबको, जी हाँ अनुभवी प्राचीनों को भी, इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि फैसले लेते वक्‍त मार्गदर्शन के लिए यहोवा की ओर देखें। ध्यान दीजिए कि मूसा के बाद अगुवाई लेनेवाले यहोशू और इसराएल के दूसरे बुज़ुर्गों ने तब क्या किया जब चालाक गिबोनियों ने भेष बदलकर किसी दूर देश से आने का ढोंग किया। यहोशू और उसके साथियों ने यहोवा से पूछे बिना उनके साथ शांति की वाचा बाँधी। हालाँकि बाद में यहोवा ने उनके इस फैसले को कबूल किया और उनका साथ दिया लेकिन उन्होंने फैसला लेने से पहले यहोवा से ना पूछने की जो भूल की थी, उसे भी यहोवा ने शास्त्र में दर्ज़ करवाया।—यहो. 9:3-6, 14, 15.

प्रलोभनों का सामना करते वक्‍त

15. समझाइए कि प्रलोभन का विरोध करने के लिए प्रार्थना करना इतना ज़रूरी क्यों है।

15 हमारे अंगों में ‘पाप का कानून’ है, इसलिए हमारा झुकाव पाप की तरफ होता है जिसके खिलाफ हमें हमेशा लड़ना पड़ता है। (रोमि. 7:21-25) इस लड़ाई में जीत हासिल की जा सकती है। कैसे? यीशु ने अपने चेलों को बताया कि परीक्षा का विरोध करने के लिए प्रार्थना करना बहुत ज़रूरी है। (लूका 22:40 पढ़िए।) अगर प्रार्थना करने के बाद भी बुरी इच्छाएँ या बुरे खयाल मन से न जाएँ, तो ज़रूरी है कि हम इस परीक्षा का सामना करने के लिए ‘परमेश्‍वर से बुद्धि माँगते रहें।’ हमें यह यकीन दिलाया गया है कि “परमेश्‍वर अपने सभी माँगनेवालों को उदारता से और बिना डाँटे-फटकारे बुद्धि देता है।” (याकू. 1:5) याकूब यह भी लिखता है: “क्या कोई तुम्हारे बीच [आध्यात्मिक तौर पर] बीमार है? तो वह मंडली के प्राचीनों को बुलाए और वे उसके लिए प्रार्थना करें और यहोवा के नाम से उस बीमार पर तेल मलें। और विश्‍वास से की गयी प्रार्थना उस बीमार को अच्छा कर देगी।”—याकू. 5:14, 15.

16, 17. जब हम प्रलोभन का सामना करने के लिए मदद माँगते हैं तो कब प्रार्थना करना सबसे अच्छा होगा?

16 प्रलोभन का सामना करने के लिए प्रार्थना करना ज़रूरी है, लेकिन हमें सही समय पर प्रार्थना करने की अहमियत का भी ध्यान रखना चाहिए। नीतिवचन 7:6-23 में बताए एक जवान के बारे में गौर कीजिए। देर शाम को वह उस गली से गुज़र रहा है जहाँ एक वेश्‍या रहती है। वह अपनी चिकनी-चुपड़ी बातों से उसे इस तरह फँसाती है कि वह उसके वश में आ जाता है और उसके पीछे हो लेता है जैसे बैल कसाई-खाने को जाता है। वह जवान वहाँ क्यों गया? क्योंकि वह “निर्बुद्धि” था यानी उसे तजुरबा कम था, और वह शायद गलत इच्छाओं से जूझ रहा था। (नीति. 7:7) उसे किस वक्‍त प्रार्थना करने से सबसे ज़्यादा फायदा होता? बेशक, इस परीक्षा के दौरान किसी भी वक्‍त प्रार्थना करना उसके लिए फायदेमंद होता, लेकिन प्रार्थना करने का सबसे बढ़िया वक्‍त तब होता जब उसके मन में उस वेश्‍या की गली में जाने का खयाल पहली बार आया था।

17 आज शायद एक इंसान पोर्नोग्राफी देखने की इच्छा के खिलाफ काफी जद्दोजेहद कर रहा हो। लेकिन तब क्या अगर वह इंटरनेट पर ऐसी वेब-साइटों पर जाए जहाँ वह जानता है कि अश्‍लील तसवीरें और वीडियो पाए जाते हैं। ऐसा करने से क्या वह नीतिवचन अध्याय 7 में बताए जवान की तरह नहीं बन रहा होगा? वाकई, इस रस्ते पर चल पड़ना कितना खतरनाक होगा! पोर्नोग्राफी देखने के प्रलोभन का विरोध करने के लिए एक इंसान को, इंटरनेट की उन गलियों में कदम रखने से पहले ही यहोवा से प्रार्थना में मदद माँगनी चाहिए।

18, 19. (क) प्रलोभन का विरोध करना क्यों एक चुनौती हो सकती है, लेकिन आप इस पर जीत कैसे पा सकते हैं? (ख) आपने क्या करने की ठान ली है?

18 प्रलोभन का विरोध करना या बुरी आदतों पर काबू पाना आसान नहीं। प्रेषित पौलुस ने लिखा: “पापी शरीर की ख्वाहिशें, पवित्र शक्‍ति के खिलाफ होती हैं और पवित्र शक्‍ति, शरीर के खिलाफ है।” यही वजह है कि ‘हम जो कुछ करना चाहते हैं, वही हम नहीं करते।’ (गला. 5:17) इसलिए हमें उस वक्‍त गिड़गिड़ाकर प्रार्थना करनी चाहिए जब बुरे खयाल या प्रलोभन पहली बार मन में आते हैं। इसके बाद हमें अपनी प्रार्थना के मुताबिक काम भी करना चाहिए। हम “ऐसी किसी अनोखी परीक्षा से नहीं गुज़रे, जिससे दूसरे इंसान कभी न गुज़रे हों”, जी हाँ, यहोवा की मदद से हम उसके वफादार रह सकते हैं।—1 कुरिं. 10:13.

19 जब हमें किसी मुश्‍किल का सामना करना होता है, कोई अहम फैसला लेना होता है या फिर प्रलोभन का विरोध करना होता है तब हमें याद रखना चाहिए कि यहोवा ने हमें एक नायाब तोहफा दिया है और वह है प्रार्थना का अनमोल इंतज़ाम। प्रार्थना करने के ज़रिए हम दिखाते हैं कि हम उस पर निर्भर हैं। हमें परमेश्‍वर से उसकी पवित्र शक्‍ति माँगते रहनी चाहिए जो हमें ताकत देती है और सही राह दिखाती है। (लूका 11:9-13) आइए हम हर हाल में यहोवा पर अपना पूरा भरोसा बनाए रखें और अपनी समझ का सहारा ना लें।

[फुटनोट]

^ कुछ नाम बदल दिए गए हैं।

क्या आपको याद है?

• यहोवा पर भरोसा रखने के बारे में आपने हिज़किय्याह, हन्‍ना और योना से क्या सीखा?

• दाविद और यहोशू के उदाहरण कैसे दिखाते हैं कि फैसले लेते वक्‍त हमें सावधानी बरतनी चाहिए?

• प्रलोभन का विरोध करने के लिए किस वक्‍त प्रार्थना करना सबसे फायदेमंद होगा?

[अध्ययन के लिए सवाल]

[पेज 9 पर तसवीर]

प्रलोभन का विरोध करते वक्‍त कब प्रार्थना करने से सबसे ज़्यादा फायदा होता है?