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दुष्ट संसार में “मुसाफिर”

दुष्ट संसार में “मुसाफिर”

दुष्ट संसार में “मुसाफिर”

“सभी [ने] विश्‍वास रखते हुए . . . सब लोगों के सामने यह ऐलान किया कि वे उस देश में अजनबी और मुसाफिर हैं।”—इब्रा. 11:13.

1. सच्चे चेलों का दुनिया से क्या नाता होगा, इस बारे में यीशु ने क्या कहा?

 यीशु ने अपने चेलों के बारे में कहा: “वे इसी दुनिया में हैं।” लेकिन फिर उसने समझाया: “वे दुनिया के नहीं, ठीक जैसे मैं भी दुनिया का नहीं।” (यूह. 17:11, 14) इस तरह यीशु ने साफ-साफ बताया कि “इस दुनिया की व्यवस्था” के बारे में उसके सच्चे चेलों का क्या नज़रिया होगा, जिसका ईश्‍वर शैतान है। (2 कुरिं. 4:4) वे इस दुनिया में जीएँगे तो सही, मगर इसके भाग नहीं होंगे। वे बस “परदेसी और प्रवासी” के तौर पर यहाँ रहेंगे।—1 पत. 2:11.

वे ‘मुसाफिरों’ की तरह जीए

2, 3. यह क्यों कहा जा सकता है कि हनोक, नूह, अब्राहम और सारा ने एक “अजनबी और मुसाफिर” की तरह ज़िंदगी बितायी?

2 शुरू से ही यहोवा के वफादार सेवक इस भक्‍तिहीन संसार के लोगों से अलग रहे। जलप्रलय आने से पहले हनोक और नूह, दोनों सच्चे ‘परमेश्‍वर के साथ साथ चलते रहे।’ (उत्प. 5:22-24; 6:9) इन्होंने बड़ी हिम्मत के साथ शैतान की दुष्ट दुनिया के खिलाफ यहोवा का न्यायदंड सुनाया। (2 पतरस 2:5; यहूदा 14, 15 पढ़िए।) वे इस दुनिया में रहते हुए भी यहोवा के साथ-साथ चले, इसलिए हनोक के बारे में कहा गया कि उसने “परमेश्‍वर को खुश किया” और नूह के बारे में कि वह “अपने समय के लोगों में खरा था।”—इब्रा. 11:5; उत्प. 6:9.

3 परमेश्‍वर के बुलाए जाने पर अब्राहम और सारा ने कस्दियों के ऊर नाम के बड़े शहर की सुख-सुविधा भरी ज़िंदगी छोड़ दी और परदेस में एक बंजारे की ज़िंदगी जीने को तैयार हुए। (उत्प. 11:27, 28; 12:1) प्रेषित पौलुस ने उनके बारे में लिखा: “विश्‍वास ही से अब्राहम ने, जब उसे बुलाया गया, आज्ञा मानी और उस जगह के लिए निकल पड़ा जो उसे विरासत में मिलनेवाली थी। हालाँकि वह नहीं जानता था कि वह कहाँ जा रहा है फिर भी वह गया। विश्‍वास की वजह से वह वादा किए गए देश में ऐसे रहा जैसे एक पराए देश में रह रहा हो। और वह इसहाक और याकूब के साथ तंबुओं में रहा जो उसके साथ उसी वादे के वारिस थे।” (इब्रा. 11:8, 9) ऐसे वफादार सेवकों के बारे में पौलुस ने कहा: “ये सभी विश्‍वास रखते हुए मर गए, हालाँकि जिन बातों का उनसे वादा किया गया था, वे उनके दिनों में पूरी नहीं हुईं। फिर भी, उन्होंने वादा की गयी बातों को दूर ही से देखा और उनसे खुशी पायी। और सब लोगों के सामने यह ऐलान किया कि वे उस देश में अजनबी और मुसाफिर हैं।”—इब्रा. 11:13.

इसराएलियों को चेतावनी

4. अपने देश में बसने से पहले इसराएलियों को क्या चेतावनी दी गयी?

4 आगे चलकर अब्राहम के वंशजों यानी इसराएलियों की संख्या बहुत बढ़ गयी। इसराएल एक राष्ट्र बन गया और यहोवा ने अपने वादे के मुताबिक उन्हें एक देश दिया और कानून भी दिए। (उत्प. 48:4; व्यव. 6:1) इसराएलियों को यह हमेशा याद रखना था कि उनके देश का मालिक यहोवा है। (लैव्य. 25:23) वे किराएदार की तरह थे और अपने मालिक के नियमों को मानना उनका फर्ज़ बनता था। उन्हें यह भी याद रखना था कि “मनुष्य केवल रोटी ही से नहीं जीवित रहता” यानी उन्हें अपने सुख-सुविधा की वजह से यहोवा को नहीं भुलाना था। (व्यव. 8:1-3) अपने देश में बसने से पहले इसराएलियों को यह चेतावनी दी गयी: “जब तेरा परमेश्‍वर यहोवा तुझे उस देश में पहुंचाए जिसके विषय में उस ने इब्राहीम, इसहाक, और याक़ूब नाम, तेरे पूर्वजों से तुझे देने की शपथ खाई, और जब वह तुझ को बड़े बड़े और अच्छे नगर, जो तू ने नहीं बनाए, और अच्छे अच्छे पदार्थों से भरे हुए घर, जो तू ने नहीं भरे, और खुदे हुए कूएं, जो तू ने नहीं खोदे, और दाख की बारियां और जलपाई के वृक्ष, जो तू ने नहीं लगाए, ये सब वस्तुएं जब वह दे, और तू खाके तृप्त हो, तब सावधान रहना, कहीं ऐसा न हो कि तू यहोवा को भूल जाए।”—व्यव. 6:10-12.

5. यहोवा ने इसराएलियों को क्यों ठुकरा दिया और किस नए राष्ट्र को चुन लिया?

5 यह चेतावनी बिलकुल सही थी। जब इसराएली वादा किए देश में बस गए और सुख-सुविधा की ज़िंदगी जीने लगे और भरपूर शराब पीकर और “खा खाकर तृप्त हुए, और हृष्ट–पुष्ट हो गए”, तब वे यहोवा को भूल गए। नहेमायाह के दिनों के लेवियों ने जब इन हालात का ज़िक्र किया तो उनकी आँखें शर्म से झुक गयीं। इसराएलियों ने यहोवा से बलवा किया, यहाँ तक कि उन भविष्यवक्‍ताओं को जान से मार डाला जिन्हें यहोवा ने चेतावनी देने के लिए भेजा था। (नहेमायाह 9:25-27 पढ़िए; होशे 13:6-9) आगे चलकर रोमी साम्राज्य में इन बेवफा यहूदियों ने तो हद ही पार कर दी। उन्होंने वादा किए गए मसीहा की जान ले ली! यहोवा ने उन्हें ठुकरा दिया और उनके बदले अपने लिए एक नए राष्ट्र, आध्यात्मिक इसराएल को चुन लिया।—मत्ती 21:43; प्रेषि. 7:51, 52; गला. 6:16.

“तुम दुनिया के नहीं हो”

6, 7. (क) समझाइए कि सच्चे चेलों का दुनिया से जो नाता होगा उस बारे में यीशु ने क्या कहा? (ख) सच्चे मसीहियों को शैतान की दुनिया का भाग क्यों नहीं बनना था?

6 जैसा कि हमने देखा, मसीही मंडली के सिर, यीशु मसीह ने यह साफ बताया था कि उसके चेले शैतान की इस दुष्ट दुनिया से अलग होंगे। अपनी मौत से कुछ समय पहले यीशु ने चेलों से कहा: “अगर तुम दुनिया के होते तो दुनिया जो उसका अपना है उसे पसंद करती। मगर क्योंकि तुम दुनिया के नहीं हो बल्कि मैंने तुम्हें दुनिया से चुन लिया है, इसलिए दुनिया तुमसे नफरत करती है।”—यूह. 15:19.

7 जब धीरे-धीरे सच्चे मसीही इस दुनिया में फैलते, तो क्या उन्हें दुनिया के तौर-तरीकों को अपना लेना था और उसका भाग बन जाना था? जी नहीं। वे चाहे जहाँ भी रहते उन्हें शैतान की व्यवस्था से अपने आपको अलग रखना था। मसीह की मौत के करीब 30 साल बाद प्रेषित पतरस ने रोम की अलग-अलग जगहों में रहनेवाले मसीहियों को लिखा: “मेरे प्यारो, मैं तुम्हें उकसाता हूँ कि इस दुनिया में परदेसी और प्रवासी होने के नाते शरीर की ख्वाहिशों से अपने आप को दूर रखो, क्योंकि यही वे ख्वाहिशें हैं जो तुम्हारे जीवन के खिलाफ युद्ध करती रहती हैं। दुनिया के लोगों के बीच तुम बढ़िया चालचलन बनाए रखो।”—1 पत. 1:1; 2:11, 12.

8. एक इतिहासकार ने पहली सदी के मसीहियों और दुनिया के बीच के नाते के बारे में क्या बताया?

8 एक इतिहासकार केनथ स्कॉट लाटूरेट ने पुख्ता किया कि रोमी साम्राज्य में मसीही, “परदेसी और प्रवासी” के तौर पर ही जीते थे। उसने लिखा: “यह जग ज़ाहिर है कि पहली तीन सदियों में मसीहियों को लगातार बड़े ज़ुल्मों का सामना करना पड़ा . . . उन पर कई इलज़ाम लगाए गए। वे झूठे धर्म के रीति-रिवाज़ों में हिस्सा लेने से इनकार करते थे इसलिए उन्हें नास्तिक करार दिया गया। वे समाज के मुताबिक नहीं जीते थे मसलन त्योहारों और मनोरंजनों में हिस्सा नहीं लेते थे क्योंकि सच्चे मसीहियों को लगता था कि उनमें झूठे धर्म के विश्‍वास, काम और अनैतिकता झलकती है। इसलिए इंसानियत के दुश्‍मन कहकर उनका तिरस्कार किया गया।”

इस दुनिया का पूरा-पूरा इस्तेमाल न करना

9. हम कैसे इस बात का सबूत देते हैं कि हम “इंसानियत के दुश्‍मन” नहीं?

9 आज हालात कैसे हैं? हम “मौजूदा दुष्ट दुनिया की व्यवस्था” के बारे में वही नज़रिया रखते हैं जो पहली सदी के मसीहियों का था। (गला. 1:4) इस वजह से कई लोग हमें गलत समझते हैं, यहाँ तक कि कुछ लोग हमसे नफरत भी करते हैं। लेकिन हम मसीही, “इंसानियत के दुश्‍मन” नहीं हैं। जब हम ‘परमेश्‍वर के राज की खुशखबरी’ सुनाने के लिए घर-घर जाकर सब लोगों से मिलने की पूरी कोशिश करते हैं, तब हम दिखाते हैं कि हम लोगों से प्यार करते हैं। (मत्ती 22:39; 24:14) हम इसलिए राज की खुशखबरी सुनाते हैं क्योंकि हमें पूरा यकीन है कि यहोवा का राज, जिसकी बागडोर मसीह के हाथ में होगी, जल्द ही असिद्ध इंसानी सरकारों का खात्मा कर देगा और अपनी धर्मी नयी व्यवस्था की शुरूआत करेगा।—दानि. 2:44; 2 पत. 3:13.

10, 11. (क) हम कैसे इस दुनिया का कुछ हद तक इस्तेमाल करते हैं? (ख) किन तरीकों से चौकस मसीही इस दुनिया का पूरा इस्तेमाल करने से दूर रहते हैं?

10 दुनिया का अंत बहुत करीब है इस बात को यहोवा के सेवक हमेशा मन में रखते हैं। इसलिए वे जानते हैं कि यह वक्‍त इस संसार में आराम की ज़िंदगी बिताने का नहीं है। हम प्रेषित पौलुस के इन शब्दों को ध्यान में रखते हैं: “भाइयो मैं यह कहता हूँ, जो वक्‍त रह गया है उसे घटाया गया है। इसलिए . . . जो खरीदते हैं वे ऐसे हों कि उनके पास है ही नहीं। इस दुनिया का इस्तेमाल करनेवाले ऐसे हों जो इसका पूरा-पूरा इस्तेमाल नहीं करते, इसलिए कि इस दुनिया का दृश्‍य बदल रहा है।” (1 कुरिं. 7:29-31) आज मसीही इस दुनिया का इस्तेमाल कैसे करते हैं? दरअसल, वे आज के ज़माने की तकनीकों और संचार के नए-नए तरीकों का इस्तेमाल करके ऐसा करते हैं। इससे वे बाइबल का ज्ञान संसार भर में सैकड़ों भाषाओं में फैला पाते हैं। इसके अलावा, वे नौकरी करके अपनी रोज़ी-रोटी चलाते हैं, साथ ही उन ज़रूरी चीज़ों और सेवाओं का फायदा उठाते हैं जो दुनिया मुहैया कराती है। इस तरह वे दुनिया का इस्तेमाल तो करते हैं मगर पूरा-पूरा नहीं, यानी वे दुनियावी कामों और ऐशो-आराम की चीज़ों को ज़रूरत से ज़्यादा अहमियत नहीं देते।1 तीमुथियुस 6:9, 10 पढ़िए।

11 जो मसीही चौकस होते हैं वे ऊँची पढ़ाई के मामले में भी दुनिया का पूरा इस्तेमाल नहीं करते। आज दुनिया में कई लोग सोचते हैं कि अगर समाज में रुतबा चाहिए या फिर आराम की ज़िंदगी जीनी है, तो ऊँची पढ़ाई करना बेहद ज़रूरी है। लेकिन हम मसीही इस दुनिया में मुसाफिरों की तरह जीते हैं इसलिए हमारे लक्ष्य कुछ और ही हैं। हम “बड़ी-बड़ी बातों पर मन” नहीं लगाते। (रोमि. 12:16; यिर्म. 45:5) हम यीशु के चेले हैं इसलिए उसकी यह चेतावनी मानते हैं: “तुम अपनी आँखें खुली रखो और हर तरह के लालच से खुद को बचाए रखो, क्योंकि चाहे इंसान के पास बहुत कुछ हो, तो भी उसकी ज़िंदगी उसकी संपत्ति की बदौलत नहीं होती।” (लूका 12:15) इसलिए जवान मसीहियों को बढ़ावा दिया जाता है कि वे आध्यात्मिक लक्ष्यों को पाने की कोशिश करें और उतनी ही शिक्षा हासिल करें जिससे वे अपनी बुनियादी ज़रूरतें पूरी कर सकें, साथ ही, ‘अपने पूरे दिल, पूरी जान, पूरी ताकत और पूरे दिमाग से’ परमेश्‍वर यहोवा की सेवा करने के लिए खुद को काबिल बना सकें। (लूका 10:27) ऐसा करके वे परमेश्‍वर की नज़र में धनी बनेंगे।—लूका 12:21; मत्ती 6:19-21 पढ़िए।

ज़िंदगी की चिंताओं तले मत दबिए

12, 13. मत्ती 6:31-33 में दी यीशु की सलाह को मानकर हम दुनिया के लोगों से कैसे अलग दिखायी देते हैं?

12 खाने-पहनने की चीज़ों के बारे में यहोवा के सेवकों का नज़रिया दुनिया से बिलकुल अलग है। इस मामले में यीशु ने अपने चेलों से कहा: “कभी-भी चिंता न करना, न ही यह कहना, ‘हम क्या खाएँगे?’ या, ‘हम क्या पीएँगे?’ या, ‘हम क्या पहनेंगे?’ क्योंकि इन्हीं सब चीज़ों के पीछे दुनिया के लोग दिन-रात भाग रहे हैं। मगर तुम्हारा स्वर्गीय पिता जानता है कि तुम्हें इन सब चीज़ों की ज़रूरत है। इसलिए, तुम पहले उसके राज और उसके स्तरों के मुताबिक जो सही है उसकी खोज में लगे रहो और ये बाकी सारी चीज़ें भी तुम्हें दे दी जाएँगी।” (मत्ती 6:31-33) अपने खुद के अनुभव से कई भाई-बहनों ने पाया है कि हमारा प्यारा परमेश्‍वर ज़रूरत की सारी चीज़ें हमें मुहैया कराता है।

13 “सन्तोष सहित भक्‍ति बड़ी कमाई है।” (1 तीमु. 6:6, हिन्दी - ओ.वी.) लेकिन दुनियावाले ऐसा बिलकुल नहीं मानते। उदाहरण के लिए, कई जवान सोचते हैं कि जब वे शादीशुदा ज़िंदगी शुरू करें तो ‘उनके पास सब कुछ’ हो। जैसे साज़-सामान से भरा एक घर, एक अच्छी कार और नयी-नयी इलेक्ट्रॉनिक चीज़ें। लेकिन जो मसीही एक मुसाफिर की तरह जीता है, वह ना तो बड़ी-बड़ी चाहतें रखता है और ना ही अपनी हैसियत से बाहर की चीज़ें खरीदता है। यह वाकई काबिल-ए-तारीफ है कि कई जवानों ने ऐशो-आराम की ज़िंदगी ठुकरायी है ताकि वे जोशीले प्रचारक के तौर पर यहोवा की सेवा में अपना ज़्यादा-से-ज़्यादा समय और ताकत लगा सकें। दूसरे भाई-बहन पायनियर के तौर पर सेवा करते हैं, तो कुछ बेथेल में हैं, कुछ सफरी काम करते हैं, तो कुछ मिशनरी हैं। जी-जान से यहोवा की सेवा करनेवाले इन संगी उपासकों की हम तहेदिल से कदर करते हैं!

14. हम बीज बोनेवाले की मिसाल से क्या सबक सीख सकते हैं?

14 बीज बोनेवाले की मिसाल में यीशु ने कहा कि “इस ज़माने की ज़िंदगी की चिंता और भ्रम में डालनेवाली पैसे की ताकत” हमारे दिल में बसे परमेश्‍वर के वचन को बढ़ने नहीं देती जिससे हम उसकी सेवा में ठंडे पड़े जाते हैं। (मत्ती 13:22) अगर हम संतोष के साथ मुसाफिरों जैसी ज़िंदगी जीएँ, तो हम इस फँदे में नहीं पड़ेंगे। इसके बजाय, हम अपनी आँख परमेश्‍वर के राज पर ‘टिकाए’ रखेंगे, और इस तरह हम उसकी सेवा में पूरा ध्यान लगा सकेंगे।—मत्ती 6:22.

“यह दुनिया मिटती जा रही है”

15. प्रेषित यूहन्‍ना ने इस दुनिया के बारे में ऐसा क्या कहा जिसका असर मसीहियों के रवैए पर होता है?

15 सच्चे मसीही क्यों खुद को इस संसार में “परदेसी और प्रवासी” समझते हैं? इसकी एक बुनियादी वजह यह है कि हमें यकीन है कि इस दुनिया के दिन बस गिनती के रह गए हैं। (1 पत. 2:11; 2 पत. 3:7) हमारे इस नज़रिए का असर हमारे चुनाव, हमारी इच्छाओं और हमारे लक्ष्यों पर पड़ता है। प्रेषित यूहन्‍ना ने संगी विश्‍वासियों को सलाह दी कि वे ना तो इस दुनिया से और ना ही दुनिया की चीज़ों से प्यार करें क्योंकि “यह दुनिया मिटती जा रही है और इसके साथ इसकी ख्वाहिशें भी मिट जाएँगी, मगर जो परमेश्‍वर की मरज़ी पूरी करता है वह हमेशा तक कायम रहेगा।”—1 यूह. 2:15-17.

16. हम कैसे दिखा सकते हैं कि हमें यहोवा ने अपने लोगों के तौर पर दुनिया से अलग किया है?

16 इसराएलियों से कहा गया था कि अगर वे यहोवा की आज्ञा मानेंगे तो वे ‘सब लोगों में से उसका निज धन ठहरेंगे।’ (निर्ग. 19:5) जब इसराएली वफादार थे तब उनकी उपासना और जीने का तरीका दूसरे राष्ट्रों से बिलकुल अलग था। उसी तरह आज यहोवा ने कुछ लोगों को अपने लिए चुन लिया है जो शैतान की दुनिया में बिलकुल अलग नज़र आते हैं। हमें बताया गया है कि “हम ऐसे चालचलन को त्याग दें जो परमेश्‍वर की मरज़ी के खिलाफ है और दुनियावी ख्वाहिशों को त्याग दें और मौजूदा दुनिया की व्यवस्था में स्वस्थ मन से और परमेश्‍वर के स्तरों पर चलते हुए और उसकी भक्‍ति करते हुए जीवन बिताएँ। और उस वक्‍त का इंतज़ार करते रहें जब हमारी सुखद आशा पूरी होगी और महान परमेश्‍वर की महिमा ज़ाहिर होगी और साथ ही हमारे उद्धारकर्त्ता, मसीह यीशु की महिमा ज़ाहिर होगी। मसीह ने खुद को हमारे लिए दे दिया कि हमें हर तरह के दुराचार से छुड़ाए और शुद्ध कर ऐसे लोग बना ले जो खास उसके अपने हों और बढ़िया कामों के लिए जोशीले हों।” (तीतु. 2:11-14) यहाँ बताए गए “लोग” अभिषिक्‍त मसीही और यीशु की लाखों “दूसरी भेड़ें” हैं, जो अभिषिक्‍त मसीहियों का साथ देतीं और उनकी मदद करती हैं।—यूह. 10:16.

17. अभिषिक्‍त मसीहियों और दूसरी भेड़ों को कभी इस बात का पछतावा क्यों नहीं होगा कि वे इस दुष्ट दुनिया में मुसाफिरों की तरह जीए थे?

17 अभिषिक्‍त लोगों की “सुखद आशा” है कि वे स्वर्ग में मसीह के साथ राज करेंगे। (प्रका. 5:10) जब इस धरती पर हमेशा तक जीने की दूसरी भेड़ों की आशा पूरी होगी तब उनकी ज़िंदगी मुसाफिरों की तरह नहीं होगी। उनके पास अपना सुंदर घर होगा और उन्हें खाने-पीने की कोई कमी नहीं होगी। (भज. 37:10, 11; यशा. 25:6; 65:21, 22) लेकिन इसराएलियों की तरह वे कभी इस बात को नहीं भूलेंगे कि ये सब देनेवाला ‘सारी पृथ्वी का परमेश्‍वर’ यहोवा है। (यशा. 54:5) ना तो अभिषिक्‍त मसीहियों और ना ही दूसरी भेड़ों को इस बात का पछतावा होगा कि वे इस दुष्ट दुनिया में मुसाफिरों की तरह जीए थे।

आप कैसे जवाब देंगे?

• पुराने ज़माने के वफादार सेवकों ने किस तरह मुसाफिरों सी ज़िंदगी गुज़ारी?

• इस दुनिया के बारे में पहली सदी के मसीहियों का क्या नज़रिया था?

• सच्चे मसीही किस हद तक दुनिया का इस्तेमाल करते हैं?

• हमें कभी इस बात का पछतावा क्यों नहीं होगा कि हम इस दुष्ट दुनिया में मुसाफिरों की तरह जीए थे?

[अध्ययन के लिए सवाल]

[पेज 18 पर तसवीर]

पहली सदी के मसीही हिंसक और अनैतिक मनोरंजन से दूर रहते थे