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जीवन कहानी

“तेरे दहिने हाथ में सुख सर्वदा बना रहता है”

“तेरे दहिने हाथ में सुख सर्वदा बना रहता है”

लोइस डीडर की ज़ुबानी

आपने अपनी ज़िंदगी में कितनी बार कहा है, ‘काश! मैंने ऐसा फैसला न लिया होता’? मुझे पूरे समय की सेवा करते 50 साल हो गए हैं, लेकिन यहोवा के दहिने रहते हुए कभी ऐसा नहीं हुआ कि मुझे हमेशा के दुख का अनुभव करना पड़ा हो। चलिए, मैं इसकी वजह बताती हूँ।

मेरा जन्म सन्‌ 1939 में हुआ। मैं कनाडा के सैस्केचवान राज्य के देहाती इलाके में पली-बढ़ी। मेरी चार बहनें थीं और एक भाई था। ऊँचे-ऊँचे घास के मैदानी इलाकों में ज़िंदगी बहुत खुशनुमा थी। एक दिन, यहोवा के साक्षी हमारे घर आए और उन्होंने मेरे पिता से बात की। मैंने उनसे पूछा, ‘क्या परमेश्‍वर का कोई नाम है?’ उन्होंने भजन 83:18 खोलकर हमें यहोवा का नाम दिखाया। तब से मुझमें परमेश्‍वर और उसके वचन के बारे में और जानने की इच्छा पैदा हुई।

उन दिनों, किसानों के बच्चे, गाँव के एक-कमरेवाले स्कूल में आठवीं तक पढ़ाई करते थे। वहाँ पहुँचने के लिए बच्चों को कई मील तक घोड़े पर या पैदल जाना पड़ता था। स्कूल के टीचर की ज़रूरतें उस ज़िले के अलग-अलग परिवार पूरी किया करते थे। फिर वह साल आया जब मेरे माता-पिता को हमारे नए टीचर, जॉन डीडर को हमारे घर ठहराना था।

मुझे पता नहीं था कि जॉन को भी परमेश्‍वर के वचन में गहरी दिलचस्पी है। एक बार जब मैं साम्यवाद और समाजवाद के गुण गा रही थी, जिनके मेरे पिता भी हिमायती थे, तब जॉन ने धीरे से कहा: “किसी इंसान को दूसरे इंसान पर राज करने का हक नहीं है। यह हक सिर्फ परमेश्‍वर का है।” इसके बाद हममें इस विषय को लेकर कई दिलचस्प चर्चे हुए।

जॉन का जन्म 1931 में हुआ था, इसलिए उन्होंने युद्ध की वजह से होनेवाली दुख-तकलीफों के बारे में काफी सुन रखा था। सो जब सन्‌ 1950 में कोरियाई युद्ध छिड़ा, तो जॉन ने कई पादरियों से पूछा कि क्या एक मसीही का युद्ध में शामिल होना सही है। सभी ने कहा कि मसीहियों के लिए हथियार उठाना गलत नहीं है। फिर जॉन ने यहोवा के साक्षियों से वही सवाल किया। साक्षियों ने युद्ध के मामले में बाइबल के सिद्धांत और उसके आधार पर साक्षियों के फैसले के बारे में उन्हें बताया। जॉन ने 1955 में बपतिस्मा ले लिया और अगले साल मैंने भी। हम दोनों का एक ही मकसद था, दिलोजान से यहोवा की सेवा करना। (भज. 37:3, 4) सन्‌ 1957 के जुलाई महीने में हमने शादी कर ली।

कई बार ऐसा हुआ कि हमारी शादी की सालगिरह के वक्‍त हम किसी अधिवेशन में होते। हम खुश थे कि उस खास मौके पर हम ऐसे हज़ारों भाइयों के बीच थे, जो शादी के बंधन का आदर करते हैं। सन्‌ 1958 में हम पहली बार किसी अंतर्राष्ट्रीय अधिवेशन में हाज़िर हुए। हम पाँच लोग कार से न्यू यॉर्क शहर के लिए निकल पड़े। एक हफ्ते तक हमने दिन में गाड़ी चलायी और रात को तंबुओं में सोए। आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि हमें कितनी खुशी हुई होगी जब पेन्सिलवेनिया राज्य के बेतलेहेम में रहनेवाले एक परिवार ने हमें रात को अपने घर ठहरने का न्यौता दिया। उनके इस एहसान की वजह से हम सब साफ-सुथरे न्यू यॉर्क शहर पहुँच पाए। इस बड़े अधिवेशन ने हम पर गहरी छाप छोड़ी। हमने महसूस किया कि यहोवा की सेवा करने से कितना सुख मिलता है! भजनहार ने भी लिखा, “तेरे दहिने हाथ में सुख सर्वदा बना रहता है।”—भज. 16:11.

पायनियर सेवा

एक साल बाद सन्‌ 1959 में हम सैस्केचवान में ही, घासवाली ऊँची पहाड़ी पर एक ट्रेलर (घर-नुमा गाड़ी) में रहने लगे और पायनियर सेवा करने लगे। वहाँ से हमें मीलों दूर का नज़ारा दिखता था, जिसमें से कई मीलों तक के इलाके में हमें प्रचार करना था।

एक दिन शाखा दफ्तर से एक दिलचस्प चिट्ठी आयी। जॉन ट्रैक्टर की मरम्मत कर रहे थे, इसलिए मैं चिट्ठी लेकर उनके पास भागी। चिट्ठी में हमें खास पायनियर के तौर पर ऑन्टेरीयो राज्य के रेड लेक कसबे में सेवा करने का न्यौता दिया गया था। हमें तो पता ही नहीं था कि वह जगह है कहाँ, इसलिए हमने तुरंत एक नक्शा खोलकर उस इलाके का पता लगाया।

अब हम एक छोटे-से कसबे में रहने लगे जो घने जंगल और सोने की खान के करीब था। यह ऊँचे घासवाले उस इलाके से कितना अलग था जहाँ हम पहले रहते थे! वहाँ पहले दिन, जब हम एक महिला से रहने की जगह के बारे में पूछताछ कर रहे थे, तो पड़ोस की एक बच्ची ने हमारी बातचीत सुन ली। वह दौड़कर अपनी मम्मी के पास गयी और उसे हमारे बारे में बताया। उसकी माँ ने हमें उस रात अपने घर के तहखाने में ठहरने की जगह देकर हम पर बड़ा एहसान किया। अगले दिन हमें रहने के लिए जगह मिल गयी। वह दो कमरोंवाला लकड़ी का एक घर था जिसमें न तो नल था, ना ही दूसरा कोई सामान; बस टिन से बना एक चूल्हा था। हमने पुराना माल बेचनेवाले एक दुकान से ज़रूरत की कुछ चीज़ें खरीदीं और हम उसी से संतुष्ट हो गए।

सबसे करीबी मंडली वहाँ से 209 किलोमीटर दूर थी। सोने की खान में काम करने के लिए यूरोप से कई मज़दूर आए थे। उन्होंने हमसे गुज़ारिश की कि हम उन्हें उनकी भाषा में बाइबल लाकर दें। कुछ ही समय के अंदर हम 30 बढ़िया बाइबल अध्ययन चला रहे थे और छः महीने के अंदर एक छोटी-सी मंडली भी शुरू हो गयी।

हम एक ऐसी स्त्री के साथ अध्ययन करते थे जिसके पति को उसका अध्ययन करना बिलकुल पसंद नहीं था। इसलिए एक दिन उसने अपनी बीवी को समझाने के लिए एक पादरी को फोन करके बुलाया। पादरी ने हमसे कहा कि हमें दूसरी बातों के साथ-साथ त्रियेक के बारे में भी सिखाना चाहिए। इस पर उस स्त्री ने अपनी कैथोलिक बाइबल पादरी को थमाते हुए कहा कि वह खुद हमें बाइबल से इसका सबूत दे। पादरी ने बाइबल वहीं टेबल पर पटक दी और कहा कि उसे कोई सबूत देने की ज़रूरत नहीं है। निकलते वक्‍त उसने यूक्रेनियन भाषा में कहा कि हमें घर से निकाल देना चाहिए और कभी अंदर घुसने नहीं देना चाहिए। उस बेचारे को क्या पता था कि जॉन यूक्रेनियन समझते हैं!

कुछ ही समय बाद हमें रेड लेक छोड़ना पड़ा क्योंकि जॉन को सर्किट काम का प्रशिक्षण दिया जाना था। दिलचस्प बात यह हुई कि एक साल बाद, एक ज़िला अधिवेशन में जब जॉन बपतिस्मे का भाषण दे रहे थे, तब बपतिस्मे लेनेवालों में उस स्त्री का पति भी था! उस दिन पादरी का व्यवहार देखकर उसने खुद बाइबल की जाँच करने का फैसला कर लिया था।

सफरी काम में व्यस्त

सर्किट काम में हमने अलग-अलग परिवारों के साथ रहने की अनोखी खुशी का अनुभव किया। हमें जिन-जिन लोगों ने अपने घर ठहराया और अपनी ज़िंदगी का हिस्सा बनाया, हम उन सबके बहुत करीब हो गए। एक बार हमें एक घर के ऊपरवाले कमरे में रहने की जगह दी गयी, जहाँ ठंड से राहत पाने के लिए कोई हीटर नहीं था। सुबह-सुबह हमें अपने कमरे में एक बुज़ुर्ग बहन के चुपके से आने की आहट सुनायी देती, जो एक छोटे-से चूल्हे में आग जलाकर चली जाती। थोड़ी देर बाद वह गरम पानी से भरा एक टब लेकर आती ताकि हम नहा-धो सकें। मैंने उनके शांत और कोमल स्वभाव से बहुत कुछ सीखा।

सफरी काम ने मुझे यहोवा के और करीब आने में मदद दी। एल्बर्टा के एक सर्किट में, दूर उत्तर की तरफ एक खानवाला कसबा था, जहाँ हमारी एक बहन रहती थी। दूर-दराज़ इलाके में रहनेवाली उस बहन के बारे में यहोवा का संगठन कैसा महसूस करता था? हर छ: महीने, हम हवाई-जहाज़ से उसके पास जाते और पूरा हफ्ता उसके साथ प्रचार में बिताते और सभाएँ चलाते, ठीक जैसे हम बड़े शहरों की मंडलियों में करते थे। सचमुच, यहोवा एक चरवाहे की तरह अपने हरेक मेम्ने की परवाह करता है।

हम जिन लोगों के घर ठहरे थे, उनमें से कइयों के साथ हमने संपर्क बनाए रखा। यह मुझे जॉन के दिए पहले तोहफे की याद दिलाता है। उन्होंने मुझे एक रंग-बिरंगा डिब्बा दिया था जिसमें खत लिखने के लिए कागज़ों की एक गड्डी थी। इन्हीं कागज़ों पर खत लिखकर हम अपने दोस्तों की खोज-खबर लेते थे। मैंने आज भी वह डिब्बा सँभालकर रखा है!

जब हम टोरोन्टो में सर्किट काम कर रहे थे, तब कनाडा बेथेल से एक भाई ने फोन करके हमसे पूछा कि क्या हम बेथेल में सेवा करना चाहेंगे। और उन्हें इसका जवाब कब चाहिए था? “हो सके तो अगले ही दिन!” उन्हें जवाब मिल गया।

बेथेल सेवा

यहोवा की सेवा में हमें अलग-अलग काम करने के मौके मिले और हर काम में हमने एक अलग सुख का अनुभव किया, जो यहोवा के दहिने रहने से मिलता है। जब हमने 1977 में अपनी बेथेल सेवा शुरू की, तब भी ऐसा ही हुआ। हम वहाँ कुछ अभिषिक्‍त भाइयों से मिल पाए। हम उनकी अलग-अलग शख्सियत देख पाए और यह भी कि वे परमेश्‍वर के वचन का कितना आदर करते हैं!

बेथेल का माहौल बिलकुल अलग था, और यह हमें भा गया। जैसे, अब हम अपने कपड़े सूटकेस के बजाय दराज़ में रखते थे और अब हम एक मंडली का हिस्सा थे। मुझे जो काम दिया गया था उसके अलावा, मैं लोगों को बेथेल का टूर भी कराती थी। इस काम से मुझे हमेशा ही खुशी मिलती थी। मैं मेहमानों को बेथेल में होनेवाले काम के बारे में बताती, उनके विचार सुनती और उनके सवालों के जवाब देती।

कई साल गुज़र गए। फिर 1997 में जॉन को शाखा समिति के सदस्यों के स्कूल में हाज़िर होने का न्यौता मिला, जिसके लिए हम न्यू यॉर्क के पैटरसन शहर गए। स्कूल के बाद हमसे पूछा गया कि क्या हम यूक्रेन जाना चाहेंगे। हमें इस बारे में बहुत सोच-समझकर और प्रार्थना करके जवाब देने को कहा गया। उस दिन शाम होते-होते हमने फैसला कर लिया कि हमारा जवाब हाँ होगा।

एक और बदलाव—यूक्रेन

हम 1992 में रूस के सेंट पीटर्सबर्ग शहर में हुए एक बड़े अंतर्राष्ट्रीय अधिवेशन में हाज़िर हुए थे। फिर 1993 में हम यूक्रेन के कीव शहर में हुए अधिवेशन में भी गए थे। हमें पूर्वी यूरोप के भाई-बहन बहुत अच्छे लगने लगे थे। अब हमारा घर यूक्रेन में था। हम उस देश के लवीफ शहर में, एक पुराने मकान की दूसरी मंज़िल पर रहने लगे। खिड़की से बाहर देखने पर हमें एक छोटा-सा बगीचा, एक बड़ा लाल मुर्गा और चूज़े दिखायी देते थे। लग रहा था, जैसे हम फिर से सैस्केचवान आ गए हैं। उस घर में 12 जन रहते थे। बेथेल में सेवा के लिए हम हर दिन तड़के ही यहाँ से शहर के लिए निकल जाते थे।

हमें यूक्रेन में रहना कैसा लगा? हमारे कई यूक्रेनी भाई-बहनों को बहुत-सी यातनाएँ सहनी पड़ी थीं, जेल की सज़ा काटनी पड़ी थी और उनके प्रचार काम पर रोक भी लगा दी गयी थी, फिर भी उनका विश्‍वास अटल था। हमें लगता था कि उनके सामने हम कुछ भी नहीं हैं। जब हम उनकी तारीफ करते, तो वे कहते, “हमने तो सब यहोवा के लिए किया!” उन्हें कभी ऐसा नहीं लगा कि यहोवा ने उन्हें छोड़ दिया है। आज भी अगर आप किसी भलाई के लिए उन्हें धन्यवाद दें, तो उनका जवाब होगा, “यहोवा को धन्यवाद दीजिए।” इस तरह वे हर अच्छी चीज़ के लिए सिर्फ यहोवा को श्रेय देते हैं।

यूक्रेन के कई भाई-बहन एक घंटा या उससे भी ज़्यादा समय पैदल चलकर सभाओं में जाते हैं। भला क्यों? ताकि वे रास्ते में बातचीत करते हुए एक-दूसरे की हौसला-अफज़ाई कर सकें। लवीफ में 50 से भी ज़्यादा मंडलियाँ हैं, जिनमें से 21, एक बड़ी इमारत का इस्तेमाल करती हैं जिसमें कई राज-घर हैं। रविवार को जब भाई-बहन लहरों के समान सभाओं के लिए आते हैं, तो वह हसीन नज़ारा देखने लायक होता है!

यूक्रेन के भाई-बहनों के कोमल स्वभाव और परवाह की वजह से हम जल्द ही उनके साथ घुल-मिल गए। जब मैं उनकी भाषा नहीं समझ पाती, जो कि अब भी होता है, तो वे बड़े धीरज से मेरे साथ पेश आते। अकसर उनकी आँखें, उतनी ही खूबसूरती से उनकी भावनाओं को बयान करती हैं, जितने कि उनके शब्द।

भाइयों को एक-दूसरे पर कितना भरोसा है, इसकी एक मिसाल हमने 2003 में कीव में हुए अंतर्राष्ट्रीय अधिवेशन में देखी। हम मेट्रो रेल के भूमिगत स्टेशन की भीड़ से गुज़र रहे थे कि एक बच्ची ने हमारे पास आकर धीरे से कहा, “मैं खो गयी हूँ। मुझे पता नहीं कि मेरी नानी कहाँ हैं।” उस बच्ची ने हमारा बैज कार्ड देख लिया था और उसे मालूम हो गया कि हम साक्षी हैं। वह बड़ी हिम्मतवाली थी और वह बिलकुल नहीं रोयी। हमारे साथ एक सर्किट निगरान की पत्नी थी जिसने प्यार से उसे गोद में उठाया और उसे खोयी हुई चीज़ों को सँभालनेवाले विभाग के हवाले कर दिया। जल्दी ही उसे अपनी नानी मिल गयी! इस बात ने मेरा दिल छू लिया कि हज़ारों की भीड़ में भी उस बच्ची ने साक्षियों पर भरोसा दिखाया!

सन्‌ 2001 की मई में, यूक्रेन की नयी शाखा का समर्पण रखा गया। इसके लिए अलग-अलग देशों से हमारे भाई आए थे। स्टेडियम में रविवार की सुबह के खास भाषण के बाद, बड़ी तादाद में हमारे भाई-बहन पैदल चलकर, नया बेथेल घर देखने आए। वह दृश्‍य आज भी मेरी आँखों में तैर जाता है! उन भाइयों को देखकर मेरे दिल में गज़ब का प्यार उमड़ आया। वे कितनी शांति और सलीके से चले आ रहे थे! यह देखकर यहोवा की सेवा में मिलनेवाले सुख के लिए मेरी कदरदानी और गहरी हो गयी।

एक बड़ा बदलाव

सन्‌ 2004 में पता चला कि जॉन को कैंसर है। हम इलाज के लिए कनाडा चले गए। पहली कीमोथरेपी के बाद उनकी हालत इतनी खराब हो गयी कि उन्हें कुछ हफ्तों के लिए आई.सी.यु में रखा गया। शुक्र है कि उन्हें फिर से होश आया। वे कुछ बोल तो नहीं पाते थे, पर उनकी आँखें इस बात का बयान करतीं कि जो उनसे मिलने आते थे, उनके वे कितने एहसानमंद हैं।

लेकिन वे ठीक नहीं हो पाए और आखिरकार उसी साल नवंबर में उनकी मौत हो गयी। मुझे लगा कि मेरे शरीर का एक बड़ा हिस्सा मुझसे अलग हो गया। हम दोनों ने मिलकर यहोवा की सेवा में बहुत खुशी पायी थी। अब मुझे फैसला करना था कि मैं कहाँ रहूँगी। मैं यूक्रेन लौट गयी। बेथेल परिवार और मंडली के लोगों ने मुझे जो प्यार और परवाह दिखायी, उसके लिए मैं उनकी बहुत एहसानमंद हूँ।

हमारी ज़िंदगी में ऐसा एक भी पल नहीं आया, जब हमें अपने किसी फैसले पर पछताना पड़ा हो। हमारी ज़िंदगी खुशियों से भरी थी और हमें अच्छे दोस्तों का साथ मिला। मैं जानती हूँ कि यहोवा की भलाई के बारे में मुझे अभी बहुत कुछ सीखना है। मैं आशा करती हूँ कि मैं इसी तरह हमेशा उसकी सेवा में लगी रहूँ, क्योंकि मैंने सचमुच ‘यहोवा के दहिने हाथ में सुख’ पाया है!

[पेज 6 पर बड़े अक्षरों में लेख की खास बात]

“हमारी ज़िंदगी में ऐसा एक भी पल नहीं आया, जब हमें अपने किसी फैसले पर पछताना पड़ा हो”

[पेज 3 पर तसवीर]

जब हमारी शादी हुई थी

[पेज 4 पर तसवीर]

जब मैं ऑन्टेरीयो के रेड लेक कसबे में खास पायनियर थी

[पेज 5 पर तसवीर]

सन्‌ 2002 में, जॉन के साथ यूक्रेन में