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उन्होंने हिम्मत के साथ परमेश्‍वर के वचन का ऐलान किया!

उन्होंने हिम्मत के साथ परमेश्‍वर के वचन का ऐलान किया!

उन्होंने हिम्मत के साथ परमेश्‍वर के वचन का ऐलान किया!

विरोध के बावजूद हिम्मत और निडरता दिखाना सच्चे मसीहियों की पहचान रही है। पहली सदी के हमारे संगी विश्‍वासियों की तरह हम भी यहोवा से प्रार्थना करते हैं कि वह हमें निडर होकर उसका वचन सुनाने के लिए अपनी पवित्र शक्‍ति दे।—प्रेषि. 4:23-31.

पहले विश्‍व युद्ध के दौरान किए गए प्रचार काम के बार में एक भाई ने लिखा: “परमेश्‍वर के सेवक जोश के साथ स्टडीज़ इन द स्क्रिप्चर्स किताब का सातवाँ खंड बाँट रहे थे, जिसका नाम था द फिनिश्‍ड मिस्ट्री। यह किताब बहुत बड़े पैमाने पर बाँटी गयी थी। सन्‌ 1918 में राज समाचार नं. 1 छापा गया। उसके बाद राज समाचार नं. 2 निकला, जिसमें समझाया गया था कि सरकार ने द फिनिश्‍ड मिस्ट्री पर क्यों रोक लगा दी थी। इसके बाद राज समाचार नं. 3 निकला। वफादार अभिषिक्‍त लोगों ने इन ट्रैक्टों को भी बड़े पैमाने पर बाँटा। राज समाचार को लोगों तक पहुँचाने के लिए वाकई हिम्मत और विश्‍वास की ज़रूरत थी।”

आज नए प्रचारकों को जिस तरह से तालीम दी जाती है, उस तरह पुराने ज़माने में नहीं दी जाती थी। अमरीका में रहनेवाला एक भाई, जो दरअसल पोलैंड का है, 1922 में पहली बार प्रचार में गया। उस दिन को याद करते हुए उसने लिखा: “मुझे इस बात का कोई अंदाज़ा ही नहीं था कि साहित्य कैसे पेश किया जाता है। और-तो-और मुझे ठीक से अँग्रेज़ी बोलनी भी नहीं आती थी। मैं अकेला ही था। मैंने एक डॉक्टर के क्लिनिक का दरवाज़ा खटखटाया और एक नर्स ने दरवाज़ा खोला। वह दिन मैं कभी नहीं भूल सकता। मैं बहुत खुश था, लेकिन डरा हुआ भी था। जैसे ही मैंने अपना बैग खोला, सारी किताबें नर्स के पैरों के पास जा गिरीं। मुझे यह तो याद नहीं कि मैंने उससे क्या बात की, लेकिन हाँ, मैंने उसे पढ़ने के लिए कुछ दिया ज़रूर था। जब मैं वहाँ से निकला, तो मुझमें हिम्मत आ गयी थी और मुझे लगा कि यहोवा ने मुझे आशीष दी है। उस दिन मैंने व्यापार के उस इलाके में बहुत-सी पुस्तिकाएँ बाँटीं।”

एक बहन कहती है, “सन्‌ 1933 के करीब बहुत-से भाइयों ने राज का संदेश फैलाने के लिए लाउडस्पीकर वाली गाड़ियों का इस्तेमाल करना शुरू किया।” एक बार यह बहन और एक और साक्षी जोड़ा, अमरीका के कैलिफोर्निया राज्य के पहाड़ी इलाके में प्रचार कर रहे थे। वह बताती है, “भाई लाउडस्पीकर वाली गाड़ी को पहाड़ों के ऊपर ले गए और हम लोग नीचे नगर में रहे। जब उन्होंने रिकॉर्ड किया हुआ संदेश चलाना शुरू किया, तो ऐसा लगा मानो स्वर्ग से आवाज़ आ रही है। नगर के लोगों ने भाई को ढूँढ़ने की बहुत कोशिश की मगर वे नाकाम रहे। जब रिकॉर्ड बजना बंद हुआ, तब हमने लोगों से मिलकर उन्हें गवाही दी। मुझे भाई-बहनों के साथ दो और लाउडस्पीकर वाली गाड़ियों के ज़रिए प्रचार करने का मौका मिला और मैं आपको यकीन दिला सकती हूँ कि ज़्यादातर लोग हमारे संदेश को सुनना पसंद नहीं करते थे। मगर उनके पास और कोई चारा ही नहीं था। जब गाड़ी से आवाज़ उनके घरों तक पहुँचती तो उन्हें सुनना ही पड़ता था। हमने पाया है कि यहोवा हमेशा सही समय पर सही तरीके का इस्तेमाल करता है। इस तरह गवाही देने के लिए बहुत हिम्मत की ज़रूरत पड़ती थी, मगर यहोवा का मकसद ज़रूर पूरा होता था और उसके नाम की महिमा होती थी।”

सन्‌ 1930 से 1945 के दरमियान प्रचार करने के लिए ग्रामोफोन का इस्तेमाल किया जाने लगा। इस बारे में एक मसीही बहन बताती है: “एक जवान बहन ग्रामोफोन लेकर घर-घर प्रचार कर रही थी। जब उसने एक दरवाज़े पर रिकॉर्ड बजाना शुरू किया, तो घर-मालिक ने गुस्से में ग्रामोफोन को ऐसी लात मारी कि वह बरामदे के बाहर जा गिरा। मगर एक भी रिकॉर्ड नहीं टूटा। एक ट्रक में बैठकर दोपहर का खाना खा रहे तीन आदमियों ने जब यह घटना देखी, तो उन्होंने बहन से कहा कि वह उनके लिए रिकॉर्ड बजाए और फिर उन लोगों ने उससे कुछ साहित्य भी लिए। इससे बहन को थोड़ी तसल्ली मिली।” ऐसी चुनौतियों का सामना करने के लिए बेशक, हिम्मत की ज़रूरत थी।

बहन आगे बताती है: “मुझे याद है कि सन्‌ 1940 में हमने सड़क पर लोगों को पत्रिकाएँ देना शुरू किया था। इससे पहले भाई-बहन गले में पोस्टर लटकाकर सड़क के किनारे एक के पीछे एक कतार में चलते थे। इसे इन्फॉरमेशन मार्च कहा जाता था। ‘धर्म एक फँदा और झाँसा है,’ ‘परमेश्‍वर और राजा मसीह की सेवा कीजिए’ जैसे नारे, इन पोस्टरों पर लिखे होते थे। इस दौरान वे जिन लोगों से मिलते, उन्हें मुफ्त में ट्रैक्ट भी देते। गवाही देने के इन तरीकों में हिस्सा लेने के लिए बहुत हिम्मत की ज़रूरत पड़ती थी, मगर इनसे आम लोग यहोवा और उसके सेवकों के बारे में जान पाते थे।”

एक और बहन कहती है, “छोटे नगरों में सड़कों पर पत्रिकाएँ देना आसान नहीं था। यह उस वक्‍त की बात है जब साक्षियों का बहुत विरोध किया जाता था . . . सड़क के कोने में पत्रिकाएँ हाथ में लेकर खड़े रहने और उन्हें पेश करने के लिए बताए गए नारे दोहराने के लिए वाकई हिम्मत की ज़रूरत पड़ती थी। इसके बावजूद शायद ही ऐसा कोई शनिवार होता जब हम प्रचार में नहीं जाते। कभी-कभार तो लोग अच्छी तरह बातचीत करते लेकिन कभी-कभी गुस्साई भीड़ हमें घेर लेती। कई बार हम भीड़ के इकट्ठा होने से पहले ही चुपके से निकल जाते।”

दूसरे विश्‍व युद्ध के दौरान यहोवा के साक्षियों पर ज़ुल्म ढाए गए, लेकिन इसके बावजूद उन्होंने हिम्मत के साथ अपना प्रचार काम जारी रखा। दिसंबर 1, 1940 से जनवरी 12, 1941 तक 43 दिन का एक अभियान चलाया गया। इस दौरान अमरीका में करीब 50,000 प्रचारकों ने तकरीबन 80 लाख पुस्तिकाएँ बाँटीं। इसे “हिम्मत” गवाही अभियान कहा गया।

कई बुज़ुर्ग भाई-बहनों को अच्छी तरह याद है कि कैसे उन्हें अपने ज़माने में चुनौतियों का सामना करने के लिए हिम्मत से काम लेना पड़ा था। कइयों को याद है कि सालों तक भाई-बहनों की ज़ुबान पर यह नारा था, ‘प्रेस द बैटल टू द गेट,’ जिसका मतलब कुछ इस तरह बनता है: आइए, आखिर तक जोश के साथ प्रचार करते रहें! इससे हमें उनके लाजवाब हिम्मत की एक झलक मिलती है। हम यह तो नहीं जानते कि इस दुष्ट व्यवस्था के अंत के पहले परमेश्‍वर का संदेश और किस तरह से सुनाया जाएगा। लेकिन यहोवा की मदद से हम विश्‍वास और हिम्मत के साथ उसके वचन का ऐलान करते रहेंगे।

[पेज 9 पर बड़े अक्षरों में लेख की खास बात]

राज का प्रचार करने के लिए हमेशा से ही हिम्मत की ज़रूरत पड़ी है